Author Topic: उत्तराखण्ड के पर्यावरण मित्र-environment friends of Uttarakhand  (Read 14998 times)

Bhishma Kukreti

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पर्यावरण पर एक विचार विमर्श

 

                              गौंका  मूस देहरादून जाणों तयार किलै ह्वाइ ?   

 

                                चबोड़्या - चखन्यौर्या: भीष्म कुकरेती
(s = आधी अ )

 

 बडडि मूसि -ये बत्वार आलि तुमारि! जरा द्याखो त सै सि धिवड़ -द्यूं (दीमक ) ये खन्द्वार छोड़ि दौड़ दौड़ि   भागणा छन रे । याने कि यू पैलि बिटेन गढ़वाळी गौं  को यु  उजड्यूं कूड़ पुरो धराशायी होण वाळ च। 

छ्वटो मूसु -या  झड़ ननि अब ना अठिये (आठ साल की उम्र की बीमारी ) गे ज्वा धिवड़ो  भागण से  घबराणि च।

मध्य उमरो  मूसि -ये मूस ह्वैक बि मनिखों तरां अपण झड़ननि  बेजती करणी छे तू। हम मूस छंवां अनुभव अर चेतना पर हम विश्वास करदां।  धिवड़ -द्यूं जब अपण  जगा छोड़दन तो बींगि ल्याओ , समजि ल्यावो बल वा जगा धराशायी हूण वळि  च। 

हैंको जवान मूसु -पण ननि अबि त मजदूर धिवड़ -द्यूं अर कुछ मरद धिवड़ -द्यूं  हि गर गर भाजणा छन। जब राणि धिवड़ि बि भैर जाण शुरू होलि तो समजि ल्यावो यू खंद्वार ध्वस्त हूण वाळ च। मेरि चेतना बुलणि च आठ दस दिनोंम यु कूड़ सद्यानो खतम ह्वे जालो।

 बडडि मूसि - अरे स्यू द्याखो एक गुरा इना इ आणो च। तैक आँख या कुछ  तेज हुंदन रै। तैन समजि अल होलु कि हमारो सौ साल पुराणो मूसुं परिवार इखि च। कुछ कारो।

 मध्य उमरो  मूसि- ननि घबरा ना  हमर डुंडी (बिल ) द्वीएक  हथ अळग च अर यु गुरा तै दिवाल चढ़न माँ दिकत होलि।

 बडडि मूसि - ओ मै पर बिस्मिरिति ह्वे गे। चलो मि ये गुरौ पुछ्दो कि इना कना? ये गिवड़ो (गेंहू के खेत वाले ) गुरौ आज इना कखन अर किलै?

गुरौ - हाँ आज तो मूस बि गुराओं पर हंसणा छन, क्या करवां हम ? जोग ही इन छन।

  बडडि मूसि - ह्यां ह्वाइ क्या च जो पुंगड़ो सांप  अर गांव माँ ?

 गुरौ - ये यु बि अब गां कख रै गे। मि सरा गां घूमिक आणु छौं। ये गां मा सौएक मकान सब ध्वस्त पड्यां छन। जख तलक म्यार पुंगड़ो से इना गांवो तरफ आणों सवाल च तो पुटकै भूक मै इना लायि।

 बडडि मूसि -कनो उना हमारी मौस्या भाई बंद याने लुखुन्दर वगैरों क्या ह्वाइ।

गुरौ- तुम गांका मूस बि मनिखों तरां स्वार्थी ह्वे गेवां। अपण मौस्यरा भाइओं ख़याल इ नी तुम तैं। अरे जब गांव वाळ नि छन तो पुंगड़ बांज पोड़ी गेन अर अब उख ग्युं, जौ, झंग्वर, क्वादों, दाळ हुन्दो नी च तो बगैर भोजन का लुखुन्दर कनै बच्यां राला?

  बडडि मूसि - पण घास का दाण तो होला उना?

गुरौ - अरे काण्ड लगि गेन सरा गढ़वाल की सार्युं पर लैंटीना ही लैंटीना जम्युं च। घास को नाम नी च तो हमर शिकार लुखुन्दर नी छन तो हम सांप  कनकै ज़िंदा रौला। बस गुजर बसर होणि च। उन हमर जाति ज्वा लुखुन्दरों पर पऴदि छे वा खतम ही समझो। 

 बडडि मूसि - तो अब कना जाणु छे?

  गुरौ - जाण कख च अब? भाभर मा अर ड्याराडूण म खेती हॊन्दि छे वा बि उत्तराखंड राज्य बणणो बाद बंद ह्वे गे। सब जगा मकान ही मकान छन उख बि पुंगड खतम ह्वे गेन अब कनि कौरिक बि मि तैं बिजनौर पौंछण पोड़ल।

  बडडि मूसि - जा जा  अंक्वैक जै चील -चिल्न्गो से बचणी रै।                 

 मध्य उमरो  मूसि- अब बथाओ हम समझणा छया कि गां उजड़ण से हम घर्या मूसों साखि (Generation ) खतम होणि च। उना बि कुछ हौर इ हाल छन।

  बुडड़ि   मूसि- हैं इ क्या कथगा सालों बाद स्या  भ्यूंळ - खड़िक पर पळण वाळ चखुलि दिखेणि च? ये घिंड्वा (नर  पक्षी )! आज इथगा सालों बाद इना?

घिंड्वा- अरे द्वी साल बिटेन मि गढ़वाळ का एकेक गां घूमिक ऐ ग्यों पर मि तैं मेरि जोड़ी बणाणो खुणि  भ्यूंळ - खड़िक पर पळण वाळ चखुलि नि मिलणि च।

मध्य उमरै मूसि - कनो तेरि जाति  चखुलों हरचंत ऐ ग्याइ क्या?

 घिंड्वा- हर्चंत ही ना हमारी जाति ही निबटी गे , खतम ह्वे   गे।

एक मूस - क्या बुनु छे?

 घिंड्वा- अरे जब गढ़वाळम भ्यूंळ- खड़िक ही उगटि-निबटि गेन तो हम चखुल जो भ्यूंळ- खड़िकों दाणो पर निर्भर छया भि खतम ह्वे गेवां।

  बुडड़ि   मूसि- पण मीन तो सूणि छौ बल जब तलक   भ्यूंळ- खड़िकों  दाण तुमर पुटुक नि जांदा  भ्यूंळ- खड़िकों नि जामि सकदन।

  घिंड्वा- हां हम ख़ास किसमौ चखुल  भ्यूंळ- खड़िकों  पर निर्भर छया अर भ्यूंळ- खड़िक नई साखि  जमाणो बान हम पर निर्भर छया। पण हम द्वी गाऊं मनिखों पर बि निर्भर छया।

जवान मूस- म्यार बिंगण मा नि आयि कि गाऊं मनिखों इक्हम क्या सम्बन्ध?

  घिंड्वा-हम चाखुलों अदा से जादा खाणो गांका मनिखों अनाज हूंदो छौ अर फिर मनिख जब गढ़वाली खेतों मा खेती करदा छा तो खर पतवार साफ़ करदा छा, चक्र माँ फसल उगांदा  छा ।

मूस - तो  तो खर पतवार साफ़ हूण  से  अर  चक्र मा फसल हूण से  भ्यूंळ- खड़िक पर लगण वाळ कीड़ा अर बिमारि नि लगदी छे। हमर खाणक बंद होण से हम हरान (कमजोर ) हुवां अर उना मनिखों लैक फसल नि बुयाण से भ्यूंळ- खड़िकों पर बनि बनि कीड़ा अर बिमारि लगण से नया नया भ्यूंळ- खड़िकों डाळ बढ़ण बंद ह्वे गेन अर हम और भी भूक रौण लगि गेवां अर इन मा हमारि निबटात-खज्यात आइ। हम निबटा तो  भ्यूंळ- खड़िक खतम। अर अब मि द्वी साल बिटेन जोड़ी खुज्याणु छौं।

  बुडड़ि   मूसि- जख तलक म्यार ज्ञान बतान्दो तो भाभर तलक त्वै तैं गढ़वाळम मनिखों गां त मिलण से राइ याने कि भ्यूंळ- खड़िकों से हीन उजड्या गां।

 घिंड्वा-पण भाभर की जलवायु हमखुण अर   भ्यूंळ- खड़िकों लैक ठीक नी च। ना ही उच्चा डांड। दिखुद छौं कि कखि मेरी जोड़ी मिल जावु।

  बुडड़ि   मूसि-जा हां अंक्वैक जा। अरे यु क्या यू मुसक्या स्याळु ये बांज  गां मा क्या करणु च? हे  हमर जाति दुश्मन स्याळ आज इनै कनै?

स्याळ - अरे भुकान म्यार पराण जाणि वाळ छन। ये मूसो तुम अपण डुंड्यो से भैर आवा ना कुजाण कथगा हफ्तों से मि भूको छौं।

 बुडड़ि   मूसि- पण मेरि सौ साखि पैलाकि ननिक बोल छा कि स्याळ गढ़वळि   गावों मा नि आंदो।तो तू अर इना?

स्याळ -मजाक नि कौर अब कख छन गढ़वाळम गां?  सब उजाड़ ह्वे गे। मेरि भूक!

 बुडड़ि   मूसि- ह्यां पण ह्वाइ क्या च?

स्याळ - हूँण क्या छौ। जब तलक गढ़वाळम गांउं मा मनिख छा तो हमारि जाति  कुण मनिखों चैण -चम्वळ (पालतू -पशु) से काम चलि जांदो छौ।         

  बुडड़ि   मूसि-   ह्यां पण अब त सरा गढवाल ही जंगळ ह्वे गे अब तो तुमखुण मजा ही मजा!

स्याळ -खनो जंगळ! लैंटीना अर कुंळै जंगळउन हमार शिकार का खाणो निबटाइ दे अर जब हमारो शिकार का वास्ता ऊं  लैक घास -पेड़ नि होला तो हम स्याळउन बि निबटण ही च। अच्छा जान्दो छौं।

 बुडड़ि   मूसि-  अरे ढुड्यार   भीतर जावो स्यु आस्मां बिटेन गरुड़ आणो च। मि तै तैं चिरड़ान्दु हाँ। हे गरुड़ कना जाणि छे रै।

गरुड़ -कख जाण। मरणों भाभर जिना  जाणु छौं।

 बुडड़ि   मूसि-ह्यां ! क्या  ह्वै?

गरुड़ -खन्नु ह्वै! मनिखों पलायन से सरा गढवाल को भौगोलिक वातावरण ही बदले गे  अर हम गरुडू लैक इख खाणों ही हर्ची गे। बस अब कुछ ही साल मा हमारि साखि निबटी-उगटि जाल।

 बुडड़ि   मूसि-जा जा मोर जख मोरणा इ उखि मोर।

जवान मूस - अरे सि क्या कवों डार (झुण्ड ) कख जाणि च अर दगड़म घर्या घिंडुड्यु  डार बि कखि जाणि च।

 बुडड़ि   मूसि-हे कवावो कना जाणा छंवां?

  कवों नेता - अब हम कवों अर घर्या घिंडुड्यु  कुण कुछ नि च ये गढ़वाळम। हम तो मनिखों दगड़ ही रै सकदां सो हम सौब शहरों मा रौणो बान  हमेशा वास्ता जाणा छंवां।                           

 बुडड़ि   मूसि-ये निर्भागियो मीन बोलि छौ कि ना यि धिवड़ -द्यूं (दीमक ) ये खन्द्वार छोड़ि दौड़ दौड़ि   भागणा छन। तो यि धिवड़ -द्यूं (दीमक ) ये खन्द्वार छोड़िक इलै नि जाणा छन कि इ खन्द्वार ध्वस्त होणु च बल्कणम गढ़वाल को पूरो वातावरण ही बदल्याणु च अर जो भी जानवर मनिखों  पर आश्रित छ्या ऊं तैं  या तो अपण जीवन शैली बदलण पोड़ल निथर मैदानों  तरफां जाण पोड़ल। चलो देहरादून जाणो तयारी कारो।   

 

Copyright @ Bhishma Kukreti   27/3/2013

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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चन्द्रशेखर करगेती
Jagat Singh Jangli -

“जंगली”  की जिद का जंगल.....
 
 वन विभाग और विज्ञान दोनों का दावा था कि इतनी ऊंचाई पर हरियाली की बात सोचना ही अवैज्ञानिक किस्म की सोच है. कुछ वनस्पतियां यहां जरूर उग सकती हैं लेकिन जंगल जैसी बातें इतनी ऊंचाई पर संभव नहीं है. लेकिन जंगली ने वह कर दिखाया जो पूरा सरकारी महकमा मिलकर नहीं कर सका. और जो किया उसका प्रसाद आज अकेले जगत सिंह को नहीं मिल रहा है. हरियाली और संपन्नता का प्रसाद समाज के हर हिस्से तक पहुंच रहा है निशुल्क और साधिकार.
 
 जगत सिंह ने गढ़वाल में इतने पेड़ लगाये कि लोगों ने आदर से उन्हें जंगली का संबोधन दे दिया. जगत सिंह चौधरी ‘जंगली’ नें साबित किया है कि यदि कोई व्यक्ति अपने मन में ठान ले तो वह बहुत से तथाकथित वैज्ञानिक बातों को भी झुठला सकता है. उत्तराखण्ड के गढ़वाल इलाके में रूद्रप्रयाग जिले के एक छोटे से गांव कोटमल्ला में रहने वाले जगत सिंह चौधरी अब अपने उपनाम ‘जंगली’ के नाम से ही ज्यादा जाने जाते हैं. जगत सिंह चौधरी का जन्म 6 अप्रैल 1954 को कोटमल्ला में हुआ था. तब यह गांव चमोली जिले के अंतर्गत आता था.अब यह रुद्रप्रयाग जिले में है. जंगली के परदादा साधु सिंह और दादा शेर सिंह प्रकृति प्रेमी थे.उनके दादा शेर सिंह अपने जमाने में जंगलों के प्रति अपने लगाव के लिये प्रसिद्ध थे जिसके लिये ब्रिटिश सरकार ने ‘वाकसिद्धि’ की उपाधि दी और पांच रुपये मासिक की पेंशन भी मुहैया करवायी.
 
 सन 1967 में जंगली सेना में भर्ती हो गये.शादी हुई,बच्चे हुए और जगत सिंह का जीवन भी आम लोगों की तरह चलने लगा. उनके जीवन में परिवर्तन आया 1974 में जब उनके पिता बहादुर सिंह की मृत्यु हुई.मरते समय उनके पिता ने उनसे कहा कि वह अपनी बंजर पड़ी जमीन को किसी ना किसी तरह से प्रयोग में लायें. उस जमीन में तब कुछ भी नहीं उगता था और उस इलाके में पानी की बहुत कमी थी.जगत सिंह ने पहले उस इलाके में प्राकृतिक वनस्पति उगायी ताकि किसी तरह पानी को रोका जा सके और भूमि के क्षरण को कम किया जा सके. जगत सिंह हर साल अपनी सालाना छुट्टी में अपनी जमीन में लगे रहते. उनकी मेहनत के परिणाम धीरे धीरे आने लगे. सन 1980 में जगत सिंह ने फौज की नौकरी छोड़ दी और वहां से मिले अधिकतर पैसे को उन्होने अपनी जमीन में लगा दिया. उनकी मेहनत का ही परिणाम था उस इलाके में एक भरा-पूरा जंग़ल बन गया,पानी के सोते फूट गये और उबड़-खाबड़ जमीन जिसे कोई देखता भी नहीं था, उसे एक जीवन्त जंगल बनाकर वह स्वयं जंगली बन गये.
 
 इस जंगल को बनाने में जंगली ने जहां काफी मेहनत की वहीं उन्होने लीक से हटकर चलते हुए पुरानी मान्यताओं और तथाकथित वैज्ञानिक सोच को भी चुनौती दी. 4500 फुट की उंचाई में स्थित इस इलाके में माना जाता था कि यहां केवल कुछ ही वनस्पतियां उगायी जा सकती हैं. यहां तक कि वन विभाग का भी यही मानना था कि कुछ प्रजातियों को छोड़ इस इलाके में कुछ भी नहीं उगाया जा सकता.वन विभाग मानता है कि जहां चीड़ का जंगल हो वहां दूसरी किसी प्रजाति का फलना-फूलना संभव नहीं है.जगत सिंह ने मिश्रित वन की अवधारणा को जन्म दिया. उनका मानना है कि कि जंगल में सब कुछ उगाया जाना चाहिये जिससे चारे के लिये घास मिले, खाने के लिये फल मिलें, दवाइयों के लिये जड़ी बूटियां मिलें, नगदी कृषि फसलें अदरख, हल्दी, चाय पैदा हों और इमारतों के लिए तथा जलाने के लिये लकड़ी भी मिले. यह सब उन्होने अपने जंगल में,बिना कोई किताब पढ़े,बिना किसी प्रशिक्षण व मार्ग दर्शन के, सिर्फ अपनी मेहनत के बल पर कर भी दिखाया. उनके जंगल में आज बांज, चीड़, देवदार, बांस, सुरई, आंगू, तुन, खड़िक, अशोक, कपूर, भीमल, तिमिल, शीशम, काफल आदि एक साथ पैदा होते हैं. 56 से भी अधिक प्रजातियों के वृक्षों को उन्होने अपने जंगल में उगा कर दिखा दिया कि कभी कभी केवल किताबी ज्ञान व्यवहारिक ज्ञान के आगे बौना सिद्ध हो जाता है. उन्होने अपने जंगल में कई जड़ी बूटी जैसे कौतुकी, बेलादोन्ना, बज्रदंती आदि भी उगायी हैं. जबकि माना जाता है इस ऊंचाई में जड़ी बूटियों का पनपना नामुमकिन है.
 
 ‘जंगली’ के जंगल का परिणाम है कि उस इलाके में पानी के दो स्रोत फूट निकले हैं जिससे उस गांव के लोगों की पानी की समस्या कम हो गयी है.अपनी मिश्रित वन की अवधारणा स्पष्ट करते हुए ज़ंगली कहते हैं कि एक जंगल में सभी तरह के पेड़ होने चाहिये जैसे वो पेड़ जो जमीन को नमी प्रदान करते हैं जैसे बांज, काफल, अयार, बुरांस-ये जमीन की नमी को बरकरार रखते हैं और इनकी पत्तियां झड़ने पर खाद के रूप में वृक्षों को पोषित करती हैं. इसी तरह से फलों के वृक्ष होने चाहिये जो अपने जीवन काल में फल प्रदान करें और बाद में उनकी लकड़ी इमारतों के काम भी आ सके. इसी तरह से सबसे महत्वपूर्ण है कि पर्यावरण को स्वच्छ रखने के लिये चौड़ी पत्तियों वाले वृक्ष भी जंगल में हों. ओद्योगिक इकाइयों के लिये आप को कुछ वृक्ष लगाने चाहिये जैसे रामबांस , बांस , रिंगाल , केन आदि. उसी तरह से आपको चारे के लिये घास और लताओं को भी जंगल में लगाना चाहिये. ‘जंगली’ जैवीय विविधता के पक्षधर हैं. 
 
 पर्यावरण की बात करने वाले आज अधिकांश लोग वह हैं जिन्होने पर्यावरण को नजदीक से देखा भी नहीं है. आज आवश्यक है कि हम बड़ी बड़ी बातें करने के स्थान पर अपनी मेहनत लगन और दृढ़ संकल्प से वह कर दिखायें जो जगत सिंह ने किया है. आवश्यकता इस बात की भी है कि जगत सिंह जंगली की अवधारणा का विस्तार हो और पहाड़ और पर्यावरण को चलाने की योजनायें केवल कागजों में ही ना बने बल्कि उन को अमलीजामा भी पहनाया जाये. जो ‘जंगली’ ने कर दिखाया है उस मॉडल को उत्तराखंड और देश के अन्य क्षेत्रों में भी फैलाया जाय ताकि आने वाली पीढियां जंगल को केवल किताबों में ही ना देखें बल्कि उसे वास्तव में महसूस भी कर सके.
 
 "ज़गत सिंह चौधरी कहते है हम सब को सही मायने में ‘जंगली’ शब्द की परिभाषा को बदलना होगा. जंगली होने का अर्थ असभ्य होना या पिछ्ड़ा हुआ होना नहीं है वरन जंगली होने का अर्थ है जंगल से जुड़ना. यदि हमको इस पृथ्वी पर मानव अस्तित्व को बचाना है तो हम सब को जंगलों की ओर लौटना होगा,जंगली बनना होगा."
 
 (साभार : काकेश कुमार)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Narendra Rautela
 

मित्रो आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है की आप के आशिर्वाद सहयोग से मुझे इंटरनेशनल 2014 हिडन इको हीरो अवार्ड मिलने की घोषणा हो चुकी है इस अवार्ड को में सभी मित्रो को समर्पित करता हू आगे भी आप का प्यार व आशिर्वाद इसी तरह बना रहेगा ऐसी आशा करता हू में आप सभी का ह्रदय से बहुत बहुत आभारी हू ............नरेन्द्र रौतेला थारू राजकीय इन्टर कॉलेज खटीमा उत्तराखंड

 

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