मित्रो इन प्रचलित “चार आंखरों” को पहाड में अनेक अवसारो अनेक प्रकार से गाया जाने वाला ठैरा। इन में पहले के दो आंखर तो गाने के बोलों को मिलाने के लिये यूं ही कल्पना से जोड दिया जाने वाला हुवा जो कि गायक की कल्पनाशीलता और काबलियत पर निर्भर होने वाला हुवा लेकिन आखिर के दो आंखर अपने में एक गूढ अर्थ लिये लिये जिसका खास महत्व ठैरा। कुछ प्रयास कर रहा हूं....
(हेम पंत ज्यू को और पंकज महर ज्यू को मेरे से ज्यादा मालूम ठैरा हो उम्मेद है कि वो जरूर कुछ इस बारे में बतायेंगे)
सेरि में उज्याडो खायो,
सफेदा सांसि ले ।
आग लागो दीनो खानो,
धौ हुंची हंसी ले ॥
(भावार्थ: कुछ देना या कुछ खिलाने से क्या फायदा, हंसते - हंसाते रहो उसी से इच्छा पूरण होती है). (गूढार्थ : बेमन से कुछ देने या खिलाने से अच्छा है साफ मन से हंस्ते हंसाते रहो)
गाड तरी,गधेरि तरी,
कै रौली तरुंलो ।
तु सुवा अमर रये,
मैं आफी मरुंलो ॥
(अपने ‘सुवा’ अर्थात जीवनसाथी के लिये इस से बडी कामना क्या हो सकते है = तू अमर रहना तेरे बदले में भले ही मैं मर जाऊं).
हल्द्वानी का पाला टुका,
खोदनि नहर ।
या तो दीजा गैली माया,
या दीजा जहर ॥
(परिणय निवेदन का ऐसा स्वरूप देखा है? या तो दिल की गहराई से प्यार कर अन्यथा जहर देदे )
अस्मानी जहाज उडो,
रंगून डाकै को ।
पंख हुनी उडी ऊनी,
मैं बिना पाखै को ॥
(बिरह में ब्याकुल नारी अपने स्वामी को जो दूर सरहद पर है इस तरह अपनी बिवसता का बयान कर रही है काश कि मेरे पंख होते - उड कर तेरे पार पहुंच जाती किंतु दुख की बात ये है कि मै बिना पंखों की हूं)