Uttarakhand > Personalities of Uttarakhand - उत्तराखण्ड की महान/प्रसिद्ध विभूतियां

Chandra Singh Garhwali : वीर चन्द्र सिंह "गढ़वाली"

<< < (2/10) > >>

पंकज सिंह महर:
भारत सरकार द्वारा इनकी याद में दिनांक 23 अप्रैल, 1994 को एक डाक टिकट जारी किया।


पंकज सिंह महर:
30 अप्रैल, 1930 को हुए ऐतिहासिक पेशावर कांड और उसके नायक वीर चंद्रसिंह गढ़वाली पर पीतांबरदत्त डेवरानी का विजारोत्तजेक आलेख

नगाधिराज हिमालय के नाभिकांड में स्थित गढ़वाल अपने पराक्रम, शौर्य और अप्रतिम देशभक्ति के लिए सुविख्यात है। 2/18 रायल गढ़वाल राइफल्स के गढ़वाली सैनिक ने वीर चंद्रसिंह गढ़वाली के नेतृत्व में सन् 1930 में पेशावर में निहत्थे देशभक्त पठानों पर गोली चलाने से इनकार कर साम्राज्यवादी अंग्रेजी शासन की चूलें हिला दी थीं और इस प्रकार देशभक्ति का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया था। दुर्भाग्य की बात है कि वीर चंद्रसिंह गढ़वाली और पेशावर कांड को आजादी के बाद जो स्थान और सम्मान मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला। जब भी सही ढंग से स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास लिखा जाएगा, पेशावर कांड के वीर नायक चंद्रसिंह गढ़वाली और उनके साथियों को सम्मान स्मरण किया जाएगा। यदि ऐसा नहीं हुआ तो वह स्वतंत्रता संग्राम का सच्चा इतिहास नहीं हो सकता। चंद्रसिंह गढ़वाली के लिए गांधीजी ने कहा था कि, ‘मेरे पास बड़े चंद्रसिंह गढ़वाली जैसे चार आदमी होते तो देश कभी का आजाद हो गया होता। मृत्युशय्या पर लेटे पंडित मोतीलाल नेहरू ने कहा था कि, ‘वीर चंद्रसिंह गढ़वाली को देश न भूले। उसे ‘गढ़वाली' को हमारे नेता और इतिहासकार क्यों और कैसे भूल गए, यह हमारे सामने एक गंभीर विचारणीय प्रश्न है। जिस ‘गढ़वाली' ने पेशावर कांड द्वारा साम्राज्यवादी अंग्रजों को यह बताया था कि वह भारतीय सैनिकों की बंदूकों और संगीनों के बलबूते पर अब हिंदुस्तान पर शासन नहीं कर सकते, उसकी इतनी उपेक्षा क्यों हुई- इतिहासकारों को इसका जवाब देना होगा।गढ़वाल के सुदूर उत्तरांचल में एक सामान्य कृषक श्री जाथलीसिंह भंडारी के परिवार में ग्राम रौणी सेरा मासौ पट्टी चौथान में चंद्रसिंह का जन्म हुआ था। उस समय गढ़वाल में शिक्षा-दीक्षा की कोई व्यवस्था न होने के कारण चंद्रसिंह सामान्य शिक्षा ही प्राप्त कर सके, परंतु वे जीवन भर लगनशील-स्वाध्यायी रहे और उन्होंने ऐसा कुछ पढ़ा-सीखा, जिसे दूसरे बड़ी-बड़ी डिग्रियां हासिल कर भी नहीं सीख पाए। वे जन्मजात भड़ (वीर) थे। नेतृत्व करने का गुण उनमें बचपन से ही था। गांव के बालकों के वे सरदार थे। वीरों जैसा साहस था बालक चंद्रसिंह में। एक बार एक अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर की पत्नी गांव वालों से इसलिए नाराज हो गई थी कि वे ढंग के कपड़े नहीं पहने हुए थे। गांव के स्त्री-पुरुषों को पौड़ी तलब किया गया। एक तो पचासों मील की दूरी, दूसरी ओर अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर से कठोर सजा मिलने का भय। तब बड़ा दबदबा और आतंक था अंग्रेजों का । गांव के पुरोहित ने रास्ता सुझाया कि यदि कोई साहब के सिर पर उसके द्वारा मंत्रित भभूत डाल दे तो साहब का कोप शांत हो जाएगा। भला कौन कर पाता ऐसा दुस्साहस? लेकिन बालक चंद्रसिंह ने गांव वालों के साथ पौड़ी जाकर, चुपके से साहब की कुर्सी के पीछे जाकर साहब के सिर पर भभूत झाड़ दी। साहब ने सजा नहीं दी और गांव वाले, हंसी-खुशी चंद्रसिंह का गुणगान करते वापस गांव लौट आए। तब के भभूत झाडऩे वाले बालक ने आगे चलकर अंगेजी साम्राज्यवाद का भूत झाडऩे में भी कोई कसर नहीं रखी।

युवा चंद्रसिंह लैंसडौन पहुंच कर रायल गढ़वाल राइफल्स में भर्ती हो गया। प्रथम विश्व युद्ध में मेसापोटामिया में अतुल पराक्रम दिखाने के बाद जब 1919 में सिपाही चंद्रसिंह लैंसडौन पहुंचे तो उन्हें हवलदार मेजर बना दिया गया। युद्ध समाप्त होते ही सैनिकों की छंटनी शुरू हो गई। हवलदार और जे.सी.ओ. सामान्य सिपाही बना दिए गए। हवलदार मेजर चंद्रसिंह को भी पदावनत कर सिपाही बना दिया गया और आश्वासन देकर एक महीने की छुट्टी पर घर भेज दिया गया। इस घटना ने चंद्रसिंह के मन में अंग्रेजों के प्रति आक्रोश पैदा कर दिया।

उस समय देश में कई घटनाएं घटीं। जलियांवाला बाग में नृशंस डायर ने सैकड़ों लोगों को गोलियों से भून दिया था और सारे पंजाब में मार्शल ला लागू कर दिया था। महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन शुरू हो गया था। देश ने लंबी नींद के बाद अंगड़ाई ली थी। चंद्रसिंह पर इन घटनाओं का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहा। वे घर जाने के बजाय गांधीजी से मिलने चल पड़े। लेकिन वे गांधीजी के दर्शन नहीं कर पाए और एक माह बाद लैंसडौन लौट आए।

साभार- http://lekhakmanch.com/

पंकज सिंह महर:
डेवरानी के लेख का दूसरा भाग-

सन् 1920 से 1922 तक चंद्रसिंह युद्ध मोर्चे पर रहे और सन् 1922 में जब वे लैंसडौन लौटे तो उन्हें फिर हवलदार मेजर बना दिया गया। लैंसडौन में रहते वे एक कट्टर आर्यसमाज श्री टेकचंद वर्मा के संपर्क में आए और उनसे तथा आर्यसमाज के सिद्धांतों से प्रभावित होकर वे भी पक्के आर्यसमाजी बन गए। देशभक्ति का बीज जो उनके मानस में सोया पड़ा था, जहां आकर अंकुराने लगा। वे छिप कर समाचार पत्र पढ़ते, जिनसे देश-विदेश की राजनीतिक घटनाओं की जानकारी उन्हें मिलती रहती थी। लगभग इन्हीं दिनों गढ़वाल के सुविख्यात साहित्यकार एवं कवि तथा तब के सेना के क्लर्क श्री भजनसिंह ‘सिंह’ से चंद्रसिंह की भेंट हुई। वे रात को बंद कमरे में देश में हो रही हलचल के बारे में बातचीत करते और विचार-विमर्श किया करते कि आजादी की लड़ाई में भारतीय सैनिकों की क्या भूमिका हो। छुट्टियों में वे समीपवर्ती जंगलों में जाकर भावी योजना के बारे में गंभीरता से सोचते-विचारते थे। उल्लेखनीय है कि सेना में भर्ती होने से पूर्व श्री भजनसिंह ‘सिंह’ क्रांतिकारियों से बहुत गहराई से जुड़े थे और उन्हीं के परामर्श से सेना में भर्ती हुए थे। अंग्रेज अधिकारियों को यह भनक पडऩे पर कि चंद्रसिंह और भजनसिंह ‘सिंह’ गुप्त रूप से गढ़वाल पल्टन को अंग्रेजी शासन के खिलाफ भड़काने का षड्यंत्र रच रहे हैं, उन्हें उनकी कंपनियों के साथ अन्यत्र भेज दिया गया। चंद्रसिंह को उनकी बटालियन के साथ पेशावर भेज दिया गया। पेशावर जाने से पूर्व उन्हें एक महीने का अवकाश स्वीकृत किया गया।

चंद्रसिंह को सूचना मिली कि गांधीजी बागेश्वर (अल्मोड़ा) पधार रहे हैं। वे घर जाने के बजाए बागेश्वर पहुंच गए। बागेश्वर में गांधीजी की सभा में गोरखा हैट पहने चंद्रसिंह भी बैठे थे। उन्हें देखकर गांधीजी ने कहा, ”यह गोरखा हैट पहने मुझे डराने कौन यहां बैठा है? तपाक से खड़े होकर चंद्रसिंह बोले, ”मुझे सफेद टोपी मिले तो मैं भी उसे पहन सकता हूं। सभा के बीच से किसी ने एक गांधी टोपी चंद्रसिंह की ओर फेंकी। चंद्रसिंह वह टोपी गांधीजी की ओर फेंकते हुए बोले, ”यह बूढ़ा यदि अपने हाथ से मुझे टोपी दे तभी मैं उसे पहनूंगा। ऐसा ही हुआ और चंद्रसिंह ने गोरखा हैट उतार कर सफेद गांधी टोपी धारण कर ली। उस क्षण चंद्रसिंह ने संकल्प लिया कि वह प्राण देकर भी गांधी द्वारा पहनाई गई टोपी के आन-मान की रक्षा करेगा, देश की आजादी के लिए बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने से पीछे नहीं हटेगा और सन् 1930 में उसने उस टोपी की कीमत चुका भी दी।
1929-30 भारत में जारी राजनीतिक हलचल का वर्ष था। 1929 में लाहौर के कांग्रेस अधिवेशन में रावी के तट पर ‘पूर्ण स्वराज्य’ की घोषणा की गई थी। सविनय अवज्ञा आंदोलन की देशभर में धूम मची थी। 63 दिन की भूख हड़ताल के बाद लाहौर की जेल में यतींद्रदास की शहादत से सारा देश गुस्से से उफन रहा था। भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दिए जाने की चर्चा से देश का वातावरण गरम था। चटगांव में क्रातिकारियों ने शस्त्रागार से हथियार लूट कर अंग्रेज साम्राज्यवादियों को खुली चुनौती दी थी। दिल्ली में वायसराय की गाड़ी को बम से उड़ा देने की कोशिश की गई थी। 12 मार्च, 1930 को गांधीजी के डांडी मार्च ने देशभर में तहलका मचा दिया था। देश के कोने-कोने में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई जा रही थी। देश में बदलती हुई परिस्थितियों से चंद्रसिंह जैसा क्रांतिकारी कैसे अप्रभावित रह सकता था?

ऐतिहासिक पेशावर कांडपेशावर कांड भावुकताजन्य सैनिक विद्रोह नहीं था, इसके लिए एक लंबी तैयारी की गई थी। चंद्रसिंह को अपने साथी सैनिकों का सहयोग पाने में तथा उन्हें बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने के लिए तैयार करने में कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ा होगा, इसकी सहज की कल्पना की जा सकती है।
2/18 रायल गढ़वाल राइफल्स के सैनिक पेशावर में हरिसिंह लाइन में थे। चंद्रसिंह और उनके साथी बैरक की एक कोठरी में खिड़कियों पर कंबल डालकर देर रात तक देश में घटने वाली राजनीतिक घटनाओं पर चर्चा किया करते थे। एक दिन छिपते-छिपते चंद्रसिंह अपने दो साथियों के साथ बाजार पहुंचे। उस दिन शाहीबाग में कांग्रेस की सभा हो रही थी। हजारों स्त्री-पुरुष नमक कानून तोडऩे के लिए शाहीबाग में जमा थे। बैरक की उसी कोठरी में फिर चर्चा और विचार-विमर्श हुआ। ‘साम्राज्यवादियों के हाथों हम अपना शोषण नहीं होन देंगेÓ – देशवासियों की यह घोषणा चंद्रसिंह ने शाहीबाग में सुनी थी। ‘हम भी अपने देश के साथ गद्दारी नहीं करेंगे। ऐसा निश्चय किया था चंद्रसिंह और नारायणसिंह गुसाई आदि ने।
23 अप्रैल, 1930 को परेड मैदान में जब सब ओहदेदार जमा थे, एक अंग्रेज कमांडर ने उनसे कहा कि ‘शहर में 98 प्रतिशत मुसलमान, 2 प्रतिशत हिंदुओ को सता रहे हैं। ये मुसलमान हिंदुओं के देवी-देवताओं को गालियां देते हैं, हिंदुओं की बहू-बेटियों की इज्जत लूटते हैं, इसीलिए हिंदुओं की हिफाजत के लिए सरकार बहादुर ने गढ़वाली पल्टन को यहां भेजा है। कल गढ़वाली पल्टन शहर जाएगी और जरूरत पडऩे पर इन मुसलमानों पर गोलियां चलानी पड़ेगी।

अगली पोस्ट में जारी

पंकज सिंह महर:
डेवरानी जी के लेख का तीसरा भाग-
 
चंद्रसिंह अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की कुटिल नीति से बखूबी परिचित थे। चालाक अंग्रेज कमांडर के चले जाने पर चंद्रसिंह अपने साथियों से बोले, ”भाइयो! गढ़वाली होने के नाते मुझे भी अपने गढ़वाली भाइयों से कुछ कहना है। गोरे साहब ने अभी जो कुछ कहा है, वह सब गलत है, बेबुनियाद है। असलियत तो यह है कि कांग्रेस में हिंदु भी हैं और मुसलमान भी। अंग्रेज हिंदु-मुसलमान का सवाल उठाकर दोनों में दरार पैदा कर आजादी के आंदोलन को कमजोर करना चाहते हैं। आंदोलन को कुचलने के लिए हमारी पल्टन को कल शहर भेजा जाएगा। अपने ही भाइयों पर गोली चलाने के लिए कल हमसे कहा जाएगा। मैं पूछता हूं, क्या गढ़वाली इसके लिए तैयार हैं? और चंद्रसिंह के इस सवाल के जवाब में मिली-जुली आवाज उभर कर आई, ”नही, हम अपने भाइयों पर गोली नहीं चलाएंगे। फिर बैरक का वही कमरा। कुछ कर गुजरने का दृढ़ निश्चय लेकर सब गढ़वाली सैनिक आने वाले सवेरे की प्रतिक्षा करने लगे।

23 अप्रैल 1930। ‘ए’ कंपनी को शहर जाने के लिए ‘फालइन’ का ओदश। सभी सैनिक हवलदार चंद्रसिंह सहित मोटर-गाडिय़ों में बैठ गए। तभी एक अंग्रेज कप्तान ने चंद्रसिंह को मोटर से उतर जाने को कहा। चंद्रसिंह नीचे उतर गए। शायद किसी ने चंद्रसिंह की शिकायत अंग्रेज कप्तान से कर दी थी, लेकिन बाद में सैनिकों को पानी और रसद पहुंचाने का बहाना बनाकर चंद्रसिंह शहर पहुंच गए।
पेशावर उस दिन उफन रहा था। हजारों स्त्री-पुरुष कांग्रेस के जुलूस में शामिल होने को उमड़ आए थे। इंकलाब-जिंदाबाद के नारों से आसमान गूंज रहा था। आजादी के दीवानों की दीवानगी देखते ही बनती थी। अपार जन समूह का समुद्र ठाटे मार रहा था। उसी समय मोटरसाइकिल पर बैठा एक गोरा सिपाही तेजी से भीड़ को चीरता हुआ आया। कई कुचले गए। कितने ही जमीन पर गिर पड़े। भीड़ उत्तेजित हो गई। गोरे सिपाही की खूब धुनाई की गई और उसकी मोटर-साइकिल पर पेट्रोल डालकर आग लगा दी गई।
यह देखकर अंगे्रज अधिकारी बौखला गए। 2/18 रायल गढ़वाल राइफल की फौज बुलाई गई। कंधों पर राइफल लिए सिपाही शहर के प्रमुख स्थानों पर भेज दिए गए। आकाश में चीलों की भांति हवाई जहाज मंडराने लगे। एक अजीब दहशत का माहौल था। काबुली फाटक के सामने निहत्थे सत्याग्रहियों का जुलूस खड़ा था। उसके ठीक आगे गढ़वाली पल्टन की एक कंपनी तैनात थी। कंपनी कमांडर का हुक्म हुआ, ”सिपाही जुलूस के दायें-बायें जाएं। सिपाहियों ने जुलूस को घेर लिया। फिर आदेश, ”जुलूस को हटाओ। गढ़वाली सिपाहियों ने अपने ही स्थान पर खड़े-खड़े पठान भाइयों से हट जाने को कहा, लेकिन वे हटे नहीं। बस कंपनी कमांडर आग बबूला हो गया। उसे यह हुक्म अदूली बर्दाश्त नहीं हुई और उसने हुक्म दिया, ”गढ़वालीज ओपन फायर…” और फिर एक महान ऐतिहासिक घटना क्षणभर में घटित हो गई। एक कड़कती हुई आवाज कमांडर के पास से ही सुनाई दी, ”गढ़वाली, सीज फायर। और यह आवाज थी वीरवर चंद्रसिंह गढ़वाली की! यह आवाज वह थी जिसमें अंग्रेज साम्राजियों को देश से निकाल बाहर करने की एक खुली चुनौती थी। एक ललकार थी। जुलूस की ओर तनी हुई राइफलें जमीन से टिक गईं। एक अजीब सा सन्नाटा छा गया सारे वातावरण में। दांत पीसते अंग्रेज अधिकारी समझ नहीं पा रहे थे कि यह सब क्यों और कैसे हो गया। फिर बौखलाहट में गोरी पल्टन के एक दस्ते ने मशीनगनों से आग बरसानी शुरू कर दी। सड़क निहत्थे सत्याग्रहियों के खून से लाल हो गई। कई मर गए और कई घायल हो गए। गढ़वाली सिपाहियों के शस्त्र ले लिए गए और उन पर कड़ी निगरानी रखी जाने लगी।
रात को फिर बैठक हुई। एक संयुक्त त्यागपत्र तैयार किया गया कि ”हम ‘ए’ कंपनी नं. 1 प्लाटून 2/18 रायल गढ़वाल राइफल्स सरकार को नोटिस देते हैं कि 24 घंटे के अंदर हमारा इस्तीफा मंजूर किया जाए। 24 अप्रैल, 1930, फिर सिपाहियों को ‘फालइन’ का आदेश दिया गया, लेकिन ‘ए’ कंपनी के ओहदेदार और सिपाही अपनी जगह पर खड़े रहे। कतार में खड़े नहीं हुए। हवलदार मेजर चंद्रसिंह को सूबेदार ने बहुत समझाया, लेकिन उनका एक ही जवाब था, ”हम अपने देश का नमक खाते हैं। अपने भाइयों पर गोली चलाकर हम देश के साथ गद्दारी नहीं करेंगे।
 
अगली पोस्ट में जारी--

पंकज सिंह महर:
पीताम्बर दत्त डेवरानी जी के लेख का चौथा भाग-
 
बटालियन के सभी ऑफिसर जमा हो गए। सूचना मिलते ही कर्नल बाकर भी पहुंच गया। चंद्रसिंह ने अपनी जेब से इस्तीफा निकालकर कर्नल को थमा दिया। कर्नल अपना सा मुंह लेकर चला गया। तब कैप्टन टकर ने चंद्रसिंह से पूछा, ”क्या आप बताएंगे कि यह बगावत क्यों हुई? निर्भीक चंद्रसिंह ने कहा, ”हम हिंदुस्तानी सिपाही हिंदुस्तान की हिफाजत के लिए भर्ती हुए हैं, न कि अपने भाइयों पर गोली चलाने के लिए। निहत्थी जनता पर सच्चे सिपाहियों का कर्तव्य नहीं कि गोली चलाएं। आप लोग अपने गोरे सिपाहियों के मुकाबले हमें कुत्ते से भी बदतर समझते हैं। हमारे सूबेदार, जमादार आपके एक मामूली गोरे को सलाम करते हैं। आपके एक गोरे को 90 रुपये माहवार वेतन मिलता है और हमारे सिपाहियों को सिर्फ 16 रुपये माहवार! चंद्रसिंह का यह जवाब गोरी सरकार के मुंह पर एक करारा तमाचा था। कुछ देर बाद ही गढ़वाली सिपाहियों को बैरक में कैद कर लिया गया।
सन् 1857 के बाद, गढ़वाली सिपाहियों की अंग्रेजी शासन के खिलाफ ऐतिहासिक क्रांति ने सारे देश को झकझोर दिया। वीर चंद्रसिंह के साथी कोर्ट में हथियार जमा करने के पक्ष में नहीं थे। वे मरने-मारने को तैयार थे, परंतु दूरदर्शी चंद्रसिंह ने अपने साथियों को समझाते हुए कहा, ”साथियो! यदि गढ़वाली पल्टन को यहां अंग्रेजों ने मार कर समाप्त कर दिया तो दूसरी भारतीय पल्टनें डर जाएंगी। फिर कोई अंग्रेजों के खिलाफ सिर उठाने का साहस नहीं करेगा। जो कुछ हमने करना था, वह अच्छी तरह कर लिया है। हमने निहत्थी मुस्लिम जनता पर गोली नहीं चलाई है। इससे गढ़वाल का माथा ऊंचा हुआ है। हमने सच्चे भारतीय सैनिकों के रूप में अपने देश के प्रति कर्तव्य निभाया है। मेरी बात मानें तो आप अपनी राइफलें कोर्ट में जमा कर दें। उनके साथी सैनिकों को यह बात अच्छी नहीं लगी। बीच में से किसी ने तो चिल्लाकर यहां तक कह दिया था, ”यह देशद्रोही हैं। इसे मार डालो। लेकिन फिर उन्हें लगा कि चंद्रसिंह का कहना ठीक है। हथियार जमा न होते तो पहले कुछ अंग्रेज अधिकारी मारे जाते और फिर गढ़वाली पल्टन को गोरों द्वारा भून दिया जाता। सैनिकों की इस क्रांति का सारा मकसद ही व्यर्थ चला जाता। हथियारबंद सैनिकों की अहिंसक क्रांति अपने आप में एक मिसाल बन गई। चंद्रसिंह गढ़वाली और गढ़वाली सैनिकों की जयजयकार से सारा सीमांत प्रदेश गूंजने लगा। एक नई चेतना, नई जागृति सारे देश में हिलोरें लेने लगी। तब लगता था कि जब भारतीय सैनिक ही विद्रोह पर उतर आए है तो अंग्रेज अब गए, तब गए।
अंग्रेज बहुत चालाक थे। वे नहीं चाहते थे कि इस ऐतिहासिक कांड को महत्व मिले। उन्होंने उन 67 सैनिकों का कोर्ट मार्शल किया, जिन्होंने त्यागपत्र में हस्ताक्षर किए थे। 17 ओहदेदारों को अलग-अलग कोठरियों में बंद कर दिया गया और शेष को एक अलग बैरक में बंद कर दिया। कोर्ट मार्शल शुरू हुआ तो चंद्रसिंह ने पैरवी के लिए बैरिस्टर मुकंदीलाल की मांग की, जिसे मान लिया गया। बैरिस्टर मुकंदीलाल कैप्टन टकर और कैप्टन चैनल के साथ वीर चंद्रसिंह से मिले। उल्लेखनीय है कि गढ़वाल के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर ने बैरिस्टर मुकंदीलाल को तब एक तार भेजा था कि ‘सबका ध्यान एबटाबाद की ओर लगा है।’ डिप्टी कमिश्नर जानता था कि यदि गढ़वाली सैनिकों को प्राणदंड दिया गया तो सारे गढ़वाल में भयंकर क्रांति हो जाएगी।
 
अगली पोस्ट में अंतिम भाग।

Navigation

[0] Message Index

[#] Next page

[*] Previous page

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 
Go to full version