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Dr. Pitamber Dutt Barthwal-First D.Lit. In Hindi From India:डा० पीताम्बर बड़थ्वाल

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पंकज सिंह महर:
प्रतिबिम्ब जी, श्रद्धेय पीताम्बर बड़थ्वाल जी का जीवन परिचय उपलब्ध कराने हेतु आपको धन्यवाद। निश्चित रुप से बड़थ्वाल जी उत्तराखण्ड के गौरव हैं। शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने उल्लेखनीय कार्य किये हैं, उनके अतुलनीय कार्यों का सम्मान करते हुये सरकार द्वारा कोटद्वार के डिग्री कालेज का नाम "डा० पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल राजकीय स्नात्कोत्तर माहाविद्यालय, कोटद्वार" रखा गया है।

Devbhoomi,Uttarakhand:

                       डा. पीतांम्बरदत्त बड़थ्वाल ( १३ दिसंबर, १९०१-२४ जुलाई, १९४४)
                      (हिंदी में डी.लिट. की उपाधि प्राप्त करने वाले पहले शोध विद्यार्थी

हिंदी में डी.लिट. की उपाधि प्राप्त करने वाले पहले शोध विद्यार्थी थे। उन्होंने अनुसंधान और खोज परंपरा का प्रवर्तन किया तथा आचार्य रामचंद्र शुक्ल और बाबू श्यामसुंदर दास की परंपरा को आगे बढा़ते हुए हिन्दी आलोचना को मजबूती प्रदान की। उन्होंने भावों और विचारों की अभिव्यक्ति के लिये भाषा को अधिक सामर्थ्यवान बनाकर विकासोन्मुख शैली को सामने रखा।

 अपनी गंभीर अध्ययनशीलता और शोध प्रवृत्ति के कारण उन्होंने हिन्दी मे प्रथम डी. लिट. होने का गौरव प्राप्त किया। हिंन्दी साहित्य के फलक पर शोध प्रवृत्ति की प्रेरणा का प्रकाश बिखेरने वाले बड़थ्वालजी का जन्म तथा मृत्यु दोनो ही उत्तर प्रदेश के गढ़वाल क्षेत्र में लैंस डाउन अंचल के समीप पाली गाँव में हुए। बड़थ्वालजी ने अपनी साहित्यिक छवि के दर्शन बचपन में ही करा दिये थे।

 बाल्यकाल मे ही वे 'अंबर'नाम से कविताएँ लिखने लगे थे। किशोरावस्था में पहुँचकर उन्होंने कहानी लेखन प्रारंभ कर दिया। १९१८ के पुरुषार्थ में उनकी दो कहानियाँ प्रकाशित हुईं। कानपुर में अपने छात्र जीवन के दौरान ही उन्होंने 'हिलमैन' नामक अंग्रेजी मासिक पत्रिका का संपादन करते हुए अपनी संपादकीय प्रतिभा को भी प्रदर्शित किया।

जिस समय बड़थ्वालजी में साहित्यिक चेतना जगी उस समय हिन्दी के समक्ष अनेक चुनैतियाँ थी। कठिन संघर्षों और प्रयत्नों के बाद उच्च कक्षाओं में हिन्दी के पठन-पाठन की व्यवस्था तो हो गई थी,लेकिन हिन्दी साहित्य के गहन अध्ययन और शोध को कोई ठोस आधार नही मिल पाया था। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और बाबू श्याम सुन्दर दास जैसे रचनाकार आलोचना के क्षेत्र में सक्रिय थे। बड़थ्वालजी ने इस परिदृश्य में अपनी अन्वेषणात्मक क्षमता के सहारे हिंदी क्षेत्र में शोध की सुदृढ़ परंपरा की नींव डाली।

 संत साहित्य के संदर्भ में स्थापित नवीन मान्यताओं ने उनकी शोध क्षमता को उजागर किया। उन्होने पहली बार संत, सिद्घ, नाथ और भक्ति साहित्य की खोज और विश्लेषण में अपनी अनुसंधनात्मक दृष्टि को लगाया। शुक्लजी से भिन्न उन्होंने भक्ति आन्दोलन को हिन्दू जाति की निराशा का परिणाम नहीं अपितु उसे भक्ति धारा का सहज -स्वभाविक विकास प्रमाणित कर दिया। इस संदर्भ में लिखे उनके शोध लेख उनके गम्भीर अध्ययन और मनन के साथ- साथ उनकी मौलिक दृष्टि के भी परिचायक हैं।

परवर्ती साहित्यकारों ने उनकी साहित्यिक मान्यताओं को विश्लेषण का आधार बनाया। उन्होंने स्वयं कहा, 'भाषा फलती फूलती तो है साहित्य में, अंकुरित होती है बोलचाल में, साधारण बोलचाल पर बोली मँज-सुधरकर साहित्यिक भाषा बन जाती है।' इस तरह भावाभिव्यंजन के लिये उन्होंने जिस शैली को अपनाया उसमें उनका सर्वाधिक ध्यान भाषा पर ही रहा।

 उन्होंने संस्कृत, अवधी, ब्रजभाषा, अरबी एवं फारसी के शब्दों को खड़ीबोली के व्याकरण और उच्चारण में ढालकर अपनाया। बड़थ्वालजी निश्चय ही विपुल साहित्य की सर्जना करते, यदि वे लम्बी उम्र ले कर आते। डा॰ संपूर्णानंद ने ठीक ही कहा है,'यदि आयु ने धोखा न दिय होता तो वे और भी गंभीर रचनाओं का सर्जन करते।' अल्पवधि में ही उन्होंने अध्ययन और अनुसंधान की जो सुदृढ़ नींव डाली उसके लिये वह हमेशा याद किये जाएँगे

बाबू शयामसुंदर दास के निर्देशन में अग्रेजी में लिखे उनके शोध प्रबंध 'द निर्गुण स्कूल आफ हिंदी पोयट्री' पर काशी विशविद्यालय ने उन्हें डी॰लिट॰की उपाधि प्रदान की। हिंदी साहित्य जगत में उस शोध प्रबंध का जोरदार स्वागत हुआ। उसे भूरि - भूरि प्रशंसा मिली। प्रयाग विश्वविद्यालय के दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर डा॰ रानाडे ने इस पर अपनी सम्मति व्यक्त करते हुए कहा कि 'यह केवल हिंदी साहित्य की विवेचना के लिये ही नहीं अपितु रहस्यवाद की दार्शनिक व्याख्या के लिये भी एक महत्त्वपूर्ण देन है।' बाद में यह शोध प्रबंध 'हिन्दी में निर्गुण संप्रदाय' नाम से हिंदी में प्रकाशित हुआ।

 हिन्दी जगत में बड़थ्वालजी ने अपनी शोध प्रव्रति और समीक्षा दृष्टि के कारण ही पहचान बनाई, लेकिन उनके 'कणेरीपाव' 'गंगाबाई' 'हिंदी साहित्य में उपासना का स्वरूप', 'कवि केशवदास' जैसे विचारात्मक निबंधों में उनकी निबंध कला का उत्कर्ष देख उनके निबंधकार रुप को भी हिंदी संसार में भरपूर सरहाना मिली। उनकी प्रकाशित कृतियों में -'योग प्रवाह', (सं. डॉ. सम्पूर्णानंद) 'मकरंद' (सं. डॉ. भगीरथ मिश्र), डा॰ पितांबरदत्त बड़थ्वाल के श्रेष्ट निबंध' (सं॰ गोविंद चातक) आदि हैं।

 उन्होंने कवि गोरखनाथ की रचनाओं का संकलन और संपादन किया जो ‘गोरख बानी’ के नाम से प्रकाशित हुआ।[२] हिंदी के अतिरिक्त अंग्रेजी में भी उन्होंने कुछ श्रेष्ठ साहित्यिक निबंध लिखे, जिनमें - मिस्टिसिज्म इन हिन्दी पोयट्री' और'मिस्टिसिज्म इन कबीर' विशेष उल्लेखनीय हैं। बड़थ्वालजी के निबंधों की विशिष्टता यह है कि निबंध का मूल भाव प्रारंभ में ही स्पष्ट हो जाता है। निबंध के प्रारंभिक वाक्य रोचक प्रस्तावना की तरह उभरते हैं।

 फिर लेखक विषय की गहराई में उतरता चला जाता है। तार्किक ढंग से विषय सामग्री को सजाकर वह पाठक को लुभाते हुए बडी रोचकता और जिज्ञासा के साथ विषय के निष्कर्ष तक पहुँचाता है। शोध लेखों और निबंधों के अतिरिक्त उन्होंने 'प्रणायामविज्ञान और कला' तथा 'ध्यान से आत्म चिकित्सा' जैसी पुस्तकें लिखकर प्रारक्रतिक चिकित्सा और योग प्रणाली में अपनी रुचि प्रकट की।

 गढवाली लोक-साहित्य की तरफ भी उनका गहरा रुझान था। बच्चों के लिये उन्होंने'किंग आर्थर एंड नाइट्स आव द राउड टेबल' का हिन्दी अनुवाद भी किया। शोधकर्ता और निबंधकार के साथ- साथ बड़थ्वालजी अपनी दार्शनिक प्रव्रत्ति के लिए भी विख्यात थे। आध्यात्मिक रचनओं को उन्होंने अपने अध्ययन का आधार बनाया। उन्होंने धर्म, दर्शन और संस्कृति की विवेचना की।

 उनका समूचा लेखन उनकी गहरी अध्ययनशीलत का परिणाम है। कहा जाता है कि मस्तिष्क की दासता उनके स्वभाव के विपरीत थी। एक-एक पंक्ति को प्रकाशित होने से पहले कई बार लिखते हुए उन्हें देखा गया।

Barthwal:
श्री महर जी बस एक डिग्री कालेज के अलावा भुला दिया गया है. जैसा कि मैने कहा कि अभी भी शोध छात्र डा.बडथ्वाल के शोध और अन्य रचनाओ का प्रयोग करते है लेकिन उन्हे वो स्थान नही मिला जो वास्तव मै मिलना चाहिये था हिन्दी साहित्य अकादमी उनकी रचनाओ को हर 3-4 साल में पुन: प्रकाशित करता है लेकिन उनके परिवार को रायल्टि भी नही दी जाती अब(पहले मिलती थी). मैने कुछ  दिन पह्ले ही फूफू(डा.बड्थ्वाल की पुत्री) से बात की थी और भाई(डा.साहब के पौत्र) से कुछ जानकारी मिली इस बाबत. मैने हिन्दी के कुछ सुप्रसिध लोगो से बात की है जो मीडिया और हिन्दी साहित्य  से जुडे है और उन्होने माना है कि शाय्द पक्षपात पूर्ण रवैया शाय्द् इसमे बाधक रहा है और वे इस बात को आगे ले जायेगे. उनका शुक्रिया इस आश्वासन के लिये.
जखी जी का शुक्रिया.. यही जानकारी मुझे विकीपीडिया (खुशी हुई कि कम से कम ये जानकारी उपलब्ध है) मे भी मिली जिसे मैने फेसबुक में अपने साथियो तक पहुंचाया. डा़. बडथ्वाल जी की 3 पुत्रिया है और वे किसी कारणवश इस पर ज्यादा ध्यान न दे सकी अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियो के कारण. मै बहुत पहले से सोच रहा था कि लोगो को बताया जाये उनके बारे में. अबकी बार जब भारत आना होगा तो अवश्य ही अधिक जानकारी एकत्र करुगा हिन्दी साहित्य अकादमी और फूफू (डा.साहब की पुत्रिया) लोगो से व परिवार से.

पंकज सिंह महर:
डा० पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल
1902-1944
डा० पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल जी का जन्म ग्राम-पाली, लैंसडाउन, जनपद पौड़ी में वर्ष १९०२ में हुआ था। उन्हें हिन्दी साहित्य में डी०लिट० (डाक्टर आफ लिटरेचर) की उपाधि प्राप्त करने वाले प्रथम भारतीय होने का गौरव प्राप्त हुआ है। औपनिवेशिक काल में उत्तराखण्ड के सई विद्वानों ने राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी भाषा और गढ़वाली,  बोलियों में महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की।  डा० बड़थ्वाल इनमें से अकेले ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्होंने संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी और गढ़वाली में एक साथ कार्य करते हुये भारतीय साहित्य में एक कीर्तिमान स्थापित किया। लेकिन अफसोसजनक बात यह है कि इस उपल्ब्धि के बाद भी इनका नाम हिन्दी साहित्य में उपेक्षित और गुमनामी में खोकर रह गया है।
प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही लेने के उपरान्त श्रीनगर गढवाल से वर्नाक्यूलर मिडिल पास किया और १९२० में लखनऊ के कालीचरण हाईस्कूल से हाईस्कूल तथा छात्रवृत्ति के सहयोग से १९२२ में कानपुर से इण्टर की परीक्षा उत्तीर्ण की। १९२६ में बनारस से बी०ए० किया, आर्थिक संकटों के कारण अध्ययन जारी न रख सके तो श्री श्याम सुन्दर दास, जो उस समय बनारस में हिन्दी के विभागाध्यक्ष थे, के सहयोग से एम०ए० (हिन्दी) में प्रवेश पाया और १९२८ में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुये। बनारस से ही इन्होंने १९२९ में कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की। किन्तु साहित्य साधना की ओर उन्मुख डा० बड़थ्वाल कानून को अपना पेशा नहीं बना सके। १९३० में इन्हें हिन्दी विभाग में प्रवक्ता के पद पर नियुक्ति मिल गई, इनकी अध्ययनशीलता को देखते हुये ’काशी नागरी प्रचारिणी सभा’ ने इन्हें अपने शोध विभाग में संचालक नियुक्त कर दिया। तीन वर्षों के कठोर परिश्रम  और अनवरत साहिय साधना के फलस्वरुप १९३१ में इन्होंने अपना शोध प्रबन्ध "हिन्दी साहित्य में निर्गुणवाद" बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रस्तुत किया। इसी शोध प्रबन्ध पर इन्हें डी०लिट० की सम्मानजनक उपाधि दी गई। हिन्दी साहित्य में इस डिग्री को पाने आले आप पहले भारतीय थे।
१९३७ में डा० बड़थ्वाल को हिन्दी साहित्य सम्मेलन, शिमला में निबन्ध पाठ के लिये आमंत्रित किया गया। १९४० में तिरुपति (आन्ध्र प्रदेश) में आयोजित प्राच्य विद्या सम्मेअलन में इन्हें हिन्दी विभाग का सभापति मनोनीत किया गया। इस मंच से आपने पहली सन्त साहित्य कीए निरंजिनी धारा का मौलिक विश्लेषण किया। इस प्रकार अनेक राष्ट्रीय संगोष्ठियों में डा० बड़थ्वाल ने गवेषणापूर्ण निबन्धों पर व्याख्यान दिये। १९३८ में वेतन विसंगतियों के विरोध में इन्होंने बनारस वि०वि० की नौकरी छोड़ दी और लखनऊ आ गये। निरन्तर अध्ययन और बीतर-बाहर के आघातों ने इन्हें रोगी बना दिया, फलस्वरुप लखनऊ छोड़कर अपने गांव पाली आ गये, वहीं पर २४ जुलाई, १९४४ को इनका निधन हो गया।
डा० बड़थ्वाल की प्रतिभा बहुमुखी थी, उन्होंने हिन्दी और अंग्रेजी में ७० से अधिक शोधपूर्ण निबन्ध लिखे। उनकी विषयवस्तु मध्यकालीन सन्त कवियों के मूल्यांकन से लेकर महात्मा गांधी और छायावाद के अध्ययन तक व्याप्त है। उनकी कुछ प्रमुख पुस्तकें-
गोरखवाणी, हिन्दी साहित्य का विवेचनात्मक इतिहास, कबीर और उसकी कृति, युग प्रवर्तक रामानन्द, हिन्दी काव्य की योगधारा, रुपक रहस्य।
डा० बड़थ्वाल गढ़वाली साहित्य के भी मर्मज्ञ थे, उन्होणे गढवाली में कई नाटक लिखे और गढ़वाली साहित्य की दुर्लभ पाण्डुलिपियों का संकलन किया। अंग्रेजी में मिस्टिसिज्म इन हिन्दी पोयट्री, मिस्टिसिज्म इन कबीरा और माडर्न हिन्ही पोयट्री उल्लेखनीय है।

श्री शक्ति प्रसाद सकलानी जी द्वारा लिखित "उत्तराखण्ड की विभूतियां" से साभार टंकित।

Barthwal:
पंकज जी बहुत बहुत शुक्रिया सकलानी जी द्वारा इस लेख को शामिल करने के लिये. क्या आप सकलानी जी के द्वार लिखे इस लेख का लिन्क दे सकते है.. अपने ब्लाग मे जोडना चाहूंगा ताकि वे बाकि लोग भी पढ सके..
खुशी हुई कि आप जैसे लोग इस दिशा मे प्रयास कर रहे है.
सप्रेम.

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