"बास हे घुग्ति"
बास हे घुग्ति, डाळ्यौं मा बैठि,
मैनि लगिं छ चैत की,
ऐगि मौळ्यार, सजि धजिं छन,
डांडी मेरा मैत की.......
पाख्यौं मा फ्यौंलि, मुल-मुल हैंसणि,
सारी मेरा मैत की,
तेरु बासणु, कनु भलु लगणु,
फूल्यारि मैनि चैत की......
अबरि अयुं छौं, मैत मैं अपणा,
खुद नि लगणि मैत की,
बास बास तू, प्यारी हे घुग्ति,
रौंत्याळि मैनि चैत की......
स्वाळि पकोड़ी, खाणु छौं घुग्ति,
थगोलि दाळ भात की,
कथगा सवादि, लग्दि छन
लगड़ी ब्वै का हात की.....
मैत मा अपणा, दगड़्यौं दगड़ि,
सुण हे घुग्ति मैत की,
कथगा ऊलार, रीत रसाण,
ऊलारया मैनि मैत की.....
"बास हे घुग्ति", डाळ्यौं मा बैठि,
बोन्नि बैठिं पास,
कवि "जिज्ञासु", दूर प्रदेश,
होयुं छ ऊदास.........
कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित-"बास हे घुग्ति" प्रकाशित यंग उत्तराखंड, मेरा पहाड़ पर १३.४.२०१०)