स्वतंत्रता सेनानी भवानी दत्त जोशी: जिन्हें हम भूल गये
By कौस्तुभानन्द पंत on August 1, 2009
बनारस विश्वविद्यालय से बी. एस-सी. करने के बाद मैं 1955 में एक दिन यों ही अल्मोड़ा की माल रोड में घूम रहा था तो एम्बेसडर होटल के नीचे जिला सूचना केन्द्र से एक सौम्य सुदर्शन व्यक्ति भीतर से निकले। वास्कट तथा सफेद टोपी पहने वे बड़े ही प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी लगे थे। परंतु उस समय मुझे पता नहीं था कि वे कौन थे। दो साल बाद जब मैं गर्मियों की छुट्टियों में घर की ओर जा रहा था तो ताऊ जी के बड़े पुत्र बिशन दा के घर पर लखनऊ में वही सज्जन मिल गये। तब भाभी जी ने बताया कि भुवन (असली नाम भवानी दत्त जोशी) उनकी दीदी के पुत्र थे। भवानीदत्त जी अल्मोड़े जिले के सूचना अधिकारी थे। सन् 1961 में भाभी जी के प्रयास से मेरी शादी भाभी जी की भतीजी से हो गई और तब से भुवनदा या भवानीदत्त जी से लखनऊ मेरी ससुराल या भाभी जी के निवास अथवा अल्मोड़ा में यदाकदा मुलाकात होती रहती थी।
पत्नी से ज्ञात हुआ कि वे पक्के कांग्रेसी, गांधीवादी हैं और स्वतंत्रता सेनानी रह चुके हैं। चरखा कातना और उसी के सूत के कपड़े बनवा कर पहनना उन्हें अच्छा लगता है। उनके बेटे और अन्य परिचितों के द्वारा जो सूचना मुझे मिल पाई उसी के आधार पर आगे भवानीदत्त जी के जीवन पर जो कुछ पा सका वह आगे दिया जा रहा है।
भवानीदत्त जी जन्म संभवतः सन् 1904 में हुआ था। वे अल्मोड़ा जिले के बाड़ेछीना के पास दिगौली गाँव में मनोरथ जोशी के घर पैदा हुए थे। उनके बाल्यकाल में ही उनके पिता का देहांत हो गया था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा उनके नाना शंभुदत्त जोशी के संरक्षण में अल्मोड़ा में हुई थी। वहीं से सन 1921 में उन्होंने रामजे कॉलेज, जो उस समय इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अधीन था, से इंटर साइंस की परीक्षा पास की थी।
सन् 1921 में अल्मोड़ा सहित सम्पूर्ण कुमाऊँ में कुली उतार और कुली बर्दायश के विरुद्ध भारी आंदोलन हुआ था। विक्टर मोहन जोशी, बद्रीदत्त पांडे, हरगोविन्द पंत आदि कांग्रेसी बागेश्वर में इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। भवानी दत्त जी भी तभी से कांग्रेस और सविनय अवज्ञा आंदोलन को सहयोग देने लगे थे। उनके नानाजी डिस्ट्रिक्ट फॉरेस्ट ऑफिसर थे और उनके लिये भवानीदत्त जैसे पढ़े-लिखे युवक को सरकारी नौकरी दिलाना कुछ भी कठिन न था। किंतु सन 1929 में महात्मा गांधी के नैनीताल, अल्मोड़ा, कौसानी और बागेश्वर आगमन के बाद वे पूरी तरह कांग्रेस के कार्यक्रमों में भाग लेने लगे और समाजसेवा, सविनय अवज्ञा आंदोलन, सत्य, अहिंसा, चरखा चलाना, खादी पहनना आदि में प्रवृत्त होकर पूरी लगन से आंदोलन को समर्पित हो गये। इस समय उनके ऊपर पत्नी, माँ, दो छोटे भाइयों और तीन बहनों का भार था। उनकी डाँवाडोल स्थिति को पटरी पर लाने के लिये उनके नाना ने फिर से उनको नौकरी पर लगाने के लिये बहुत कोशिश की पर किसी भी तरह उनको राजी न कर पाने के कारण हार कर अपने ही प्रयास से उनके लिये अल्मोड़े की बाजार में एक किराने की दुकान खुलवा दी थी। पर उनके जैसा सरल और दुनियादारी से अनभिज्ञ आदमी कितने दिन तक दुकान चला सकता था ? उनके परिचित, यार-दोस्त और सम्बन्धी सामान उधार ले जाते तो मना करने में इन्हें बहुत ही संकोच होता था। उधार चुकाना लोग न जानते थे, वसूली करना इन्हें न आता था। दूसरे या तीसरे साल में ही दुकान पर ताला लग गया। व्यवसाय से छुट्टी पा जाने के बाद ये कैलास-मानसरोवर की यात्रा पर चले गये।
अछूतोद्धार में उनका सराहनीय योगदान रहा था और इस कारण उनको सामाजिक बहिष्कार का भी शिकार होना पड़ा था। यह बहिष्कार अल्मोड़े के रूढ़िवादी संकीर्ण समाज के बीच उनके परिवार के लिये बड़ा ही दुःखदायी रहा था। चर्खे पर सूत या ऊन की कताई करने, सत्य और अहिंसा के धर्म का पालन करते हुए पूरी ईमानदारी और धर्मपरायणता से वे परिवार के साथ कष्टों को साहसपूर्वक झेलते रहे। उनके मामा जगन्नाथ जोशी और मामी ने उनकी सदा यथाशक्ति सहायता की। महात्मा गांधी जी द्वारा उन्हें भेजे गये एक पोस्टकार्ड से ज्ञात होता है कि अछूतोद्धार और चर्खे के काम में वे कितना अधिक व्यस्त रहने लगे थे।
भाई भवानीदास,
तुम्हारा खत पाकर मुझे आनन्द हुआ। जिसको सेवा का ही ध्यान है उसे ईश्वर ऐसा मौका दिया करता है। प्रभु दास के चर्खे पर हाथ जम जाने से अच्छा परिणाम आ जाये तो उस चर्खे के मार्फत बहोत कार्य हो सकेगा।
मोहनदास के आशीर्वाद 28.12.30
सन् 1940 में उनको कांग्रेस द्वारा संचालित ग्राम सुधार कार्यक्रम के अंतर्गत विलेज ऑर्गेनाइजर या सुपरवाइजर का काम दिया गया और वे गाँवों में जाकर समाजसेवा का काम करने लगे। परिवार की देखभाल करने वाला कोई और न होने के कारण पंत जी ने इनको ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन से हट कर काम करने को बाध्य किया था। सन् 1945 में वे दिल्ली क्लॉथ मिल में काम करने लगे थे। इनकी ईमानदारी और सत्यपरायणता देखते हुए बिरला की एक कम्पनी में ईंटों के भट्टों और कोयले, लोहे तथा सीमेंट का हिसाब-किताब देखने के काम पर नियुक्त कर दिया गया। वहीं से इन्होंने अपने एक छोटे भाई एवं छोटी बहन की शादी करवा दी और इन भाई को काम पर लगा कर व्यवस्थित भी कर दिया। 1946 में अपने एकमात्र पुत्र को छोड़कर इनकी पत्नी परलोक सिधार गई थी।
देश को आजादी मिलने के बाद मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पंत ने इन्हें प्रदेश में पहला जिला सूचना अधिकारी बनाकर नैनीताल में नियुक्ति करवा दी। फिर वे अल्मोड़ा तथा पौड़ी गढ़वाल में नियुक्त रहे। जिला सूचना अधिकारी रहते हुए उन्हें पूरे उत्तराखंड की यात्रा का अवसर मिला। मुनस्यारी, जौलजीवी, धारचूला, पिथौरागढ़, बद्रीनाथ, केदारनाथ जैसे स्थान तब तक मोटर सड़क से नहीं जुड़े थे और लम्बी यात्राओं में सात आठ दिन तक लग जाते थे। अतः उन्होंने अपने इकलौते बेटे को नैनीताल में रखवा दिया। वह मात्र 1956-57 में ही उनके साथ रह सका।
सोलह सालों की लम्बी अवधि तक निरंतर पैदल यात्रायें करते हुए उन्होंने जिले के लगभग हर गाँव तक पहुँच कर निःस्पृह भाव से काम किया, किन्तु उनकी सेवायें नियमित नहीं मानी गईं। 1961-62 में उन्हें उत्तर प्रदेश पब्लिक सर्विस कमीशन द्वारा साक्षात्कार के निमित्त लखनऊ बुलाया गया था। आयोग ने उनको ‘सहायक’ सूचना अधिकारी के पद पर रेग्युलर करने की सिफारिश की। तब उन्होंने तत्काल त्यागपत्र दे डाला। साल भर बाद उनको फिर से जिला सूचना अधिकारी के पद पर वापस ले लिया गया। कुछ और दिनों तक वे इसी पद पर काम करते रहे किंतु सरकार द्वारा उनकी कर्तव्यनिष्ठा के प्रति दिखायी गयी उदासीनता से व्यथित होकर उन्होंने त्यागपत्र दे दिया था। सेवाकाल यथेष्ट न होने के कारण उन्हें पेंशन पाने की सुविधा भी नहीं मिल पायी थी।
भवानीदत्त जोशी जी के स्वभाव, कार्यशैली, सरलता और ईमानदारी की विवेचना कर पाना कदाचित संभव नहीं हो पायेगा। वे ऐसे ही पुरुषों में से थे जो ईश्वर की कृपा पाते रहे, शांति से रहे और अपने आप में संतुष्ट भी। एक बार उन्हें 90,000 रुपयों का एक पे ऑर्डर प्राप्त हुआ। शायद कोई एरियर रहा होगा। उन्हें संदेह हुआ कि यह भुगतान ठीक नहीं है। वे विभाग के सेक्रेटरी के पास पहुँच गये और बताया कि यह भुगतान गलत हो रहा है। सेक्रेटरी ने कहा – जोशी जी मिल रहा है तो ले लीजिये। उन्होंने यह धन हल्द्वानी में मकान बनाने में लगा दिया था। किन्तु उनके नौकरी छोड़ देने के बाद में सन् 1984-85 के दौरान प्रदेश के ऑडिटर जनरल से उक्त रकम को वापस करने की माँग गई। तब उनके बेटे ने क्रमशः किश्तों में सारी रकम लौटाई।
वे डॉ. राजेन्द्रप्रसाद, विनोबा भावे, पं गोविन्द बल्लभ पंत, लाल बहादुर शास्त्री, हेमवतीनन्दन बहुगुणा आदि के सम्पर्क में भी रहे। आजादी के बाद उन्होंने कुछ समय गांधी स्मारक निधि के कामों में भी हाथ बँटाया। उनकी नजर में कुछ अनियमिततायें आई और इसकी सूचना तत्कालीन राष्ट्रपति, जो गांधी स्मारक निधि के चेयरमैन भी थे, को देना जरूरी हो गया था। अपने दो साथियों के साथ राष्ट्रपति से मिलने दिल्ली गये थे। ये बतलाते थे कि दोनों साथी साहस खो बैठे और रास्ते से लौट गये थे। राजेन्द्र बाबू उस समय जमीन पर बैठे कर चर्खे पर सूत कात रहे थे। उन्होंने जोशी जी की सारी बातें ध्यान से सुनीं। जब लालबहादुर शास्त्री जी केन्द्र में बिना विभाग के मंत्री थे, तब जोशी जी ने शास्त्री जी से दिल्ली जाकर पहाड़ के विकास के संबंध में काफी बातें की थीं। इन बड़ी-बड़ी हस्तियों से मिल कर बेझिझक समस्याओं पर बातचीत करना उनकी निर्भीकता को ही दर्शाता है।
वे सुबह तीन साढ़े तीन बजे ही उठ जाते थे और शौच तथा स्नान के बाद पूजा, वन्दना और पूरी गीता का पाठ करते थे। यह नियम वे रेलमात्रा अथवा बस में यात्रा के समय भी पूरी तरह निभाते थे। पूजा के उपरांत हठयोग, आसन आदि करते और तब दस पन्द्रह मिनट तक चर्खे पर सूत कातते थे। अपना भोजन वे स्वयं बनाया करते थे। प्याज, लहसुन, चाय और माँस का सेवन उन्होंने कभी भी नहीं किया था। नौकरी से मुक्ति पा जाने के बाद वे अपने गुरु श्री श्री 1008 नानतिन बाबा के पास ही ज्यादा समय व्यतीत करते थे।
उनके निजी खर्चे कम ही होते थे, किन्तु दूसरों की सहायता और साधु-सन्तों की सेवा पर वे नियमित रूप से खर्च करते थे। काम छूटने के पश्चात ऐसा कर पाना कठिन हो गया था। एक बार सहारनपुर में उनके पुत्र ने उन्हें गांधी आश्रम से रजाई लेने के लिये 60 रु. दे दिये। कई दिन बीत जाने के बाद भी रजाई न आने पर बेटे ने पूछा तो उन्होंने बताया कि सारे रुपये उन्होंने हल्द्वानी के गांधी आश्रम को भेज दिये थे, जहाँ से उन्होंने एक कम्बल किसी बाबा के लिये उधार में खरीदा था। कुछ समय के लिये वे पनुवानौला के आगे आँवलघाट नामक जगह पर एक गुफा में एकांतवास के लिये चले गये थे। जब वे उपवास के कारण एकदम अशक्त हो गये तो निदान वहाँ से निकले। मगर पास ही सड़क पर बेहोश हो गये। कुछ महिलाओं ने उनकी सेवा की तथा उन्हें हल्द्वानी भिजवा दिया।
वे अकसर रामपुर के पास मिलक जाया करते थे, जहाँ पर नानतिन बाबा एक तालाब बनवा रहे थे। इसकी जिम्मेदारी जोशी जी को ही सौंपी गयी। सन् 1988 में मिलक में ही उनकी तबीयत बिगड़ गई। उनके पुत्र को सूचना मिली तो वे उन्हें घर ले आये। डॉक्टर ने प्रोस्टेट का कैंसर बताया। पर वे एक स्थान पर टिक ही नहीं पाते थे। इसी आवाजाही में वे दिवंगत हो गये।
जीवन भर वे किसी भी तरह के प्रलोभन से दूर ही रहे। बुढ़ापे में आय का कोई साधन न रहने के कारण अवश्य उन्होंने स्वतंत्रता सेनानियों को दी जाने वाली पेंशन की कोशिश की, पर बनारसीदास जी ने उनको पेंशन के बदले हल्द्वानी के पास ही दस एकड़ भूमि ले लेने की सलाह दी। उन्हें लगा कि शायद उनको बहलाने की कोशिश की जा रही है और उन्होंने इस मामले को बिल्कुल ही भुला दिया।
(Source -
www.nainitalsamachar.in/tag/freedom-fighter/)