Author Topic: Badrinath Temple - भारतवर्ष के चार धामों में से एक बद्रीनाथ धाम  (Read 61290 times)

पंकज सिंह महर

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बद्रीनाथ मंदिर के पास ब्रह्मकपालनामक एक स्थान है। यहां पितरोंके लिए पिंडदान किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि जिन पितरोंका श्राद्ध यहां हो जाता है, वह देवस्थितिमें आ जाते हैं। उन्हें गया अथवा अन्य स्थान पर पिंडदान की आवश्यकता नहीं होती।

बद्रीनाथ का वर्तमान मंदिर अधिक प्राचीन नहीं है। आज जो मंदिर विद्यमान है, उसके प्रधान शिल्पी श्रीनगर के लछमूमिस्त्री थे। इस मंदिर को रामनुजसंप्रदाय के स्वामी वरदराजकी प्रेरणा से गढवाल नरेश ने पंद्रहवींशताब्दी में बनवाया। मंदिर पर सोने का छत्र और कलश इंदौर की महारानी अहिल्याबाईने चढवाया। मंदिर में वरिष्ठ और कनिष्ठ दो रावल (पुजारी) होते हैं। दोनों का चयन केरल के नम्बूदरीपाद ब्राह्मण परिवार से होता है।

पंकज सिंह महर

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बद्रिकाश्रमक्षेत्र में बद्रीनाथ धाम के अतिरिक्त और बहुत से ऐसे तीर्थस्थलहैं, जहां कम यात्री पहुंच पाते हैं। व्यास गुफा एक ऐसा ही स्थान है। यह स्थान बद्रीनाथ धाम से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर है। ढाई किलोमीटर तक यात्री लोग वाहन से जा सकते हैं। इसके बाद चढाई प्रारंभ हो जाती है और यात्रियों को पैदल चलना पडता है। व्यास गुफा वह स्थान है, जहां महर्षि वेदव्यास ने ब्रह्मसूत्र की रचना द्वापर के अंत और कलियुग के प्रारंभ (लगभग 5108वर्ष पूर्व) में की थी। मान्यता है कि आदिशंकराचार्य ने इसी गुफामें ब्रह्मसूत्र पर शरीरिकभाष्यनामक ग्रंथ की रचना की थी। व्यास गुफा के पास ही गणेश गुफा है। यह महर्षि व्यास के लेखक गणेश जी का वास स्थान था।

बद्रिकाश्रमक्षेत्र में अलकनंदानदी है। अलकनंदा का उद्गम-स्थान अलकापुरी हिमनद है। इसे कुबेर की नगरी कहा जाता है। अलकापुरी हिमनद से निकलने के कारण इस नदी को अलकनंदा कहा जाता है। इसी क्षेत्र में सरस्वती नदी भी प्रभावित होती है। अलकनंदा और सरस्वती का संगम मांणा नामक ग्राम के पास होता है, जो भारत के उत्तरी छोर का अंतिम ग्राम है। मांणा ग्राम की उत्तरी सीमा पर सरस्वती नदी के ऊपर एक शिला सेतु है। इसे भीमसेतु कहा जाता है। मान्यता है कि पांडव लोग सरस्वती नदी के जल में पैर रखकर उसे अपिवत्र नहीं करना चाहते थे। इसलिए भीम ने एक विशाल शिला इस नदी पर रखकर सेतु बना दिया। इसी सेतु से होकर पांडव लोग हिमालय क्षेत्र में हिममृत्यु का वरण करने के लिए गए थे। इसे संतोपथ अथवा सत्यपथ कहा जाता है। भीम-शिला के पास ही भीम का एक मंदिर है।

पंकज सिंह महर

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इस वर्ष (२००८) को बद्रीनाथ जी के कपाट श्रद्धालुओं के लिये नौ मई को खुलेंगे।

पंकज सिंह महर

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बदरीनाथ (चमोली)। हिंदू आस्था के केंद्र भगवान बदरी विशाल के कपाट शुक्रवार से श्रद्धालुओं के लिए खोल दिए जाएंगे। इसके लिए गुरुवार को भव्य शोभायात्रा के साथ भगवान बदरी विशाल की उत्सव मूर्ति उद्धव, कुबेर, गाडू घड़ा एवं आदि जगत गुरू शंकराचार्य की गद्दी यहां पहुंची। शोभायात्रा के बदरीधाम पहुंचते ही समूचा परिवेश ईशमय हो गया। भगवान बदरी विशाल के प्रथम दर्शनार्थ पावन नगरी में हजारों श्रद्धालु पड़ाव डाले हुए हैं।

गुरुवार को प्रात: बदरीधाम के मुख्य पुजारी रावल बद्री प्रसाद नम्बूदरी पूजा-अर्चना के बाद भगवान उद्धव की मूर्ति को योगध्यान मंदिर से बाहर लाए। पाण्डुकेश्वर योगध्यान मंदिर से गाजे बाजे एवं गढ़वाल स्काउट के भक्तिमय संगीत के साथ रावल समेत सभी लोगों ने बदरीनाथ के लिए प्रस्थान किया। बदरीनाथ पहुंचने पर शोभायात्रा बामणी गांव होते हुए भगवान के जन्म स्थान लीलाढुंगी पहुंची, जहां पूजा के बाद शोभायात्रा को पंचशिला क्षेत्र में मंदिर परिसर लाया गया। शोभायात्रा का जगह-जगह श्रद्धालुओं ने पुष्प वर्षा कर अभिनंदन किया।

पंकज सिंह महर

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एक नवागन्तुक के लिए बद्रीनाथ तथा इसका रास्ता आश्चर्यों का भंडार है। जो यहां पहले भी आये हों, उनके लिए भी यहां की ऊंची मनोरम जगहें व अन्य दृश्य सदा ही एक नए भाव, नए विचार का अहसास दिलाते हैं जो हमेशा स्मृति को बढ़ाती रहती है। और बढ़ाने के लिए एक नवीन परिदृश्य देते हैं। ऋषिकेश से बद्रीनाथ की यात्रा कभी-कभी कठिन भी हो सकती है पर केवल उनके लिए जो स्थिर चित के नहीं हों। नदी के किनारे की सड़क मात्र एक दृश्य नहीं है एक इतिहास है, नदी मात्र पानी नहीं है बल्कि संस्कृति एवं वातावरण है तथा यहां के मठ में आने वाले, देश के चेहरे हैं। ऋषिकेश से बद्रीनाथ की यात्रा बहुत कुछ सर एडमंड हिलेरी के पर्वतारोहण अभियान का एक भाग जैसा ही है, महासागर से विस्तृत आकाश की यात्रा शारीरिक एवं मानसिक दोनों रूप में यह स्वर्ग का दूसरा पथ – और आध्यात्मिक मुक्ति है।
 

पंकज सिंह महर

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भगवान विष्णु को समर्पित बद्रीनाथ का पवित्र मंदिर ही इस छोटे शहर बद्रीनाथ के अस्तित्व का एक मात्र कारण है। प्राचीन काल में संकटपूर्ण तथा दुर्गम यात्रा को झेलते हुए आने वाले तीर्थयात्रियों की आकांक्षा पूरी करने के लिए ही बद्रीनाथ शहर बना जिसका इतिहास मंदिर के साथ ही जुड़ा हुआ है।

कहा जाता है कि बद्रीनाथ का अस्तित्व पिछले 6,500 वर्षों से है। फिर भी इसके प्रारंभिक इतिहास की जानकारी 2,500 वर्षों से अधिक की नहीं है। कुछ इतिहास की पुस्तकों में इस तथ्य का वर्णन है कि इस मठ को बौद्धों ने आर्य वंश के शासक अशोक महान के शासनकाल में हासिल कर लिया था। आधुनिक मंदिर का निर्माण वर्तमान 8वीं सदी में आदि शंकराचार्य द्वारा किया गया, जिसका पुनर्निर्माण गढ़वाली राजाओं द्वारा वर्तमान 15वीं सदी में किया गया तथा इसका स्वर्ण कलश आकार का शिखर वर्तमान 19वीं सदी में रानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा बनवाया गया।

ई.टी. एटकिंस (दी हिमालयन गजेटियर, वोल्यूम 111, भाग 1 वर्ष 1982) तथा एच.जी. वाल्टन (ब्रिटीश गढ़वालः ए गजेटियर वोल्यूम xxxvi वर्ष 1910) दोनों ने ही बद्रीनाथ मठ का समान वर्णन किया है, जिसमें वाल्टन का वर्णन नि संदेह एटकिंस के वर्णन पर ही आधारित है। दोनों ही बताते हैं कि मूल भवन का निर्माण 8वीं सदी में ही शंकराचार्य द्वारा किया गया। वर्तमान मंदिर का यह अत्याधुनिक स्वरूप है, पहले स्थित मंदिरों को ऊपरी पहाड़ से बर्फ, मिट्टी के ढेरों के नीचें खिसककर गिरने से मलवों ने ध्वस्त कर दिया। इसकी सपाट पत्थरों की दीवारों को सुर्खी चूना के गिलावों (मसालों) से जोड़ा गया है, जिसके ऊपर सीमेंट की एक पतली परत है जो इसकी सफाई को बढ़ाकर इसे पुरावेशषों से अलग करते हैं। छत के लिए देवदार लकड़ी का इस्तेमाल हुआ है। मंदिर के नीचे थोड़ी दूर पर एक तपत कुंड हैं, जो 16.5 फीट लंबा 14.25 फीट चौड़ा एक जलाशय है जहां लकड़ी के खंभे पर तख्तों की छत भी है। उसके उपभूमिगत संवाहन द्वारा गर्म झरने का पानी इसमें आता है। जल से सल्फरयुक्त धुआं या भाप इससे निकलता रहता है जो इतना गर्म रहता है कि इसे तबतक नहीं छूआ जा सकता जबतक कि इसके साथ ठंडा जल मिलाकर इसके तापमान को कम न कर लिया जाय। 26 मई को 1 बजे रात में इसका तापमान 1200 फारेनहाइट था। इस प्रकार बिना लिंगभेद के यहां स्नान किया जाता है। प्रक्षालन के बाद मूर्त्ति की पूजा करना तथा सहाय ब्राह्मणों को उदारतापूर्वक दिये दान-दक्षिणा को पुराने दुष्कर्मों को धोने में समर्थ माना जाता है। इतना विश्वस्त कि हर वर्ष इस मठ में करीब पचास हजार तीर्थयात्री आते है तथा 12 वर्षीय कुंभ मेले के दौरान यह संख्या काफी अधिक होती है।

एटकिंस तथा वाल्टन दोनों ने ही बताया है कि मंदिर की प्रतिमा काले पत्थरों से बनी है तथा लगभग तीन फीट ऊंची है। दिन में स्वर्ण जड़ित पोशाक पहनाये जाते हैं तथा इसकी पूजा में कई सोने एवं चांदी के जेवर भी चढ़ाये जाते हैं। मूर्त्ति के सिर के ऊपर एक छोटा स्वर्णिम छत्र तथा एक चमकीला आईना है। सामने सदैव जलती हुई कई बत्तियां है तथा जड़ीदार कपड़े से ढंका एक टेबुल रहता है। मूर्त्ति एक स्वर्ण किरीट धारण किये हुए हैं जिसके बीच में एक सामान्य आकार का हीरा जड़ा है। परिधान एवं जेवर सहित संपूर्ण सम्पदा कम से कम दस हजार (तत्कालीन) की है।

मंदिर में हजारों वर्षों से हो रहे धार्मिक कर्मकांडों को आज भी उसी प्रकार किया जाता है तथा वर्ष (1910) का वाल्टन का वर्णन आज भी सच है। नवंबर में किसी शुभ दिन को मंदिर बंद कर दिया जाता है तथा कुछ वर्तनों को अंदर ही छोड़ कर बाकी सारी चीजों को जाड़े के मुख्यालय जोशी मठ ले जाया जाता है। नियमतः नवंबर से मध्य-मई तक मंदिर बर्फ से ढंका रहता हैं। कुल 1,750 रूपये भूमिकर की मांग सहित अल्मोड़ा जिले का 45 संपूर्ण ग्राम तथा 26 गांवों का भाग मंदिर को दान स्वरूप प्राप्त है तथा इस जिले में 164 संपूर्ण ग्राम तथा लग्गे तथा 111 गांवों का भाग भी है जिसकी आय 5,426 रूपये (तत्कालीन) है।

“वर्ष 1846 में श्री लुशिंगटन द्वारा वर्णित उन पुराने दिनों का एक रिवाज उस समय के रावल के लिए है जिसके अनुसार वंशनुगत मंदिर अधिकारियों के सहयोग से उनके जीवनकाल में ही उस व्यक्ति को उत्तराधिकारी चुनने का प्रावधान था जो शास्त्रानुसार उस पद के योग्य हो। नये रावल को शासक वर्ग से सनद प्राप्त होता था। अंग्रेजों के आने के बाद रावलों का यह अधिकार कुमाऊं के आयुक्त द्वारा इस्तेमाल होता था। बाद के इन वर्षों में नागरिक अधिकारी प्रायः मंदिर-मामलों के प्रबंध में हस्तक्षेप करते, जो असंतोषजनक स्थिति तक पहुंच गया। इनकी स्थिति सशक्त करने के लिए कई योजनाएं लायी गयी। वर्ष 1893 में तत्कालीन रावल ने बूढ़े हो जाने पर मंदिर के कार्यभार त्याग दिया। इसके बाद कोई योग्य नायब या उत्तराधिकारी नहीं होने के कारण समय-समय पर दो या तीन प्रबंधकों की नियुक्ति की गयी जिन्होंने अपने अपने ढंग से उसे चलाया। अंत में वर्ष 1896 में स्थानीय सरकार के आदेश से एक संस्था की स्थापना नागरिक प्रक्रिया संहिता की धारा 539 अनुसार की गयी, फलस्वरूप, मंदिर के धर्मनिरपेक्ष मामलों के प्रबंधन के सारे अधिकार रावल को मिल गये, जिसका नियंत्रण टिहरी गढ़वाल के महामहिम राजा के अधीन होना था जो नायब रावल की नियुक्ति भी कर सकते थे, अगर रावल ने स्वयं ऐसा नहीं किया हो। रावल को अनिवार्य रूप से दक्षिण भारत का नंबूद्रि होना चाहिए था तथा अपनी जाति में पुजारी वर्ग का भी, जो अन्य विशिष्ट गुणों से भी विभूषित हो। (अन्य विशिष्ट गुणों से विभूषित अपनी जाति में पुजारी वर्ग का दक्षिण भारत का नंबूद्रि ब्राह्मण ही रावल का पद पा सकता था)।

एटकिंस बताता है कि तीर्थयात्रियों के उपयोग के लिए शहर में एक स्वास्थ्य केंद्र भी था जिसे सदाव्रत कोष तथा निजी सदाव्रत चौरिटी द्वारा स्थानीय तीर्थयात्रियों को राहत पहुंचाने के लिए चलाया जाता। ग्वालियर, कश्मीर तथा पलवल राज्यों एवं बद्रीनाथ के काली कंवली फकीरों द्वारा इसे पूरे रास्ते में चलाया जाता।

पंकज सिंह महर

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वेद व्यास गुफा, बद्रीनाथ


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पंचधारा, बद्रीनाथ


पंकज सिंह महर

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बद्रीनाथ का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। स्कंद पुराण के अनुसार जब भगवान शिव से बद्रीनाथ के उद्गम के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि यह शाश्वत है जिसकी कोई शुरूआत नहीं। इस क्षेत्र के स्वामी स्वयं नारायण हैं। जब ईश्वर चिरंतर है तो उसके नाम, छवि, जीवन तथा आवास सभी चिरंतर ही है। समयानुसार केवल पूजा का रूप एवं नाम ही बदलता है। स्कंद पुराण में भी वर्णन है कि सतयुग में इस स्थल को मुक्तिप्रद कहा गया, त्रेता युग में इसे भोग सिद्धिदा कहा गया, द्वापर युग में इसे विशाल नाम दिया गया तथा कलयुग में इसे बद्रिकाश्रम कहा गया। महाभारत महाकाव्य की रचना पास ही माणा गांव में व्यास एवं गणेश गुफाओं में की गयी।

माना जाता है कि एक दिन भगवान विष्णु शेष शय्या पर लेटे हुए थे तथा उनकी पत्नी भगवती लक्ष्मी उनके पैर दबा रही थी, उसी समय ज्ञानी मुनि नारद उधर से गुजरे तथा उस शुभ दृश्य को देखकर विष्णु को सांसारिक आराम के लिए फटकारा। भयभीत होकर विष्णु ने लक्ष्मी को नाग कन्याओं के पास भेज दिया तथा स्वयं एक घाटी में हिमालयी निर्जनता में गायब हो गये जहां जंगली बेरियां (बद्री) थी जिसे वे खाकर रहते। एक योग ध्यान मुद्रा में वे कई वर्षों तक तप करते रहे। लक्ष्मी वापस आयी और उन्हें नहीं पाकर उनकी खोज में निकल पड़ी। अंत में वह बद्रीवन पहुंची तथा विष्णु से प्रार्थना की कि वे योगध्यानी मुद्रा का त्याग कर मूल ऋंगारिक स्वरूप में आ जाये। इसके लिए विष्णु सहमत हो गये लेकिन इस शर्त्त पर कि बद्रीवन की घाटी तप की घाटी बनी रहे न कि सांसारिक आनंद का और यह कि योगध्यानी मुद्रा तथा ऋंगारिक स्वरूप दोनों में उनकी पूजा की जाय। प्रथम मुद्रा में लक्ष्मी उनकी बांयी तरफ बैठी थी एवं दूसरे स्वरूप में लक्ष्मी उनकी दायीं ओर बैठी थी फलस्वरूप उन दोनों की पूजा एक दैवी जोड़े के रूप में होती है तथा व्यक्तिगत प्रतिमाओं की तरह भी जिनके बीच कोई वैवाहिक संबंध नहीं होता क्योंकि परंपरानुसार पत्नी, पति के बायीं ओर बैठती है। यही कारण है कि रावल या प्रधान पुजारी को केवल केरल का नंबूद्रि ब्राह्मण लेकिन एक ब्रह्मचारी भी होना चाहिए। योगध्यानी की तीन शर्तों का कठोर पालन किया गया है। गर्मी में तीर्थयात्रियों द्वारा विष्णु के ऋंगारिक रूप की पूजा की जाती है तथा जाड़े में उनके योग ध्यानी मुद्रा की पूजा देवी-देवताओं तथा संतों द्वारा की जाती है।

पंकज सिंह महर

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इसी किंवदन्ती का दूसरा विचार यह है कि भगवान विष्णु ने अपने घर बैकुंठ का त्याग कर दिया। सांसारिक भोगों की भर्त्सना की तथा नर और नारायण के रूप में तप करने बद्रीनाथ आ गये। उनके साथ नारद भी आये। उन्होंने आशा की कि मानव उनके उदाहरण से प्रेरणा ग्रहण करेगा। ऐसा ही हुआ, देवों, संतों, मुनियों तथा साधारण लोगों ने यहां पहुंचने का जोखिम मात्र भगवान विष्णु का दर्शन पाने के लिए उठाया। इस प्रकार भगवान को द्वापर युग आने तक अपने सही रूप में देखा गया जब नर और नारायण के रूप में उनका अवतार कृष्ण और अर्जन के रूप में हुआ (महाभारत)।

कलयुग में भगवान विष्णु बद्रीवन से गायब हो गये क्योंकि उन्हें भान हुआ कि मानव बहुत भौतिकवादी हो गया है तथा उसका ह्दय कठोर हो गया है। देवगण एवं मुनि भगवान का दर्शन नहीं पाकर परेशान हुए तथा ब्रह्मदेव के पास गये जो भगवान विष्णु के बारे में कुछ नहीं जानते थे कि वे कहां हैं। उसके बाद वे भगवान शिव के पास गये और फिर उनके साथ बैकुंठ गये। यहां उन्हें यह आकाशवाणी सुनाई पड़ी कि भगवान विष्णु की मूर्त्ति बद्रीनाथ के नारदकुंड में पायी जा सकती है तथा इसे स्थापित किया जाना चाहिये ताकि लोग इसकी पूजा कर सके। देववाणी के अनुसार 6,500 वर्ष पहले मंदिर का निर्माण स्वयं ब्रह्मदेव द्वारा किया गया तथा विष्णु की मूर्त्ति, ब्रह्मांड के सृजक विश्वकर्मा द्वारा बनायी गयी।

 

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