१० सितम्बर, १८८७ को अल्मोड़ा जनपद के खूंट गांव में जन्मे गोबिंद बल्लभ पंत ला जीवन युवाओं में नई स्फुर्ति व ऊर्जा का संचार करता है। अनेक परेशानियों के बावजूद भारत मां और उत्तराखण्ड के इस महान सपूत ने जिस प्रकार से स्वाधीनता संग्राम से लेकर उ०प्र० की बागडोर सम्भाली, वह निश्चित रुप से प्रेरणा दायक है। बचपन का अधिकतर समय अपनी ननिहाल में गुजारने वाले पंत जी कुशाग्र बुद्धि के धनी होने के साथ ही धीर-गंभीर थे, जिस कारण उन्हें बचपन में प्यार से "धपुआ" भी पुकारा जाता था।
पंत जी के बारे में बताया जाता है कि जब वह छठी कक्षा में पढ़ते थे, उनसे टीचर ने पूछा कि "यदि ३० गज कपड़े को एक गज प्रतिदिन के हिसाब से काटा जाय तो वह कितने दिन में कट जायेगा" उनकी कक्षा के सभी छात्रों ने उत्तर दिया कि ३० दिन। लेकिन पंत जी ने उत्तर दिया कि " वह २९ दिन में कट जायेगा, क्योंकि आखिरी टुकड़ा २९ वें दिन स्वतः ही कट जायेगा।"
वर्ष १९०३ में हाईस्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी मॆं उत्तीर्ण करने के साथ ही राज्य में तीसरा स्थान प्राप्त किया। इंटार की परीक्षा द्वितीय श्रेणी से उत्तीर्ण करने के बाद पंत जी आगे की शिक्षा के लिये इलाहाबाद चले गये। वहां उन्होंने मयूर सेंट्रल कालेज से बी०ए० और ला कालेज से कानून की परीक्षा पास की। युवावस्था से ही पंत जी का रुझान राजनीति की ओर बढ़ने लगा और उन्होंने महात्मा गांधी के आह्वान पर वकालत छोड़कर कुंमाऊ (तत्कालीन सम्पूर्ण उत्तराखण्ड, टिहरी रियासत को छोड़कर) में राजनीतिक जागृति फैलाने का काम करने लगे।
इसी क्रम में उन्होंने कुमाऊ परिषद की स्थापना की तथा कुली बेगार प्रथा के खिलाफ अभियान चलाया। १९२३ में वह उत्तर प्रदेश (तब संयुक्त प्रान्त) विधान परिषद के सदस्य चुने गये। १९३७ से लेकर १९३९ तक वह संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री भी रहे, १९४६ से १९५४ तक उ०प्र० के मुख्यमंत्री और १९५५ से लेकर १९६१ तक भारत सरकार में गृह मंत्री रहे। समाज और राष्ट्र के प्रति उनकी सेवाओं को देखते हुये उन्हें २६ जनवरी, १९५७ को भारत रत्न से अलंकृत किया गया। पक्षाघात हो जाने के कारण ७ मार्च, १९६१ को इस महान सेनानी का निधन हो गया।