Author Topic: Gaura devi Mother of Chipko Movement,गौरा देवीः चिपको आन्दोलन की जननी  (Read 17227 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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गौरा देवी का जन्म 1925 में चमोली जिले के लाटा गाँव में एक मरछिया परिवार में हुआ। इनके पिता का नाम नारायण सिंह था। गौरा देवी ने दर्जा पाँच तक शिक्षा ली थी यही शिक्षा उसके साहस तथा उच्च विचारों का सम्बल बनें।

 मात्र 11 वर्ष की बाल उम्र में गौरा देवी का विवाह रैंणी गाँव के मेहरबान सिंह के साथ कर दिया गया। गौरा देवी जब मात्र 22 वर्ष की थी तब उसके पति का देहान्त हो गया था। तब गौरा देवी का इकलौता बेटा मात्र ढ़ाई साल का था।

गौरा देवी ने अपने ससुराल में रहते हुए अपने बेटे की परवरिश करने के साथ-साथ अपने जीवन को जंगल और अपने गाँव के लोगों के हितों के प्रति समर्पित कर दिया। चमोली सीमान्त जिले के निवासी भोटिया लोग तिब्बत के साथ ब्यापार करके जीवन यापन करते थे लेकिन चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जा करने व 1962 में चीन के साथ भारत के युद्ध के बाद उनका पारम्परिक ब्यापार एक तरह से ठप्प हो गया।

चीन से सबक लेने के बाद सरकार को सीमान्त जिला चमोली की याद आई और यहाँ  सड़कों का जाल बिछने लगा। जगह-जगह निर्माण कार्य होने लगे। यहाँ  के लोगों के खेतों को काटा जाने लगा तब यहाँ  के लोगों को लगा कि यदि इसी तरह से यहाँ  निर्माण होता रहा तो हमारे जंगल और पर्यावरण तबाह हो जायेगा।

 इन्हीं बातों को केन्द्र में रखते हुए रैंणी गाँव में लोगों ने 1972 में एक महिला मंगलदल का गठन किया। गौरा देवी चूंकि प्रगतिशील विचारों की निर्भीक महिला थी इसलिए उसे महिला मंगलदल का अध्यक्ष बनाया गया।

सन् 1973 में स्थानीय कॉमरे गोविन्द सिंह रावत तथा उनके जैसे अन्य कई लोगों ने जल, जंगल व जमीन हित जन सरोकारों को लेकर लगातार जनजागरण किया गौरा देवी हमेशा उनके साथ सहयोग करती। इन्ही दिनों ठेकेदार के आदमी यहाँ  के वनों को काट रहे थे।

जनवरी 1974 की बात है रैंणी गाँव में जंगल में 2,451 पेड़ों को काटने की नीलामी होनी तय हुई लेकिन स्थानीय जनता को पता चल गया और उन्होंने इसका पुरजोर विरोध किया। गौरा देवी ने महिला मंगलदल के माध्यम से उक्त नीलामी का जोरदार विरोध किया फलस्वरूप यह नीलामी रोकनी पड़ी।

 ठेकेदार के आदमी एक बार तो वापस चले गये थे, लेकिन वे उक्त पेड़ों को काटने के लिए पुनः 25 मार्च सन् 1974 रैणी गाँव के जंगलों में पहुँचे। उस दिन रैणी गाँव के अधिकांश मर्द चमोली गये हुए थे। गाँव में अधिकांश महिलाएँ ही थीं। उसी रोज इलाहाबाद की साइमन कम्पनी के ठेकेदारों के आदमी अपनी लेबर के साथ रैणी के जंगलों को काटने के लिए यहाँ  पहुँचे।





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गढ़वाल हिमालय के जिला चमोली के एक गाँव रैंणी से शुरू हुए चिपको आन्दोलन ने विश्व समुदाय को जल, जंगल तथा जमीन के प्रति आज से 34 साल पहले सजग कर दिया था। उस समय न ग्लोबल वार्मिंग का शोर और न नदियाँ इस तरह सूखनी शुरू हुई थीं लेकिन रैंणी गाँव की एक साधारण महिला गौरा देवी ने वनों के महत्व और प्रकृति की पीड़ा को समझ लिया था।

 उसने सीधे शब्दों में ठेकेदार के आदमी जो रैंणी के जंगल काटने आये थे उनसे कहा कि ये जंगल हमारे देवता हैं इन पर हमारा जीवन आश्रित है
इसलिए हम इन्हें नही कटने देंगे और गौरा देवी पेड़ों पर चिपक गई। यही चिपकना चिपको आन्दोलन के नाम से प्रसिद्ध हुआ। तब गौरा देवी को भी पता नही था उसका पेड़ों से चिपकना ही एक दिन विश्व पटल पर इतनी प्रसिद्धि पायेगा।

 इस आन्दोलन ने विश्व समाज को वनों के प्रति संजीदगी से सोचने का विचार दिया व जागरूक किया। आज कई लोगों ने चिपको आन्दोलन के नाम पर अपनी दुकानें खोली हैं कई लोग तो अपने को चिपको आन्दोलन के जनक और न जाने क्या-क्या बता रहे हैं लेकिन सच्चाई यही है कि चिपको आन्दोलन की जन्मदात्री रैंणी गाँव की साधारण महिला गौरा देवी ही थीं।

यह बात अलग है कि इन्ही लोगों की साजिशों के कारण गौरा देवी को उतनी प्रसिद्धि नही मिल पाई जिसकी वह हकदार थी। गौरा देवी ने तब चिपको आन्दोलन का अलख जगाया था जब एक आम पहाड़ी महिला से केवल घर-गृहस्थी चलाने की ही उम्मीद की जाती थी।

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विश्व प्रसिद्ध चिपको आन्दोलन के बारे में सभी जानते हैं लेकिन इस आन्दोलन की जननी गौरा देवी को कम ही लोग जानते हैं। इस आन्दोलन को विश्व पटल पर स्थापित करने वाली महिला गौरा देवी ने पेड़ों के महत्व को समझा इसीलिए उन्होंने आज से 38 साल पहले जिला चमोली के रैंणी गांव में जंगलों के प्रति अपने साथ की महिलाओं को जागरूक किया।

  तब पहाड़ों में वन निगम के माध्यम से ठेकेदारों को पेड़ काटने का ठेका दिया जाता था। गौरा देवी को जब पता चला कि पहाड़ों में पेड़ काटने के ठेके दिये जा रहे हैं तो उन्होंने अपने गांव में महिला मंगलदल का गठन किया तथा गांव की औरतों को समझाया कि हमें अपने जंगलों को बचाना है। आज दूसरे इलाके में पेड़ काटे जा रहे हैं हो सकता है कल हमारे जंगलों को भी काटा जायेगा।    इसलिए हमें अभी से इन वनों को बचाना होगा। गौरा देवी ने कहा कि हमारे वन हमारे भगवान हैं इन पर हमारे परिवार और हमारे मवेशी पूर्ण रूप से निर्भर हैं। 25 मार्च सन् 1927 की बात है। उस दिन रैणी गांव के अधिकांश मर्द चमोली गये हुए थे।

 उत्तराखंड राज्य प्राप्ति आन्दोलन , अपने हक-हकूकों के लिये उत्तराखण्ड की जनता और खास तौर पर मातृ शक्ति ने आन्दोलन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज हम बात करने जा रहे हैं, 1974 में शुरु हुये विश्व विख्यात चिपको आन्दोलन  की जननी, प्रणेता श्रीमती गौरा देवी जी की, जो चिपको वूमन के नाम से मशहूर हैं। 1925 में चमोली जिले के लाता गांव के एक मरछिया परिवार में श्री नारायण सिंह के घर में इनका जन्म हुआ था।
  गौरा देवी ने कक्षा पांच तक की शिक्षा भी ग्रहण की थी, जो बाद में उनके अदम्य साहस और उच्च विचारों का सम्बल बनी।

 मात्र ११ साल की उम्र में इनका विवाह रैंणी गांव के मेहरबान सिंह से हुआ, रैंणी भोटिया (तोलछा) का स्थायी आवासीय गांव था, ये लोग अपनी गुजर-बसर के लिये पशुपालन, ऊनी कारोबार और खेती-बाड़ी किया करते थे। २२ वर्षीय गौरा देवी पर वैधव्य का कटु प्रहार हुआ, तब उनका एकमात्र पुत्र चन्द्र सिंह मात्र ढाई साल का ही था।
  गौरा देवी ने ससुराल में रह्कर छोटे बच्चे की परवरिश, वृद्ध सास-ससुर की सेवा और खेती-बाड़ी, कारोबार के लिये अत्यन्त कष्टों का सामना करना पड़ा।

उन्होंने अपने पुत्र को स्वालम्बी बनाया, उन दिनों भारत-तिब्बत व्यापार हुआ करता था, गौरा देवी ने उसके जरिये भी अपनी आजीविका का निर्वाह किया। १९६२ के भारत-चीन युद्ध के बाद यह व्यापार बन्द हो गया तो चन्द्र सिंह ने ठेकेदारी, ऊनी कारोबार और मजदूरी द्वारा आजीविका चलाई, इससे गौरा देवी आश्वस्त हुई और खाली समय में वह गांव के लोगों के सुख-दुःख में सहभागी होने लगीं।
 
 

 इसी बीच अलकनन्दा में १९७० में प्रलंयकारी बाढ़ आई, जिससे यहां के लोगों में बाढ़ के कारण और उसके उपाय के प्रति जागरुकता बनी और इस कार्य के लिये प्रख्यात पर्यावरणविद श्री चण्डी प्रसा भट्ट ने पहल की। भारत-चीन युद्ध के बाद भारत सरकार को चमोली की सुध आई और यहां पर सैनिकों के लिये सुगम मार्ग बनाने के लिये पेड़ों का कटान शुरु हुआ। जिससे बाढ़ से प्रभावित लोगों में संवेदनशील पहाड़ों के प्रति चेतना जागी।

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इसी बीच अलकनन्दा में १९७० में प्रलंयकारी बाढ़ आई, जिससे यहां के लोगों में बाढ़ के कारण और उसके उपाय के प्रति जागरुकता बनी और इस कार्य के लिये प्रख्यात पर्यावरणविद श्री चण्डी प्रसा भट्ट ने पहल की। भारत-चीन युद्ध के बाद भारत सरकार को चमोली की सुध आई और यहां पर सैनिकों के लिये सुगम मार्ग बनाने के लिये पेड़ों का कटान शुरु हुआ। जिससे बाढ़ से प्रभावित लोगों में संवेदनशील पहाड़ों के प्रति चेतना जागी।

  इसी चेतना का प्रतिफल था, हर गांव में महिला मंगल दलों  की स्थापना, १९७२ में गौरा देवी जी को रैंणी गांव की महिला मंगल दल का अध्यक्ष चुना गया।
  इसी दौरान वह चण्डी प्रसा भट्ट, गोबिन्द सिंह रावत, वासवानन्द नौटियाल और हयात सिंह जैसे समाजिक कार्यकर्ताओं के सम्पर्क में आईं।

 जनवरी १९७४ में रैंणी गांव के २४५१ पेड़ों का छपान हुआ। २३ मार्च को रैंणी गांव में पेड़ों का कटान किये जाने के विरोध में गोपेश्वर में एक रैली का आयोजन हुआ, जिसमें गौरा देवी ने महिलाओं का नेतृत्व किया।


  प्रशासन ने सड़क निर्माण के दौरान हुई क्षति का मुआवजा देने की तिथि २६ मार्च तय की गई, जिसे लेने के लिये सभी को चमोली आना था। इसी बीच वन विभाग ने सुनियोजित चाल के तहत जंगल काटने के लिये ठेकेदारों को निर्देशित कर दिया कि २६ मार्च को चूंकि गांव के सभी मर्द चमोली में रहेंगे और समाजिक कायकर्ताओं को वार्ता के बहाने गोपेश्वर बुला लिया जायेगा और आप मजदूरों को लेकर चुपचाप रैंणी चले जाओ और पेड़ों को काट डालो।

    श्रमिक रैंणी की ओर चल पड़े और रैंणी से पहले ही उतर कर ऋषिगंगा के किनारे रागा होते हुये रैंणी के देवदार के जंगलों को काटने के लिये चल पड़े। इस हलचल को एक लड़की द्वारा देख लिया गया और उसने तुरंत इससे गौरा देवी को अवगत कराया। पारिवारिक संकट झेलने वाली गौरा देवी पर आज एक सामूहिक उत्तरदायित्व आ पड़ा।

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श्रमिक रैंणी की ओर चल पड़े और रैंणी से पहले ही उतर कर ऋषिगंगा के किनारे रागा होते हुये रैंणी के देवदार के जंगलों को काटने के लिये चल पड़े। इस हलचल को एक लड़की द्वारा देख लिया गया और उसने तुरंत इससे गौरा देवी को अवगत कराया। पारिवारिक संकट झेलने वाली गौरा देवी पर आज एक सामूहिक उत्तरदायित्व आ पड़ा।


  गांव में उपस्थित २१ महिलाओं और कुछ बच्चों को लेकर वह जंगल की ओर चल पड़ी। इनमें बती देवी, महादेवी, भूसी देवी, नृत्यी देवी, लीलामती, उमा देवी, हरकी देवी, बाली देवी, पासा देवी, रुक्का देवी, रुपसा देवी, तिलाड़ी देवी, इन्द्रा देवी शामिल थीं।

 इनका नेतृत्व कर रही थी, गौरा देवी, इन्होंने खाना बना रहे मजदूरो से कहा”भाइयो, यह जंगल हमारा मायका है, इससे हमें जड़ी-बूटी, सब्जी-फल, और लकड़ी मिलती है, जंगल काटोगे तो बाढ़ आयेगी, हमारे बगड़ बह जायेंगे, आप लोग खाना खा लो और फिर हमारे साथ चलो, जब हमारे मर्द आ जायेंगे तो फैसला होगा।”

 
  ठेकेदार और जंगलात के आदमी उन्हें डराने-धमकाने लगे, उन्हें बाधा डालने में गिरफ्तार करने की भी धमकी दी,  लेकिन यह महिलायें नहीं डरी। ठेकेदार ने बन्दूक निकालकर इन्हें धमकाना चाहा तो गौरा देवी ने अपनी छाती तानकर गरजते हुये कहा “मारो गोली और काट लो हमारा मायका”  इस पर मजदूर सहम गये। गौरा देवी के अदम्य साहस से इन महिलाओं में  भी शक्ति का संचार हुआ और महिलायें पेड़ों के चिपक गई और कहा कि हमारे साथ इन पेड़ों को भी काट लो।
 

 ऋषिगंगा के तट पर नाले पर बना सीमेण्ट का एक पुल भी महिलाओं ने तोड़ डाला, जंगल के सभी मार्गों पर महिलायें तैतात हो गई।  ठेकेदार के आदमियों ने गौरा देवी को डराने-धमकाने का प्रयास किया, यहां तक कि उनके ऊपर थूक तक दिया गया।

 लेकिन गौरा देवी ने नियंत्रण नहीं खोया और पूरी इच्छा शक्ति के साथ अपना विरोध जारी रखा। इससे मजदूर और ठेकेदार वापस चले गये, इन महिलाओं का मायका बच गया।
  इस आन्दोलन ने सरकार के साथ-साथ वन प्रेमियों और वैज्ञानिकों का ध्यान अपनी ओर खींचा। सरकार को इस हेतु डा० वीरेन्द्र कुमार की अध्यक्षता में एक जांच समिति का गठन किया।

  जांच के बाद पाया गया कि रैंणी के जंगल के साथ ही अलकनन्दा में बांई ओर मिलने वाली समस्त नदियों ऋषि गंगा, पाताल गंगा, गरुड़ गंगा, विरही और नन्दाकिनी के जल ग्रहण क्षेत्रों और कुवारी पर्वत के जंगलों की सुरक्षा पर्यावरणीय दृष्टि से बहुत आवश्यक है।

 इस प्रकार से पर्यावरण के प्रति अतुलित प्रेम का प्रदर्शन करने और उसकी रक्षा के लिये अपनी जान को भी ताक पर रखकर गौरा देवी ने जो अनुकरणीय कार्य किया, उसने उन्हें रैंणी गांव की गौरा देवी से चिपको वूमेन फ्राम इण्डिया बना दिया

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श्रीमती गौरा देवी पेड़ों के कटान को रोकने के साथ ही वृक्षारोपण के कार्यों में भी संलग्न रहीं, उन्होंने ऐसे कई कार्यक्रमों का नेतृत्व किया। आकाशवाणी नजीबाबाद के ग्रामीण कार्यक्रमों की सलाहकार समिति की भी वह सदस्य थी। सीमित ग्रामीण दायरे में जीवन यापन करने के बावजूद भी वह दूर की समझ रखती थीं।


 उनके विचार जनहितकारी हैं, जिसमें पर्यावरण की रक्षा का भाव निहित था, नारी उत्थान और सामाजिक जागरण के प्रति उनकी विशेष रुचि थी। श्रीमती गौरा देवी जंगलों से अपना रिश्ता बताते हुये कहतीं थीं कि “जंगल हमारे मैत (मायका) हैं” उन्हें दशौली ग्राम स्वराज्य मण्डल की तीस महिला मंगल दल की अध्यक्षाओं के साथ भारत सरकार ने वृक्षों की रक्षा के लिये 1986 में प्रथम वृक्ष मित्र पुरस्कार प्रदान किया गया। जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी द्वारा प्रदान किया गया था !


जोशीमठ के समीप स्थित है चिपको आंदोलन की नेत्री गौरा देवी का गांव रैणी -वर्ष 1974 में यहीं से शुरू किया था वृक्षों के संरक्षण का अभियान -गौरा के निधन के बाद सरकारी मशीनरी ने नहीं ली गांव की सुध , गोपेश्वर(चमोली): रैणी गांव का नाम आते ही जेहन में उभर आती है उस महिला की तस्वीर, जिसने गंवई होते हुए भी एक ऐसे आंदोलन का सूत्रपात किया, जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसकी पहचान बन गया। बात हो रही है चिपको आंदोलन की नेत्री गौरा देवी की।


 प्रथम महिला वृक्षमित्र के पुरस्कार से नवाजी गई गौरा देवी ने न सिर्फ जंगलों को कटने से बचाया, बल्कि वन माफियाओं को भी वापस लौटने पर मजबूर कर दिया। जीवनपर्यंत गौरा लोगों में पेड़ों के संरक्षण की अलख जगाती रहीं, लेकिन उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनके निधन के बाद खुद उनके ही गांव में सरकारी मशीनरी व चंद निजी स्वार्थों के लोभी लोग उनके सपनों का गला घोंट देंगे। आलम यह है कि गांव के नजदीक ही जलविद्युत परियोजना के लिए सुरंगों का ताबड़तोड़ निर्माण किया जा रहा है।

 इससे गांव के लोग पलायन को मजबूर हो गए हैं। जोशीमठ से करीब 27 किमी दूर स्थित है रैणी गांव। 26 मार्च 1974 का दिन इस गांव को इतिहास में अमर कर गया। सरकारी अधिकारियों की नजर लंबे समय से गांव के नजदीक स्थित जंगलों पर थी। यहां पेड़ों के कटान के लिए साइमन कंपनी को ठेका दिया गया था, जिसके तहत सैकड़ों मजदूर व ठेकेदार गांव पहुंच गए थे।


 गांव वालों के विरोध को देखते हुए अधिकारियों ने साजिश के तहत उन्हें चमोली तहसील में वार्ता के लिए बुलाया और पीछे से ठेकेदारों को पेड़ कटान के लिए गांव भेज दिया गया, लेकिन उनका यह कदम आत्मघाती साबित हुआ। गांव में मौजूद गौरा देवी को जैसे ही खबर मिली वह ठेकेदारों के सामने आ गई और पेड़ पर चिपक गई।


 देखादेखी अन्य महिलाओं ने भी ऐसा ही किया। ठेकेदारों, मजदूरों ने उन्हें हटाने की बहुत कोशिश की, लेकिन एक नहीं चली। इस तरह चिपको आंदोलन का सूत्रपात हुआ और गौरा ने 2451 पेड़ों को कटने से बचा दिया। चिपको जननी के नाम से विख्यात गौरा का कहना था कि 'जंगल हमारा मायका है हम इसे उजाडऩे नहीं देंगे।' जीवन भर वृक्षों के संरक्षण को संघर्ष करते हुए चार जुलाई 1991 को तपोवन में उनका निधन हो गया। 

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गौरा देवी के अथक प्रयासों से रैंणी के जंगलो का बचाया जा सका। रैणी के जंगलों को बचाने के बाद गौरा देवी ने रैणी महिला मंगलदल के माध्यम से क्षेत्र के कई गाँवों में लोगों को प्रकृति तथा पर्यावरण के प्रति जागरूक किया।

 उन्हौंने लोगों को बताया कि यदि हम आज अपने वनों तथा पेड़ों का संरक्षण करंेगे तो हमारे साथ-साथ हमारी आने वाली पीढ़ियों को इसका फायदा होगा। गौरा देवी ने वनों की सुरक्षा के अतिरिक्त महिलाओं को स्वावलम्बी बनाने के लिए कई प्रयास किये। गाँव के बच्चों को साक्षर बनाने के लिए कार्य किया। इसी कड़ी में गौरा देवी ने एक प्राथमिक तथा एक मिड़िल विद्यालय की स्थापना भी अपने गाँव में की।



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http://s998.photobucket.com/albums/af103/merapahad_2010/Gaura%20Devi/?action=view&current=ONTHEFENCEChipkoMovementRe-visited-YouTube.mp4

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इससे पूर्व भारत सरकार ने वर्ष 1986 में गौरा देवी को प्रथम महिला वृक्ष मित्र पुरस्कार से नवाजा था। मृत्यु से पूर्व गौरा ने कहा 'मैंने तो शुरुआत की है, नौजवान साथी इसे और आगे बढाएंगे', लेकिन वक्त बदलने के साथ लोग गौरा के सपनों से दूर होते गए।

 सरकार ने गौरा के गांव में उनके नाम से एक 'स्मृति द्वार' बनाकर खानापूर्ति तो की, लेकिन पिछले 17 साल में शायद ही कभी कोई मौका आया हो, जब इस पर्यावरण हितैषी की याद में कभी सरकारी मशीनरी ने दो पौधे भी रोपे हों।

हद तो तब हो गई, जब गौरा के गांव के जनप्रतिनिधियों ने ही उनके अभियान से मुंह मोड़ लिया। स्थिति यह है कि गांव में गौरा के नाम पर बनाए गए मिलन स्थल को गांव के नजदीक बनाए जा रहे बांध की कार्यदायी संस्था 'ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट' को किराए पर दे दिया गया है।

 इतना ही नहीं, गांव के नजदीक इन दिनों सुरंगों का निर्माण कार्य जोरों पर है, जिसके लिए पेड़ भी काटे जा रहे हैं। परियोजना निर्माण के लिए हो रहे धमाकों से कई घरों में दरारें पड़ गई हैं। ऐसे में लोग यहां से पलायन करने को मजबूर हो गए हैं।

पूर्व ग्राम प्रधान मोहन सिंह राणा व्यथित स्वर में कहते हैं कि सरकार ने गांव को हमेशा ही नजर अंदाज किया। उन्होंने यह भी कहा कि गौरा के सपनों को पूरा करने के लिए दोबारा चिपको जैसे आंदोलन शुरू करने की जरूरत है।

 गौरा देवी के पुत्र चंद्र सिंह व ग्रामीण गबर सिंह का कहना है कि सुरंग निर्माण को रोकने व गांव की अन्य समसयओं के बाबत कई बार शासन-प्रशासन से गुहार कर चुके हैं, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हो रही




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