ढोल को दिलाई नई पहचान
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जिस ढोल को एक दौर में उत्तराखंडी समाज हेय दृष्टि से देखता था, वही आज राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उत्तराखंड के सम्मान का प्रतीक बन गया है। भारत ही नहीं, आस्ट्रेलिया से लेकर अमेरिका तक इस सदियों पुरानी कला के संरक्षण को कार्य हो रहे हैं।
लेकिन, ढोल एवं ढोलियों को समाज की मुख्यधारा की तरफ लाने वाले प्रो.दाताराम पुरोहित इससे संतुष्ट नहीं है। वह ढोल एवं ढोलियों को वह सम्मान एवं रुतबा दिलाना चाहते हैं, जिसके वे वास्तव में हकदार हैं।
हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर में अंग्रेजी के प्राध्यापक प्रो.पुरोहित को कला-संस्कृति के प्रति आगाध श्रद्धा है। वर्ष 1987 में उन्होंने ढोल एवं उसके वादन का डाक्यूमेंटेशन करने के लिए साथी कला प्रेमियों के साथ 'हिमालय ताल वाद्य वृंद' की शुरुआत की। साथ ही भुवनेश्वरी महिला आश्रम के सहयोग से 'ढोल, ढोली और ढोल वादन' किताब भी लिखी। वर्ष 2000 में देहरादून की 'रीच' संस्था का समन्वयक रहने के दौरान उन्होंने ढोल के अभिलेखीकरण का कार्य आरंभ किया।
इसके लिए छह राज्यों से ढोली बुलाए गए और विशेषज्ञों की एक टीम ने उसका अभिलेखीकरण किया। टीम में कुमाऊं विवि के संगीत विशेषज्ञ प्रो.विजय कृष्ण, लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी, आस्ट्रेलियाई संगीत विशेषज्ञ एंड्रयू आल्टर और गुजरात के तबला विशेषज्ञ राजेश जोशी व निखिल मोले शामिल थे। बाद में लोकगायक नेगी के निर्देशन में इससे 'हिमालयी नाद' की रचना हुई, जिसमें अलग-अलग बीस पारंपरिक वाद्यों का समावेश था।
एसबीएमए के सहयोग से उन्होंने सोहनलाल व सुकारु दास को पहला गढ़वाली आर्केस्ट्रा बनाने के लिए प्रेरित किया। साथ ही इस टोली को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मंचों तक पहचान भी दिलाई। श्रीनगर बैकुंठ चतुर्दशी मेले में पहली बार औजियों की कला का प्रदर्शन उन्हीं के प्रयासों से हो पाया। ढोल सागर की प्रस्तुति में उन्होंने सोहनलाल की टीम के साथ पंडित की भूमिका निभाई।
न्यू इंग्लैंड यूनिवर्सिटी से ढोल पर पीएचडी कर रहे आस्ट्रेलियाई नागरिक एंड्रयू ऑल्टर और यूनिवर्सिटी ऑफ इलेनऑय से पीएचडी कर रहे अमेरिकी नागरिक स्टीफन फियोल ने भी उनके साथ रहकर ढोल की बारीकियां सीखीं।
Source Dainik Jagran