शिव के शृंगार के लिए प्रयुक्त होने वाला बुरांश उत्तरांचल की प्रकृति का शृंगारिक उपादान होने के साथ..साथ पहाड के सामाजिक. सांस्कृतिक जनजीवन का अनोखा दर्पण है इसलिए इसे राज्य वृक्ष का गौरव प्राप्त है1 एक स्थानीय पत्रिका उत्तरांचल उदय के मई 2002 के अंक एक फूल. एक प्रतीक में हिन्दी के अनेक कवियों. लेखकों और महापुरूषों के संस्मरणों तथा लोकगीतों के जरिए बुरांश के फूल का बडा ही सजीव व मार्मिक वर्णन किया गया है1 सदापर्णी वृक्ष बुरांश हिमाचल क्षेत्र मध्यम ऊंचाई पर लगभग 1500 मीटर से 3600 मीटर की ऊंचाई पर पाया जाता है1 इसकी पत्तियां मोटी और फूल घंटी के आकार के लाल रंग के होते हैं1 मार्च..अप्रैल के महीने में जब इस वृक्ष में फूल खिलते हैं तो अत्यन्त मनमोहक लगता है1 बुरांश या बुरुंश के फूल रक्तिम वर्ण के बडे ही सुन्दर व मनमोहक होते हैं लेकिन इनमें सुगंध नहीं होती है1 कवियों. साहित्यकारों तथा लेखकों की नजरों को बार..बार बुरांश के फूलों ने आकर्षित किया है1 भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने अपने संस्मरणों में बुरूंश का आत्मीय वर्णन करते हुए लिखा है कि .पहाडियों में गुलाब की तरह बडे..बडे रोडोडेन्ड्रन.. बुरूंश पुष्पों से रंजित लाल.स्थल दूर से ही दिख रहे थे1 वृक्ष फूलों से लदे थे ओर असंख्य पत्ते अपने नए..नए कोमल और हरे परिधान में अनेक वृक्षों की आवरणहीनता को दूर करने को बस निकलना ही चाहते थे1 हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि अज्ञेय अपनी प्रियतमा को बुरांश की ओट में चुम्बन की याद दिलाते हुए कहते हैं कि.. याद है क्या. ओट में बुरूंश की प्राथमबार1 धन मेरे. मैंने जब तेरा ओंठ चूमा था11 अज्ञेय ने कई बार पहाडों के चीड. बाज और बुरूंश का अपनी कविताओं में वर्णन किया है1 उन्होंने एक स्थान पर पहाडी क्षेत्र का जिक्र करते हुए अपनी अनुभूतियों को इस तरह प्रकट किया है.. नयी धूप में चीड की हरियाली दुरंगी हो रही थी और बीच..बीच में बुरूंश के गुच्छे..गुच्छे गहरे लाल..लाल फूल मानो कह रहे थे पहाडों के भी हृदय है. जंगल के भी हृदय है1 कवि श्रीकांत वर्मा ने अपनी कविता में बुरूंश का वर्णन करते हुए लिखा है कि... दुपहर भर उडती रही सडक पर. मुरम की धूल1 शाम को उभर मैं तुमने मुझे पुकारा. बुरूंश का फूल1 कवि हरीशचन्द्र पाण्डे ने इस रकत वर्णिम फूल को उत्तरांचल की उद्दाम जवानी का प्रतीक बताते हुए अपनी कविता में बुरूंश का परिचय इस प्रकार दिया है... खून को अपना रंग दिया बुरूंश ने बुरूंश ने सिखाया है. फेफडों में हवा भरकर कैसे हंसा जाता है. कैसे लडा जाता है ऊंचाई की हदों पर ठंडे मौसम के विरूद्ध एक बुरूंश की खिलता हे. खबर पूरे जंगल में फैल जाती है आग की तरह1 एक गढवाली लोकगीत में मुखडी को बुरांसी के फूल के समान बताया गया है तथा एक स्थान पर यह भी कहा गया है कि प्रियतमा के सुन्दर मुखडे को देखकर बुरांसी जल रही है अर्थात् ईर्ष्या कर रही है1 लोकगीतों में बुरूंश का उल्लेख दुल्हन की डोली के रूप में अक्सर किया गया है लेकिन सुगन्धहीन होने के कारण अधिक कद्र नहीं हुयी1 बुरांश का फूल खिलने में बडी उतावली दिखाता है1 जंगल में यह सबसे पहले खिल जाता है1 इसे खिलने में इस प्रकार उतावली रहती है कि कोई नामुराद फूल कहीं इससे पहले न खिल जाए1 वैसे बुरांश जाति का खास ठाकुर है लेकिन इसकी सुगंध न जाने किस देवता ने छीन ली1 इसे शिव के सिर पर चढाए जाने की व्याकुल आकांक्षा रहती है1 लोकगीत में इसका वर्णन कुछ इस प्रकार है... बुरांश दादू तू बडो उतालू रे और फुलू तू फूलण नी देन्दो कुमांऊनी के एक गीत में प्रेमी..प्रेमिका द्वारा बुरूंश के फूल बन जाने की आकांक्षा व्यक्त की गयी है1 प्रेमी अपनी प्रेमिका से कहता है कचलो प्रिये. बुरूंश का फूल बन जाए1 चलो चम चम चमकता हुआ पानी बन जाएं1 गीत के बोल इस प्रकार है... हिट रूपा बुरूंशी का फूल बन जौला चम.चम मीठी तो डांडू का पानी जी जौला हिलांस की जोडी बनी उडि.उडि जौला1 उधर एक मां को पर्वत शिखर पर खिला बुरांश का फूल अपनी बेटी जैसा प्रतीत होता है1 वह बुरूंश को देखकर कहती है.. पारा भीडा बुरूंशी फूल छौ मैं ज कूंछू मेरी हीरू अरै छौ सुप्रसिद्ध कहानीकार मोहनलाल नेगी की कहानी.. बुरांश की पीड.. की नायिका को अगर किसी ने देख लिया तो उसका चेहरा लाल हो जाता था जैसे बुरूंश का फूल खिल गया हो1 गढवाल के पुराने प्रसिद्ध कवि चन्द्र मोहन रतूडी ने नायिका के ओठों की लालिमा का वर्णन करते हुए कहा है कि इस बुरांश फूल ने हाय राम. तेरे ओंठ कैसे चुरा लिया.. चोरया कना ये बुरासन ओंठ तेरा नाराण इसी तरह एक अन्य लोकगीत में प्रेमिका सरू के अपने प्रिय के वियोग में आत्मघात कर लेने पर उसका बावला प्रेमी बुरांश के फूल को देखकर कह उठता है.. धार मां फूले बुरांश को फूल1 मैंने जाणें मेरी सरू छ1 एक अन्य लोकगीत में बुरांश के फूलों को नमक. मिच्र के साथ रैमोडी बनाकर खाने का भी उल्लेख किया गया है1 इस प्रकार हम देखते हैं कि बुरांश को पहाड के लोकजीवन में गहरी आत्मीयता मिली हुयी है1 बुरांश के फूलों को यहां के लोग बडे चाव से खाते हें1 इसका बना शर्बत रंग .रूप और स्वाद में बेजोड होता है1 बुरांश के फूलों की चटनी भी बनायी जाती है1 बच्चे बुरांश के रस को चाव के साथ चूसते हैं1 बुरांश के पत्तों को पीस कर लेप करने से सिरदर्द दूर हो जाता है तथा इसके ताजे फूलों का रस घावों को ठीक कर देता है1 पुराने घावों पर इसकी पंखुडियों को पीस कर लगाते हैं1 बुरांश की लकडी ईंधन के काम आने के साथ..साथ बर्तन बनाने के काम भी आती है1 इसके पत्ते पशुओं के नीचे बिछाए जाते हैं फिर इनसे खाद बन जाती है1