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Chandra Singh Garhwali : वीर चन्द्र सिंह "गढ़वाली"

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पंकज सिंह महर:

 
साथियो,
यों तो उत्तराखण्ड हमेशा से वीरों की भूमि रहा है, इस धरती ने इन्हीं वीरों में से कुछ परमवीर भी पैदा किये। जिनमें चन्द्र सिंह गढ़वाली का नाम सर्वोपरि कहा जा सकता है। उन्होंने २३ अप्रैल, १९३० को अफगानिस्तान के निहत्थे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों पर गोली चलाने से इन्कार कर एक नई क्रान्ति का सूत्रपात किया था और अंग्रेजी हुकूमत को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि भारत में उनके राज के कुछ ही दिन बचे हैं।
 
हालांकि इस अजर-अमर विभूति की एक कमजोरी थी कि वह एक पहाड़ी था, जो टूट जाना पसन्द करते हैं लेकिन झुकना नहीं। चन्द्र सिह जी भी कभी राजनीतिज्ञों के आगे नहीं झुके, जिसका प्रतिफल यह हुआ कि स्वतंत्रता संग्राम के इस जीवट सिपाही को स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी जेल जाना पड़ा और कई अपमान झेलने पड़े। इनकी जीवटता को कभी भी वह सम्मान नहीं मिल पाया जिसके वे हकदार थे। उनके अंतिम दिन काफी कष्टों में बीते, जब स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के नाम पर लोग मलाई चाट रहे थे, वहीं गढ़वाली जी अपने साथियों की पेंशन के लिये संघर्ष कर रहे थे।
 
इस अमर सेनानी को हमारा सलाम, उनका सपना था कि उत्तराखण्ड पृथक आत्मनिर्भर राज्य बने, जिसकी राजधानी भी उत्तराखण्ड के केन्द्र में हो, दूधातोली, जो उनका पैतृक स्थान था, उसका विकास हो, वहां पर गढ़वाल नगर बसे, राजा भरत की जन्म स्थली कण्व आश्रम, कोटद्वार में भरत नगर बसाया जाय....आदि। लेकिन दुर्भाग्य है कि राज्य मिलने के इतने समय बाद भी उनके सपने अधूरे हैं।

पंकज सिंह महर:
चन्द्र सिंह भण्डारी "गढ़वाली" 
जन्म- 25 दिसम्बर, 1891, निधन- 1 अक्टूबर, 1979
ग्राम- मासी, रौणीसेरा, चौथान पट्टी, गढ़वाल।महात्मा गांधी के शब्दों में "मुझे एक चंद्र सिंह गढ़वाली और मिलता तो भारत कभी का स्वतंत्र हो गया होता।"

११ सितम्बर, १९१४ को २/३९ गढ़वाल राईफल्स में सिपाही भर्ती हो गये, प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अगस्त १९१५ में मित्र राष्ट्रों की ओर से अपने सैनिक साथियों के साथ योरोप और मध्य पूर्वी क्षेत्र में प्रत्यक्ष हिस्सेदारी की। अक्टूबर में स्वदेश लौटे और १९१७ में अंग्रेजों की ओर से मेसोपोटामिया के युद्ध में भाग लिया। १९२१-२३ तक पश्चिमोत्तर प्रांत में रहे, जहां अंग्रेजों और पठानों में युद्ध हो गया था। १९२० के बाद चन्द्र सिंह देश में घटित राजनैतिक घटनाओं में रुचि लेने लगे। १९२९ में गांधी जी के बागेश्वर आगमन पर उनकी मुलाकात गांधी जी से हुई और गांधी जी के हाथ से टोपी लेकर, जीवन भर उसकी कीमत चुकाने का प्रण उन्होंने कर लिया।
      १९३० में इनकी बटालियन को पेशावर जाने का हुक्म हुआ, २३ अप्रैल, १९३० को पेशावर में किस्साखानी बाजार में खान अब्दुल गफ्फार खान के लालकुर्ती खुदाई खिदमतगारों की एक आम सभा हो रही थी। अंग्रेज आजादी के इन दीवानों को तितर-बितर करना चाहते थे, जो बल प्रयोग से ही संभव था। कैप्टेन रैकेट ७२ गढ़वाली सिपाहियों को लेकर जलसे वाली जगह पहुंचे और निहत्थे पठानों पर गोली चलाने का हुक्म दिया। चन्द्र सिंह भण्डारी कैप्टेन रिकेट के बगल में खड़े थे, उन्होंने तुरन्त सीज फायर का आदेश दिया और सैनिकों ने अपनी बन्दूकें नीचीं कर ली। चन्द्र सिंह ने कैप्टेन रिकेट से कहा कि "हम निहत्थों पर गोली नहीं चलाते"  इसके बाद गोरे सिपाहियों से गोली चलवाई गई। चन्द्र सिंह और गढ़वाली सिपाहियों का यह मानवतावादी साहस अंग्रेजी हुकूमत की खुली अवहेलना और राजद्रोह था। उनकी पूरी पल्टन एबटाबाद(पेशावर) में नजरबंद कर दी गई, उनपर राजद्रोह का अभियोग चलाया गया। हवलदार २५३ चन्द्र सिंह भण्डारी को मृत्यु दण्ड की जगह आजीवन कारावास की सजा दी गई, १६ लोगों को लम्बी सजायें हुई, ३९ लोगों को कोर्ट मार्शल के द्वारा नौकरी से निकाल दिया गया। ७ लोगों को बर्खास्त कर दिया गया, इन सभी का संचित वेतन जब्त कर दिया गया। यह फैसला मिलिट्री कोर्ट दआरा १३ जून] १९३० को ऎबटाबाद छावनी में हुआ। बैरिस्टर मुकुन्दीलाल ने गढ़वालियों की ओर से मुकदमे की पैरवी की थी। चन्द्र सिंह गढ़्वाली तत्काल ऎबटाबाद जेल भेज दिये गये, २६ सितम्बर, १९४१ को ११ साल, ३ महीन और १८ दिन जेल में बिताने के बाद वे रिहा हुये। ऎबटाबाद, डेरा इस्माइल खान, बरेली, नैनीताल, लखनऊ, अल्मोड़ा और देहरादून की जेलों में वे बंद रहे और अनेक यातनायें झेली। नैनी सेन्ट्रल जेल में उनकी भेंट क्रान्तिकरी राजबंदियों से हुई। लखनऊ जेल में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से भेंट हुई।
       श्री गढ़वाली एक निर्भीक देशभक्त थे, वे बेड़ियों को "मर्दों का जेवर" कहा करते थे।जेल से रिहा होने के बाद कुछ समय तक वे आनन्द भवन, इलाहाबाद रहने के बाद १९४२ में अपने बच्चों के साथ वर्धा आश्रम में रहे। भारत छोड़ो आन्दोलन में उत्साही नवयुवकों ने इलाहाबाद में उन्हें अपना कमाण्डर इन चीफ नियुक्त किया। डा० कुशलानन्द गैरोला को डिक्टेटर बनाया गया, इसी दौरान उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया, नाना जेलों में कठोर यातनायें दी गई, ६ अक्टूबर, १९४२ को उन्हें सात साल की सजा हुई। १९४५ में ही उन्हें जेल से छोड़ दिया गया, लेकिन गढ़वाल प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। जेल प्रवास के दौरान उनका परिचय यशपाल से परिचय हुआ और कुछ दिन उनके साथ वे लखनऊ में रहे। फिर अपने बच्चों के साथ हल्द्वानी आ गये।
       जेल प्रवास के दौरान वे आर्य समाजी हो गये, इस बीच उन्होंने क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट विचारों को अपनाया और १९४४ में कम्युनिस्ट कार्यकर्ता के रुप में सामने आये, १९४६ में चन्द्र सिंह ने गढ़वाल में प्रवेश किया, जहां जगह-जगह पर जनस्मूह ने उनका भव्य स्वागत किया। कुछ दिन गढ़वाल में रहने के पश्चात वे किसान कांग्रेस में भाग लेने लुधियाना चले गये और वहां से लाहौर पहुंचे, दोनों जगह उनका भारी स्वागत हुआ। टिहरी रियासत् की जनक्रान्ति में भी इनकी सक्रिय भूमिका रही है। नागेन्द्र सकलानी के शहीद हो जाने के बाद गढ़वाली ने आन्दोलन का नेतृत्व किया। कम्युनिस्ट विचारधारा का व्यक्ति होने के कारण स्वाधीनता के बाद भी भारत सरकार उनसे शंकित रहती थी। वे जिला बोर्ड के अध्यक्ष का चुनाव लड़ना चाहते थे, लेकिन सरकार ने उनपर पेशावर कांड का सजायाफ्ता होने के आरोप लगाकर गिरफ्तार कर लिया। सामाजिक बुराईयों के उन्मूलन के लिये वे सदैव संघर्षरत रहे, १९५२ में उन्होंने पौड़ी विधान सभा सीट से कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से चुनाव लडा, लेकिन कांग्रेस की लहर के आगे वे हार गये।
       उत्तराखण्ड के विकास की योजनाओं के लिये उन्होंने अपनी आवाज उठाई और बाद के वर्षों में पृथक उत्तराखण्ड राज्य के समर्थन से लेकर विभिन्न सामाजिक और राजनैतिक गतिविधियों में उन्होंने हिस्सेदारी की।
* बैरिस्टर मुकुन्दी लाल के शब्दों में "आजाद हिन्द फौज का बीज बोने वाला वही है"
* आई०एन०ए० के जनरल मोहन सिंह के शब्दों में "पेशावर विद्रोह ने हमें आजाद हिन्द फौज को संगठित करने की प्रेरणा दी।"

पंकज सिंह महर:
गढ़वाल के महानायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में भाई-चारे के प्रतीक बन सकते हैं। आजादी के आंदोलन के समय पेशावर में चंद्र सिंह गढ़वाली ने जो काम किया, उसकी वजह से पाकिस्तान और अफगानिस्तान का पख्तून समाज (पठान) आज भी गढ़वालियों की वही इज्जत करता है। 1881 में उत्तराखं़ड के चमोली जिले के रौणीसेरा गांव में जन्मे वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ब्रिटिश फौज में हवलदार थे। 23 अप्रैल 1930 को उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की एक महान घटना को अंजाम दिया। वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में उनके सैनिक साथियों ने ब्रिटिश अफसरों के पेशावर के किस्सा ख्वानी बाजार में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे अपने देशवासी पठानों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया। लालकुर्ती आंदोलन के नाम से मशहूर ये खुदाई खिदमतगार बादशाह खान (खान अब्दुल गफ्फार खान) और मलंग बाबा महात्मा गांधी के गिरफ्तारी का विरोध कर रहे थे। ब्रिटिश राज में भारतीय सैनिकों द्वारा हुक्म मानने से इनकार की यह पहली घटना थी, जिसने ब्रिटिश साम्राज्य को हिला कर रख दिया। गढ़वाली फौज के इस अहिंसक विद्रोह का यह नतीजा हुआ कि उनका व उनके 59 साथियों का कोर्टमार्शल हुआ। चंद्र सिंह व उनके कुछ साथियों को आजीवन कारावास की सजा हुई। गढ़वाली फौज की इस हिम्मत का पठानों पर गहरा प्रभाव पड़ा। वे गढ़वालियों को अपने भाई जैसा मानने लगे। पौड़ी गढ़वाल के पतगांव गांव के चंद्रप्रकाश सुंदरियाल के पिता इंद्रमणि सुंदरियाल और ताऊजी गोवर्धन प्रसाद देश के बंटवारे के समय क्वेटा (पाकिस्तान) में रह रहे थे। चंद्र प्रकाश बताते हैं देश सांप्रदायिक दंगों की आग में जल रहा था। तब एक पठान ने सिर्फ यह जानकर उनके पिता और ताऊ को अपने देखरेख में भारतीय सीमा तक पहुंचाया था कि वे गढ़वाली हैं। वह बताते हैं कि वह पठान हथियार के साथ सारा समय उनके पिता के साथ रहा और कहता रहा कि चाहे जान कुर्बान करनी पड़े पर वह चंद्र सिंह गढ़वाली के भाइयों का बाल भी बांका न होने देगा। देश के मशहूर चरित्र अभिनेता एके हंगल ने भी अपनी पुस्तक पेशावर से बंबई तक में लिखा है कि पेशावर कांड के बाद खुदाई खिदमतगारों ने पेशावर में शहीदों की स्मृति में एक स्मारक भी बनाया था, लेकिन बाद में ब्रिटिश फौजों ने पेशावर पर फिर से कब्जा कर यह स्मारक नष्ट कर दिया। वीर चंद्र सिंह गढ़वाली पर व्यापक शोध करने वाले डा.एसआर शर्मा कहते हैं कि वीर चंद्र सिंह गढ़वाली और भारत-पाक और अफगानिस्तान के एकता के प्रतीक हो सकते है।

पंकज सिंह महर:
  चन्द्र सिंह गढ़वाली       भारतीय इतिहास में चन्द्र सिंह गढ़वाली को पेशावर कांड के नायक के रूप में याद किया जाता है। २३ अप्रैल १९३० को हवलदार मेजर चन्द्र सिंह गढवाली के नेतृत्व में रॉयल गढवाल राइफल्स के जवानों ने भारत की आजादी के लिये लडनें वाले निहत्थे पठानों पर गोली चलानें से इन्कार कर दिया था। बिना गोली चले, बिना बम फटे पेशावर में इतना बडा धमाका हो गया कि एकाएक अंग्रेज भी हक्के-बक्के रह गये, उन्हें अपनें पैरों तले जमीन खिसकती हुई सी महसूस होनें लगी।
 जीवनी  चन्द्र सिंह गढ़वाली का जन्म 25 दिसम्बर 1891 में हुआ था। चन्द्रसिंह के पूर्वज चौहान वंश के थे जो मुरादाबाद में रहते थे पर काफी समय पहले ही वह गढ़वाल की राजधानी चांदपुरगढ़ में आकर बस गये थे और यहाँ के थोकदारों की सेवा करने लगे थे। चन्द्र सिंह के पिता का नाम जलौथ सिंह भंडारी था। और वह एक अनपढ़ किसान थे। इसी कारण चन्द्र सिंह को भी वो शिक्षित नहीं कर सके पर चन्द्र सिंह ने अपनी मेहनत से ही पढ़ना लिखना सीख लिया था।  3 सितम्बर 1914 को चन्द्र सिंह सेना में भर्ती होने के लिये लैंसडौन पहुंचे और सेना में भर्ती हो गये। यह प्रथम विश्वयुद्ध का समय था। 1 अगस्त 1915 में चन्द्रसिंह को अन्य गढ़वाली सैनिकों के साथ अंग्रेजों द्वारा फ्रांस भेज दिया गया। जहाँ से वे 1 फरवरी 1916 को वापस लैंसडौन आ गये। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ही 1917 में चन्द्रसिंह ने अंग्रेजों की ओर से मेसोपोटामिया के युद्ध में भाग लिया। जिसमें अंग्रेजों की जीत हुई थी। 1918 में बगदाद की लड़ाई में भी हिस्सा लिया।
प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो जाने के बाद अंग्रेजो द्वारा कई सैनिकों को निकालना शुरू कर दिया और जिन्हें युद्ध के समय तरक्की दी गयी थी उनके पदों को भी कम कर दिया गया। इसमें चन्द्रसिंह भी थे। इन्हें भी हवलदार से सैनिक बना दिया गया था। जिस कारण इन्होंने सेना को छोड़ने का मन बना लिया। पर उच्च अधिकारियों द्वारा इन्हें समझाया गया कि इनकी तरक्की का खयाल रखा जायेगा और इन्हें कुछ समय का अवकास भी दे दिया। इसी दौरान चन्द्रसिंह महात्मा गांधी के सम्पर्क में आये।कुछ समय पश्चात इन्हें इनकी बटैलियन समेत 1920 में बजीरिस्तान भेजा गया। जिसके बाद इनकी पुनः तरक्की हो गयी। वहाँ से वापस आने के बाद इनका ज्यादा समय आर्य समाज के कार्यकर्ताओं के साथ बीता। और इनके अंदर स्वदेश प्रेम का जज़्बा पैदा हो गया। पर अंग्रेजों को यह रास नहीं आया और उन्होंने इन्हें खैबर दर्रे के पास भेज दिया। इस समय तक चन्द्रसिंह मेजर हवलदार के पद को पा चुके थे।उस समय पेशावर में स्वतंत्रता संग्राम की लौ पूरे जोरशोर के साथ जली हुई थी। और अंग्रेज इसे कुचलने की पूरी कोशिश कर रहे थे। इसी काम के लिये 23 अप्रेल 1930 को इन्हें पेशावर भेज दिया गया। और हुक्म दिये की आंदोलनरत जनता पर हमला कर दें। पर इन्होंने निहत्थी जनता पर गोली चलाने से साफ मना कर दिया। इसी ने पेशावर कांड में गढ़वाली बटेलियन को एक ऊँचा दर्जा दिलाया और इसी के बाद से चन्द्र सिंह को चन्द्रसिंह गढ़वाली का नाम मिला और इनको पेशावर कांड का नायक माना जाने लगा।अंग्रेजों की आज्ञा न मानने के कारण इन सैनिकों पर मुकदमा चला। गढ़वाली सैनिकों की पैरवी मुकुन्दी लाल द्वारा की गयी जिन्होंने अथक प्रयासों के बाद इनके मृत्युदंड की सजा को कैद की सजा में बदल दिया। इस दौरान चन्द्रसिंह गढ़वाली की सारी सम्पत्ति ज़प्त कर ली गई और इनकी वर्दी को इनके शरीर से काट-काट कर अलग कर दिया गया।1930 में चन्द्रसिंह गढ़वाली को 14 साल के कारावास के लिये ऐबटाबाद की जेल में भेज दिया गया। जिसके बाद इन्हें अलग-अलग जेलों में स्थानान्तरित किया जाता रहा। पर इनकी सज़ा कम हो गई और 11 साल के कारावास के बाद इन्हें 26 सितम्बर 1941 को आजाद कर दिया। परन्तु इनके में प्रवेश प्रतिबंधित रहा। जिस कारण इन्हें यहाँ-वहाँ भटकते रहना पड़ा और अन्त में ये वर्धा गांधी जी के पास चले गये। गांधी जी इनके बेहद प्रभावित रहे। 8 अगस्त 1942 के भारत छोड़ों आंदोलन में इन्होंने इलाहाबाद में रहकर इस आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई और फिर से 3 तीन साल के लिये गिरफ्तार हुए। 1945 में इन्हें आजाद कर दिया गया।22 दिसम्बर 1946 में कम्युनिस्टों के सहयोग के कारण चन्द्रसिंह फिर से गढ़वाल में प्रवेश कर सके। 1957 में इन्होंने कम्युनिस्ट के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा पर उसमें इन्हें सफलता नहीं मिली। 1 अक्टूबर 1979 को चन्द्रसिंह गढ़वाली का लम्बी बिमारी के बाद देहान्त हो गया। 1994 में भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया गया। तथा कई सड़कों के नाम भी इनके नाम पर रखे गये। साभार- विकीपीडिया

पंकज सिंह महर:
 
वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली जी की याद को अक्षुण्ण रखने के लिये उत्तराखण्ड क्रान्ति दल ने २५ दिसम्बर, १९९२ को गैरसैंण में उनकी एक आदमकद प्रतिमा की स्थापना की। जिसमें यह संकल्प लिया गया कि भावी उत्तराखण्ड राज्य की राजधानी का नाम गढ़वाली जी के नाम पर चन्द्रनगर होगा।
लेकिन यह सपना साकार नहीं हुआ और क्यों?

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