Author Topic: Gaura devi Mother of Chipko Movement,गौरा देवीः चिपको आन्दोलन की जननी  (Read 17201 times)

Risky Pathak

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Devbhoomi,Uttarakhand

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अस्कोट आराकोट यात्रा के प्रथम अभियान के प्रमुख पदयात्री प्रताप शिखर का निधन हो जाने के बाद उत्तराखंड लोक वाहिनी ने उन्हें श्रद्घांजलि अर्पित की है।

 उलोवा के केन्द्रीय अध्यक्ष डा. शमशेर सिंह बिष्ट ने कहा कि 65 वर्षीय प्रताप शिखर अस्कोट आराकोट यात्रा के पहले दल के प्रमुख यात्रियों व चिपको आंदोलन के प्रमुख कार्यकर्ताओं में एक थे। छात्र युवा संघर्ष वाहिनी से जुडे़ होने के कारण उनका पूरा जीवन आंदोलनों को समर्पित रहा।

 चिपको व बांध विरोधी आंदोलन में सुंदर लाल बहुगुणा के साथ कुंवर प्रसून व प्रताप शिखर प्रमुख सहयोगियों में एक रहे। सभा के दौरान दो मिनट का मौन रखकर दिवंगत आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की गई।


Source dainik jagran

Devbhoomi,Uttarakhand

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चिपको आंदोलन की जन्म भूमि रैणी उदास है। वृक्ष मित्र गौरा के सपने अधूरे रह गए और उनकी कल्पनाओं के रंग धूसर। पर्यावरण संरक्षण की मिसाल बने गांव में आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस मशाल को कौन थामे? आगे बढ़ने की आपाधापी में 120 में से 65 परिवार शहरों में जा बसे। वजह भी साफ दिखायी देती है। इंटर कालेज 12 किलोमीटर दूर है और निकटतम अस्पताल 37 किलोमीटर।
चमोली जिले के रैणी गांव के लिए संघर्ष कोई नया शब्द नहीं है। इसी गांव की गौरा देवी ने वर्ष 1974 में पर्यावरण संरक्षण की दिशा में नई क्रांति का सूत्रपात किया। वन माफिया से जंगलों को बचाने के लिए वृक्षों से लिपटने की यह मुहिम चिपको आंदोलन के नाम से जानी गई।

बाद में इसी आंदोलन को प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट ने आगे बढ़ाया। इसके लिए वर्ष 1986 में भारत सरकार ने गौरा को प्रथम वृक्ष मित्र पुरस्कार से भी नवाजा। पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के बावजूद जिले का यह दूरस्थ गांव उपेक्षित ही रहा।

गौरा की सहयेागी 67 वर्षीय बाली देवी अपनी पीड़ा बयां करने से नहीं चूकतीं ' गौरा कहती थी कि गांव समाज को बचाना है तो जंगलों को बचाना होगा। पर आज सरकार रैणी को भूल गयी है। गांव में पीने का पानी नही है। रास्ते भी टूट गये हैं। इसीलिए लोग लगातार गांव छोड रहे हैं।'
ग्राम प्रधान रणजीत सिंह राणा का दर्द भी अलग नहीं है। वे कहते हैं 'गौरा देवी का सपना था कि गांव में पुस्तकालय व वन संग्रह केन्द्र खुले। ये सब तो दूर इंटर की पढाई के लिये भी युवाओं को 12 किमी दूर तपोवन जाना पडता है।'
 ग्रामीण चंद्र मोहन सिंह फोनिया याद करते हैं कि 1991 में अपनी मृत्यु से पहले गौरा ने कहा था 'मैने तो थोड़ा कार्य किया है नौजवान अधिक जोर लगाकर इसे पूरा करें।' लेकिन गांव में जब नौजवान ही नहीं रहेंगे तो काम कौन पूरा करेगा।

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829 कन्याओं को मिलेगा गौरा देवी कन्याधन



समाज कल्याण विभाग इस वर्ष जिले में 829 कन्याओं को गौरा देवी कन्याधन वितरित करेगा। विभाग को इस मद में 2 करोड़ 7 लाख रुपयों की राशि मिल चुकी है।
विगत लंबे समय से गौरा देवी कन्या धन की राशि नहीं मिलने के कारण जिले में कन्या धन वितरित नहीं हो सका था। इस बीच प्रदेश सरकार ने इस मद में 2 करोड़ से अधिक की राशि समाज कल्याण विभाग को सौंपी है। इस राशि से जिले की इंटर पास कन्याओं को कन्याधन वितरित किया जाना है।
::::: इनसेट
किन्हें मिलेगा लाभ
1- अनुसूचित जाति के 212 अभ्यर्थी - 53 लाख
2- सामान्य वर्ग के 613 अभ्यर्थी - 153.25 लाख
3- जनजाति के 4 अभ्यर्थी - 1 लाख
:::::
क्या हैं मानक
समाज कल्याण विभाग द्वारा संचालित गौरा देवी कन्याधन योजना में पात्र छात्रा को 25 हजार की राशि एनएससी व फिक्स डिपोजिट के रूप में प्रदान की जाती है। बीपीएल चयनित परिवार अथवा ग्रामीण क्षेत्र में ऐसे परिवार जिनकी वार्षिक आय 15976 रुपये तथा शहरी क्षेत्र में ऐसे परिवार जिनकी वार्षिक आय 21206 रुपये हो, प्रमाण पत्र तहसीलदार द्वारा प्रदत्त हो और छात्रा की उम्र 25 साल से अधिक न हो।
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जिले में विभिन्न वर्ग की 829 छात्राओं को गौरादेवी कन्या धन प्रदान किया जाएगा। इस बावत शासन से 5 करोड़ की राशि की मांग की गई थी। फिलहाल 2 करोड़ से अधिक की राशि विभाग को मिल चुकी है। जो आवेदक छूट गए हैं उन्हें बजट मिलने के बाद कन्या धन की राशि प्रदान की जाएगी।


Source dainik jagran

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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आज ही के दिन 1974 में गढ़वाल के लाट गांव में गौरा देवी और उनकी 27 साथी पेड़ों को कटने से बचाने के लिए उनसे चिपक गई थीं। यहीं से शुरू हुआ चिपको आंदोलन, जिसने भारत के जंगलों को नई जिंदगी दी... सलाम!

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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माटू हमरु, पाणि हमरु
हमरा ही छन बौण ये
पितरों न लगई बौण
हमणि ये थै बचौण भी

.....चिपको आन्दोलन के दौरान गाया जाने वाला गीत

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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आपदा के बाद गुमसुम है गौरादेवी का गांव<ins><ins></ins></ins>  The village of Gauradevi is silent after the disaster          आपदा के बाद चिपको आंदोलन की नायिका गौरादेवी का गांव रैंणी भी गुमसुम है। रैंणी गांव भी चटक रहा है। जगह-जगह दरारें उठ रही हैं। कोई कहता है कि ऋषि गंगा का पानी जमीन में आ रहा है। कोई कहता है कि जल विद्युत योजनाएं धरती को कमजोर कर रही है।

ऊपर जंगल भी पहले जैसे नहीं रहे। गांव वालों को विस्थापन का डर सता रहा है। ऐसे में गौरा देवी की याद शिद्दत से आती है। गांव के प्रवेशद्वार पर ही चिपको आंदोलन का उद्घोष करता बड़ा गेट है। गौरा देवी ने कहा था- इन जंगलों को बचाओ। प्रकृति को समझो।

हर आपदा हमें गौरा और उनके साथियों के पर्यावरण संघर्ष की याद दिलाती है। रैंणी जाकर भी एकबारगी एहसास नहीं हुआ कि हम गौरा देवी के गांव में हैं। फीका प्रवेश द्वार और कुछ दूरी पर धूल खाती उनकी प्रतिमा। गौरा देवी के बेटे चंदर सिंह एक जीर्ण-शीर्ण संग्रहालय की ओर इशारा करते हैं। स्वर में तल्खी और शिकायत है।

खुद ही कहते हैं- क्या मिलेगा आपको वहां। केवल वन विभाग के कागजात और बक्से हैं। मेरी मां की बस एक प्रतिमा बाकी कुछ नहीं। तपोवन से आगे रैंणी के जंगल नजर आते हैं। कभी यहीं से धरती को बचाने की अलख जगाई गई है। गौरा देवी, गोमती, बाटी देवी, हरकी देवी, सोणी देवी, उमा देवी, ढूका देवी, कलावती देवी सहित कई महिलाओं ने अपने जंगलों को बचाने के लिए संघर्ष छेड़ा था।

पेड़ों से चिपककर बचाया जंगल
वह पेड़ों पर चिपक गई थी, और गीतों में ही उनके नारे थे। चला दीदी, चला भूल्यो जंगल बचोला, यह गीत रैंणी से होते हुए समूचे पहाड़ और फिर दुनिया में गया। रैंणी जंगलों और धरती को बचाने का प्रतीक बना था।

रैंणी के लोगों की बात में सच्चाई है, कि हमें दुनिया में प्रसिद्धि तो मिली पार अपने ही घर में भुला दिया गया। गौरा की बहू जठी देवी कहती हैं मैंने अपनी सास के अंदर चिंगारी देखी थी। मेरा सौभाग्य था कि मैं भी उनके साथ जंगलों को बचाने गई थी।

आंदोलन से सीख क्यूं नहीं ली
हमारी चिंता यह नहीं कि कोई हमारे संघर्षों को याद करे न करे। हमारा दुख यह है कि उस आंदोलन से हमने सीख नहीं ली। यही कारण है जिसकी परिणति केदारनाथ और दूसरी आपदाओं के रूप में दिख रही है।

गौरा की उम्र की ही भादी देवी बात करते-करते सुबकने लगती है। मैं भूल गई, गौरा मुझसे बड़ी थी या छोटी। पर वह हमारी नेता थी। कुछ नहीं पाया हमने। रास्ता तक नहीं बनाया।

रैंणी के लोग कहते हैं जब तक गौरा देवी जिंदा थी, लोग उनसे मिलने आते थे। जर्मनी, जापान और कई देशों के लोग टोलियों में आते थे। अंग्रेज अब भी आ जाते हैं और गौरा देवी के बारे में पूछते हैं।

उनकी प्रतिमा की तस्वीर खींचते हैं। हमसे बातें करते हैं। जिन पहाड़ों को बचाने के लिए गौरा देवी का संघर्ष खड़ा हुआ था, उन पहाड़ों के लोगों को रैंणी से कोई मतलब नहीं रहा।

सरकारों ने की है उपेक्षा
उत्तराखंड बनने के बाद भी सरकारों ने यहां की उपेक्षा की है। नीति, मलारी तक जाने वाली यह सड़क जब-तब ध्वस्त हो जाती है। रैंणी के लोग केदारनाथ की त्रासदी से दुखी है। गांव की मोनिका हो या फिर छपोती, सब आपदा के गम में डूबे हैं।

उन्हें भी डर लगता है कि समय के साथ कहीं रैंणी के लोगों को भी विस्थापन न करना पड़े। अगर ऐसा हुआ तो गौरा देवी का कोई प्रतीक भी नहीं रहेगा।

http://www.amarujala.com/n

 

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