Author Topic: उत्तराखण्ड के पर्यावरण मित्र-environment friends of Uttarakhand  (Read 15001 times)

shailesh

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साथियो,
     आज के विकासशील युग में पर्यावरण और प्रकृति के साथ लगातार छेड़छाड होती रहती है। इसे बचाने के लिये कई संगठनों और व्यक्तियों ने अपनी ओर से व्यक्तिगत प्रयास किये हैं। इस टोपिक के अन्तर्गत हम उन पर्यावरण प्रेमियों के बारे में जानकारी देंगे।


सबसे पहले फ्रैडरिक स्मेटाचेक के बारे में-

फ्रैडरिक स्मेटाचेक जूनियर पर यह शानदार पोस्ट दरअसल अशोक पांडे ने कबाड़खाना में चेपी थी. इसे "बुग्याल" में फिर से जारी किया जा रहा है, क्योंकि फ्रेडी मौलिक बुग्याली हैं. बरसों पहले उन्होंने बताया था कि जलवायु बदलने के कारण गर्म इलाकों की तितलियां और कीड़े मकोड़े ठंडे पहाड़ी इलाकों की ओर खिसक रहे हैं. यह बात तब की है, जब ग्लोबल वार्मिंग फैशन में नहीं आया था. बहुत बारीक किस्म का काम करने वाले फ्रैडरिक उस प्रजाति के मनुष्य हैं, जो अब दुर्लभतम होती जा रही है. पोस्ट के लिये अशोक का आभार.


"वन स्ट्रॉ रेवोल्यूशन" वाले जापानी मासानोबू फुकुओका और पर्मीकल्चर के प्रतिनिधि आस्ट्रियाई किसान सैप होल्ज़र फिलहाल विश्वविख्यात नाम हैं और दुनिया भर के पर्यावरणविद उन्हें हाथोंहाथ लेते हैं और उनकी लिखी किताबों की लाखों प्रतियां बिका करती हैं। सुन्दरलाल बहुगुणा और मेधा पाटकर के कामों को भी मीडिया ने पर्याप्त तवज्जो दी है। लेकिन उत्तराखंड के कोटमल्ला गांव के बंजर में बीस हज़ार पेड़ों का जंगल उगाने वाले जगत सिंह चौधरी ‘जंगली’ जैसे प्रकृतिपुत्रों को उनके हिस्से का श्रेय और नाम मिलना बाकी है। ठीक ऐसा ही मेरे प्यारे दोस्त फ्रैडरिक स्मेटाचेक जूनियर के बारे में भी कहा जा सकता है।

उत्तराखंड कुमाऊं के विख्यात पर्यटन स्थल भीमताल की जून एस्टेट में फ्रैडरिक स्मेटाचेक के घर पर, माफ करें फ्रैडरिक स्मेटाचेक जूनियर के घर पर आपको एशिया का सबसे बड़ा व्यक्तिगत तितली संग्रह देखने को मिलेगा।

हल्द्वानी से भीमताल की तरफ जाएं तो पहाड़ी रास्ता शुरू होने पर आपको चीड़ के पेड़ों की बहुतायत मिलेगी । यह हमारे वन विभाग की मेहरबानी है कि पहाड़ों में कल्पवृक्ष के नाम से जाने जाने वाले बांज के पेड़ों का करीब करीब खात्मा हो चुका है। भीमताल पहुंचने के बाद आप बाईं तरफ को एक तीखी चढ़ाई पर मुड़ते हैं और जून एस्टेट शुरू हो जाती है। जून एस्टेट में आपको चीड़ के पेड़ खोजने पड़ेंगे। यहां केवल बांज है दशकों से सहेजा हुआ।

फ्रैडरिक के पिता यानी फ्रैडरिक स्मेटाचेक सीनियर 1940 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में यहां आकर बस गए थे। यहां स्मेटाचेक परिवार की संक्षिप्त दास्तान बताना ज़रूरी लगता है। चेकोस्लोवाकिया के मूल निवासी लेकिन जर्मन भाषी फ्रैडरिक स्मेटाचेक सीनियर 1940 के आसपास हिटलर विरोधी एक संगठन के महत्वपूर्ण सदस्य थे। विश्वयुद्ध का दौर था और हिटलर का सितारा बुलंदी पर। वह अपने सारे दुश्मनों को एक एक कर खत्म करता धरती को रौंदता हुआ आगे बढ़ रहा था।

फ्रैडरिक स्मेटाचेक सीनियर की मौत का फतवा भी बाकायदा हिटलर के दस्तखत समेत जारी हुआ। जान बचाने की फेर में फ्रैडरिक सीनियर अपने कुछ साथियों के साथ एक पुर्तगाली जहाज पर चढ़ गए। यह जहाज कुछ दिनों बाद गोआ पहुंचा। गोआ में हुए एक खूनी संघर्ष में जहाज के कप्तान का कत्ल हो गया। सो बिना कप्तान का यह जहाज चल दिया कलकत्ता की तरफ। कलकत्ता पहुंचकर रोजी रोटी की तलाश में फ्रैडरिक स्मेटाचेक सीनियर ने उन दिनों वहां बड़ा व्यापार कर रही बाटा कम्पनी में नौकरी कर ली। बाटानगर में रहते हुए फ्रैडरिक सीनियर ने अपने कुछ दोस्तों के साथ मिलकर एक क्लब की स्थापना की। चुनिन्दा रईसों के लिए बना यह क्लब सोने की खान साबित हुआ। इत्तफाक से इन्हीं दिनों अखबार में छपे एक विज्ञापन ने उनका ध्यान खींचा: कुमाऊं की नौकुचियाताल एस्टेट बिकाऊ थी। उसका ब्रिटिश स्वामी वापस जा रहा था। मूलत: पहाड़ों को प्यार करने वाले फ्रैडरिक सीनियर को फिर से पहाड़ जाने का विचार जंच गया। वे कलकत्ता से नौकुचियाताल आ गए और फिर जल्दी ही उन्होंने नौकुचियाताल की संपत्ति बेचकर भीमताल की जून एस्टेट खरीद ली जो फिलहाल उनके बेटों के पास है।

नौकुचियाताल और भीमताल के इलाके में फ्रैडरिक स्मेटाचेक सीनियर ने प्रकृति और पर्यावरण का गहन अध्ययन किया खासतौर पर इस इलाके में पाए जाने वाले कीट पतंगों का और तितलियों का। पर्यावरण के प्रति सजग फ्रैडरिक स्मेटाचेक सीनियर ने अपने बच्चों को प्राकृतिक संतुलन का मतलब समझाया और पेड़ पौधों जानवरों कीट पतंगों के संसार के रहस्यों से अवगत कराया।

यह फ्रैडरिक स्मेटाचेक सीनियर थे, जिन्होंने 1945 के साल से तितलियों का वैज्ञानिक संग्रह करना शुरू किया। यह संग्रह अब एक विषद संग्रहालय बन चुका है। संग्रहालय के विनम्र दरवाज़े पर हाफ पैंट पहने हैटधारी स्मेटाचेक सीनियर का फोटो लगा है।

स्मेटाचेक सीनियर के मित्रों का दायरा बहुत बड़ा था। विख्यात जर्मन शोधार्थी लोठार लुट्जे अक्सर अपने दोस्तों के साथ जून एस्टेट में रहने आते थे। इन दोस्तों में अज्ञेय और निर्मल वर्मा भी थे और विष्णु खरे भी। अभी कुछ दिन पहले स्मेटाचेक जूनियर ने मुझे सम्हाल कर रखा हुआ एक टाइप किया हुआ कागज़ थमाया। यह स्वयं विष्णु जी द्वारा टाइप की हुई उनकी कविता थी: ‘दिल्ली में अपना घर बना लेने के बाद एक आदमी सोचता है’। कविता के बाद कुछ नोट्स भी थे। शायद यह कविता वहीं फाइनल की गई थी।

अपने पिता की परम्परा को आगे बढ़ाने का काम उनके बेटों विक्टर और फ्रैडरिक स्मेटाचेक जूनियर ने संभाला। बड़े विक्टर अब जर्मनी में रहते हैं और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के भूवैज्ञानिक माने जाते हैं: अंटार्कटिका की पारिस्थितिकी के विशेषज्ञ। सो अब एक तरह से स्मेटाचेक परिवार का इकलौता और वास्तविक ध्वजवाहक फ्रैडरिक स्मेटाचेक जूनियर है। पचपन छप्पन साल का फ्रैडी पिछले करीब आठ सालों से पूरी तरह शैयाग्रस्त है। बिस्तर पर लेटे इस बेचैन शख्स के पास आपको कुछ देर बैठना होगा और धीरे धीरे आपके सामने पिछले चालीसेक सालों की आश्चर्यजनक और अविश्वसनीय कथाओं का पुलिन्दा खुलना शुरू होगा।

फ्रैडरिक स्मेटाचेक जूनियर के घर में घुसते ही उसकी बेहतरीन वास्तुकला ध्यान खींचती है। बहुत सादगी से बने दिखते इस घर के भीतर लकड़ी का बेहतरीन काम है। यह अपेक्षाकृत नया मकान है और इसे नींव से शुरू करके मुकम्मल करने का काम खुद फ्रैडी ने स्थानीय मजदूर मिस्त्रियों की मदद से किया। घर की तमाम आल्मारियां दरवाज़े पलंग कुर्सियां सब कुछ उसने अपने हाथों से बनाए हैं। किंचित गर्व के साथ वह कहता है कि इस पूरे इलाके में उस जैसा बढ़ई कोई नहीं हो सकता। न सिर्फ बढ़ईगीरी में बल्कि बाकी तमाम क्षेत्रों में अपने पिता को वह अपना उस्ताद मानता है।

अपने पिता से फ्रैडरिक ने प्रकृति को समझना और उसका आदर करना सीखा। किस तरह कीट पतंगों और तितलियों चिड़ियों के आने जाने के क्रम के भीतर प्रकृति अपने रहस्यों को प्रकट करती है और किस तरह वह अपने संतुलन को बिगाड़ने वाले मानव के खिलाफ अपना क्रोध व्यक्त करती है यह सब फ्रैडरिक को बचपन से सिखाया गया था।

कोई आश्चर्य नहीं सत्तर के दशक में अंग्रेज़ी साहित्य में एम ए करने के बाद फ्रैडरिक ने थोड़े समय नैनीताल के डी एस बी कॉलेज में पढ़ाया लेकिन नौकरी उसे रास नहीं आई। उसने बंजारों का जीवन अपनाया और कुमाऊं गढ़वाल भर के पहाड़ों और हिमालयी क्षेत्रों की खाक छानी।

सन 1980 के आसपास से कुमाऊं में फैलते भूमाफिया के कदमों की आहट पहचानने और सुनने वाले पहले लोगों में फ्रैडरिक था। यह फ्रैडरिक था जिसने अपने इलाके के निवासियों के लिए राशनकार्ड जैसा मूल अधिकार सुनिश्चित कराया।

अस्सी के दशक में फ्रैडरिक अपनी ग्रामसभा का प्रधान चुना गया और पांच सालों के कार्यकाल के बाद उसकी ग्रामसभा को जिले की आदर्श ग्रामसभा का पुरूस्कार प्राप्त हुआ।इस दौरान उसने अपने क्षेत्र के हर ग्रामीण की ज़मीन जायदाद को बाकायदा सरकारी दफ्तरों के दस्तावेजों में दर्ज कराया। जंगलों में लगने वाली आग से लड़ने को स्थानीय नौजवानों की टुकड़ियां बनाईं दबे कुचले लोगों को बताया कि शिक्षा को वे बतौर हथियार इस्तेमाल करें तो उनका जीवन बेहतर बन सकता है। साथ ही यह समय आसन्न लुटेरों के खिलाफ लामबन्दी की तैयारी का भी था जो तरह तरह के मुखौटे लगाए पहाड़ों की हरियाली को तबाह करने के गुप्त रास्तों की खोज में कुत्तों की तरह सूंघते घूम रहे थे।

पूरा पहाड़ न सही अपनी जून एस्टेट और आसपास के जंगलों को तो वह बचा ही सकता था। इसके लिए उसने कई दफा अपनी जान की परवाह भी नहीं की। जून एस्टेट में पड़ने वालै एक सरकारी जमीन को उत्तर प्रदेश की तत्कालीन भगवा सरकार ने रिसॉर्ट बनाने के वास्ते अपने एक वरिष्ठ नेता को स्थानांतरित कर दिया। इस रिसॉर्ट के निर्माणकार्य में सैकड़ों बांजवृक्षों को काटा जाना था। इन पेड़ों की पहरेदारी में स्मेटाचेक परिवार ने करीब आधी शताब्दी लगाई थी।

भगवा राजनेता ने धन और शराब के बल पर स्थानीय बेरोजगारों का समर्थन खरीद कर निर्माण चालू कराया लेकिन फ्रैडरिक के विरोध और लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद न्यायालय का निर्णय निर्माण को बन्द कराने में सफल हुआ। इस पूरे प्रकरण में कुछ साल लगे और कानून की पेचीदगियों से जूझते फ्रैडरिक को पटवारियों क्लर्कों पेशकारों से लेकर कमिश्नरों तक से बात करने और लड़ने का मौका मिला। उसे मालूम पड़ा कि असल लड़ाई तो प्रकृति को सरकारी फाइलों और तुगलकी नीतियों से बचाने की है। कम से कम लोगों को इस बाबत आगाह तो किया जा सकता है।

इधर 1990 के बाद से दिल्ली और बाकी महानगरों से आए बिल्डरों ने औने पौने दाम दे कर स्थानीय लोगों की जमीनें खरीदना शुरू किया। इन जमीनों पर रईसों के लिए बंगले और कॉटेजें बनाई गईं। भीमताल की पूरी पहाड़ियां इन भूमाफियाओं के कब्जे में हैं और एक भरपूर हरी पहाड़ी आज सीमेन्ट कंक्रीट की बदसूरत ज्यामितीय आकृतियों से अट चुकी है।

अकेला फ्रैडरिक इन सब से निबटने को काफी नहीं था। फिर भी सन 2000 में उसने नैनीताल के उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की । यह याचिका पिछले दशकों में शासन की लापरवाही प्रकृति के प्रति क्रूरता और आसन्न संकट से निबटने के लिए वांछनीय कार्यों का एक असाधारण दस्तावेज। पांच सालों बाद आखिरकार 2005 के शुरू में इस याचिका पर शासन ने कार्य करना शुरू कर दिया है। वर्ष 2000 में फ्रैडरिक ने बाकायदा भविष्यवाणी करते हुए जल निगम को चेताया था कि उचित कदमों के अभाव में जल्द ही समूचे हल्द्वानी की तीन चार लाख की आबादी को भीमताल की झील के पानी पर निर्भर रहना पड़ेगा क्योंकि लगातार खनन और पेड़ों के कटान ने एक समय की सदानीरा गौला नदी को एक बीमार धारा में बदल दिया था। 2005 की गर्मियों में यह बात अक्षरश: सच साबित हुई।

बहुत कम लोग जानते हैं कि फ्रैडरिक एक बढ़िया लेखक और कवि भी है। वह अंग्रेजी में लिखता है और उसका ज्यादातर लेखन व्यंग्यात्मक होता है। उसे शब्दों और उनसे निकलने वाली ध्वनियों से खेलने और शरारत में आनन्द आता है। ‘द बैलेस्टिक बैले ऑफ ब्वाना बोन्साई बमचीक’ उसका अब तक का सबसे बड़ा काम है अलबत्ता उसे अभी छपना बाकी है । इसके एक खण्ड में पेप्सी और कोकाकोला के ‘युद्ध’ को समाप्त करने के लिए कुछ अद्भुत सलाहें दी गई हैं।

दुनिया भर के साहित्य पढ़ चुके फ्रैडरिक के प्रिय लेखकों की लिस्ट बहुत लम्बी है। वह हिमालयी पर्यावरण के विरले विशेषज्ञों में एक है। पिछले दस सालों से जून एस्टेट के पेड़ों के हक के लिए लड़ते भारतीय दफ्तरों की लालफीताशाही और खत्ता खतौनी जटिलताओं से रूबरू होता हुआ अब वह भारतीय भू अधिनियम कानूनों का ज्ञाता भी है। अपने बिस्तर पर लेटा हुआ वह एक आवाज सुनकर बता सकता है कि कौन सी चिड़िया किस पेड़ पर बैठकर वह आवाज निकाल रही है और कि वह ठीक कितने सेकेंड बाद दुबारा वही आवाज निकालेगी़ जब तक कि उसका साथी नहीं आ जाता। जंगली मुर्गियों तेंदुओं हिरनों के पत्तों पर चलने भर की आवाज से वह उन्हें पहचान सकता है और जैसा कि मैंने बताया था वह एक विशेषज्ञ बढ़ई। गांव के बच्चों को हर मेले में जाने के लिए जेबखर्च देने वाला फ्रैडरिक गैरी लार्सन जैसे भीषण मुश्किल काटूर्निस्ट का प्रशंसक फ्रैडरिक देश विदेश के लेखक बुद्धिजीवियों का दोस्त फ्रैडरिक ‘बटरफ्लाइ मैन’ के नाम से विख्यात फ्रैडरिक कभी कभार शराब के नशे में भीषण धुत्त सरकार अफसरों को गालियां बकता फ्रैडरिक बैसाखियों के सहारे धीमे धीमे चलने की कोशिश करता ईमानदार ठहाके लगाता फ्रैडरिक पता नहीं क्या क्या है वह।

हां कभी भीमताल से गुजरते हुए सुखर् लाल जिप्सी पर निगाह पड़े तो समझिएगा वह फ्रैडरिक की गाड़ी है। गाड़ी चालक से कहेंगे तो वह सीधा आपको फ्रैडरिक के पास ले जाएगा। आप पाएंगे कि ऊपर चढ़ती गाड़ी बिना आवाज किए चढ़ रही है। बाद में जब आप फ्रैडरिक से मिल चुके होंगे उसकी कुछ बातें सुन चुके होंगे हो सकता है अपनी पुरानी जिप्सी का जिक्र आने पर वह आपको बताए कि गाड़ी बीस साल पुरानी है। अपने जर्मन आत्मगर्व के साथ वह आपको बताएगा कि वह न सिर्फ इलाके का सबसे बढ़िया बढ़ई है बल्कि सबसे बड़ा उस्ताद कार मैकेनिक भी।


साभार-(प्रस्तुतकर्ता आशुतोष ) http://bugyaal.blogspot.com/

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Re: सलाम फ्रैडरिक स्मेटाचेक
« Reply #1 on: March 12, 2009, 09:41:55 AM »
Dhanyavaad Shailesh Fredrik ji ka jeevan vritaant humare saamne laane ke liye. Fredrik jaise paryavaran rakshakon ki wajah se hi abhi bhi Uttarakhand main haryali hai.

पंकज सिंह महर

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विश्व प्रसिद्ध चिपको आन्दोलन के बारे में सभी जानते हैं लेकिन इस आन्दोलन की जननी गौरा देवी को कम ही लोग जानते हैं। इस आन्दोलन को विश्व पटल पर स्थापित करने वाली महिला गौरा देवी ने पेड़ों के महत्व को समझा इसीलिए उन्होंने आज से 38 साल पहले जिला चमोली के रैंणी गांव में जंगलों के प्रति अपने साथ की महिलाओं को जागरूक किया। तब पहाड़ों में वन निगम के माध्यम से ठेकेदारों को पेड़ काटने का ठेका दिया जाता था। गौरा देवी को जब पता चला कि पहाड़ों में पेड़ काटने के ठेके दिये जा रहे हैं तो उन्होंने अपने गांव में महिला मंगलदल का गठन किया तथा गांव की औरतों को समझाया कि हमें अपने जंगलों को बचाना है। आज दूसरे इलाके में पेड़ काटे जा रहे हैं हो सकता है कल हमारे जंगलों को भी काटा जायेगा। इसलिए हमें अभी से इन वनों को बचाना होगा। गौरा देवी ने कहा कि हमारे वन हमारे भगवान हैं इन पर हमारे परिवार और हमारे मवेशी पूर्ण रूप से निर्भर हैं। 25 मार्च सन् 1927 की बात है। उस दिन रैणी गांव के अधिकांश मर्द चमोली गये हुए थे। गांव में अधिकांश महिलायें ही थीं। उसी रोज वन निगम के ठेकेदार अपनी लेबर के साथ रैणी के जंगलों को काटने के लिए यहां पहुंचे। गौरा देवी को जब पता चला तो उन्होंने महिला मंगलदल की औरतों को इकट्ठा किया और उन्हें समझाया कि यदि आज हमारे गांव के जंगल यो ही काटे जायेंगे तो कल हमारा क्या होगा? हमारा जीवन इन्हीं वनों पर निर्भर है इसलिए हम कुछ भी करें लेकिन अपने वनों को नही कटने देंगे। साथ की महिलाओं ने कहा कि हम क्या कर सकते हैं? तो गौरा देवी ने कहा कि हम उन पेड़ों पर चिपक जायेंगी जिन्हें ठेकेदार के आदमी काटने आयेंगे। हम उन्हें कहंेगी कि पहले हमे मारो हमारेे टुकड़े करो तब इन पेड़ों को छुओ। गौरा देवी इसी संकल्प को लेकर अपनी सहेलियों के साथ जंगल में गई। जंगल में ठेकेदार के आदमी उस समय अपने लिए खाना पका रहे थे। गौरा देवी ने उन्हें कहा कि अपना खाना खाओ और चुपचाप यहां से निकल पड़ो यहां अगर तुमने पेड़ काटने की सोची तो ठीक नहीं होगा। ठेकेदार के एक आदमी ने गौरा देवी पर अपनी बन्दूक तान कर कहा कि तुम जैसी महिलाओं को हम रोज खदेड़ते हैं तुम चुपचाप अपने घर चली जाओ। गौरा देवी ने कहा कि ये जंगल हमारे देवता हैं और यदि हमारे रहते हुए किसी ने हमारे देवता पर हथियार उठाया तो फिर तुम्हारी खैर नहीं। कुछ देर बार जब ठेकेदार के आदमी पेड़ो को काटने पहंुचे तो गौरा ने अपनी सहेलियों सहित पेड़ों पर चिपट कर उन्हें ललकारा कि यदि तुमने इन पेड़ों को काटा तो बहुत बुरा होगा। यदि तुम्हें पेड़ काटने ही हैं तो पहले हमें मारो। काफी जद्दोजेहद के बाद ठेकेदार के आदमियों को जंगल से वापस अपने ड़ेरों में आना पड़ा। गौरा देवी जानती थीं कि आज तो ये लोग वापस चले गये हैं लेकिन फिर ये आयेंगे और इन पेड़ो को काटेंगे। इसलिए उनमें से कुछ महिलायें वहीं जंगल में डेरा ड़ालकर बैठ गई। रैणीं के लोगों को जब गौरा देवी के जुझारूपन तथा जंगलों के प्रति उनके लगाव को देखा तो वहां के लोग उनके साथ हो लिए। अगले दिन चमोली से लौटकर गांव के लोगों ने बैठक की और ठेकेदार तथा स्थानीय वन विभाग के अधिकारियों के सामने अपनी बात रखी। अन्ततोगत्वा यह तय हुआ कि रैंणी गांव का जंगल नहीं काटा जायेगा। गौरा देवी का जन्म जन्म चमोली जिले के लाता गांव में एक मरछिया गांव में हुआ। गौरा देवी जब 22 वर्ष की थीं तब उनके पति का देहान्त हो गया था। बाल विधवा गौरा देवी ने अपने नवजात शिशु के सहारे अपना जीवन अपने ससुराल में रहते हुए अपने बेटे की परवरिश करने के साथ-साथ अपने जीवन को जंगल और अपने गांव के लोगों के हितों के प्रति समर्पित कर दिया। रैणीं के जंगलों को बचाने के बाद गौरा देवी ने रैणीं महिला मंगलदल के माध्यम से क्षेत्र के कई गांवों में लोगों को प्रकृति तथा पर्यावरण के प्रति जागरूक किया। उन्होंने लोगों को बताया कि यदि हम आज अपने वनों तथा पेड़ों का संरक्षण करंेगे तो हमारे साथ-साथ हमारी आने वाली पीढ़ियों को इसका फायदा होगा। गौरा देवी ने वनों की सुरक्षा के अतिरिक्त महिलाओं को स्वावलम्बी बनाने के लिए कई प्रयास किये। गांव में महिलाओं को साक्षर बनाने के लिए कार्य किया। गौरा देवी की जन्म स्थली उत्तराखण्ड में आज चिपको से सीख लिये जाने की आवश्यकता है। मध्य हिमालय की शान्त वादियों में सदा से यहां का जन मानस तथा वनों के बीच घनिष्टता का संबध रहा है। यहां के लोगों का जीवन इन्हीं वनों पर आधारित रहा है। अपने जीवन यापन से लेकर अपने मवेशियों की उदर पूर्ति, ईंधन के रूप में लकड़ी आदि के लिए लोग सदा से ही जंगलों पर निर्भर रहे है। यह बात भी सच है कि समय-समय पर यहां के लोगों ने इन वनों को अनावश्यक रूप से हानि भी पहुंचाई यही कारण है कि आज मध्य हिमालय के वनों का क्षेत्रफल घटता जा रहा है। हालात आज काफी खराब हो चुके हैं कि यहां न तो वन बचे हैं और न नदियों में पानी। यहां का वातावरण जो जंगलों के कारण सदा ही सुहावना और वन तथा घन युक्त रहता था आज यहां के पहाड़ों में भी भयंकर गर्मी से दो-चार होना पड़ता है। वनों को हमारे जीवन में कितना महत्व है इस बात को अधिकांश लोग आज भी या तो समझ नहीं पाये हैं या समझते हुए भी वे लालच व स्वार्थवश इन वनों का विनाश जारी रखे हुए हैं। चिपको आन्दोलन को जन-जन तक पहुंचाने वाली वीरांगना गौरा देवी को हमारे नीति नियंताओं ने भुला दिया। चिपको आन्दोलन के नाम पर कई लोगों ने अपनी दुकानें खोलीं और कई तो विश्व पटल पर भी छा गये लेकिन गौरा देवी को उसकी सोच और दूरदर्शिता के लिए जो सम्मान दिया जाना चाहिए था वह अभी तक नहीं दिया गया है। आज जबकि गौरा देवी हमारे बीच नहीं हैं, उनके विचारों को आने वाली पीढ़ियां सदा ही याद रखेंगी तथा उससे सबक लेंगी। गौरा देवी को वनों से संबंधित नीति बनाने तथा जंगलों की सुरक्षा आदि के लिए आगे लाया जाता तो हिमालय की यह लौह महिला अपने अनुभवों तथा भावों के माध्यम से वनों की और अच्छे तरीके से सुरक्षा तथा व्यवस्था आदि के प्रति समाज का मार्ग दर्शन कर सकती थीं। गौरा देवी ने आजीवन अपने प्राकृतिक संसाधनों, जंगलों की सुरक्षा तथा संरक्षण के लिए संर्घष किया यद्यपि आज गौरा देवी के योगदान को भुला सा दिया गया है लेकिन आने वाली पीढ़ियां गौरा देवी के त्याग और साहस की गाथा को याद रखेंगी।

पंकज सिंह महर

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जगत सिंह "जंगली"

उत्तराखण्ड के गढ़वाल इलाके में रूद्रप्रयाग जिले के एक छोटे से गांव में रहते हैं जगत सिंह चौधरी और ‘जंगली’ के नाम से जाने जाते हैं। ‘जंगली’ के जंगल तक पहुंचने के लिए रूद्रप्रयाग से कर्णप्रयाग की तरफ जाने पर कोटमल्ला नाम की जगह के लिए एक संकरा रास्ता कटता है। आगे जाकर यह रास्ता कच्चा और पथरीला हो जाता है। करीब बीस किलोमीटर तक चलने के बाद हरियाली देवी का मंदिर आता है। एक तरह से यह नाम बहुत विडंबनापूर्ण है। पूरा इलाका एकदम सूखा हुआ है और बंजर से लगते पहाड़ों पर चीड़ के सिवा कुछ नज़र नहीं आता।

इसी मन्दिर से करीब एक किलोमीटर दूर पथरीली सड़क पर लगा एक विनम्र सा साइनबोर्ड आपका स्वागत करता है : ‘जंगली का जंगल’। इस जंगल में घुसते ही ठंडक महसूस होती है और आप अपने को तमाम तरह के पेड़ों के बीच पाते हैं। जंगली जी से मिलने को आपको बहुत इंतज़ार नहीं करना पड़ता। वे अपने जंगल में ही कहीं होते हैं।

करीब पचपन साल के इस शख्स की आंखों की आग को पहचानने के लिए पहले आप को इस दुर्लभ जंगल की दास्तान सुननी होगी। 1967 में कुल सत्रह की उम्र में जगतसिंह फौज में चले गए। फिर शादी परिवार वगैरह। गांव की स्त्रियों का जीवन बहुत कष्टप्रद था : घर से दो मील नीचे से पानी लाना, फिर दिन भर चारे और ईंधन की खोज में रूखे जंगलों में भटकना।

जगत सिंह को अपना पूरा बचपन याद था जिसमें दिन रात खटती रहने वाली एक मां होती थी : बच्चों के लिए उसके पास ज़रा भी वक्त नहीं होता था। अब शादी के बाद वे देख रहे थे कि उनकी पत्नी भी वैसा ही जीवन बिताने को अभिशप्त है।

इसी दौरान 1974 में मृत्युशैया पर पड़े जगतसिंह के दादाजी ने उनसे वचन लिया कि वे गांव के ऊपर स्थित उनकी साठ नाली यानी करीब पौने दो एकड़ ज़मीन की देखभाल करेंगे। इस पूरी बंजर ज़मीन पर सिर्फ एक पेड़ था। इस इकलौते पेड़ को उसकी उम्र के कारण आज भी सबसे अलग पहचाना जा सकता है।

जगत सिंह ने बरसातों में कुछ पौधे रोपे और जाड़ों में छुट्टी लेकर घर आए और बच गए पौधों की देखभाल में जुट गए। अगली बरसातों में उन्होंने कुछ और पौधे रोपे और यह क्रम चल पड़ा। चार पांच साल में उस बंजर में इतनी हरियाली हो गई कि घर की औरतों को चारे और ईंधन की समस्या नहीं के बराबर रह गई।

इधर जगत सिंह का स्वाध्याय जारी था और 1980 में उन्होंने अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण निर्णय लिया। फौज की नौकरी छोड़कर उन्होंने निश्चय किया कि वे अपना पूरा समय अपने जंगल को देंगे। रिटायरमेन्ट के बाद मिली फंड की रकम का ज्यादातर पैसा उन्होंने तमाम प्रजातियों के पेड़ों की पौध वगैरह में झोंक दिया। पच्चीस सालों की अथक मेहनत और फौलादी इरादों का परिणाम यह हुआ कि उनके जंजल में करीब सौ प्रजातियों के तकरीबन बीस हजार पेड़ हैं। यह फकत जंगल नहीं है : यह जगतसिंह चौधरी का जीवन है और उनकी प्रयोगशाला भी जिसमें उन्होंने तमाम हैरतअंगेज कारनामों को अंजाम दिया।

वे मानते हैं कि किसी पेड़ को लगा देने के बाद उसे काटने का हमारा कोई अधिकार नहीं। लेकिन इसके बदले वे उस पेड़ से विनम्रतापूर्वक मांग करते हैं कि वह भी उन्हें कुछ दे। सो आप देखते हैं कि चीड़ के पेड़ों पर सोयाबीन की लताएं चढ़ी हुई हैं और बांज के पेड़ों पर बारहमासा हरे चारे की। अपने जंगल से वे साल में दो कुन्तल सोयाबीन उगा लेते हैं।

इस जंगल में खेती करने का उनका ढंग निराला है : वे ‘गड्ढा यंत्र’ का इस्तेमाल करते हैं। करीब छह फीट, लम्बे तीन फीट चौड़े और डेढ़ फीट गहरे गडढे कई स्थानों पर खोदे गए हैं। इन गड्ढों में मिट्टी को समानान्तर मेड़ों की शक्ल में बिछाया गया है। दो मेड़ों के बीच खरपतवार गिरती रहती है। मेड़ों के ऊपर मूली, प्याज, आलू और टमाटर वगैरह उगाए जाते हैं। फसल कटने के बाद मेड़ों के बीच इकठ्ठा खरपतवार खाद में बदल चुकी होती है। अगली फसल के लिए अब मेड़ों को खाली जगह में खिसका दिया जाता है। तीखी ढलान वाले पहाड़ी इलाके में पानी को बहने से बचाने और ज़मीन को लगातर उपजाऊ बनाते जाने का यह तरीका नायाब है।

तीस साल पहले जिस धरती की कोई कीमत नहीं थी चौधरी साहब की लगन और मेहनत ने उस ज़मीन पर कुछ इंच की उपजाऊ मिट्टी की परत बिछा दी। अपने घर के लिए अन्न और सब्जी इसी जंगल से उगा लेने वाले जगत सिंह चौधरी ने कई अनूठे प्रयोग किए। सबसे पहले तो उन्होंने तमाम स्थापित ‘वैज्ञानिक’ सत्यों को गलत साबित किया। करीब ढाई हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित इस जंगल में उन्होंने ऐसी ऐसी प्रजातियां उगाई हैं कि एकबारगी यकीन नहीं होता। आम, पपीता, असमी बांस के साथ साथ वे देवदार और बांज भी उगा चुके हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इस ऊंचाई पर इन पेड़ों का उगना असंभव है। आप उनसे इसका रहस्य पूछेंगे तो वे किंचित गर्व से आपसे कहेंगे कि वे अपने जंगल में कुछ भी पैदा कर सकते हैं। आप पूछेंगे ‘कैसे’ तो एक निश्छल ठहाका गूंजेगा “क्योंकि जंगली पागल है।”

तो आप देखते हैं कि एक चट्टान पर आंवले का पेड़ फलों से लदा हुआ है। एक जगह पानी के तालाब के पास हजारों की तादाद में मगही पान की बेलें हैं। छोटी और बड़ी इलायची की झाड़ियों पर बौर आ रहे हैं। कहीं बादाम उग रहा है और कहीं पर हंगेरियन गुलाबों की क्यारियां हैं। अपने इस्तेमाल की चाय भी वे यहीं उगाते हैं। तमाम तरह के पहाड़ी फलों के पेड़ भी हैं। जंगल का एक हिस्सा बेहद आश्चर्यजनक है : जंगली जी यहां दुर्लभ हिमालयी जड़ी बूटिया उगाते हैं। वजदन्ती, हत्थाजड़ी और सालमपंजा जो दस हजार फीट से ऊपर ही पाई जाने वाली औषधीय प्रजातियां हैं यहां बाकायदा क्यारियों में उगाई जाती हैं। यह उनका नवीनतम प्रयोग है जिसमें वे भारत के गरीब पहाड़ी कृषक वर्ग के लिए चमकीले भविष्य का सपना संजोए हैं। वे चाहते हैं कि पहाड़ के किसान अपनी ज़मीन पर जड़ी बूटियां उगाएं। “एक नाली ज़मीन से साल में एक लाख रूपए तक कमा पाना संभव है” वे बहुत विश्वास से कहते हैं।

पिछले दशक में उनकी मेहनत का नतीजा यह निकला कि उनके जंगल में पानी के दो स्रोत फूट पड़े जिनसे अब उनके गांव भर की पानी की दिक्कत दूर हो गई है। मुझे अपना गांव याद आता है जहां बहने वाली गगास नदी पिछले तीन सालों से गर्मियां आते ही सूख जाती है। सरकार की तुगलकी योजना यह है कि बागेश्वर में बहने वाली पिंडर का पानी गगास तक लेकर आया जाए। पेड़ उगा कर पानी के स्रोतों को जिन्दा करने की कोई नहीं सोचता। शुरू शुरू में जगतसिंह चौधरी को पागल और सनकी कहा जाता था। वन विभाग के अफसरों ने उनका मजाक उड़ाया। सरकार ने उनके जंगल के बिल्कुल नजदीक एक कृषि प्रयोगशाला स्थापित करने के लिए लाखों की रकम एक इमारत बनाने पर फूंकी। आज तक उसमें कोई काम नहीं हुआ और वह खंडहर में तब्दील होती जा रही है।

पांच छ: साल पहले तत्कालीन उत्तरांचल के राज्यपाल सुरजीत सिंह बरनाला इस जंगल को देखने आए और उनकी अनुशंसा पर जगतसिंह चौधरी को प्रतिष्ठित वृक्षमित्र सम्मान मिला। गढ़वाल विश्वविद्यालय ने उन पर एक संक्षिप्त आलेख छापा। रूद्रप्रयाग के तत्कालीन जिलाधिकारी रमेश कुमार सुधांशु ने अपने स्तर से भरसक जंगली जी की सहायता की। लेकिन जगतसिंह चौधरी के जंगल को बतौर मॉडल देखे और प्रचारित किए जाने की आवश्यकता पर कोई गौर नहीं किया गया।

दरअसल ‘जंगली’ को शायद इस सब की अब उतनी दरकार भी नहीं रह गई लगती। रोज सुबह नौ बजे से शाम पांच बजे तक अपने जंगल और अपने पौधों के बीच काम में लगे रहने वाले जगतसिंह चौधरी का बेटा और भतीजा उनके साथ रहकर प्रकृति के तमाम रहस्यों को सीख रहे हैं। मेहनत करना उनमें सबसे बड़ा रहस्य है।

पिछले एकाध दशक से इस देश में आई पर्यावरण चेतना के परिप्रेक्ष्य में यह कदाचित संभव है कि ‘जंगली’ का जंगल आने वाले दशकों में किसी तीर्थ का रूप ले ले। यह बिल्कुल संभव है।

साभार : http://mohalla.blogspot.com/2007/10/blog-post_8453.html

पंकज सिंह महर

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श्री चण्डी प्रसाद भट्ट

चंडी प्रसाद भट्ट का जन्म 23 जून, 1934 को हुआ तथा उन्होंने अपनी युवावस्था गोपेश्वर में बितायी। अधिकांश पर्वतीय गांवों के लोगों की तरह चंडी प्रसाद को भी मैदानों में जाकर काम करना पड़ा जो ऋषिकेश की एक बस कंपनी में टिकट बाबू बन गये। वर्ष 1956 में दौरे पर आये गांधीवादी नेता जयप्रकाश नारायण के भाषणों से भट्ट को आशा बंधी। भट्ट एवं अन्य युवाओं ने गांधीवादी के प्रचार में अपने आपको झोंक दिया तथा आर्थिक विकास के लिये तथा संपूर्ण उत्तराखंड में शराबखोशी के विरूद्ध ग्रामीणों को संगठित करने लगे।

      वर्ष 1964 तक भट्ट ने दसोली ग्राम स्वराज्य मंडल की स्थापना की, जिसका कार्य जंगल आधारित उद्योगों में अपने घर के निकट ही गोपेश्वर में रोजगार पाने के लिये गांवों के लोगों को संगठित करना था। जब पेड़ों से लकड़ी के उपकरण बनाने तथा आयुर्वेदिक दवाओं के लिये जड़ी-बूटियों का बिक्री करने तथा भ्रष्टाचार एवं शोषण की खिलाफत करना आदि भी इसका कार्य था। पेड़ों तथा वनोत्पादन के लिये ग्रामीणों के वैध अधिकारों में कटौती तथा बाहरी व्यापारिक रूचियों के कारण वर्ष 1973 में भट्ट को सक्षम बनाया कि वे वन आधारित समिति सदस्यों तथा ग्रामीणों को सामूहिक चिपको आंदोलन में ले आयें ताकि वर्ष 1917 से जंगल नीति का पुनर्निरीक्षण हो।
      वर्ष 1982 में चिपको आंदोलन को प्रेरणा एवं मार्गदर्षन देने के लिये एक अलौकिक महिला प्रधान पर्यावरण आंदोलन चलाने तथा वनों के उचित इस्तेमाल के लिये उन्हें सामूहिक नेतृत्व के लिये रेमन मैगसेसे एवार्ड से विभूषित किया गया तथा वर्ष 2005 में भारत सरकार द्वारा प्रतिष्ठित पद्म भूषण एवार्ड दिया गया। यद्यपि भट्ट भारत की निचली भूमि की सभाओं में तथा बाहर चिपको आंदोलन के प्रवक्ता रहे, पर वे अपने समुदाय से कभी नहीं बिछुड़े। वह उनकी पत्नी तथा उनके पांच बच्चे हिमालयी पड़ोस का साधारण जीवन व्यतीत करते हैं। इस क्रम में वे अपने लोगों के कठिन जीवन अपने ज्ञान वर्धन तथा उत्पादक सलाह देकर निश्चित ही उनकी सहायता करते रहें।
 

पंकज सिंह महर

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दामोदर सिंह राठौर

84 साल की उम्र में दामोदर राठौर अगर कुछ और साल जीने की ख्वाहिश रखते हैं तो सिर्फ इसलिए कि वह कुछ और पेड़ लगा सकें। वह अब तक 3 करोड़ से ज्यादा पेड़ लगा चुके हैं। उनका लक्ष्य 5 करोड़ पेड़ लगाने का है। कुछ साल पहले उन्हें वृक्ष मित्र के अवॉर्ड से नवाजा गया, लेकिन इसके अलावा उन्हें कहीं से कोई मदद नहीं मिली। वैसे उन्हें इस बारे में किसी से कोई शिकवा भी नहीं है। वह तो बस इस बात से खुश हैं कि कम से कम अब लोग उनकी बात सुनने लगे हैं और उसे मानकर पेड़ काटने से बचते हैं।

उत्तराखंड में सीमांत जिले पिथौरागढ़ से लेकर राजधानी देहरादून तक दामोदर राठौर पेड़ लगा चुके हैं। फिर चाहे वह दूर-दराज के डीडीहाट व चंपावत हों या मैदानी इलाके हल्द्वानी और बरेली हों। पेड़ों से उनके लगाव की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है। इंटर तक पढ़े दामोदर राठौर ने 1950 में ग्रामसेवक के तौर पर काम करना शुरू किया। सरकारी अधिकारियों के आदेश पर वह पेड़ लगाते और उनकी देखभाल करते थे। लेकिन धीरे-धीरे उन्हें लगने लगा कि पेड़ लगाने के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति की जा रही है। लगाने के लिए जो पौधे आते हैं वे आधे सूखे होते हैं। एक बार पौधा लगाने के बाद सिर्फ कागजों पर ही उस ओर ध्यान दिया जाता है।

सरकार की तरफ से इस फंड में आए धन का पूरा दुरुपयोग हो रहा है। दामोदर कहते हैं, 'यह सब बातें मुझे बहुत परेशान करती थीं। मैंने फैसला किया कि अब अपने बूते पेड़ लगाकर दिखाऊंगा और साबित करूंगा कि अगर इच्छाशक्ति हो तो सब कुछ मुमकिन है।' उन्होंने ग्राम सेवक का काम छोड़ दिया। 1952 से पेड़ लगाने की यह तपस्या अब तक अनवरत जारी है।

वह कुल 3 करोड़ 15 लाख 10 हजार 705 पेड़ लगा चुके हैं। उन्होंने बताया कि पहाड़ों में ज्यादातर पेड़ सिलिंग, उतीश और बाज के लगाए हैं। सिलिंग जल स्त्रोत के लिए वरदान होता है और उन्हें नया जीवन देता है। अब वह मेडिसन प्लांट भी लगा रहे हैं। ज्यादातर पेड़ ग्राम पंचायत की जमीन पर और कुछ व्यक्तिगत जमीन पर भी लगाए हैं। उन्होंने कहा कि पेड़ लगाने के लिए इजाजत लेना बड़ा पेचीदगी भरा काम हैं। मैंने राज्य सरकार को पत्र लिखकर कहा है कि मुझे जहां भी वृक्ष विहीन जमीन मिलेगी वहां पेड़ लगा लूंगा। पौधों के लिए उन्होंने एक नर्सरी बनाई है।

बागवानी की किसी डिग्री के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा कि मैंने प्रकृति से सीखा है। प्रकृति ही मेरी पाठशाला है। परिवार में उनकी बीबी और 17 साल की एक बेटी है। लेकिन दामोदर कहते हैं कि उनके 3 करोड़ से ज्यादा बच्चे हैं। लगाए गए पेड़ों को वह अपने बच्चे ही मानते हैं और उसी तरह उनकी देखभाल भी करते हैं। उम्र के इस पड़ाव पर उनकी तबीयत खराब ही रहती है, लेकिन 5 करोड़ पेड़ लगाने का जुनून उनमें नया जोश भरता है। वह डीडीहाट के पास 6900 फुट की ऊंचाई पर जंगलों के बीच कुटिया बना कर रहते हैं। घर का खर्च जुटाने के लिए उनकी पत्नी एक स्कूल में पढ़ाती हैं। वह प्रार्थना भी करते हैं तो यही मांगते हैं कि उनका लक्ष्य पूरा होने से पहले भगवान उन्हें अपने पास न बुलाए।

साभार - पूनम पाण्डे http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/3101063.cms
 
 
 
 
 

 

पंकज सिंह महर

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   हरी वादियों का संगीतकार- सच्चिदानन्द भारती

अस्सी के दशक की शुरुआत से ही एक अकेले व्यक्ति के शांत प्रयासों ने ऐसे ग्रामीण आंदोलन की नींव रखी जिसने उत्तराखंड की बंजर पहाड़ियों को फिर से हराभरा कर दिया। सच्चिदानंद भारती की असाधारण उपलब्धियों को सामने लाने का प्रयास किया संजय दुबे ने। 




शायद ही कुछ ऐसा हो जो संच्चिदानंद भारती को उफरें खाल के बाकी ग्रामीणों से अलग करता हो। ये तो जब वो हमारा स्वागत गुलाब के फूल से करने के साथ हमें अपने गले लगाते हैं तब हमें एहसास होता है कि इसी असाधारण रूप से साधारण व्यक्ति के महान कृत्य हमें उफरें खाल खींच कर लाये हैं।

औपचारिकताओं से निबटकर जब हम चारो तरफ फ़ैली पर्वत श्रृंखलाओं पर नज़र दौडाते है तो हमें भारती जी की अद्भुत उपलब्धियों की गुरुता का एहसास हो जाता है। दरअसल भारती ने एक समय नग्न हो चुकी उत्तराखंड के पौड़ी ज़िले में स्थित दूधातोली पर्वत श्रृंखला के एक बड़े हिस्से को राज्य के सबसे बढिया और घने जंगलों में तब्दील कर दिया है। उनकी कोशिशों की बदौलत सैंकड़ो पेड़ सरकारी कुल्हाड़ी के शिकार होने से बच गए- ये छोटी सफलता एक बड़े परिवर्तन की नींव बनी। महत्वपूर्ण बात ये थी कि इस घटना ने उफरें खाल और इसके आसपास के लोगों में अपने अधिकारों की समझ और एकता की भावना पैदा कर दी।   

साल 1960 के बाद अनियंत्रित औद्योगिकरण ने पहाड़ों के एक लंबे-चौड़े हिस्से को प्राकृतिक संपदा का गोदाम बना डाला। एक ऐसा गोदाम जिसमें मैदान की ज़रूरत के सामान रखे होते थे। 1970 के दशक में वन्य संपदा के विनाश को रोकने के लिए सबसे मशहूर संघर्ष था चिपको आंदोलन, इसकी शुरुआत चमोली ज़िले के गोपेश्वर नाम की जगह से हुई। भारती उस समय गोपेश्वर के कॉलेज में पढ़ रहे थे और इस आंदोलन में उन्होंने भी सक्रिय भुमिका निभाई। भारती जी ने पेड़ों के संरक्षण को बढ़ावा देने के लिए कॉलेज में एक समूह भी बनाया जिसका नाम था 'डालियों का दागड़िया' (पेड़ों के मित्र)। पढ़ाई खत्म करके जब वो उफरें खाल पहुंचे तो वहां भी उनका सामना विनाश की कुछ ऐसी ही परिस्थितियों से हुआ। भारती बताते हैं, "उसी दौरान वन विभाग ने डेरा गांव के समीप लगे पेड़ों का एक बड़ा हिस्सा काटने का फैसला किया। चिपको आंदोलन से जुड़ा होने की वजह से मुझे पता था कि इस परिस्थिति से कैसे निपटना है, मैंने गांव वालो को साथ लेकर अभियान शुरू कर दिया।" उनकी कोशिशों की बदौलत सैंकड़ो पेड़ सरकारी कुल्हाड़ी के शिकार होने से बच गए। बाद में ये छोटी सी सफलता एक बड़े परिवर्तन की नींव बनी। महत्वपूर्ण बात ये थी कि इस घटना ने उफरें खाल और इसके आसपास के लोगों में अपने अधिकारों को लेकर समझ और एकता की भावना पैदा कर दी।

पहाड़ों के बुजुर्ग याद करते हैं कि किस तरह से एक समय में यहां के वन, इनमें रहने वाले जंगली जानवरों और इस पर ईंधन और भोजन के लिए आश्रित गाँव वालों, दोनों के लिए पर्याप्त हुआ करते थे। लेकिन, जैसे-जैसे जंगलो की कटाई अनियंत्रित होती गई, गाँव वालो को दोहरी मार झेलनी पड़ गई-- एक तरफ़ तो उनके लिए ज़रूरी संसाधनों का अकाल पड़ने लगा, वहीं दूसरी ओर जंगली जानवर भी सिकुड़ते वनों के चलते अपनी ज़रूरतें पूरी न होने से इंसानी रिहाइशों में सेंध लगाने लगे थे। लेकिन भारती की सलाह पर पास के डेरा गांव के लोग इन जानवरों को मारने की बजाय अपने घरों और खेतों के चारो तरफ चारदीवारियां खड़ी करने लगे। 1980 में बननी शुरू हुई दीवार के लिए सिर्फ डेरा गांव के ही नहीं बल्कि दूसरे गांवो के लोगों ने भी आर्थिक सहयोग दिया। आज 9 किमी लंबी इस दीवार के प्रयोग को और जगहों पर भी लागू किया जा रहा है। इसी दौरान भारती ने एक स्थानीय स्कूल में अध्यापन का कार्य भी शुरू कर दिया। उनके पुराने साथी और पेशे से डॉक्टर, दिनेश ने बताया कि ये उनकी सफलता के सबसे महत्वपूर्ण कारकों में से एक था। क्योंकि ऐसा करने से वो सीधे-सीधे पर्यावरण सरंक्षण के संदेश को नई पीढी तक पहुंचा पाए। 

1970 के अंत तक जंगलों की कटाई इस स्तर पर पहुंच चुकी थी कि इसने सरकारी अमले में भी इससे निपटने के लिए क़दम उठाने की बेचैनी पैदा कर दी। उन्होंने संरक्षित वनों के खाली पड़े भू-भाग पर चीड़ के पेड़ लगाने शुरू कर दिए। भारती के अनुसार ये क़दम खतरनाक साबित हुआ। वो कहते हैं, "चीड़ के जंगलों ने ज़मीन में नमी का स्तर तेज़ी से कम किया और नमी की कमी के साथ चीड़ के पेड़ों की पत्तियों में मौजूद ज्वलनशील पदार्थ ने  जंगल में आग की घटनाओं को भी बढ़ा दिया। इसके अलावा चीड़ की जड़ों में मिट्टी की बेहतर पकड़ के गुण न होने के चलते भू-स्खलन के खतरे भी बढ़ गए।" 1980 में भारती ने एक दूसरा तरीका निकाला। वन विभाग की मदद से उन्होंने स्थानीय पहाड़ी प्रजाति के पौधे--देवदार, बुरांस, बांच आदि--की नर्सरी खोली। ये कोशिश बाद में दूधातोली लोक विकास संस्थान(डीएलवीएस) के रूप में विकसित हुई जो आज पूरे क्षेत्र में स्थानीय पहाड़ी पौधे लगाने के साथ-साथ अपने अपने साथ जुड़े 150 गांवों में सालाना पर्यावरण जागरुकता शिविर का आयोजन भी करता है। डीएलवीएस क्षेत्र की इसी समय भारती गांधी शांति प्रतिष्ठान के अनुपम मिश्र के संपर्क में आए, जिन्होंने उन्हें छोटे स्तर की बावड़ियों और पानी के स्रोत तैयार करने के तरीके सुझाए। भारती ने इन सिद्धांतों को अपनी ज़रूरतों के हिसाब से ढाल लिया और पुराने, सूखे पड़े पानी के स्रोतों को पुनर्जीवित करना शुरू कर दिया।
महिलाओं के सशक्तिकरण का भी बड़ा ज़रिया बना है--पहाडों में कामकाज के अभाव में ज्यादातर पुरूष मैंदानो की ओर चले जाते है और घर की जिम्मेदारी महिलाओं के कंधे पर आ जाती है और इन्हें ही संसाधनों के अकाल की मार झेलनी पड़ती है। इनकी सहभागिता बढ़ाने के लिए भारती ने हर गांव में महिला मंगल दल की नींव डाली और उनके सुरक्षित भविष्य की जिम्मेदारी का थोडा सा बोझा उन्ही के कन्धों पर डाल दिया। पहले वृक्षारोपण अभियान के बाद जितने गांवो ने इसमें हिस्सा लिया था उन्होंने एक सामूहिक फैसला लिया कि अगले 10 सालों तक जंगल में सारी प्रतिकूल गतिविधियां रोक दी जाएंगी। महिला मंगल दल के माध्यम से महिलाओं ने जंगलों के रखरखाव और उनमें किसी के अवांछित प्रवेश को रोकने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली।

एक दशक के भीतर ही दूधातोली के लोगों ने अपने खोए हुए जंगलों का एक बड़ा हिस्सा वापस पा लिया। भारती गर्व से बताते हैं कि पिछले 27 सालों के दौरान पूरे जंगल को लगाने में गांव वालों ने बमुश्किल 5-6 लाख रूपए खर्च किए होंगे। शुरुआती नर्सरी स्थापित करने के लिए मिली सहायता के बाद डीएलवीएस ने कभी कोई और सरकारी सहायता नहीं मांगी। इसकी बजाय नर्सरी के पौधों की बिक्री के जरिए इसने अपने कार्यक्रमों के लिए धन का बंदोबस्त ख़ुद ही किया। असल में भारती वन संरक्षण को लेकर सरकारी रवैये की आलोचना करते हैं। उनके मुताबिक, "वन रिज़र्व करने का अर्थ है पहाड़ी लोगों के वन में प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगना लेकिन पैसे के लालच में वन अधिकारी ठेकेदारों के साथ मिलकर इन्ही कानूनों का खुले आम उल्लंघन करते हैं।"

1987 में पूरा इलाका भीषण सूखे की चपेट में था। चिंतित डीएलवीएस ने हर पेड़ के पास एक छोटा सा गड्ढा बनाने का फैसला किया ताकि इनमें पानी इकट्ठा हो सके और पेड़ों को जीने के लिए कुछ औऱ समय मिल सके। इसी समय भारती गांधी शांति प्रतिष्ठान के अनुपम मिश्र के संपर्क में आए, जिन्होंने उन्हें छोटे स्तर की बावड़ियों और पानी के स्रोत तैयार करने के तरीके सुझाए। भारती ने इन सिद्धांतों को अपनी ज़रूरतों के हिसाब से ढाल लिया और पुराने, सूखे पड़े पानी के स्रोतों को पुनर्जीवित करना शुरू कर दिया। इसके अलावा उन्होंने कई नए जलस्रोतों का भी निर्माण किया। नतीजा, छोटे-बड़े लगभग 12 हजार तालाब अब 40 से ज्यादा गांवों की पानी की जरूरत बखूबी पूरी करते हैं। सिमकोली गांव के सतीश चंद्र नौटियाल एक छोटे से कुएं की तरफ इशारा करके बताते हैं कि 2005 में इसे बनाने में भारती ने उनकी सहायता की थी। वो कहते हैं कि आज ये कुआं ही पूरे गांव के आस्तित्व का आधार है।

भारती से विदा लेते वक्त उनके पुराने साथी रहे पोस्टमैन दीनदयाल धोंडियाल और किराना व्यापारी विक्रम नेगी के चेहरे गर्व से चमक रहे थे। नेगी कहते हैं, "जंगलो की कटाई रोकना तो एक छोटा सा क़दम था। असली चुनौती थी पहाड़ों की खत्म हो चुकी सुंदरता को फिर से वापस लाना।"

निस्संदेह भारती और उनके साथियों ने इस चुनौती पर एक चमकदार जीत अर्जित की है।
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साभार- http://www.tehelkahindi.com/UjlaaBharat/KhaamoshKranti/195.html

पंकज सिंह महर

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सुन्दरलाल बहुगुणा



चिपको आन्दोलन के प्रणेता सुन्दरलाल बहुगुणा का जन्म ९ जनवरी, सन १९२७ को देवों की भूमि उत्तराखंड के सिलयारा नामक स्थान पर हुआ । प्राथमिक शिक्षा के बाद वे लाहौर चले गए और वहीं से बी.ए. किए ।

सन १९४९ में मीराबेन व ठक्कर बाप्पा के सम्पर्क में आने के बाद ये दलित वर्ग के विद्यार्थियों के उत्थान के लिए प्रयासरत हो गए तथा उनके लिए टिहरी में ठक्कर बाप्पा होस्टल की स्थापना भी किए । दलितों को मंदिर प्रवेश का अधिकार दिलाने के लिए उन्होंने आन्दोलन छेड़ दिया ।

अपनी पत्नी श्रीमती विमला नौटियाल के सहयोग से इन्होंने सिलयारा में ही 'पर्वतीय नवजीवन मण्डल' की स्थापना भी की । सन १९७१ में शराब की दुकानों को खोलने से रोकने के लिए सुन्दरलाल बहुगुणा ने सोलह दिन तक अनशन किया। चिपको आन्दोलन के कारण वे विश्वभर में वृक्षमित्र के नाम से प्रसिद्ध हो गए ।

बहुगुणा के 'चिपको आन्दोलन' का घोषवाक्य है-

   क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार ।
   मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार ।
सुन्दरलाल बहुगुणा के अनुसार पेड़ों को काटने की अपेक्षा उन्हें लगाना अति महत्वपूर्ण है ।बहुगुणा के कार्यों से प्रभावित होकर अमेरिका की फ्रेंड आफ नेचर नामक संस्था ने १९८० में इनको पुरस्कृत भी किया । इसके अलावा उन्हें कई सारे पुरस्कारों से सम्मानित किया गया ।

पर्यावरण को स्थाई सम्पति माननेवाला यह महापुरुष आज 'पर्यावरण गाँधी' बन गया है ।

पंकज सिंह महर

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टिहरी गढ़वाल के विकास खण्ड जौनपुर के जिस उद्यानपति को उत्तराखण्ड शासन द्वारा "उद्यान पण्डित की उपाधि से विभूषित किया गया है, उसके चमत्कारपूर्ण सृजन के लिये उन्हें सार्वजनिक रुप से भी सम्मानित किया जाना चाहिये।
     कुन्दन सिंह पंवार नाम के इस पर्वत पुत्र ने एक ही पेड़ पर खुबानी, पुलम, आडू जैसे विभिन्न प्रजाति के फलों को उगाकर अद्भुत कार्य कर दिखाया है। नैनबाग स्थित "नारायणी"  नामक उनके फलोद्यान में एक पेड़ पर अनेक फलों का स्वाद लिया जा सकता है, यह उद्यान ढाई एकड़ भूमि पर स्थापित है, जिसमें से अन्ना, स्टार रपर, आर्जन रपर, रेड चीफ, सिल्वर रेपर, समर रेड, किरमेरा गोल्ड आदि प्रजातियां हैं। सेब की भी प्रजातियों को क्लोन के माध्यम से उत्पन्न किया गया है।
      एक हजार से अधिक फलदार पेडों के इस मनमोहक उद्यान में आम की भी कई देशी-विदेशी किस्मों को तैयार किया गया है। पंवार जी के अनुसार उनके उद्यान में दशहरी, लंगड़ा, बाम्बे ग्रीन, मल्लिका, आम्रपाली, रामेला आदि के साथ ही पुलम, आडू, खुबानी बादाम, अनार तथा किवी की अनेक प्रजातियां लगी हुई हैं। उल्लेखनीय यह है किवी फल को पहली बार उत्तराखण्ड में उगाने तथा उसके व्यापक उत्पादन का श्रेय भी श्री पंवार को ही जाता है। उनका कहाना है कि यदि व्यक्ति में काम करने का जज्बा हो तो वह कुछ भी सम्भव कर सकता है।
      देहरदून के डीएवी कालेज से अपनी शिक्षा ग्रहण करने के बाद कुन्दन सिंह पंवार ने अपने शुरुआती दौर में सरकारी सेवा भी की, किन्तु उसके बाद पारिवारिक कारणॊं से उन्हें इस नौकरी को छोड़ना पड़ा। अपने बड़े भाई टिहरी जिला पंचायत के उपाध्यक्ष गजे सिंग पंवार और पंवार कंस्ट्रक्शन कम्पनी के मालिक स्व० केदार सिंह पंवार की प्रेरणा से कुन्दन सिंह ने नैनबाग स्थित अपने पांच एकड़ के फार्म में जब बगीचा लगाया, तब इस बात की गुंजाइश कम दिखाई पड़ रही थी कि एक दिन उनका यह नारायणी उद्यान उत्तराखण्ड के नौजवानों के लिये एक माडल उद्यान के रुप में स्थापित होगा। अपनी अथक मेहनत और हार्टिकल्चर में आई वैग्यानिक क्रान्ति के चलते श्री पंवार ने आज वह मुकास हासिल कर लिया है, जिसके लिये वह निश्चित ही बधाई के पात्र हैं। आज के इस दौर में जब पहाड़ के नौजवान सरकारी नौकरी के लिये लालायित हैं, ऎसे में कुन्दन भाई द्वारा स्थापित नारायणी उद्यान नये लोगों और विशेष रुप से पहाड से पलायन कर रहे नौजवानों के लिये प्रेरणास्पद है।
       समुद्र तट से 1170 मीटर की ऊंचाई पर स्थित कुन्दन सिंह पंवार का नारायणी उद्यान लोगों के लिये एक आदर्श पाठशाला भी है। उनका कहना है कि वैश्वीकरण के इस युग में पानी की लड़ाई अवश्यम्भावी है। क्योंकि आज वनों के दोहन से यह समस्या दिनोंदिन गहराती जा रही है। जहां वनों के संरक्षण की जरुरत है, वहीं फलों के उद्यानों के संरक्षण और संवर्धन की भी नितान्त आवश्यकता है। इस संबंध में उन्होंने समय-समय पर शासन का ध्यान आकर्षित किया, किन्तु अपेक्षित सहयोग नहीं मिला। यदि थोड़ा सा भी सहयोग मिला होता तो वे अब तक इस क्षेत्र में काफी उपलब्धि हासिल करके दिखा दिये होते। क्षुब्ध होकर श्री पंवार ने शासन के प्रति अपने विचार इस तरह व्यक्त किये "सरकार की उदासीनता हमारी ऊर्जा को दबाती है"।


युगवाणी, जुलाई, २००७ से साभार टंकित

पंकज सिंह महर

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नारायण सिंह नेगी NARAYAN SINGH NEGI

1920 में ग्राम सणकोट, नारायणबगड़, जिला चमोली में जन्मे श्री नारायण सिंह नेगी विगत ३०-४० वर्षों से वृक्षारोपण करते आ रहे हैं। पर्यावरण सम्मान से सम्मानित श्री नेगी ने थराली गांव की २७ हैक्टेयर भूमि में ७५ प्रकार की प्रजातियों वाले ७० हजार से अधिक पेड़ लगाकर मिश्रित वन बनाया है। उनका नाम गौरादेवी स्मृति पुरस्कार के लिये भी नामित किया गया है। श्री नेगी पेड़ों को ही अपना भगवान मानते हैं और मंदिर में जाकर पूजा करने के बजाय पेड़ों की सेवा करना ज्यादा श्रेयस्कर मानते हैं।

 

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