डेवरानी जी के लेख का तीसरा भाग-
चंद्रसिंह अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की कुटिल नीति से बखूबी परिचित थे। चालाक अंग्रेज कमांडर के चले जाने पर चंद्रसिंह अपने साथियों से बोले, ”भाइयो! गढ़वाली होने के नाते मुझे भी अपने गढ़वाली भाइयों से कुछ कहना है। गोरे साहब ने अभी जो कुछ कहा है, वह सब गलत है, बेबुनियाद है। असलियत तो यह है कि कांग्रेस में हिंदु भी हैं और मुसलमान भी। अंग्रेज हिंदु-मुसलमान का सवाल उठाकर दोनों में दरार पैदा कर आजादी के आंदोलन को कमजोर करना चाहते हैं। आंदोलन को कुचलने के लिए हमारी पल्टन को कल शहर भेजा जाएगा। अपने ही भाइयों पर गोली चलाने के लिए कल हमसे कहा जाएगा। मैं पूछता हूं, क्या गढ़वाली इसके लिए तैयार हैं? और चंद्रसिंह के इस सवाल के जवाब में मिली-जुली आवाज उभर कर आई, ”नही, हम अपने भाइयों पर गोली नहीं चलाएंगे। फिर बैरक का वही कमरा। कुछ कर गुजरने का दृढ़ निश्चय लेकर सब गढ़वाली सैनिक आने वाले सवेरे की प्रतिक्षा करने लगे।
23 अप्रैल 1930। ‘ए’ कंपनी को शहर जाने के लिए ‘फालइन’ का ओदश। सभी सैनिक हवलदार चंद्रसिंह सहित मोटर-गाडिय़ों में बैठ गए। तभी एक अंग्रेज कप्तान ने चंद्रसिंह को मोटर से उतर जाने को कहा। चंद्रसिंह नीचे उतर गए। शायद किसी ने चंद्रसिंह की शिकायत अंग्रेज कप्तान से कर दी थी, लेकिन बाद में सैनिकों को पानी और रसद पहुंचाने का बहाना बनाकर चंद्रसिंह शहर पहुंच गए।
पेशावर उस दिन उफन रहा था। हजारों स्त्री-पुरुष कांग्रेस के जुलूस में शामिल होने को उमड़ आए थे। इंकलाब-जिंदाबाद के नारों से आसमान गूंज रहा था। आजादी के दीवानों की दीवानगी देखते ही बनती थी। अपार जन समूह का समुद्र ठाटे मार रहा था। उसी समय मोटरसाइकिल पर बैठा एक गोरा सिपाही तेजी से भीड़ को चीरता हुआ आया। कई कुचले गए। कितने ही जमीन पर गिर पड़े। भीड़ उत्तेजित हो गई। गोरे सिपाही की खूब धुनाई की गई और उसकी मोटर-साइकिल पर पेट्रोल डालकर आग लगा दी गई।
यह देखकर अंगे्रज अधिकारी बौखला गए। 2/18 रायल गढ़वाल राइफल की फौज बुलाई गई। कंधों पर राइफल लिए सिपाही शहर के प्रमुख स्थानों पर भेज दिए गए। आकाश में चीलों की भांति हवाई जहाज मंडराने लगे। एक अजीब दहशत का माहौल था। काबुली फाटक के सामने निहत्थे सत्याग्रहियों का जुलूस खड़ा था। उसके ठीक आगे गढ़वाली पल्टन की एक कंपनी तैनात थी। कंपनी कमांडर का हुक्म हुआ, ”सिपाही जुलूस के दायें-बायें जाएं। सिपाहियों ने जुलूस को घेर लिया। फिर आदेश, ”जुलूस को हटाओ। गढ़वाली सिपाहियों ने अपने ही स्थान पर खड़े-खड़े पठान भाइयों से हट जाने को कहा, लेकिन वे हटे नहीं। बस कंपनी कमांडर आग बबूला हो गया। उसे यह हुक्म अदूली बर्दाश्त नहीं हुई और उसने हुक्म दिया, ”गढ़वालीज ओपन फायर…” और फिर एक महान ऐतिहासिक घटना क्षणभर में घटित हो गई। एक कड़कती हुई आवाज कमांडर के पास से ही सुनाई दी, ”गढ़वाली, सीज फायर। और यह आवाज थी वीरवर चंद्रसिंह गढ़वाली की! यह आवाज वह थी जिसमें अंग्रेज साम्राजियों को देश से निकाल बाहर करने की एक खुली चुनौती थी। एक ललकार थी। जुलूस की ओर तनी हुई राइफलें जमीन से टिक गईं। एक अजीब सा सन्नाटा छा गया सारे वातावरण में। दांत पीसते अंग्रेज अधिकारी समझ नहीं पा रहे थे कि यह सब क्यों और कैसे हो गया। फिर बौखलाहट में गोरी पल्टन के एक दस्ते ने मशीनगनों से आग बरसानी शुरू कर दी। सड़क निहत्थे सत्याग्रहियों के खून से लाल हो गई। कई मर गए और कई घायल हो गए। गढ़वाली सिपाहियों के शस्त्र ले लिए गए और उन पर कड़ी निगरानी रखी जाने लगी।
रात को फिर बैठक हुई। एक संयुक्त त्यागपत्र तैयार किया गया कि ”हम ‘ए’ कंपनी नं. 1 प्लाटून 2/18 रायल गढ़वाल राइफल्स सरकार को नोटिस देते हैं कि 24 घंटे के अंदर हमारा इस्तीफा मंजूर किया जाए। 24 अप्रैल, 1930, फिर सिपाहियों को ‘फालइन’ का आदेश दिया गया, लेकिन ‘ए’ कंपनी के ओहदेदार और सिपाही अपनी जगह पर खड़े रहे। कतार में खड़े नहीं हुए। हवलदार मेजर चंद्रसिंह को सूबेदार ने बहुत समझाया, लेकिन उनका एक ही जवाब था, ”हम अपने देश का नमक खाते हैं। अपने भाइयों पर गोली चलाकर हम देश के साथ गद्दारी नहीं करेंगे।
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