Uttarakhand > Music of Uttarakhand - उत्तराखण्ड का लोक संगीत
Some Exclusive Kumaoni Folk Songs- कुछ प्रसिद्ध कुमाऊंनी लोकगीतों का संग्रह
एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
Song on Bhumiya Devta.
ओ आज देवा वरदैन है जाया ,ओ भूमियाल देवो |
ओ देवी तुमि स्योव दियो बिद,ओ हो भूम्याल देवो |
ओ आज देवा वरदैन है जाया ,ओ हो भूम्याल देवो |
ओ देवा खोई को गनेस , ओ हो गनेस देवा |
ओ देवा मोरी को नरेना , ओ हो नरैन देवा |
ओ आज देवा वरदैन है जाया ,ओ हो बासुकी नागा |
ओ आज देवा वरदैन है जाया ,ओ सरग इन्दर |
ओ आज देवा वरदैन है जाया ,ओ बागेसर बागनाथा |
आज देवा तुमन चडूलो रे सुना को कलस ||
एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
यो सेरी का मोत्यूं तुम भोग लागला हो |
स्योव दिया विद हो |
यों भूमि को भूमियाँ बरदैन हया हो |
रोपारों तोपारों बरोबरी दिया हो |
हालिया बलदा बरोबरी दिया हो |
हात दिया छावा हो , बियों दिया फ़ारो हो |
पंचनाम देवो हो !!
भावार्थ -
इस खेत मे पैदा होने वाले धानों के मोती के समान चावल आपको भोग लगायेंगे |
हे देव ,आप छाया प्रदान कीजिये , वर्षा रोक लीजिये |
हे इस भूमि के अधिपति देव , आप अनुकूल रहिये ,कृपालु रहिये |
रोपाई के इन पौधों से टोकरी भर - भर कर धान दीजिये |
हलवाहा और बैल समान रूप से परिश्रमी दीजिये |
रोपाई करने वाले श्रमिकों को दक्षता दीजिये , उनके हाथ तेज चलें और
पौधे सारे खेत के लिए पर्याप्त हों |
हे पंचनाम देव , आप कृपा कीजिये !!
(कुमाऊँ का लोक साहित्य )
Provided by Prayag Pande
एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
कुमाऊनी लोक गीत और लोक संगीताक प्रेमियों लिजी आज भौत पुराण बाल गीत चै लै रयों | तो लियो आज य बाल गीतक आनन्द लीजियो _
झुलील्ये झुली भावा झुली लै |
पुरवी को पिंगढ्यों लो |
पछिम को हावा |
झुली लै भावा |
तेरी ईजू पलुरिया घास जाई रैछ |
तेरा लिजिया भावा
चुचि भरि ल्याली , चड़ी मारि ल्याली |
चुचि खाप लैलै भावा |
चड़ी खेल लगाले होलि लै होलि |
चुंगरी तोड़लै भावा |
खातडी फाड़लै |
तेरि छत्तर राजगद्दी , बड़ी - बड़ी हौली लै |
कुमवी को जौल खाले , अजुवा को पानी |
गुदडी में सोई रौले .होलि लै होलि लै ||
भावार्थ :
ओ मेरे नन्हे , सो जा मेरे बच्चे |
पूर्व की ओर से आयेगी पीली गेंद (सूर्य )|
पश्चिम से आ रही होगी हवा |
सो जा मेरे मुन्ने , सो जा |
माँ तेरि गई है पुरलिया घास लाने |
तेरे लिए ओ बच्चे
वह स्तन पर दूध लायेगी , चिड़िया मार लायेगी |
तू माँ का स्तन पान करेगा ओ नन्हे |
तू चिड़िया से खेलेगा , सो जा मुन्ने सो जा |
तू फिर चुगरा तोड़ेगा |
और अपने गद्दे फाडेगा |
तेरा छत्र होगा , बड़ी राजगद्दी होगी |
तू कुमई की खिचड़ी खायेगा और सोते का पानी पीएगा |
गुदड़ी में सोया रहेगा , सो जा मुन्ने सो जा ||
- कुमाऊ का लोक साहित्य
Courtesy - Prayag Pandey
एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
हो सरग तारा , जुन्याली रात|
को सुनलो यो मेरी बात ?
पाणी को मसिक सुवा पाणी को मसिक |
तू न्है गये परदेस मैं रूंली कसीक ?
हो सरग तारा ,जुन्याली रात ,को सुनलो यो मेरी बात ?
विरहा कि रात भागी , विरहा की रात |
आखन वै आंशु झड़ी लागी वरसात |
हो सरग तारा ,जुन्याली रात ,को सुनलो यो मेरी बात ?
तेल त निमडी गोछ ,बुझरोंछ बाती |
तेरी माया लै मेडी दियो सरपे कि भांति |
हो सरग तारा ,जुन्याली रात ,को सुनलो यो मेरी बात ?
अस्यारी को रेट सुवा, अस्यारी को रेट |
आज का जईयां बटी कब होली भेंट |
हो सरग तारा ,जुन्याली रात ,को सुनलो यो मेरी बात ?
एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
Prayag PandeAugust 7महंगाई की मार से रोजमर्रा के जीवन में पेश आ रही परेशानियों को व्यक्त करता एक बहुत पुराना लोक गीत आपके लिए ढूढ कर लाया हूँ | सो लीजिये इस कालजयी लोक गीत का लुत्फ़ उठाईये ------
तिलुवा बौज्यू घागरी चिथड़ी , कन देखना आगडी भिदडी |
खाना - खाना कौंड़ी का यो खाजा , हाई म्यार तिलु कै को दिछ खाना |
न यो कुड़ी पिसवै की कुटुकी , चावल बिना अधियाणी खटकी |
साग पात का यो छन हाला , लूण खाना जिबड़ी पड़ छाला |
न यो कुड़ी घीये की छो रत्ती , कसिक रैंछ पौडों की यां पत्ती |
पचां छटटा घरूं छ चा पाणी , तै पर नाती टपुक सु चीनी |
धों धिनाली का यो छन हाला , हाय मेरा घर छन दिनै यो राता |
दुनियां में अन्याई है गई , लडाई में दुसमन रै गई |
सुन कीड़ी यो रथै की वाता , भला दिन फिर लालो विधाता |
साग पात का ढेर देखली , धों धिनाली की गाड बगली |
वी में कीड़ी तू ग्वाता लगाली ||
भावर्थ :
ओ तिलुवा के पिताजी , देखो यह लहंगा चीथड़े हो गया है , देखना यह फटी अंगिया |
खाने को यह भुनी कौणी रह गई , मेरे तिलुवा को कौन खाना देगा |
इस घर में मुट्ठी भर भी आटा नहीं , पतीली में पानी उबल रहा है , पर चावल नहीं हैं |
साग सब्जी के वैसे ही हाल है , नमक से खाते - खाते जीभ में छाले पड़ गए हैं |
इस घर में तो रत्ती भर भी घी नहीं है , अतिथियों को कैसे निभाऊ |
पाचवें - छठे दिन चाय बनाने के लिए पानी गर्म करती हूँ , पर घर में चखने भर को चीनी नहीं है |
वैसा ही हाल दूध - दही का है , हाय , मेरे घर तो दिन होते ही रात पड़ गई |
संसार में अन्याय बढ़ गया है , लडाई - झगड़ों में लोग एक - दुसरे के शत्रु बन गए हैं |
ओ कीड़ी , तुम मतलब की यह बात सुनो , विधाता हमारे अच्छे दिन फिर लौटा देगा |
तुम साग - सब्जी के ढेर देखोगी इस घर में , दूध - दही की नदियाँ बहेंगी ,
और कीड़ी तुम उसमें गोते लगाओगी ||
(कुमांऊँ का लोक साहित्य )
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