Author Topic: उत्तराखंड की वैजानिक प्रतिभाये : FAMOUS SCIENTIST FROM UTTARAKHAND ORIGIN !  (Read 21352 times)

राजेश जोशी/rajesh.joshee

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महर जी
धन्यवाद, अच्छी जानकारी दी आपने पर महाराज लोहुमी जी की इतनी मेहनत का आज तक कोई सदुपयोग नही हो पाया।  कुरी (लैण्टाना) पूरे प्रदेश में फ़ैलती जा रही है और जमीन को खराब कर रही है।  इस ओर कोइ भी ध्यान नही दे रहा है, उनके अनुसंधान पर आगे कोई काम शायद नही हो पाया और कुरी का प्रसार जारी है।
चन्द्र शेखर लोहुमी
1904-1984

अल्मोड़ा जिले के सतराली गांव में १९०४ में जन्मे चन्द्र शेखर लोहुमी जी ने मात्र हाईस्कूल तक की शिक्षा प्राप्त की थी, इन्होंने अपनी असाधारण प्रतिभा से वह कर दिखाया, जो साधन संपन्न वैग्यानिकों के लिये एक चुनौती बन गया।
    लोहुमी जी ने १९३२ में प्रथम श्रेणी में मिडिल की परीक्षा पास की और उसके बाद अध्यापन को अपना पेशा बनाया। लोहुमी जी ने पढ़ाई की एक सुगम विधि भी तैयार की और उसी विधि से छात्रों को पढ़ाने लगे। इससे प्रभावित होकर तत्कालीन शिक्षा मंत्री (१९३२) कमलापति त्रिपाठी जी ने इन्हें ५०० रु० का अनुदान दिया और १९६४ में इन्हें राष्ट्रपति के हाथों इन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार भी मिला।
     १९६७ में इन्होंने लेन्टाना (कुरी घास) को नष्ट करने वाले कीट की खोज कर तहलका मचा दिया। १९७८ में जैव विग्यान चयनिका के अंक १ में इन्होंने लिखा था कि "१८०७ में कुछ पुष्प प्रेमी अंग्रेज अपने साथ मैक्सिको से एक फूलों की झाड़ी साथ लाये थे। इसके कुछ पौधे नैनीताल और हल्द्वानी के पास कंकर वाली कोठी में लगाये गये थे। शनैः-शनैः यह झाड़ी पूरे भाबर क्षेत्र और पहाड़ों में भी फैल गई। आज तो स्थिति यह है कि लेन्टाना उत्तराखण्ड के घाटी इलाकों में भी फैल गया है। हजारों एकड़ जमीन इस घास के प्रभाव में आने के कारण कृ्षि विहीन हो गई है" लेन्टाना बग के कीट को खोजने के लिये मास्टर जी ने ४ साल तक अथक प्रयास किया, इसके लिये उन्होंने २४ किस्म के अनाज, ६ फूलों, १८ फलों, २३ तरकारियों, २४ झाड़ियों, ३७ वन वृक्षों और २५ जलीय पौधों पर परीक्षण किया। इनके इस शोध को विश्व भर के सभी कीट विग्यानियों और वनस्पति शाष्त्रियों ने एकमत से स्वीकार किया। इस जैवकीय परीक्षण के लिए आई०सी०ए०आर० (इण्डियन काउन्सिल आफ एग्रीकल्चर रिसर्च) ने इन्हें १५००० का किदवई पुरस्कार देकर सम्मानित किया। प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने ५००० और पंतनगर वि०वि० ने १८००० का नकद पारितोषिक दिया। पन्तनगर वि०वि० ने पांच साल तल १०० रुपये की मासिक सहायता भी दी और कुमाऊं वि०वि० ने भी १००० का पारितोषिक दिया।
       लेन्टाना को जैविक ढंग से नष्ट करने की जानकारी देने के लिये इन्हें लखनऊ और दिल्ली से टी०वी० और रेडियो पर वार्ता के लिये बुलाया गया। पन्तनगर, कुमाऊ, जे एन यू, पूसा इंस्टीट्यूट, विवेकानन्द अनुसंधान संस्थान, अल्मोड़ा ने भी इन्हें परीक्षण से प्राप्त उपलब्धियों की जानकारी लेने के लिये आमंत्रित किया।१९७४ में बेसिक शिक्षा परिषद ने इन्हें परिषद का सदस्य मनोनीत किया। १९७६ में जिलाधिकारी नैनीताल और अल्मोड़ा ने इनका नाम पद्मश्री पुरस्कार के लिये नामित किया, लेकिन यथासमय संस्तुति न पहुंचने के कारण वह इस पुरस्कार से वंचित रह गये।
      लोहुमी जी ने सुर और लोनिया व ईटवा (ईट-पत्थर) पर १९७५ से अन्वेषण कार्य प्रारम्भ किया, इस विषय पर आपका विस्तृत लेख ८ अक्टूबर, १९७८ के साप्ताहित हिन्दुस्तान में प्रकाशित हुआ। मक्के की डंठल की राख पर आपने २ साल तक शोध किया, उस पर योजना भेजी, योजना विग्यान और प्रोद्योगिकी विभाग, उ०प्र० से स्वीकृत हो गई, यह योजना अभी पंतनगर वि०वि० में चलाई जा रही है। ११ अगस्त, १९७६ को सप्रू हाउस, दिल्ली में भारतवर्ष के वैग्यानिकों का सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में "जैवकीय विधि से नियंत्रण तथा विग्यान कैसे लिखा जाय" विषय पर इन्होंने वैग्यानिकों के सामने अपने विचार रखे। सभी ने इनकी मुक्त कंठ से सराहना की। तिपतिया घास और तुन की लकड़ी पर भी इनके प्रयोग सफल रहे। मधुमक्खी पालन पर भी आपने अन्वेषण किया।
     लेन्टाना बग पर आपने एक पुस्तक लिखी है, जो इण्डियन काउन्सिल आफ एग्रीकल्चर रिसर्च, दिल्ली द्वारा प्रकाशित की गई है। यह पुस्तक देश और विदेश की भाषाओं में भी प्रकाशित हुई है। लोहुमी जी जैसे विग्यान और अंग्रेजी से अनभिग्य व्यक्ति ने वह कर दिखाया, जो साधन संपन्न वैग्यानिक नहीं कर सके।


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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अपना लाड़ला ‘वैज्ञानिक’ अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक रवीन्द्र. के. पाण्डे
उत्तराखण्ड की नौकरशाही, वहां की जमीन से जुड़े नेताओं पर भारी पड़ी, परिणामस्वरूप उत्तराखण्ड के हाथ से उसका  अपना लाड़ला फिसलकर पड़ौसी देश चीन की गोद में पहुंच गया।
यह कहानी है अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक रवीन्द्र. के. पाण्डे की। जिसने अपनी सुदीर्घ साधना शोध के बाद ऐसी तकनीक विकसित की, जो कैंसर जैसे भयानक रोगी के लिए किसी वरदान से कम नहीं है। लेकिन उत्तराखण्ड के इस प्रतिभाशाली वैज्ञानिक को उसी की जन्मभूमि उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री व राज्यपाल ने जहां उसे प्रोत्साहित कर, हर संभव सहयोग का आश्वासन दिया। वहीं उत्तराखण्ड की नौरशाही ने निजी स्वार्थों के चलते उन्हें सिरे से ही नकार दिया।
आज वही प्रतिभाशाली वैज्ञानिक पड़ोसी देश चीन की एक प्रमुख कम्पनी के साथ अगले पांच साल के अनुबंध से जुडकर अपनी तकनीक  का सौदा करने को मजबूर है। ज्ञातव्य है कि डॉ. पाण्डे ने अपनी तकनीक का सौदा चीन की हिसुन फार्मा कम्पनी के साथ पांच साल के लिए किया है। कम्पनी इसके लिए डॉ. पाण्डे को 60 लाख डॉलर (करीब 27 करोड़ रुपए) का भुगतान करेगी।
‘निराला उत्तराखण्ड’ ने जब इस बाबत डॉ. रवीन्द्र. के. पाण्डे से बात की तो उत्तराखण्ड से जुड़े कई अनछुए पहलू सामने आए। डॉ. पाण्डे ने अपनी वार्ता की शुरुआत ही यहां से की – ‘पैसों का क्या करना है, इसका कोई अन्त नहीं है। असली तो आत्मा की संतुष्टी है। मेरा भी मन है कि मैं उत्तराखण्ड व देश के लिए कुछ करूं’।
नौकरशाही ने निराश किया
डॉ. पाण्डे की उत्तराखण्ड के प्रति इन उदात्त भावनाओं को लेकर ही जब सवाल किया तो उन्होंने कहा कि लगभग 5-6 वर्ष पूर्व उत्तराखण्ड के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवाड़ी से इस विषय पर चर्चा भी की। मुख्यमंत्री तिवाड़ी ने हल्द्वानी स्थित अपनी पत्नी के नाम से स्थापित ‘सुशीला तिवाड़ी हॉस्पिटल’ से जुडऩे का प्रस्ताव रखा। इसके लिए उन्होंने साढ़े सात करोड़ रुपए स्वीकृत भी कर दिये। किन्तु वह राशि कहां गई, किसी को पता नहीं। वहां के आला अधिकारियों से सम्पर्क किया तो उन्होंने निजी स्वार्थ के चलते न केवल हतोत्साहित किया बल्कि अपने व्यवहार से मुझे निराश भी किया।
इतना ही नहीं इसके बाद अगले मुख्यमंत्री भुवन चन्द खण्डूरी से भी मुलाका तक की। उन्हें श्रीनगर (गढ़वाल) में एक इन्स्टीट्यूट खोलने का प्रस्ताव भी दिया। इसमें उन्हें कैंसर पर विविध शोधों का  हवाला देते हुए विदेशी फण्ड की व्यवस्था का भी आश्वासन दिया। इस पर मुख्यमंत्री खण्डूरी ने कुछ कागजी कार्यवाही कर इस प्रस्ताव पर अमल करने का विश्वास भी दिया। किन्तु अन्तत: यह भी ठण्डे बस्ते में चला गया। इसी तरह तत्कालीन राज्यपाल से भी मुलाकात की। कुल मिलाकर सारी व्यवस्था कागजों तक  सिमट कर रह गई।
इतना ही नहीं राजस्थान की तत्कालीन राज्यपाल श्रीमती प्रतिभा पाटिल से भी इस सम्बन्ध में मुलाकात की। परिणामस्वरूप केवल शील्ड-पुरस्कार स्वरूप प्रदानकर मुझे चलता कर दिया। आज तक कोई बुलावा या प्रस्ताव राजस्थान सरकार से भी नहीं आया।
चीन से सौदा होने के बाद भी डॉ. पाण्डे का यह सपना है कि वे हल्द्वानी, नैनीताल, श्रीनगर या उत्तराखण्ड के किसी अन्य जिले में ‘फोटोडायनेमिक थैरेपी सेन्टर’ खोलेंगे। जिसमें न केवल शोधकार्य होंगे, अपितु रोगियों को अत्याधुनिक  चिकित्सा सुविधा भी उपलब्ध होगी। मेरी इच्छा है कि अपने मुल्क में गरीबों को सुलभ चिकित्सा मुहैया करा सकु। डॉ. पाण्डे ने कहा कि कैंसर पर अनुसंधान एक  लम्बी प्रक्रिया है। यदि अपने जीवन में 20 में से केवल 5 रोगियों को भी मैं स्वस्थ कर सका तो मैं स्वयं को धन्य मानूंगा। उन्होंने कहा कि मैं ही नहीं अन्य भारतीय मूल के वैज्ञानिक, चिकित्सक और उद्योगपति भारत के लिए कुछ करना चाहते हैं किन्तु यहां की नौकरशाही उन्हें हतोत्साहित करती है। डॉ. पाण्डे ने अपनी वार्ता को जारी रखते हुए बताया कि वे अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जे.एफ.कैनेडी से बेहद प्रभावित हैं। विशेषकर उनका यह कथन मुझे विशेष रूप से प्रभावित करता है कि – ‘यह मत सोचो कि देश तुम्हारे लिए क्या करता है बल्कि  यह सोचो कि तुम अपने देश के लिए क्या कर सकते हो’। इस वाक्य को प्रेरणावाक्य मानकर मैं प्रयासरत हूं कि कभी न कभी मेरा सपना जरूर पूरा होगा।
जीवन परिचय
डॉ. रवीन्द्र. के. पाण्डे का जन्म सन् 1952 में अल्मोड़ा जिले के ग्राम ‘ताकुला’  में हुआ। मध्यमवर्गीय परिवार में जन्में रवीन्द्र ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा गांव में ही पूरी की। इनके पिता बारामण्डल के तहसीलदार थे। किन्तु अस्वस्थता के चलते उन्होंने अपने पद से इस्तीफा भी दे दिया। जबकि मां एक आम उत्तराखण्डी महिला की तरह खेती-बाड़ी व घर संभालती। रवीन्द्र ने गांव से 8वीं की परीक्षा पास की और देहरादून से हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। देहरादून से एम.एस.सी. करने के बाद राजस्थान की राजधानी जयपुर से पी.एच.डी. की उपाधि ग्रहण की। डॉ. रवीन्द्र. के. पाण्डे ने सर्वप्रथम वैज्ञानिक डॉ. बी.सी. जोशी की लेब में काम किया। इस दौरान डॉ. जोशी के व्यक्तित्व का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। समर्पण व त्याग की भावना डॉ. पाण्डे ने डॉ. जोशी से ही सीखी। यहां उन्हें मलेरिया व लेप्रेसी पर शोध करने का  अवसर मिला। इस·के बाद डॉ. रवीन्द्र ने इन्दौर में डेढ़ वर्ष तक एक फार्मास्यूटिकल कम्पनी में काम किया। सन् 1980 में डॉ. रवीन्द्र केलिफोर्निया अमेरिका चले गए और इसके बाद इंग्लैंड में शोध कार्य करते हुए अपने व्यक्तित्व को ऊंचाइयां प्रदान की। सन् 1984 में डॉ. रवीन्द्र पाण्डे श्रीमती उषा पाण्डे के साथ विवाह बन्धन में बंध गए। पाण्डे दम्पत्ति की दो संतानें अनुपम व अंकित हैं।
‘निराला उत्तराखण्ड’ ने डॉ. पाण्डे से विस्तृत चर्चा कर यही निष्कर्ष निकाला कि उत्तराखण्ड ही नहीं अपितु पूरे देश में नौकरशाही हावी है। वह भी निजी स्वार्थों के चलते …

(Source - http://www.niralauttarakhand.com)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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वैज्ञानिक डा. चंद्र मोहन किष्टवालमंगल मिशन में नैनीताल के चांद का भी योगदान
नैनीताल। मंगल की मंगलमय यात्रा में उत्तराखंड का भी नाम भी दर्ज है। नैनीताल मूल के वैज्ञानिक डा. चंद्र मोहन किष्टवाल मंगलयान की  लांच टीम के एक प्रमुख वैज्ञानिक हैं।
डा. किष्टवाल की शिक्षा दीक्षा नैनीताल में ही हुई है। उन्होंने सातवीं से बारहवीं तक की पढ़ाई भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय नैनीताल से की। उसके बाद कुमाऊं विवि के डीएसबी परिसर से 1982 में प्रथम श्रेणी में फिजिक्स में एसएससी की। डा. किष्टवाल की बहन सुनीता घिडियाल यहां सनवाल स्कूल में पढ़ाती हैं और उनके बहनोई अनिल घिडियाल सांग एंड ड्रामा डिवीजन नैनीताल में कार्यरत एक जानेमाने कलाकार है। डा. किष्टवाल के पिता स्व. एसआर किष्टवाल यहां सहकारी समिति में कार्यरत थे तथा सहकारी चीनी मिल काशीपुर से सचिव के पद से रिटायर हुए। मूल रूप से रामनगर के निकट मरचूला के गांव डोंगरा निवासी डा. किष्टवाल बचपन से ही अत्यंत कुशाग्र बुद्धि के थे तथा विज्ञान में रुचि के चलते एमएससी के तुरंत बाद इसरो (इंडियन स्पेस रिसर्च ऑगनाईजेशन) अहमदाबाद में वैज्ञानिक के रूप में चयनित हो गए। उन्होंने आईआईटी दिल्ली से एटमोस्फेरिक साइंस में पीएचडी की। डा. किष्टवाल तीन वर्ष तक अमेरिका व कई वर्ष तक जापान में भी रहे। लेकिन देश के प्रति अगाध प्रेम के चलते वे लगभग एक करोड़ रुपए प्रतिवर्ष का पैकेज ठुकराकर भारत चले आए। एटमोस्फेरिक साइंस सहित साईक्लोनिक विज्ञान में विशेषज्ञता रखने वाले डा. किष्टवाल इसरो के वरिष्ठ वैज्ञानिक होने के नाते शुरू से ही मंगलमिशन से जुड़े  थे। मंगलमिशन की सफलता पर आज यहां उनके परिजनों को तमाम लोगों ने बधाई दी है।



ऐरीज के वैज्ञानिकों ने दी बधाई

नैनीताल। ऐरीज के वरिष्ठ वैज्ञानिक डा. वहाबउद्दीन सहित अन्य वैज्ञानिकों ने मंगलमिशन को बहुत बड़ी कामयाबी बताते हुए देश के वैज्ञानिकों को इसके लिए बधाई दी है। उन्होंने कहा है कि यह एक अत्यंत जटिल मिशन था। इसकी सफलता ने देश के वैज्ञानिकों को विश्व की अग्रिम पंक्ति में ला खड़ा किया है। डा. वहाबउद्दीन ने बताया कि फिलहाल मंगल यान पर ऐरीज से कोई नजर नहीं रखी जा रही है


http://www.amarujala.com/



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उत्तराखंड के मनस्वी 17 साल में बने इसरो के वैज्ञानिक

भले ही हर साल उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में आ रही आपदा यहां के जनजीवन को प्रभावित कर रही हो, लेकिन ऐसी विपरीत परिस्थितियों में पहाड़ की प्रतिभाएं अपनी मेहनत और लगन के दम पर राष्ट्रीय स्तर पर अपना नाम दर्ज करा रही हैं।

रुद्रप्रयाग के दूरस्थ गांव जखोली (सिद्धसौड़) के मनस्वी भट्ट का चयन इसरो (इंडियन स्पेस रिसर्च आर्गनाइजेशन) में वैज्ञानिक पद के लिए हुआ है। मनस्वी की सफलता पर क्षेत्र वासियों ने हर्ष व्यक्त किया है।

17 वर्षीय मनस्वी का चयन इस वर्ष जेईई मेन परीक्षा के आधार पर इसरो के लिए हुआ है। वर्तमान में वह केरल के त्रिवेंद्रम में प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं।

मनस्वी के पिता राकेश भट्ट राजकीय प्राथमिक विद्यालय जखनोली में शिक्षक और माता ममता केंद्रीय विद्यालय ऋषिकेश में शिक्षिका के पद पर तैनात हैं।

मनस्वी ने माता के साथ रहकर केंद्रीय विद्यालय से शिक्षा हासिल की है। वह अपनी सफलता का श्रेय माता-पिता को देते हैं। कहते हैं कि उनके प्रोत्साहन से यह मुकाम हासिल किया है।

मनस्वी को अपने गांव से बेहद लगाव है। वह कहते हैँ कि पहाड़ का जीवन कठिन जरूर है, लेकिन यही दुश्वारियां और विषम परिस्थतियां पहाड़वासियों को काम करने का हौसला भी देती हैं।

यहां बता दे कि जखोली ब्लाक के कंडाली गांव के अनुराग बुटोला भी पिछले साल इसरो में चयनित हो चुके हैं। सिलगढ़ विकास समिति के महामंत्री ओपी बहुगुणा कहते हैं कि भले ही जखोली के सरकारी विद्यालयों की हालत बहुत खराब है। इसके बावजूद यहां के बच्चे अपने दम पर सफलता हासिल कर रहे हैं। (amar ujala)

 

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