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उत्तराखण्ड के वीर सेनानी- Brave soldier of Uttarakhand

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पंकज सिंह महर:
साथियो,
      देवभूमि उत्तराखण्ड  वासियों की कुछ चारित्रिक विशेषतायें हैं, ये हैं- स्वाभिमान, शौर्य, देश भक्ति और सन्तोष। इन्हीं गुणों से सराबोर है उत्तराखण्ड का अतीत और वर्तमान, हमारी गौरव गाथायें विश्व भर में अपना उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इस क्षेत्र के लोगों के शौर्य और रणकुशलता से अंग्रेज भी इतने प्रभावित थे कि उन्होंने इतने दूरुह, छोटे और पिछड़े क्षेत्र के लोगों के लिये अलग से रेजीमेन्ट स्थापित की थीं।
     इस टोपिक के अन्तर्गत हम उत्तराखण्ड के उन्हीं नौनिहालों तथा रणबांकुरों का परिचय देने का प्रयास करेंगे।

पंकज सिंह महर:
आनरेरी कैप्टेन उत्तम सिंह सामन्त (क्षत्रिय) Uttam Singh Samant (kshatriya)


उत्तम सिंह सामन्त (जिन्हें अंग्रेज अधिकारियों द्वारा क्षत्रिय कहा गया था) ग्राम उड़ई, देवलथल, जनपद पिथौरागढ़ के रहने वाले थे। इनका जन्म १९०८ में हुआ था।
द्वितीय विश्व युद्ध का सूरमा, अपनी श्रेणी का अकेला राजभक्त, युद्ध क्षेत्र में अपूर्व शौर्य प्रदर्शन के लिये "मार्शल क्रास" और "मिलेट्री क्रास इन वार" सम्मान से सम्मानित।
     १६ अप्रैल, १९४४ को कोहिमा का ऎतिहासिक युद्ध समाप्त हुआ और २७ मई, १९४५ को प्रकाशित अंग्रेजी सरकार के गजट में सूबेदार उत्तम सिंह क्षत्रिय की जोरदार तारीफ की गई और उन्हें "मार्शल क्रास" से सम्मानित किया गया। राजस्थान रायफल्स के राजपूत सैनिकों ने इनके सम्मान में निम्न पंक्तियों को युद्ध भूमि में लड़ाई का मजमून बनाया- "लक्ष्मीबाई की कहां राख है, सिर से उसे लगा लें हम, उत्तम सिंह का कहां क्रोध है, गात रक्त गरमा लें हम" 
       द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हिटलर की मृत्यु के बाद अखिल विश्व में अपनी हूकुमत की इच्छा रखने वाले जापान ने भारतीय सीमा तक घेर ली थी। यह खबर पाते ही आसाम रायफल्स के कमांडिंग आफीसर ने सूबेदार उत्तम सिंग के नेतृत्व में १६ वीं प्लाटून आपू पहाड़ी पर भेज दी। २ अप्रैल, १९४४ को उत्तम सिंह अपनी प्लाटून लेकर आराधूरा नामक टीले पर पहुंचे। जापानी सेना मिनिस्टर हिल की तरफ आगे बढ़ रही थी, यहीं पर सूबेदार उत्तम सिंह ने जापानी टुकड़ी को अपने कब्जे में ले लिया। इस आपरेशन में जापानी सेना के १५ जवान मारे गये, हमले में जापानी कमाण्डर तराकोने भाग निकला। हैड क्वार्टर लौटते ही इन्हें जापान अधिकृत कोकीटीला और टेनिस ग्राउण्ड जाने का हुक्म हुआ, इस पूरे क्षेत्र पर जापानी सेना का कब्जा था। यहीं पर शहीदों की याद में अंग्रेज बादशाह जार्ज पंचम ने दुनिया की सबसे बड़ी वार सिमेट्री बनवाई थी। इसी वार सिमेट्री के पास उत्तम सिंह ने सिपाही अमर बहादुर थापा को साथ लेकर जापानी सेना के ओ०पी० को धराशाई किया था। फलस्वरुप १६१ इण्डियन इन्फेन्ट्री ब्रिगेड की सारी यूनिटें आगे बढ़ सकीं। आठ घंटॆ के भयंकर युद्ध के बाद जापानी सेना मोर्चा छोड़कर भाग गई और कोकोटीला पर ब्रिटिश सेना का कब्जा जो गया। किन्तु आगे जेल हिल के पास उत्तम सिंह को दुश्मन की गोलियों ने घायल कर दिया, इनका सारा शरीर छलनी हो गया, इनके शरीर को दुश्मनों ने संगीनों से घोंप डाला। शिलांग मिलेट्री हास्पिटल में इनके शरीर से १२ गोलियां निकाली गई। इसी बहादुरी के सम्मान स्वरुप इन्हें "मार्शल क्रास" से सम्मानित किया गया।

       ..............छह महीने के इलाज के बाद सूबेदार उत्तम सिंह को फिर से युद्ध क्षेत्र में जाने का हुक्म हुआ। कोहिमा से १६१ इण्डियन इन्फैन्ट्री ने कूच कर सामरा तथा होमलिन में पड़ाव डाल रखा था। उधर यू रिवर के पास १९ इण्डियन डिवीजन का कब्जा था, लेकिन ब्रह्मपुत्र और इरावदी नदी के पार जापानी सैनिकों का कब्जा था। उत्तम सिंह अक्टूबर १९४४ में चिनमिन दरिया पार कर साइपू पहुंचे तो कर्नल स्टेनली ने इन्हें इरावदी नदी पार करने का हुक्म दिया, नाव से जब ये नदी पार कर रहे थे तो दुश्मन ने इन पर हमला बोल दिया, लेकिन अपने बुलन्द हौसले के बल पर सूबेदार उत्तम सिंह नदी पार पहुंच गये, लेकिन दुश्मनों ने इन्हें फिर से घेर लिया। रात के अन्धेरे का फायदा उठाकर जब ये लोग चमू पहुंचे तो यहां इन्हें सूचना मिली कि आसाम रायफल्स के कई जवान और कर्नल बोन जापानियों के हाथों मारे गये हैं और शेष बटालियनें भी वापस जा चुकी हैं। आखिर फरवरी, १९४५ में ये लोग सेबू के डिवीजन हैड क्वार्टर पहुंचे, मांडले पर १५,४ और ३३ ब्रिटिश कोर का घेरा था। चिनमिन तथा इरावदी नदी के बीच जनरल मोहन सिंह के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज भी वहां पर लड़ रही थी, उत्तम सिंह इस इलाके में महीनों गश्त करते रहे, इसी दौरान उन्होंने जापानियों पर हमला कर जापान द्वारा निर्मित लड़ाई का महत्वपूर्ण नक्शा अपने कब्जे में ले लिया। उसी नक्शे के आधार पर इन्होंने जापान पर हमला कर दिया और उसे तबाह कर दिया।  ११ अगस्त, १९४५ को जापान ने आत्म समर्पण कर दिया, जापान की तबाही के बाद लार्ड माउण्टबेटन ने मांडाले पर यूनियन जैक लहराया। इस कुशल अभियान के बाद सूबेदार उत्तम सिंह को दिल्ली में वायसराय लार्ड बेथल ने "मिलेट्री क्रास इन वार" से दोबारा सम्मानित किया। जूनियर होते हुये भी इन्हें सूबेदार मेजर बना दिया गया। इस पद पर यह १९६४ तक रहे।
     १९६४ में इन्हें भारत के राष्ट्रपति डा० एस० राधाकृष्णन का प्रमुख ए०डी०सी० बनाया गया, अनपढ़ होते हुये भी इन्हें कम्पनी कमाण्डर का पद दिया गया। २६ नवम्बर, १९६८ को ३९ सालों की शौर्य से भरी सराहनीय सैन्य सेवा के बाद इन्होंने अवकाश ग्रहण कर लिया। सेवा निवृत्त होने के बाद यह अपने पैतृक गांव उड़ई, देवलथल आ गये और १० साल तक ग्राम सभा के सभापति रहे। अपनी जिन्दगी भर उत्तमों में उत्तम रहे उत्तम सिंह राष्ट्र के लिये गौरव हैं।

***श्री शक्ति प्रसाद सकलानी जी द्वारा लिखित उत्तराखण्ड की विभूतियां से साभार टंकित

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
Rajesh Singh Adhikari


Major Rajesh Singh Adhikari, MVC was an Indian Army officer who died during the Kargil War. He was posthumously awarded the second highest Indian military honour - the Maha Vir Chakra for bravery on the battlefield.

Early life
Rajesh Singh Adhikari was brought up in Nainital, a picturesque hill station in northern India. He attended the prestigious St. Joseph's College and Kumaon University at Nainital.


[edit] Life in the Indian Army
He attended the Indian Military Academy, a premier military acdamey in India. After passing out of the Academy, he joined the 18th Grenadiers[Mech. Infantry] of the Indian Army.


[edit] Death
When heavy fighting broke out in the Kargil region of the Indian state of Jammu and Kashmir owing to planned infiltration by militants backed by the Pakistan army, the Indian Army was ordered to clear the heights of those intruders. Many tough battles took place in the region. It was one of the most significant battles, the Battle of Tololing, where Rajesh made a valiant sacrifice. He was posthumously awarded the second highest Indian Army decoration - Maha Vir Chakra for his actions in the battle.

http://en.wikipedia.org/wiki/Rajesh_Adhikari

पंकज सिंह महर:
सूबेदार चन्द्र सिंह बसेड़ा (चन्दरी चन्द्र) Chandra Singh Basera (Chandri chandra)

जन्म- १८९० के आस-पास,
ग्राम- भण्डारी गांव, देवलथल,
पिथौरागढ़।
प्रथम विश्व युद्ध का अलबेला रणबांकुरा और कुमाऊं रेजीमेण्ट का कल्पना शिल्पी।

प्रथम विश्व युद्ध लगभग अन्तिम चरण पर था, ब्रिटिश सेनायें अन्तिम दम तक लड़कर जर्मन और तुर्क सेनाओं को पछाड़ने का प्रयास कर रही थीं। अंग्रेज सैनिक अफसर इराक के मेसापोटामिया मैदान में तैनात तुर्क सेनाओं के मोर्चे को विफल करने के उद्देश्य से भारतीय सैनिकों की छिन्न-भिन्न टुकड़ियों को एकत्र कर रहे थे। इसी क्रम में दिसम्बर, १९१६ में बर्मा मिलेट्री पुलिस से २०० कुमाऊंनी सैनिकों को ३७ डोगरा रेजीमेन्ट में सम्मिलित कर दजला नदी के कुट सेक्टर के समीप बने एम २० पोस्ट पर भेजा गया। दूसरे किनारे पर तुर्क सेनायें डटी थीं, १२ फरवरी, १९१७ को १०२ ग्रिनेडस के कप्तान क्रिस्टी के नेतृत्व में कुट क्षेत्र पर आक्रमण हुआ, जिसमें ग्रिनेडस को भारी नुकसान उठाना पड़ा। परन्तु दूसरे प्रयास में एम २० मोर्चे को कामयाबी मिल गई। ३७ डोगरा रेजीमेन्ट की २ कम्पनियों का उन्हें सहायता पहुंचाने तुरन्त जाना पड़ा, इसी कम्पनी में सूबेदार चन्द्र सिंह बसेड़ा तैनात थे। दजला नदी के इस सपाट तट पर आगे बढ़ रहे इन भारतीय सिपाहियों को तुर्क सेना द्वारा की गई भारी मशीनगन फायरिंग झेलनी पड़ी, जिसमें भारी जनहानि हुई। दोनों ब्रिटिश अफसर शहीद हो चुके थे, इन नाजुक क्षणों में अपने विवेक तथा साहस का परिचय देते हुये सुबेदार चन्द्र सिंह बसेड़ा ने कम्पनी की कमाण्ड अपने हाथों में ले ली और तोपखाने के झण्डे को फहराते हुये, गोलियों की बौछार के बीच बढ़ते हुये फतह हासिल करके ही दम लिया। इससे तुर्क सेना का मनोबल टूट गया और ब्रिटिश सेना अपने मकसद में कामयाब हुई।
       इस वीरता भरे कारनामे को अंतिम क्षण पर अंजाम देने वाले सूबेदार चन्द्र सिंह बसेड़ा को युद्ध क्षेत्र में ही आई०ओ०एम० (इण्डियन आर्डर आफ मैरिट) से सम्मानित किया गया, यह भारतीय सैनिको को दिये जाने वाला उस समय का सर्वोच्च सम्मान था। उस समय तक विक्टोरिया क्रास केवल ब्रिटिश सैनिकों को ही दिया जाता था। उनके लिये जंगी इनाम अलग से घोषित किया गया, यद्यपि कुमाऊं क्षेत्र युद्ध भूमि में शौर्य के उदाहरणों से भरा पड़ा है, लेकिन शौर्य की उस परम्परा के जनक होने का श्रेय सूबेदार चन्द्र सिंह बसेड़ा को ही जाता है। श्री बसेड़ा को इस शौर्य प्रदर्शन के लिये विक्टोरिया क्रास न दे पाने की ग्लानि ब्रिटिश अधिकारियों में भी थी, इसलिये अंग्रेज अधिकारियों ने बसेड़ा जी से उनकी किसी और अभिलाषा के लिये पूछा गया। उन्होंने कुमाऊंनी सैनिकों के लिये अलग से रेजीमेन्ट के गठन की इच्छा व्यक्त सी, यही नहीं कुमांऊनी सम्मान का सर्वोच्च प्रतीक "टोपी" पहनने की इच्छा भी प्रकट की। इस साहसी और पराक्रमी सैनिक का प्रस्ताव अंग्रेजी शासन द्वारा तुरन्त ही मान लिया। इसी के फलस्वरुप २३ अक्टूबर, १९१७ को ले०कर्नल ई०एम०लंग के नेतृत्व में पृथक कुमाऊनी बटालियन का जन्म रानीखेत में हुआ।

पंकज सिंह महर:
उत्तराखण्ड की शौर्य परम्परा का निर्वहन करते हुये तीन सपूतों ने विगत वर्ष अपने प्राणों का उत्सर्ग किया, जिस हेतु गणतंत्र दिवस के अवसर पर महामहिम राष्ट्रपति, भारत सरकार ने उन्हें मरणोपरान्त अशोक चक्र (शांति काल में दिया जाने वाला सर्वोच्च वीरता पुरस्कार) प्रदान किया।
         हमें गर्व है इन शहीदों पर, इनका नाम उत्तराखण्ड के इतिहास में स्वर्णाक्षरों से अंकित हो गया है।

श्री मोहन चन्द शर्मा, निरीक्षक, दिल्ली पुलिस

श्री मोहन चन्द शर्मा, इन्सपेक्टर, दिल्ली पुलिस को 19 सितम्बर 2008 को एक खास सूचना मिली कि दिल्ली श्रृंखलाबध्द बम धमाकों के संबंध में वांछित एक संदिग्ध व्यक्ति जामिया नगर, दक्षिणी दिल्ली क्षेत्र में स्थित बाटला हाउस के एक फ्लैट में छिपा हुआ है।

श्री शर्मा सात सदस्यीय दल का नेतृत्व करते हुये तुरंत उस फ्लैट पर पहुंचे। ज्यों ही उन्होंने फ्लैट में अन्य दरवाजे से प्रवेश किया, उनको फ्लैट के अंदर छुपे हुये आतंकवादियों की ओर से गोलीबारी का पहली बौछार लगी। निर्भीकता के साथ उन्होंने गोलीबारी का जवाब दिया। इस प्रकार शुरू हुई दोनों तरफ की गोलीबारी में दो आतंकवादी मारे गये तथा एक पकड़ा गया।

श्री मोहन चन्द शर्मा ने आतंकवादियों से लड़ते हुये अनुकरणीय साहस कर्तव्यपरायणता का प्रदर्शन किया तथा राष्ट्र के लिए सर्वोच्च बलिदान दिया।

13621503 हवलदार बहादुर सिंह बोहरा
10वीं बटालियन पैराशूअ रेजिमेंट (विशेष बल)

हवलदार बहादुर सिंह बोहरा जम्मू-कश्मीर के लवांज के सामान्य क्षेत्र में तलाशी आपरेशन हेतु तैनात आक्रमण दल के स्क्वाड कमांडर थे। उन्होंने 25 सितम्बर, 2008 को शाम 6.15 बजे आतंकवादी दल को देखा तथा उन्हें बीच में ही रोकने के लिए शीघ्रता से आगे बढ़े। इस प्रक्रिया के दौरान, हवलदार बहादुर सिंह बोहरा शत्रु की भारी गोलीबारी की चपेट में आ गये। निर्भीकता के साथ वह आतंकवादियों पर टूट पड़े तथा उनमें से एक को मार गिराया। तथापि, उन्हें गोलियों के गहरे घाव लगे। सुरक्षित स्थान पर ले जाये जाने से इंकार करते हुये उन्होंने आक्रमण जारी रखा तथा बिल्कुल नजदीक से दो और आतंकवादियों को मार गिराया।

इस प्रकार, हवलदार बहादुर सिंह बोहरा ने आतंकवादियों के विरुध्द लड़ाई में अत्यधिक असाधारण वीरता का प्रदर्शन किया तथा राष्ट्र के लिए सर्वोच्च बलिदान दिया।


4073611 हवलदार गजेन्द्र सिंह
पैराशूट रेजिमेंट/51 स्पेशल एक्शन ग्रुप

27 नवम्बर, 2008 की रात हवलदार गजेन्द्र सिंह, नरीमन हाउस, मुंबई में आतंकवादियों द्वारा बंधक बनाये गये लोगों को बचाने के लिए किये जा रहे आपरेशन में अपनी टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे थे। भवन की अंतिम मंजिल से आतंकवादियों का सफाया करने के बाद वे उस जगह पर जा पहुंचे जहां पर आतंकवादियों ने मोर्चा ले रखा था। ज्यों ही वे अंदर दाखिल हुये, आतंकवादियों ने ग्रेनेड से उन्हें घायल कर दिया। अडिग रहकर वह गोलियां बरसाते रहे और प्रतिपक्षी की भारी गोलियों का सामना करते हुये उन्होंने आतंकवादियों को घेर लिया। इस कार्रवाई में उन्होंने एक आतंकवादी को घायल कर दिया और अन्यों को कमरे के अंदर ही वापस लौटने के लिए मजबूर कर दिया। उन्होंने मुठभेड़ जारी रखी लेकिन घावों के कारण वे वीरगति को प्राप्त हो गये।

हवलदार गजेन्द्र सिंह ने अति प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद उत्कृष्ट वीरता का प्रदर्शन किया और आतंकवादियों के खिलाफ लड़ते हुये राष्ट्र के लिए सर्वोच्च बलिदान दिया।

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