कौथिग में बिखरे लोकसंस्कृति के रंग
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लोकवादकों ने पारंपरिक वाद्ययंत्र ढोल -दमौ की स्वरलहरियां बिखेरी तो बच्चों ने गढ़वाली लोक संस्कृति के विविध रंग। फिर भला कवि कहां पीछे रहने वाले थे। गढ़वाली रचनाकारों ने महंगाई, भ्रष्टाचार समेत समसामयिक विषयों को उकेरा ही, पहाड़ की पीड़ा को भी बखूबी बयां किया। मौका था गढ़वाल भ्रातृ मंडल संस्था क्लेमनटाउन की ओर से सुभाषनगर में राज्य स्थापना दिवस के उपलक्ष्य में उत्तराखंड के शहीदों को समर्पित 'गढ़ कौथिग मेला एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम' के आगाज का।
सुभाषनगर में गुरुनानक रोड पर शनिवार को शुरू हुए गढ़ कौथिग में ढोल-दमौ वादकों ने जब ढोल-दमौ पर मधुर स्वलहरियां छेड़ी तो सभी झूम उठे। इसके बाद बारी थी गढ़वाली रचनाकारों की। कवि सम्मेलन में उन्होंने अपनी रचनाओं से सोचने पर मजबूर कर दिया। शांति प्रकाश 'जिज्ञासु' ने महंगाई की पीड़ा को कुछ इस तरह व्यक्त किया-'गरीबी टूंडा टिपणी च, अमीरी मोती लुटणी च, जीणु भौत मुश्किल च, मैंगि तलवार लगणी च'। कालिका प्रसाद नवानी ने कहा 'मैंगी सब्जी, अनाज अर पिट्रोल हुयूंच, मौंटेक थैं सैरों मा बत्तीस की पगार सेठों की दिखेणी च'। भ्रष्टाचार पर तंज कसते हुए लोकेश नवानी का दोहा 'लपट्यां भ्रष्टाचार मा जैका खुट्टा हाथ, क्या मजबूरि च कि हम देणा वैको साथ'। मणि भारती ने पहाड़ की पीड़ा उकेरते हुए कहा-'तिबारि डंड्याली सूनि, उरख्यलि पंदेरि झम, कख गैनि खुदेड़ गितु की गांदरि घसेनी झम'।
Source dainik jagran