Author Topic: Badrinath Temple - भारतवर्ष के चार धामों में से एक बद्रीनाथ धाम  (Read 61288 times)

पंकज सिंह महर

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जब विधर्मियों द्वारा मंदिर पर हमला हुआ तथा देवों को भान हुआ कि वे भगवान की प्रतिमा को अशुद्ध होने से नही बचा सकते तब उन्होंने फिर से इस प्रतिमा को नारदकुंड में डाल दिया। फिर भगवान शिव से पूछा गया कि भगवान विष्णु कहां गायब हो गये तो उन्होंने बताया कि वे स्वयं आदि शंकराचार्य के रूप में अवतरित होकर मंदिर की पुनर्स्थापना करेंगे इसलिए यह शंकराचार्य जो केरल के एक गांव में पैदा हुए और 12 वर्ष की उम्र में अपनी दिव्य दृष्टि से बद्रीनाथ की यात्रा की। उन्होंने भगवान विष्णु की मूर्त्ति को फिर से लाकर मंदिर में स्थापित कर दिया। कुछ लोगों का विश्वास है कि मूर्त्ति बुद्ध की है तथा हिंदू दर्शन के अनुसार बुद्ध, विष्णु का नवां अवतार है और इस तरह यह बद्रीनाथ का दूसरा रूप समझा जा सकता है।

अपने हिन्दुत्व पुनरूत्थान कार्यक्रम में जब आदि शंकराचार्य बद्रीनाथ धाम गये तो वहां उन्हें पास के नारदकुंड के जल के नीचे वह प्रतिमा मिली जिसे बौद्धों के वर्चस्व काल में छिपा दिया गया था। उन्होंने इसकी पुर्नस्थापना की। आदि शंकराचार्य ने महसूस किया कि केवल शुद्ध आर्य ब्राह्मणों ने उत्तरी भारत के मैदानों में अपना आवास बना लिया तथा इसमें से कुछ शुद्ध आर्य ब्राह्मण केरल चल गये, जहां अपने नश्ल की शुद्धता बनाये रखने के लिए उन्होंने कठोर सामाजिक नियम बना लिये। शंकराचार्य के समय के दौरान आर्य यहां 2,700 वर्ष से रह रहे थे तथा वे यहां के स्थानीय लोगों के साथ घुल-मिल गये एवं एक-दूसरे के साथ विवाह कर लिया। बौद्धों ने ब्राह्मण-धर्म तथा संस्कृत भाषा को लुप्तप्राय कर दिया पर थोड़े-से आर्य ब्राह्मण, नम्बूद्रिपादों ने, जो केरल के दक्षिण जा बसे थे, अपनी जाति की संपूर्ण, शुद्धता तथा धर्म को बचाये रखा। इस महान सुधारक ने अनुभव किया कि मात्र नम्बूद्रिपादों को ही भगवान बद्रीनाथ की सेवा करने का सम्मान मिलना चाहिए। उनका आदेश आज भी माना जाता है, मुख्य पुजारी सदैव केरल का एक नम्बूद्रिपाद ब्राह्मण ही होता है, जहां यह समुदाय, निकट से जड़ित आज भी परिवार ऋंखला में सामाजिक व्यवहारों में तथा विवाह-नियमों में वही पुराने कठोर नियमों को बनाये हुए हैं।

पंकज सिंह महर

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बद्रीनाथ में बही खाते

पंकज सिंह महर

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तप्तकुंड



मंदिर सीढ़ी से नीचे, नदी के ऊपर एक गर्म झील है जिसका भाप विपरीत किनारे से भी दिखाई पड़ता है। यह आश्चर्य ही है कि ऐसा गर्म जल का झरना ऐसी ठंडी जलवायु के क्षेत्र में दिखाई दे। मंदिर जाने से पहले तीर्थयात्री यहां स्नान करते हैं। वास्तव में यह स्नान भी तत्काल फल का तीर्थ होता है क्योंकि यात्री की थकान तत्काल मिटाकर शरीर को तरोताजा बना देता है।
 

पंकज सिंह महर

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मंदिर-
3,300 मीटर ऊंचाई पर स्थित भगवान विष्णु को समर्पित बद्रीनाथ धाम हिमालय के सबसे धार्मिक स्थलों में है, जहां सबसे अधिक लोग आते हैं। मंदिर का रंगीन अग्र भाग, सिंहद्वार को बड़े परिश्रम से बनाया गया है। कहा जाता है कि मंदिर का वर्तमान ढांचा गढ़वाली राजाओं की देन हैं। इसके तीन भाग हैं गर्भ गृह, दर्शन मंडप तथा सभा मंडप। गर्भ गृह में बद्री नारायण के रूप में भगवान विष्णु की प्रतिमा है, जिसके ऊपर रानी अहिल्याबाई द्वारा प्रदत्त एक सोने की चादर से ढंकी एक छतरी है। महाविष्णु की बायी ओर नर और नारायण हैं। भगवान के सामने उद्धव की मूर्ति है तथा यह चांदी की गरूड़ एवं नारद की प्रतिमा से घिरा है। ऊपर चांदी का बना श्री कृष्ण का सुदर्शन चक्र है। मंदिर में भगवान विष्णु की मूर्त्ति एक शालीग्राम से पूर्ण रूप में अद्भुत तरीके से उदित हुआ, जो एक विशिष्ट प्रकार के काले पत्थर का था जिसमें अमोनाईट के जीवाश्म मिले थे तथा माना जाता है कि यह विष्णु का स्वयं उदित रूप है। यह भगवान विष्णु को तप मुद्रा में दिखाता है। मंदिर के प्रांगण में भगवान नारायण की सवारी गरूड़ तथा भगवती महालक्ष्मी की भी प्रतिमाएं हैं, साथ ही आदि शंकर, श्वामी देसिकन तथा श्री रामानुजम की भी मूर्त्तियां हैं।



 

पंकज सिंह महर

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मंदिर का प्रबंधन-

वर्ष 1939 में बने बद्रीनाथ मंदिर अधिनिय़म 16 के अनुसार, वर्ष 1939 में गठित  श्री बद्रीनाथ मंदिर समिति द्वारा मंदिर का प्रबंधन होता है। प्रधान पुजारी एक नंबूद्रि ब्राह्मण होता है जिसे रावल कहा जाता है तथा इसकी नियुक्ति संयुक्त रूप से टिहरी गढ़वाल के पूर्व महाराजा तथा मंदिर समिति द्वारा किया जाता है। उसके सहायक के रूप में एक नायब-रावल होता है और वह भी नंबूद्रि ब्राह्मण ही होता है। संस्कृत तथा पूजा पाठ में निपुण रावल ब्राह्मण ही होता है। संस्कृत तथा पूजा पाठ में निपुण रावल को ब्रह्मचारी भी होना चाहिये तथा शादी करने पर उसे पद छोड़ना पड़ता है।

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मंदिर के खुलने और बंद होने का समारोह

मंदिर वर्ष में 6 महीने, अप्रैल-मई से अक्तूबर-नवंबर के बीच तक खुला रहता है, पर उसके खुलने का दिन बसंत पंचमी के दिन (फरवरी-मार्च में) तय किया जाता है जो ज्योतिष गणना के आधार पर होता है। बंद होते एवं खुलते समय मंदिर में पूजा होती है। जाड़े में उत्सवार (भगवान की कांस्य मूर्ति) को, भगवान के जाड़े के गृह, पांडूकेश्वर तक श्रद्दापूर्वक ले जाया जाता है। बद्रीनाथ के रावल परंपरागत इसके साथ जाते हैं और पांडूकेश्वर में एक रात रहते हैं। बद्रीनाथ के प्रधान मंदिर के खुलने के दिन इन प्रतिमाओं को पूजा एवं दर्शन के लिए वापस लाया जाता है।

पंडितों, ज्योतिषियों के बीच तथा टिहरी गढ़वाल के पूर्व महाराजा के परामर्श से बसंत पंचमी को नरेन्द्र नगर में एक संक्षिप्त उत्सव होता है जहां अप्रैल के अंतिम सप्ताह तथा मई के प्रथम सप्ताह के बीच मंदिर खोले जाने का दिन तय किया जाता है। इससे पहले नरेन्द्र नगर में तिल का तेल बनाया जाता है जिसका लेप साल भर भगवान की मूर्ति को होता है। प्रथम समारोह उस अखंड ज्योति का दर्शन होता है जो एक प्राचीन लैंप में वर्षभर मंदिर बंद हो जाने पर भी जलती रहती है। पूजा दर्शन मंडप में होती है, जहां कुछ ही लोग रह सकते हैं, जबकि बाकी भक्त सभा मंडप में दिव्य दर्शन के लिए खड़े रहते हैं, जब तप्तकुंड में स्नान के बाद पूजा होती है।

मुख्य कार्यकारी पदाधिकारी, रावल तथा धर्माधिकारी मिलकर विजयादशमी उत्सव पर बंद होने का दिन तय करते हैं। बंद होने के दिन, माणा के मोलपा परिवार की अविवाहित लड़कियों द्वारा बुनी घृत चोली, भगवान को चढ़ाई जाती है। यह कर्मकांड का एक भाग होता है, जिसमें भक्त भक्तिभाव से हिस्सा लेते हैं। मंत्रों के उच्चारण के बीच चोली को मूर्त्ति पर जाड़े के महीनों के विश्राम की मुद्रा में रखा जाता है। इसके बाद लोगों को भोग दिया जाता है। मंदिर खुलने के दिन चोली को निकालकर इसके धागे एवं रेशों को यात्रियों के बीच महाप्रसाद के रूप में बांट दिया जाता है।

जब जाड़े के लिए मंदिर का कपाट बंद हो जाता है तब रावल तथा उसके कर्मचारी नीचे जोशीमठ चले जाते हैं।

पंकज सिंह महर

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आरती

बद्रीनाथ मंदिर में दैनिक पूजा बहुत सवेरे 4.30 सुबह से ही महाभिषेक तथा अभिषेक पूजा से शुरू हो जाती है तथा रात को 8-30 से 9 बजे के आसपास शयन आरती के साथ समाप्त हो जाती है। साधारण लोगों के दर्शन के लिए मंदिर 7-8 बजे सुबह खुलता है तथा 1 से 4 बजे के बीच मध्यांतर रहता है।

मंदिर का रावल पूजा पाठ करता है। दैनिक पूजा तथा कर्मकांडो की प्रक्रिया आदि शंकराचार्य द्वारा निर्धारित किया गया था। अधिकांश हिंदू मंदिरों के विपरीत यहां मूर्त्ति की सजावट सहित पूजा भक्तों के सम्मुख की जाती है।



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नारदकुंड

तप्तकुंड के निकट नदी तल पर एक गुहा से नारद कुंड बना है। इसपर एक खाली चट्टान का साया है जिसका निकला नुकीला भाग लहरों को रोककर इसे स्नान करने की जगह बना देता है। इसे बहुत गहरा माना जाता है तथा यहां भगवान विष्णु की प्रतिमा का पता सर्वप्रथम ब्रह्मदेव और फिर आदि शंकराचार्य ने लगाया। गर्मजल का झरना गरूड़ शिला के नीचे से निकलता है एवं एक जलाशय में गिरता है। बद्रीनाथ के दर्शन से पहले हमेशा कुंड में स्नान किया जाता है। चूंकि जलाशय का जल बहुत गर्म होता है इसलिए जल में देर तक नही रूकना चाहिए।
 

पंकज सिंह महर

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बह्र कपाल

किंवदन्ती है कि किसी कारणवश भगवान शिव ने जब ब्रह्मा का सिर काट दिया तो वह उनके (शिव) हाथ से चिपक गया तथा उन्हें ब्रह्म हत्या का पाप हुआ। इसके बाद शिव सभी तीर्थस्थलों पर गये, पर यह शाप नहीं टला। अंत में जब वे बद्रीकाश्रम आये तो उन्होंने केवल ब्रह्मा के सिर को ही मुक्त नहीं किया, वरन् शापमुक्त भी हो गये। आज इस जगह नदी के स्रोत से 300 मीटर दूर एक शिला है जिसे ब्रह्मकपाल कहते हैं। यहां तीर्थयात्री अपने मृत पूर्वजों की अंतिम क्रिया का कर्मकांड कर उन्हें पिण्डदान अर्पित करते हैं।


पंकज सिंह महर

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शेषनेत्र
अलकनंदा के विपरीत किनारे दो झीलों के बीच एक पत्थर के टुकड़े पर शेषनाग सर्प के नेत्रों का चिह्न है। यह चिन्ह एक शिला पर प्राकृतिक तौर पर बनी हैं।



 

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