घुंघरु
घुंघरु वैसे तो मुख्यतः नृत्य का वाद्य है, लेकिन उत्तराखण्ड में इसे और जगह भी इस्तेमाल किया जाता है, वैसे तो अभी गांवों में भी बच्चों के पांव में इन्हें बांधा जाता है।
उत्तराखण्ड में इसे जांठ (लाठी) में बांधा जाता था, जिससे रास्ते में आने वाले सांप, बिच्छू आदि इसकी आवाज सुनकर समीप न आंये। साथ ही पैदल चलने वाले का मन भी लगा रहता था और अकेले चलने में उसे बोरियत भी नहीं होती थी, लोकगीतों में भी इसे उदधृत किया गया है-
शेरसिंगा पतरौला- तेरी जांठी में घुंघुर छन.......
जांठी को घुंघुर सुवा, जांठी को घुंघुर,
कैथे कुनु दुख-सुख, कौ दिछ हुडुर।
इसके अलावा इसे महिलाये भी अपनी दांतुली में बांधा करती थी जो घास काटते समय उनका मन भी लगाये रहती थी और घास में छिपे सांप बिच्छुओं को भी दूर भगाती थी, ऎसी दरांती को छुणक्यानी दांतुली कहा जाता था।
ओ! मेरी घस्यारी वे, दांतुली को छुड़का बाजो,
दांतुली छुणक्याली वे दातुली को छुडका बाजो