Author Topic: Mohan Upreti - मोहन उप्रेती: उत्तराखण्डी लोक संस्कृति के संवाहक  (Read 26938 times)

पंकज सिंह महर

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साथियो,
     आप सभी ने उत्तराखण्ड का सदाबहार गीत बेडू पाको बारामासा सुना होगा, इस गीत को सुप्रसिद्ध रंगकर्मी स्व० ब्रजेन्द्र लाल शाह जी ने लिखा था और संगीतबद्ध किया था, उत्तराखण्डी लोक संस्कृति के संवाहक स्व० श्री मोहन उप्रेती जी ने, जिन्हें मोहन दा के नाम से जाना जाता है।
    मोहन दा मात्र एक संगीतकार ही नहीं बल्कि एक कुशल अभिनेता, संस्कृति कर्मी, नाटककार, गीतकार, अनुवादक और लोक गाथाओं के मर्मग्य थे।
   आइये चर्चा करते हैं, इनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर।

पंकज सिंह महर

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मोहन उप्रेती जी का जन्म 1928 में रानीधारा, अल्मोड़ा में हुआ था। ये सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और लोक संगीत के मर्मग्य थे, कुमांऊनी संस्कृति, लोकगाथों को राष्ट्रीय पहचान दिलाने में इनकी अहम भूमिका रही। १९४९ में इन्होंने एम०ए० (डिप्लोमेसी एण्ड इंटरनेशनल अफेयर्स) की डिग्री प्राप्त की। १९५२ तक अल्मोड़ा इण्टर कालेज में इतिहास के प्रवक्ता पद पर कार्य किया। १९५१ में लोक कलाकार संघ की स्थापना की, १९५० से १९६२ तक कम्युनिस्ट पार्टी के लिये भी कार्य किया। इस बीच पर्वतीय संस्कृति का अध्ययन और सर्वेक्षण का कार्य किया। कूर्मांचल के सुप्रसिद्ध कलाकार स्व० श्री मोहन सिंह रीठागाड़ी (बोरा) के सम्पर्क में आये। कुमाऊं और गढ़वाल में अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम किये, वामपंथी विचारधाराओं के कारण १९६२ में चीन युद्ध के समय इन्हें गिरफ्तार कर लिया ग्य और नौ महीने का कारावास भी झेला। जेल से छूटने के बाद अल्मोड़ा और सारे पर्वतीय क्षेत्र से निष्कासित होने के कारण इन्हें दिल्ली में रहना पड़ा। दिल्ली के भारतीय कला केन्द्र में कार्यक्रम अधिकारे के पद पर इनकी तैनाती हुई और इस पद पर यह १९७१ तक रहे। १९६८ में दिल्ली में पर्वतीय क्षेत्र के लोक कलाकारों के सहयोग से पर्वतीय कला केन्द्र की स्थापना की। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्ली में १९९२ तक प्रवक्ता और एसोसियेट प्रोफेसर भी रहे।.......

पंकज सिंह महर

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विश्व स्तर पर गढ़्वाल और कुमाऊं की लोक कला की पहचान कराने में उप्रेती जी का विशिष्ट योगदान रहा है। अपने रंगमंचीय जीवन में इन्होंने लगभग २२ देशों की यात्रा की और वहां सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किये। १९८३ में अल्जीरिया, सीरिया, जार्डन, रोम आदि देशों की यात्राएं की और वहां पर सांस्कृतिक
कलाकारों के साथ पर्वतीय लोक संस्कृति को प्रचारित किया। १९८८ में २४ पर्वतीय लोक कलाकारों के साथ चीन, थाईलैण्ड और उत्तरी कोरिया का भ्रमण किया। श्रीराम कला केन्द्र के कलाकारों के साथ लगभग २० देशों का भ्रमण किया। १९७१ में सिक्किम के राजा नाम्ग्याल ने इन्हें राज्य में सांस्कृतिक कार्यक्रमों को प्रस्तुत करने के लिये विशेष रुप से आमंत्रित किया। अल्मोड़ा में इन्होंने अपने अनन्य सहयोगियों सर्व श्री बृजेन्द्र लाल शाह, बांके लाल शाह, सुरेन्द्र मेहता, तारा दत्त सती, लेनिन पन्त और गोवर्धन तिवाड़ी के साथ मिलकर "लोक कलाकार संघ" की स्थापना की। अपने रंगमंचीय जीवन में श्री उप्रेती जी ने पर्वतीय क्षेत्रों के लगभग १५०० कलाकारों को प्रशिक्षित किया और १२०० के करीब सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किये। राजुला-मालूशाही, रसिक-रमौल, जीतू-बगड़वाल, रामी-बौराणी, अजुवा-बफौल जैसी १३ लोक कथाओं और विश्व की सबसे बड़ी गायी जाने वाली गाथा "रामलीला" का पहाड़ी बोलियों (कुमाऊनी और गढ़वाली) में अनुवाद कर मंच निर्देशन कर प्रस्तुत किया। इसके अतिरिक्त हिन्दी और संस्कृत में मेघदूत और इन्द्रसभा, गोरी-धन्ना का हिन्दी में मंचीय निर्देशन किया।

पंकज सिंह महर

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...मोहन उप्रेती जी भारत सरकार के सांस्कृतिक विभाग की लोक नृत्य समिति के विशेषग्य सदस्य रहे, हिमालय की सांस्कृतिक धरोहर के एक्सपर्ट सदस्य और भारतीय सांस्कृतिक परिषद के भी विशिष्ट सदस्य रहे। देश की प्रमुख नाट्य मंडलियों से इनका सीधा संपर्क रहा, कई नाटकों के संगीतकार रहे, इनमें प्रमुख हैं- घासीराम कोतवाल, अली बाबा, उत्तर रामचरित्त, मशरिकी हूर और अमीर खुसरो।
        लोक संस्कृति को मंचीय माध्यम से अभिनव रुप में प्रस्तुत करने, संगीत निर्देशन और रंगमंच के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिये इन्हें साहित्य कला परिषद, दिल्ली द्वारा १९६२ में पुरस्कृत किया गया। संगीत निर्देशन पर इन्हें १९८१ में भारतीय नाट्य संघ ने पुरस्कृत किया, लोक नृत्यों के लिये संगीत नाटक अकादमी द्वारा १९८५ में पुरस्कृत हुये। हिन्दी संस्थान उ०प्र० सरकार नें इन्हें सुमित्रानन्दन पन्त पुरस्कार देकर सम्मानित किया, वे जोर्डन में आयोजित समारोह में प्रसिद्ध गोल्डन बियर पुरस्कार से भी पुरस्कृत हुये। वे इण्डियन पीपुल्स थियेटर एसोसियेशन (इप्टा) के भी सदय रहे। सलिल चौधरी, उमर शेख और बलराज साहनी के साथ मिलकर कई कार्यक्रम भी प्रस्तुत किये। उनके द्वारा प्रचलित छ्पेली "ओ लाली ओ लाल हौंसिया" की धुन को चुराकर फिल्म "गीत गाया पत्थरों ने" की धुन बनाई गई। १९९७ में उत्तराखण्डी लोक संस्कृति जगत का सितारा हमसे दूर चला गया, इनका गाया और संगीतबद्ध किया गया लोकगीत "बेडू पाको बारा मासा" चिरकाल तक हमें उनकी याद दिलाता रहेगा। जब जवाहर लाल नेहरु जी ने उनके कंठ से यह गीत सुना तो उन्होंने मोहन दा का नाम "बेडू पाको ब्वाय" रख दिया।
      आज यह बेडू पाको ब्वाय भले ही हमसे दूर चला गया हो लेकिन उनके गाये गीत चिरकाल तक हमारे हृदय में उनकी स्मृति को ताजा रखेंगे।

पंकज सिंह महर

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Mohan Upreti was a renowned theatre personality from Almora, an ancient town in the Kumaon region of Uttarakhand, a northern state of India. He married one of his students Naima Upreti (nee Khan) who is also renowed for her singing/voice. He is remembered for his immense contribution to the Kumaoni folk music and for his efforts towards preserving old Kumaoni ballads, songs and folk traditions. In addition to this immensely valuable work, Mohan was instrumental in bringing the Kumaoni culture into national focus by establishing institutions like the Parvatiya Kala Kendra in Delhi ("Center for Arts of the Hills") which, at one time was quite active in producing plays and ballads with strong roots in the Kumaoni culture.

He is particularly remembered for his epic ballad "Rajula Malushahi", his deft presentations of the traditional Ram-Leela, and the play "Haru Heet". He provided music for a number of television productions in the 80's, and his compositions were noticeable for the distinct Kumaoni folk touch.

 

Achievements

Preservation of old Kumaoni ballads, songs and folk traditions.Click here to listen to his famous song Bedu Pako Bara Maasa.
Setting up of Parvatiya Kala Kendra in Delhi,India.

source : uttarakhand.com

पंकज सिंह महर

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सचमुच महान थे मोहन उप्रेती  


वर्ष 1962 में भारत पर चीन के हमले के तत्काल बाद पूरे भारत में कम्युनिस्टों की धर-पकड़ शुरू हो गई थी। यूपी के पर्वतीय क्षेत्र में कार्यरत कम्युनिस्टों को जनवरी-63 में केंद्रीय कारागार, इज्जत नगर, बरेली में स्थानांतरित कर दिया गया था। छह जनवरी की सुबह मोहन दा भी मेरे वार्ड में आ गए, तो मेरा अकेलापन दूर हो गया। जेल सुपरिटेंडेंट मोहम्मद हफीज (नन्हें मियां) अंगरेजों के जमाने में कांग्रेस के दिग्गज नेताओं और प्रसिद्ध क्रांतिकारी एमएन राय जैसे बंदियों के जेलर रह चुके थे। पहली जनवरी की सुबह मेरे जेल में प्रवेश करने के घंटे भर बाद वह मुझसे भेंट करने वार्ड में चले आए थे। मेरी सींकिया पहलवान वाली काया देखकर उन्होंने कहा, ‘आपके लिए आधा किलो अतिरिक्त दूध भिजवा दूंगा और हां, आप यहां अकेलापन कैसे काटेंगे? मैं आपके साथ बैडमिंटन खेलने के लिए किसी जेलर की ड्यूटी लगा दूंगा।’
 तत्कालीन राज्य सरकार की नजर में भले ही मोहन उप्रेती देशद्रोही कम्युनिस्ट थे, लेकिन सही अर्थों में वह एक सच्चे देशप्रेमी और आदर्श नागरिक थे। उनके रचे गीतों ने भारत-चीन युद्ध के दौरान देशवासियों में राष्ट्र-प्रेम की भावना का संचार किया था  
 बहुत जल्द ही हम बंदी साथियों की संख्या बढ़ते-बढ़ते सात हो गई। चौथे वार्ड की पहली बैरक। इसमें चौरासी कैदियों को रखा जा सकता है। रोज सुबह होते ही मोहन उप्रेती के कंठ से संगीतधारा प्रवाहित होने लगती। उसे सुनकर बैरक और वार्ड के अंदर-बाहर तैनात पहरेदार अपनी सुध-बुध भूलने लगते। ऊंची स्वर लहरियां दूसरी बैरकों को भी अपने आवेश में लेने लगतीं। बहुत जल्द ही जेल की अन्य छोटी से छोटी खबरों की तरह सुपरिटेंडेंट के पास यह खुफिया रिपोर्ट भी पहुंच गई कि बी क्लास में सुबह-सुबह एक जादूगर संगीतकार की आवाज फैलने लगती है। मोहन दा के मुंह से स्वर लहरी फूट रही है, ‘भैरवी कहे मनमानी, कोमल सब सुर कर गुनि गावत/ प्रथम पहर की रानी हो...।’
राज्य सरकार ने हमें तनहाई में रख दिया था। सुदूर पहाड़ों से ठेठ बरेली तक आ पहुंचने वाले हमारे मुलाकातियों को बरेली जिला प्रशासन कई दिनों तक भटकाते रहने के बाद मिलने की अनुमति नहीं देता था। मुझसे भेंट करने देहरादून से गोविंद सिंह नेगी आए। उप्रेती से भेंट करने अल्मोड़ा से लोग आए। सभी को निराश लौटना पड़ता था। बरेली जेल में अपने किसी आत्मीय से मेरी पहली भेंट नौ महीनों के लंबे अंतराल के बाद हो पाई थी।
हमारे मुलाकाती नहीं आ पाए, लेकिन बी क्लासियों में एक संगीतकार की मौजूदगी की भनक पाते ही हफीज मियां हमारी बैरक में दौड़े चले आए। वह मोहन दा को साथ लेकर चले गए। चार घंटे बाद मोहन दा बैरक में लौटे। उनके पीछे-पीछे फलों का एक खूब बड़ा टोकरा सिर पर उठाए एक कैदी और उसके पीछे एक पक्का। मालूम हुआ कि हफीज मियां मोहन दा को अपनी कार में बिठाकर बरेली शहर घुमा लाए। वहीं संगीतकार के अन्य साथियों के
लिए एक टोकरा फल खरीदा गया।
वह मोहन दा को केंद्रीय जेल के मुख्य फाटक से बाहर एक दूसरी जेल ‘किशोर सदन’ में भी ले गए। वहां किशोर कैदियों से एक सांस्कृतिक समारोह की तैयारी करवाई जा रही थी। एक गाने-बजाने का शौकीन वार्डर था। उसे उनका उस्ताद बना दिया गया था। हफीज मियां ने तमाम टोलियां मोहन दा के हवाले कर दीं, ‘अब इन्हें आप तैयार करा दीजिए।’फलों के टोकरे के कुछ ही देर बाद एक और कैदी एक हारमोनियम लेकर आया और उसे जमीन पर रख गया। भैरवी मनमानी कहे, न कहे, लेकिन इज्जत नगर सेंट्रल जेल में मोहन दा की मनमानी चलने लगी थी।
मोहन दा दिन-दिन भर किशोर बंदियों को गीत और नाटक की शिक्षा देने में बिताने लगे। अचानक एक दिन राज्य के जेल मंत्री गोविंद सहाय दौरे पर आए। मोहन उप्रेती को हमारे बीच देखकर उन्होंने सुपरिटेंडेंट से उनका परिचय कराया और उन्हें सलाह दी कि वह अपनी जेल में मोहन उप्रेती की मौजूदगी का फायदा उठा लें। हमने उन्हें नहीं बताया कि नन्हें मियां ने उन पर पहले ही डोरे डाल दिए हैं। तब ऐसा हुआ। किशोर सदन के समारोह में राज्य के मुख्यमंत्री चंद्रभानु गुप्ता आए। मोहन दा ने उस्ताद जेल वार्डन के आग्रह पर एक गीत बच्चों को तैयार करवा दिया था। उसके बोल कुछ इस तरह थे-

हमने उन्वाने तमाम को कहानी दी है,
हमने इस देश की धरती को जवानी दी है।
हम तारीखे चमन में रहे लाला बनकर,
हम हर इक दौर में उभरे हैं उजाला बनकर।
सरफरोशी के लिए फिर है इशारा हमको,
मुल्क ने आज फिर इक बार पुकारा हमको॥

राज्य सरकार द्वारा देश की सुरक्षा के लिए खतरनाक घोषित किए गए एक देशद्रोही कम्युनिस्ट मोहन दा उस समारोह की सांस्कृतिक प्रस्तुतियों का परदे के पीछे से संचालन करते रहे। प्रशासन के मुखिया चंद्रभानु गुप्ता को उस भेद की कभी जानकारी नहीं हो पाई। उन्होंने अपने भाषण में उस गीत-नाटिका और उसके प्रस्तुतिकरण की भूरि-भूरि प्रशंसा की। बोले कि अगर ऐसे देशभक्तिपूर्ण गीत और नाटिकाएं पूरे राज्य में दिखाए जा सकें, तो हमारी जनता चीनी हमले का मुंहतोड़ जवाब दे सकती है।
मोहन दा मुझे अपनी गिरफ्तारी के असली कारण बताते थे। चीनी हमले से कुछ समय पहले अल्मोड़ा के मतदाताओं ने नगरपालिका चुनावों में उप्रेती के लोक कलाकार संघ और कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं को भारी बहुमत से विजयी बनाया था। उनके खिलाफ अनर्गल प्रचार करने वाले कांग्रेसी बुरी तरह पराजित हो गए थे। लखनऊ-दिल्ली में बैठा कांग्रेसी शासन उस हार की खलिश को भुला नहीं पाया। उस दौरान पर्वतीय क्षेत्र में साम्यवाद का प्रसार रोकने और ‘चीनी दलालों’ का मुकाबला करने के बहाने जिला प्रशासन कांग्रेसी प्रत्याशियों के लिए खुलेआम सहयोग और समर्थन जुटा रहा था। मोहन उप्रेती और पार्टी कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी का यही राज था।
आठ महीने बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी को नाजायज ठहराते हुए उन्हें जेल से रिहा कर दिया, लेकिन राज्य सरकार ने उसके बाद मोहन दा के पहाड़ों में प्रवेश पर पाबंदी लगा दी। उप्रेती को जीवन के अंतिम क्षणों तक मजबूरन दिल्लीवासी होकर रहना पड़ा।


लेखक - विद्यासागर नौटियाल,  वरिष्ठ साहित्यकार| साभार- अमर उजाला

पंकज सिंह महर

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गोरीधना’ की अनुपम प्रस्तुति


गढ़वाल-कुमाऊं की लोक संस्कृति को जन-जन तक पहुंचाने का काम पर्वतीय कला केंद्र लंबे समय से कर रहा है। स्वर्गीय मोहन उप्रेती द्वारा शुरू की गई यह संस्था विभिन्न शहरों में अपनी संगीत नाट्‌य प्रस्तुतियां करती है और पर्वतीय लोक कला को नए आयाम देती है। पिछले हफ्ते संस्था की ओर से एलटीजी ऑडिटोरियम में कुमाऊं के लोकगीत ‘ऋतुरैना’ पर आधारित ‘गोरीधना’ नामक म्यूजिकल प्ले प्रस्तुत किया गया। ‘ऋतुरैना’ को चैत मास में गाया जाता है। यह एक नन्हे बच्चे बाला सादेओ की कहानी है, जो अपनी बहन गोरीधना से मिलने के लिए तमाम तकलीफें सहकर दूर-देश जाता है। ‘गोरीधना’ के निर्देशक लोकेंद्र त्रिवेदी का कहना है कि उत्तराखंड में ओपेरा की परंपरा बहुत पहले से चली आ रही है। यहां रामलीला के अलावा बहुत-सी कथाएं संगीत नाट्‌य के रूप में प्रस्तुत की जाती हैं। मोहन उप्रेती इस विधा में इतने दक्ष थे कि उन्होंने आधुनिक दृष्टि से उत्तराखंड के पारंपरिक नाट्‌य रूपों को प्रदर्शित किया। उन्हीं की प्रेरणा से यह प्रस्तुति की गई। प्रस्तुत नाट्‌य का संगीत मोहन उप्रेती का ही था। कलाकारों में प्रमुख थे, चंद्रा बिष्ट, अरमान मेहरा, महेंद्र लातवल और पल्लवी शर्मा।

पंकज सिंह महर

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मोहन दा का बेडू पाको गाना इतना प्रसिद्ध हुआ कि पहाडों में शादी हो और बेडू पाको बारामासा न बजे ऎसा होता ही नहीं है...... इस गाने के हर शादी में बजने को लेकर प्रसिद्ध रचनाकार श्री विद्यासागर नौटियाल ने अपनी एक पुस्तक इस गाने के रचयिता स्व० श्री मोहन उप्रेती जी को समर्पित की है जो कि स्वतन्त्रता आन्दोलन में उनके साथी रहे थे.. "मोहन गाता जायेगा" शीर्षक की पुस्तक में नौटियाल जी ने मोहन दा को याद करते हुये लिखा है कि
       " सड़क पर एक बारात जा रही है, बच्चे, बूढे और महिलायें बेडू पाको बारामासा की धुन पर सुध-बुध खोकर नाच रहे हैं, मुझे याद आ गया मोहन का वह चेहरा!  कौन कहता है कि मोहन उप्रेती मर गया, वह देखो सड़क पर जा रहा है मेरा साथी, गाते हुये आज भी उसी तरह और वह मरेगा भी नहीं, वह गाता जायेगा, मोहन गाता जायेगा.............!"

पंकज सिंह महर

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कहानी अजर-अमर लोकगीत "बैङू पाको बारामासा" की



कहते हैं जीवन में हर क्षण का महत्व है, और एक क्षण में जीवन परिवर्तित करने की क्षमता होती है. इसी तरह एक छोटी सी घटना ने बदला उत्तराखण्ड के संगीत का चेहरा. उत्तराखण्ड लोक संगीत का सबसे लोकप्रिय, कर्णप्रिय गीत "बैङू पाको बारामासा" कैसे रचा गया? आइये जानें "पहाड 9-10" में प्रकाशित श्री ब्रजेन्द्र लाल शाह जी द्वारा लिखित एक संस्मरण के इस अंश के माध्यम से –

याद आ रही है जाखन देवी (अल्मोडा) की एक शाम. वहाँ दुकानों में एक छोटे से झुरमुट में उदेसिंह का रेस्तरां था. जिसे हम लोग उदय शंकर का होटल कहते थे. उस शाम मैं गुजर रहा था उद्दा की दुकान के सामने से. अचानक दुकान की सबेली में खडे मोहन (मोहन उप्रेती) ने आवाज दी.

“कहाँ जा रहा है ब्रजेन्द्र? यहाँ तो आ!”

“क्या है यार? घूमने भी नहीं देता.” मैं खींझ कर उदेसिंह की दुकान में घुस गया. कमरे की बेंच पर हम बैठ गये. उसके सामने ही लगी हुई लकड़ी की खुरदुरी 'रस्टिक' मेज थी. मोहन कुछ उत्तेजित सा लग रहा था. मेज को तबला मानकर वह उसमें खटका लगा कर एक पूर्व प्रचलित कुमाऊंनी गीत को नितान्त नई धुन तथा द्रुतलय में गा रहा था.वह बार-बार एक ही बोल को दुहरा रहा था. उस गीत की यह नई चंचल धुन मुझे भी बहुत अच्छी लगी.
गीत था-


बैङू पाको बारामासा.... हो नरैण काफल पाको चैता मेरी छैला.
रूणा भूणा दिन आयो
हो नरैण पुजा म्यारा मैता मेरी छैला.

मोहन बार-बार यही धुन दुहरा रहा था.
“अरे भाई… आगे तो गा….” मैं बेसब्र होकर बोला.
“यार ब्रजेन्द्र आगे तो मुझे भी नहीं आता....किसी के मुंह से सुना था.तर्ज भूल गया इसी लिए नई धुन बना रहा हूं. इसके आगे कुछ लिख.” पास ही लकडी की फर्श पर 'सीजर' सिगरेट का खाली डिब्बा पडा था. मैने उठाया उखाड़ कर खोला.... उदेसिंह से पेंसिल लेकर उस बोल को आगे बढाने का प्रयास प्रारंभ कर दिया.

गीत की मात्राओं के हिसाब से मुझे स्व. चन्द्रलाल वर्मा (कुमाऊँनी कवि) द्वारा बतलाए गए न्योली गीत के कुछ बोल याद आये और रुचे. मैने न्योली गीतों की कुछ पंक्तियाँ तथा कुछ उसमें अपनी तरफ से जोड कर गीत को पूरा कर दिया और मोहन के प्रयास से यह विश्व विख्यात लोकगीत बन गया.


साभार-http://hempantt.blogspot.com/

पंकज सिंह महर

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MOHAN UPRETI-A MAN & HIS ART

मोहन दा के व्यक्तित्व और कृतित्व पर श्री दीवान सिंह बजेली जी ने एक पुस्तक लिखी है, द हिन्दू में उसकी समीक्षा निम्नानुसार छपी थी।

A BOOK ON A REVOLUTIONARY ARTIST "MOHAN UPRETI: A MAN & HIS ART"    
       It was the decade before Independence — the most poignant years in recent Indian history. While the majority of the freedom fighters threw themselves behind Gandhiji and his peaceful resistance, there was a minor group of radicals that saw Subhash Chandra Bose as its messiah and there was a third group that subscribed wholeheartedly to the Communist doctrine — Mohan Upreti belonged to this Marxist group. Upreti's birthplace (1928), Almora, Uttarakhand, had a very rich folk tradition that was relatively untouched by centuries of British rule, because the colonialists did not attempt to develop this hilly terrain as they did Shimla and Nainital. The place considered itself blessed by the visits of Swami Vivekananda and Rabindranath Tagore and of course found itself on the Indian cultural map after Uday Shankar started his famous school of dance here in 1937.
      At the same time, strangely enough, Almora also attracted trade union leaders, the best known amongst them being professor P.C. Joshi, who went on to become one of the most outstanding leaders of the Communist Party of India (CPI) and Upreti's mentor.
As part of the great social awakening at the end of the Second World War two major associations came into being — the Indian People's Theatre Association (IPTA) and the Progressive Writer's Forum. Upreti, while a student at the Allahabad University, threw himself behind the theatre movement; he then started his own group, Lok Kalakar Sangh (earlier United Artists). Artistic expression apart, theatre was to serve a purpose.
He believed that culture and art should not be treated as different aspects of society but as the manifestation of man's very struggle to better his conditions. A heightened social consciousness was essential to carry forward the work with the masses.
      He identified fully with Paul Robeson, the celebrated all-American black singer-actor who, on visiting the Soviet Union in 1934 made strong Left-wing commitments. During the McCarthy era in 1950 he had to pay for his Left predilection when the U.S. withdrew his passport.

Theatre movement

Despite all his trailblazing efforts to showcase and popularise the Kumaoni folk tradition, especially his music compositions for theatre productions, Upreti had to suffer the consequences of his Communist leanings during the Chinese aggression in 1960. Upreti, the darling of theatregoers, was suddenly seen as a Chinese sympathiser and taken into custody. While languishing behind bars for 10 months, Upreti became involved in a jail production along with some of his earlier comrades.

After the ceasefire Upreti was let out of the prison, but he was not allowed to enter Almora. He slowly began to pick up his threads in Delhi with the support of patrons like Sumitra Charatram.

Pioneer folk artist


He formed the Parvatiya Kala Kendra and composed enduring music for stage performances like Mudra Rakhshas, Alibaba and Uttar Ramcharit. His legendary folk song, `Bedu Pako Bara Masa' was publicly performed first in the presence of visiting dignitaries, Khrushchev and Bulganin. In fact Nehru was so moved by the performance that he dubbed Upreti the `Bedu Pako boy'. In 1955 thanks to comrade Joshi, the song became a rage in the Soviet Union and the East European countries (perhaps next only to Raj Kapoor's Awaara!) Musical theatre came to be associated with Mohan Upreti and he continued to provide unforgettable music till he breathed his last in 1997.

     Diwan Singh Bajeli, theatre critic and artist, described in the foreword as a "hill man", has made a sincere attempt to paint a portrait of a revolutionary artist, a product of his times and the vicissitudes he faced. Only half of the book deals with the biography. The rest, apart from notes, are a compilation of Upreti's own writings, appraisals of his work and some of his verses in original Devanagiri.

       However, the book leaves an aftertaste — as something hastily put together (where was the hurry?) the language, the editing, the proofing — should all have passed through professional hands — surely the National School of Drama owed that much to a pioneer?


MOHAN UPRETI — The Man and His Art: Diwan Singh Bajeli; Pub.by National School of Drama, Bhahawalpur House, Bhagwandas Road, New Delhi-110001. Rs. 300

 

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