Author Topic: Badrinath Temple - भारतवर्ष के चार धामों में से एक बद्रीनाथ धाम  (Read 61295 times)

पंकज सिंह महर

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आदि केदारेश्वर
किंवदन्ती के क्रम में वह शाप है जो मुक्त होने के बाद ब्रह्मा ने भगवान शिव की मृत्यु के लिए दिया था और तब शिव बद्रिकाश्रम में रहने लगे।

इसी कारण गढ़वाल, कुमाऊं, नेपाल, हिमाचल एवं कश्मीर, शैवों के क्षेत्र हैं। जब भगवान विष्णु ने यहां रहना शुरू किया तो शिव, केदारनाथ रहने चले गये। तब से ही यह मान्यता है कि शिव की प्रधानता बनी रहे। इसके अनुसार ही बद्रीनाथ मंदिर में जाने से पहले केदारेश्वर जाना महत्वपूर्ण एवं शुभ माना जाता है। भगवान शिव को समर्पित आदि केदारेश्वर तप्तकुंड के बायीं ओर स्थित है।
 

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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पंकज सिंह महर

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भगवान विष्णु का दरबार: बद्रीनाथ

चारों धामों में सर्वश्रेष्ट हिन्दु धर्म का सबसे पावन तीर्थ, हर श्रद्धालु की मंजिल नर और नारायण पर्वत श्रंखलाओं से घिरा बद्रीनाथ, अलकनंदा नदी के बाऐँ तट पर नील कठं श्रृंखला की पृष्ट भूमि पर स्थित है। ऐसी मान्यता है कि प्राचीन काल में यह स्थल बदरियाँ (जंगली बेरों) से भरा रहने के कारण इसको बद्री बन भी कहा जाता था।
3,133 मी. की उँचाई पर स्तिथ बद्रीनाथ मंदिर भगवान विष्णु को अर्पित है। 15 मी. की उँचे इस मंदिर का निर्माण 8वीं सदी के बद्धिजीवी संत आदिगुरू शंकाराचार्य द्वारा किया गया था। यह मंदिर बर्फीले तुफानों के कारण कई बार क्षति ग्रस्थ हुआ और पुनः निर्मित किया गया है। सजीव सिंहद्वार इस प्राचीन मंदिर को एक नवीन छवि प्रदान करता है। मंदिर तीन भागों में विभाजित है, गर्भगृह, दर्शनमण्डप और सभामण्डप। मंदिर परिसर में 15 मूर्तियां है, इनमें सब से प्रमुख है भगवान विष्णु की एक मीटर ऊँची काले पत्थर की प्रतिमा जिसमें भगवान विष्णु ध्यान मग्न मुद्रा में सुशोभित है। मुख्य मंदिर में भगवान बद्रीनारायण की काले पाषाण की शीर्ष भाग मूर्ति है। दाहीने ओर कुबेर लक्ष्मी और नारायण की मूर्तियाँ है। आदिगुरू शंकाराचार्य द्वारा यंहा एक मठ की भी स्थापना की गई थी।

केदारखण्ड स्थित श्री बद्रीनाथ के सनातन धर्म के सर्वश्रेष्ठ आराघ्य देव श्री बद्रीनाथ के पांच स्वरूपों की पूजा अर्चना होती है। नारायण के पाचों रूपों की पांच बद्रीयाँ निम्न प्रकार से है। वीशाल बद्री के नाम से बद्रीनाथ, पंच बद्रीयों में से एक है। बद्रीनाथ का श्रद्धेय मंदिर पौराणिक गाथाऔं, कथनों और घटनाऔं का अभिन्न अंग है। इसकी पवित्रता धर्मशास्त्रों में स्पष्ट शब्दों में अंकित है। स्वर्ग, धरती और पाताल में तीर्थ स्थल है लेकिन बद्रीनाथ जैसा न कोई है न कोई होगा। कहा जाता है कि जब गंगा देवी मानव जाति के दुःखों को हरने के लिए पृथ्वी पर अवतरित हुई तो पृथ्वी उनका प्रबल वेग सहन न कर सकी। अतः गंगा की धारा बारह जल मार्गों में विभक्त हुई। उसमें से एक है अलकनंदा का उद्गम। यही स्थल भगवान विष्णु के निवास स्थान के गौरव से शोभित होकर बद्रीनाथ कहलाया। आदिगुरू शंकाराचार्य की व्यवस्था के अनुसार बद्रीनाथ मन्दिर का मुख्य पुजारी दक्षिण भारत के केरल राज्य से होता है। अप्रैल-मई से अक्टूवर-नवम्बर तक मंदिर दर्शनों के लिये खुला रहता है। बद्रीनाथ ऋषिकेश से 300 कि.मी., कोटद्वार से 327 कि.मी. तथा हरिद्वार, देहरादून, कुमाँऊ और गढ़वाल के सभी पर्यटन स्थलों के सुविघाजनक मार्गों से जुड़ा है। चरण पादुका, तप्तकुण्ड, ब्रह्मकपाल, नीलकुण्ड और शेषनाथ यहां अन्य दर्शनीय स्थल हैं।

पंकज सिंह महर

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पंचबद्री : panch badri
« Reply #43 on: September 08, 2008, 12:21:07 PM »
विशाल बद्रीः (श्री बद्रीनाथ में) श्री बद्रीनाथ की देव स्तुति का पुराणों में विशेष वर्णन किया जाता है। ब्रह्मा, धर्मराज तथा त्रिमूर्ति के दोनों पुत्रों नर तथा नारायण ने बद्री नामक वन में तपस्या की, जिससे इन्द्र का घमण्ड चकनाचूर हो गया। बाद में यहीं कृष्ण तथा अर्जुन के रूप में अवतरित हुए तत्पश्चात एक नारद शिला के निचे मूर्ति के रूप में बद्रीनारायण मिले। जिन्हें बद्री विशाल के नाम से जाना जाता है।
श्री योगध्यान बद्रीः (पाण्डुकेश्वर में) जोशीमठ तथा पीपलकोटी पर ध्यान बद्री का मन्दिर स्थित है। कौरवों से विजय प्राप्त कर, भय के कारण पांडव हिमालय की तरफ आये और यहां उन्होंने राजा परीक्षित को अपनी राजधानी हस्तिनापुर सौंप दी तथा स्वर्गरोहण से पूर्व यंहा घोर तपस्या की।
भविष्य बद्रीः (सुनाई जोशीमठ के पास) जोशीमठ से 15 कि.मी. की दूरी पर भविष्य बद्री का मन्दिर स्थित है। आदी ग्रन्थों के अनुसार यही वह स्थान है जहां बद्रीनाथ का मार्ग बन्द हो जाने के पश्चात धर्मावलम्बी यहां पूजा-अर्चना के लिए आते हैं।
वृद्ध बद्रीः (अणिमठ पैनीचट्टी के पास) जोशीमठ से 8 कि.मी. दूर 1380 मी. की ऊंचाई पर स्थित है। ऐसी मान्यता है कि जब मनुष्य ने कलयुग में प्रवेश किया तो भगवान विष्णु मन्दिर में चले गये। यह मन्दिर वर्ष भर खुला रहता है।
आदि बद्रीः कर्ण प्रयाग-रानी खेत मार्ग पर कर्ण प्रयाग से 18 कि. मी. दूर स्थित है। यहां 16 छोटे मन्दिरों का समूह है। ऐसा विशवास है कि इन मन्दिरों के निर्माण की स्वीकृति गुप्तकाल में आदीशंकराचार्य ने दी थी जो कि हिन्दू आदर्शों के प्रचार-प्रसार को देश के कोने-कोने में करने के लिए उद्दत् थे।

पंकज सिंह महर

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भगवान विष्णु के महत्व के कारण पंच बदरी की पवित्रता अलग ही है। बदरीनाथ विष्णुजी का आराधना को समर्पित है। एक मनोंरजक किंवदनी के अनुसार, विष्णुजी ने इस जगह को शिवजी से छीना था। जैसा कि अन्य देवता करते है। विष्णुजी भी यहां प्रायश्चित करने आये थे। उन्हें यह स्थान इतना भाया कि उन्होने शिवजी का ध्यान साधना से भंग करने की योजना बनाई, विष्णुजी ने एक बालक का रूप धारण किया और रोना-धोना शुरू कर दिया। शिवजी की पत्नी पार्वतीजी ने बालकरूपी विष्णुजी को चुप कराने हेतु गोद में उठाया लेकिन वे उसे चुप कराने में असफल रही। चूंकि बाल का रोना साधना में विघ्न डाल रहा था, अतः शिवजी ने यह स्थान खाली कर केदारनाथ में डेरा डाला और यह स्थान विष्णुजी को मिल गया। परंतु शिवजी के यहां वास करने के कुछ चिन्ह अब भी यहां मौजूद है। उनमें से शिवजी को अत्यंत्र प्रिय, सबसे अधिक पाया जाने वाला रसभरी की जाति का फल बदरी, वे विशाल वृक्ष, जिन्होने शिवजी की सेवा की, लेकिन ये वृक्ष भौतिक जगत के वासियों को दिखाई नहीं देते। चार धामों में से एक तथा हिंदुओं के लिए मोक्षदाता के रूप में पूज्यनीय चार मुख्य देवस्थलों में से एक बदरीनाथ के चार उपक्रमों में से अन्य बदरियां है-

पंकज सिंह महर

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भविष्य बद्री-bhavishya badri
« Reply #45 on: September 08, 2008, 12:33:36 PM »


भविष्य बदरी का मंदिर समुद्रतल से 2744 मी0 की ऊंचाई पर स्थित है और घने जंगलो से घिरा है।भगवान बदरी की प्रतिमा यहां स्वयं प्रगट हुई थी। जोशीमठ से 17 किमी पूर्व में लता मलारी रास्ते में तपोवन में स्थित तीर्थयात्रियों को तपोवन के पार धौली गंगा नदी तक पैदल जाना होता है। तपोवन में गंधक के गर्म जलस्त्रोत है। इससे उत्तर का दृश्य सांसे रोक देने वाला है। ऐसी धारणा है कि जब घोर कलियुग का आगमन होगा, विष्णु प्रयाग के समीप पटमिला में जय और विजय पर्वत ढह जाएंगे तथा बदरीनाथ मंदिर अगम हो जाएगा तब भगवान बदरीनाथ की यहीं पूजा होगी। अतः भविष्य के बदरी का नामकरण हुआ। भविष्य बदरी आज भी सुप्रसिद्ध है। यहां शेर के शीश वाली नंरसिंह की मूर्ति स्थापित है।

पंकज सिंह महर

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योगध्यान बद्री-yogdhyan badri
« Reply #46 on: September 08, 2008, 12:35:45 PM »


पांच बदरियों में से एक योगध्यान बदरी बदरीनाथ ऋषिकेश रास्ते में बदरीनाथ से 24 किमी पहले पांडुकेश्वर के समीप है। 1920 मी0 की ऊंचाई पर स्थित इस मंदिर के गर्भगृह में भगवान की योगध्यान मुद्रा में मूर्ति है। मंदिर के चारों ओर का प्रदेश पंचालदेश के नाम से जाना जाता था। विश्वास किया जाता है कि यहीं पांडु ने कुंती से विवाह किया था। पुराणों के अनुसार महाभारत के युद्ध में विजयी परंतु भावनात्मक रूप से क्षुब्ध पांडव स्वर्गारोहण से पूर्व यहां आए और अपनी राजधानी हस्तिनापुर राजा परिक्षित को सौप गए।[/color]

पंकज सिंह महर

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वृद्ध बद्री- bridh badri
« Reply #47 on: September 08, 2008, 12:38:22 PM »

हेलंग चट्टी से 3 किमी बदरीनाथ यात्रा मार्ग में अणीमठ नामक का स्थल है। यहां पंचबदरी के अन्तर्गत भगवान वृद्धबदरी रूप से विराजमान है। राजा मान्धाता के वानप्रस्थावस्था की साधना स्थली जाना जाता है। मन्दिर के समीप एक पुरातन पीपल का वृक्ष दूर से ही दृष्टिगत होता है। इसी पीपल के समीप वृद्धबदरी का दिव्य मन्दिर है, मन्दिर के गर्भगृह में लक्ष्मीनारायण भगवान की बडी दिव्य पुरातन मूर्ति है। भगवान का स्वरूप चतुर्भुज है तथा शंख-चक्र-गंदा-पद्म, भुजाओं से सुशोभित है। मूर्ति की ऊंचाई डेढफीट है। भगवान के साथ गरुड़, कुबेर और नारदजी विराजमान है। परिसर में नर-नारायण भी तपस्वी के रूप में अंकित है। साथ ही गणेश एवं लक्ष्मी भी विद्यमान है।
        बदरीनाथ क्षेत्र अत्यन्त ठंडा होने से वानप्रस्थियों को अनुकूल नही था , अतः वृद्ध वानप्रस्थियों ने इस स्थान की प्रकृति को अपने अनुकूल पाकर इस क्षेत्र को अपनी साधना का आश्रय बनाया। इसलिए वृद्धों के इष्ट नारायण यहां वृद्धबदरी रूप में अवस्थित हुए। वृद्ध बदरी भगवान के समीप ही दायें भाग में भगवान केदारेश्वर शिव  का भी सुन्दर  छोटा सा मन्दिर है। हिमालय के तीर्थो में वैष्णव-शैव मतावलम्बी सम्प्रदायों का सामंजस्य मिश्रित रूप से एक उच्च आदर्श का प्रतीक है। यह मन्दिर शैव नाकुलीस मत से सम्बद्ध है शिव मन्दिर में मण्डप नही है, जबकि वृद्ध बदरी मन्दिर से छोटा सा मण्डप भी है।
       वृद्ध बदरी भगवान जिस पहाड़ों पर है उससे ऊपर पैना गांव है। पैना गांव से ऊपर पर्वत की चोटी में भगवती अपर्णा-पर्णखण्डा देवी का दिव्य मन्दिर है। भगवती पार्वती ने इसी स्थल पर भगवान शिव की प्राप्ति हेतु तप किया था। तपस्या में निरत पार्वती कभी देह रक्षा हेतु सूखे पत्ते भोजन स्वरूप प्राप्त करती रहीं परन्तु यहां तपोरत अपर्णा रहीं। यानि पत्ते चबाना भी त्याग दिए थे, इसीलिए अपर्णा नाम पडा पर्णखण्डा देवी के ही नाम से इस परगने को कालान्तर में पैनखण्डा के नाम से जाना गया, जिसका मुख्यालय जोशीमठ है।

 

पंकज सिंह महर

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ध्यान बद्री : dhyan badri
« Reply #48 on: September 08, 2008, 12:40:28 PM »


हेलंग स्थान पीपलकोटी से लगभग 20 किमी आगे बदरीनाथ यात्रा मार्ग में आता है। यहां से ऐ मार्ग अलकनन्दा नदी पार कर ओर्वाश्रम, वर्तमान नाम उर्गम के लिए जाता है। उर्गम ऐसा स्थान है जहां एक ही स्थान पर पंचकेदार के अन्तर्गत ’कल्पेश्वर‘ कल्पनाथ जी है। साथ ही पंचबदरी के अन्तर्गत ’योगबदरी‘ का स्थान है। उर्गम इसका अपभ्रंश नाम है वस्तुतः और्व ऋषि की साधनास्थली और जन्मस्थली होने के कारण इस स्थान को ’और्वाश्रम‘ कहा जाता रहा। भृगुवंशी और्व ऋषि का जन्म गर्भ से न होकर माता के उरू से होता है। ये आततायी बने हेहैंय वंशी राजाओं के कोप से अपने वंश की रक्षा करने में सफल होते है। योगबदरी की व्यवस्था श्री बदरीनाथ श्रीकेदारनाथ मन्दिर समिति के अधीन है। ’डिमरी‘ जाति के ब्राह्मण यहां पुजारी है। इस स्थान का भौगोलिक अध्ययन किया जाय तो लगता है कि ये कभी बदरीनाथ यात्रा का भी मार्ग रहा होगा। गोपेश्वर से रूद्रनाथ दर्शन के बाद आसानी से कल्पनाथ या कल्पेश्वर पहुंचा जा सकता है, इसीलिए यहां बदरी तथा केदार की संयुक्त रूप से स्थिति है। इस भूमि को ’केदारारण्य‘ के नाम से भी जाना गया है। यहां से निकलनेवाली धारा ’हिरण्यवती‘ नाम से प्रसिद्ध है जिसे वर्तमान में कल्पगंगा भी कहते है। हेलंग के पास त्रिवेणी बनकर अलकनन्दा में मिल जाती है। इस संगम को त्रिवेणी कहते है क्योकि कर्मनासा, कल्पगंगा तथा अलकनन्दा तीन वेणियां, धाराएं यहां मिलती है। कल्पेश्वर क्षेत्र का दृश्य बडा नयनाभिराम हैं यहां अनेक मन्दिर और चरागाह है। जंगल भाग में सुन्दर दर्शनीय ’वंशीनारायण‘ भगवान का भी मन्दिर यहां है। अभी मोटर मार्ग नही है। पैदल ही यात्रा सम्भव होगी।

पंकज सिंह महर

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आदि बद्री- Aadi badri
« Reply #49 on: September 08, 2008, 12:41:38 PM »
कर्णप्रयाग रानीखेत मार्ग पर 16 छोटे मंदिरों का समूह है जो स्थानीय महत्व का एक प्रमुख यात्रा केन्द्र है। यह मंदिर भगवान नारायण को समर्पित है और पिरामिड के आकार के ऊंचे चबूतरें पर स्थित है। ऐसा विश्वास है कि इन मन्दिरों के निर्माण की स्वीकृति गुप्तकाल में आदि शंकराचार्य ने दी थी जो कि हिंदू आदर्शों का प्रचार-प्रसार देश के कोने-कोने में करने के लिए उद्यत थे।

 

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