Author Topic: CHAR DHAM OF UTTARAKHAND - BADRINATH, KEDARNATH, GANGORTI & YAMNOTRI  (Read 71254 times)

हेम पन्त

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रुद्रप्रयाग। प्रसिद्ध तीर्थ धाम केदारनाथ के अब तक साढे़ चार लाख से अधिक तीर्थयात्री भोले बाबा के दर्शन कर चुके हैं। इससे मंदिर समिति की आय तीन करोड़ से अधिक पहुंच चुकी है।

गत वर्षाे की अपेक्षा इस वर्ष बाबा केदार के दरबार में पहुंचने वाले देशी-विदेशी तीर्थ यात्रियों की संख्या अधिक रही। इस वर्ष सात मई को भगवान केदारनाथ के कपाट खोले गए थे। अब कपाट खुले हुए साढ़े पांच माह से अधिक का समय हो चुका है। इस दौरान बाबा के दर्शनों के लिए 4 लाख, 62 हजार 2 सौ 54 देशी-विदेशी तीर्थ यात्री यहां पहुंच चुके हैं। मंदिर समिति के कार्याधिकारी अनिल शर्मा ने बताया कि गत दिनों हुई बर्फबारी से केदारनाथ में ठंड का प्रकोप बढ़ गया है, लेकिन इसका यात्रा पर कोई असर नहीं पड़ रहा है।

पंकज सिंह महर

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गंगोत्री का नाम लेते ही किसी भी भारतीय के मन में एकांत, शांति, रहस्य, रोमांच व श्रद्धा के भाव एक साथ उमड़ने लगते हैं। मन विह्वल हो जाता है। यहां का प्राकृतिक सौंदर्य है ही ऐसा कि सभी को अपनी ओर बरबस खींचता है। वस्तुतः गंगोत्री वह पावन स्थल है, जहां गंगा ने पृथ्वी को पहली बार स्पर्श किया। धार्मिक मान्यता के अनुसार गंगा स्वर्ग की बेटी हैं और महाराजा भागीरथ के पुरखे सगरपुत्रों का उद्धार करने के लिए धरती पर अवतरित हुईं। गंगा की धारा के तीव्र वेग से कहीं पृथ्वी फट न जाए, इसलिए भगवान शिव ने गंगा को अपनी जटाओं में समेट लिया और फिर भागीरथ की प्रार्थना पर शिव ने अपनी एक लट खोल दी और गंगा की धारा पृथ्वी पर बह निकली। भागीरथ से जुड़े इसी प्रसंग के कारण गंगा को भागीरथी भी कहा जाता है।
एक अन्य मान्यता के अनुसार इसी स्थान पर पांडवों ने महाभारत के युद्ध में विजय के लिए देव-यज्ञ किया था।
दरअसल गंगा का मूल उद्‌गम स्थल 4220 मीटर ऊंचाई पर स्थित गोमुख ग्लेशियर है, जो गंगोत्री से 18 किलोमीटर दूर है। यह स्थान बहुत दुर्गम है और वहां बहुत कम लोग ही पहुंच पाते हैं। माना जाता है जो गोमुख पहुंच कर भागीरथी का दर्शन करते हैं, वे सचमुच बड़भागी होते हैं। गंगोत्री से गोमुख तक आने-जाने में तीन दिन का समय लगता है। गोमुख में इतनी ठंड होती है कि यदि भागीरथी के जल में आप अपना हाथ डाल दें तो वह सुन्न हो जाएगा।
यदि धूप निकल आई है तो एक खतरा यह भी है कि बड़े-बड़े हिमखंड पिघल कर गिरने लगते हैं और आपकी जान जोखिम में पड़ सकती है, इसलिए दर्शन करके यहां से तुरंत वापस लौटने में ही भलाई है। यहां का वातावरण और परिस्थितियां कितनी ही विपरीत हों, पर यहां का अलौकिक दृश्य और आध्यात्मिक अनुभूति श्रद्धालु को किसी तरह की थकान का अनुभव नहीं होने देती। जो श्रद्धालु गोमुख नहीं जा पाते, वे गंगोत्री में ही गंगा की पूजा-अर्चना करते हैं।
गंगोत्री में मां गंगा का मंदिर भागीरथी नदी के दाहिने तट पर स्थित है। समुद्रतल से 3042 मीटर की ऊंचाई पर सफेद संगमरमर के 20 फीट ऊंचे इस वर्तमान मंदिर का निर्माण अठारहवीं सदी में गोरखा कमांडर अमर सिंह थापा ने कराया था। मंदिर में आदिशंकराचार्य द्वारा प्रतिष्ठित गंगा जी की प्राचीन स्वर्ण मूर्ति है। इसके अलावा यहां राजा भागीरथ, यमुना, सरस्वती व शंकराचार्य की मूर्तियां भी हैं। मंदिर के पास ही भागीरथ शिला है, इसी शिला पर राजा भागीरथ ने तप किया था। यहीं भागीरथी नदी में जलमग्र शिवलिंग भी है, जिसका दर्शन जाड़े के दिनों में केवल तभी होता है, जब नदी का जल साफ हो जाता है।
हर वर्ष मई से अक्तूबर के बीच यहां हजारों श्रद्धालु मां गंगा की पूजा-अर्चना करने पहुंचते हैं। नवंबर के बाद यह पूरा इलाका बर्फ से ढक जाता है, उन दिनों मां गंगा की प्रतिमा को यहां के पुजारी मुखबा गांव के पास मार्कंडेय क्षेत्र में ले जाते हैं, अप्रैल तक मां गंगा की वहीं पूजा अर्चना होती हैं। गंगोत्री पहुंचने के लिए ऋषिकेश से बसें आसानी से मिल जाती हैं। लगभग ढाई सौ किलोमीटर के इस सफर में उत्तरकाशी, गंगाणी, भैरों घाटी, हरसिल, धरासू, नचिकेता ताल, डोडी ताल, केदार ताल आदि स्थल भी दर्शनीय हैं।

पंकज सिंह महर

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अगर आप गढ़वाल हिमालय यानी उत्तराखंड के चार धामों की यात्रा पर जाएंगे तो यमुनोत्री पहला पड़ाव है। यमुनोत्री यमुना का उदगम स्थल है। यह उत्तरकाशी क्षेत्र में बंदरपूंछ चोटी के बगल में समुद्रतल से करीब 3235 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहां तक सीधे पहुंचने का कोई सीधा सड़क मार्ग नहीं है। यहां से 14 किलोमीटर दूर हनुमान चट्टी वह अंतिम स्थान है जहां तक बस या किसी अन्य वाहन से जा सकते हैं। यमुनोत्री पहुंचने के लिए ऋषिकेश से हनुमान चट्टी तक 220 किलोमीटर का सफर बस द्वारा तय करना होता है। इसके आगे का रास्ता तीर्थयात्रियों को पैदल ही पार करना पड़ता है। हनुमान चट्टी से यमुनोत्री की पूरी चढ़ाई करीब 5 से 6 घंटे में पूरी होती है। अगर आप पैदल नहीं चढ़ सकते हैं तो टट्टू, घोड़े, डांडी यानी पालकी और कंडी भी यहां मिल जाते हैं। आने-जाने के लिए डांडी डेढ़ हजार रुपये में मिल जाती है, यह एक तरह की पालकी है जिसे चार लोग लेकर चलते हैं। कंडी एक तरह की डलिया है जिसे व्यक्ति अपनी पीठ पर बांधकर चलता है, यह तीन सौ रुपये में आने-जाने के लिए मिल जाती है। यमुनोत्री तक पहुंचने का समूचा रास्ता तमाम छोटी-बड़ी नदियों, झीलों, नहरों, वनों, झरनों, गांव और हरे भरे घास के मैदानों से होकर गुजरता है। हनुमान चट्टी से यमुनोत्री के बीच में जानकी चट्टी नामक खूबसूरत स्थान पड़ता है। यहां की सबसे बड़ी खूबी यहां के गर्म जल का झरना है। जानकी चट्टी से यमुनोत्री तक आगे 5 किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई है।
धार्मिक मान्यता के अनुसार यमुना सूर्य और संज्ञा की बेटी और यमराज की जुड़वां बहन हैं। अपने पिता सूर्य की आज्ञा पर यमुना ने कालिंद पर्वत से निकलकर नदी का रूप धारण किया। कालिंद पर्वत से निकलने के कारण ही यमुना को कालिंदी भी कहा जाता है। कहते हैं कि बहुत समय पहले इस स्थान पर असित मुनि निवास करते थे।
तकनीकी रूप यमुना का मूल उत्पत्ति स्थल सप्तऋषि कुंड है। समुद्रतल से करीब 4421 मीटर की ऊंचाई पर कालिंद पर्वत पर स्थित यह स्थान यमुनोत्री से 10 किलोमीटर दूर है। बर्फ से ढके इस स्थान तक पहुंचना बहुत कठिन है। यमुनोत्री से सप्तऋषि कुंड तक आने-जाने में करीब 16 घंटे का समय लगता है। चंपासर ग्लेशियर से पिघला जल इसी कुंड में एकत्रित होता है। यहां यमुना जल का रंग गहरा नीला होता है। इस कुंड में ब्रह्म कमल भी खिलते हैं। पर दुर्गम व जोखिम पूर्ण मार्ग होने के कारण बहुत कम लोग ही सप्तऋषि कुंड पहुंच पाते हैं। इसलिए श्रद्धालु देवी यमुना की अर्चना-उपासना यमुनोत्री में ही करते हैं।
वास्तव में यमुनोत्री हनुमान गंगा और टोंस नदी का स्त्रोत है। दोनों ही यमुना की सहायक नदियां हैं। जो आगे जाकर यमुना में मिल जाती हैं। यमुनोत्री में यमुना महारानी का मंदिर कालिंदी नदी के बाएं तट पर है। यहां का वर्तमान मंदिर जयपुर की महारानी गुलेरिया ने उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में बनवाया था। 1919 में टिहरी के राजा प्रताप शाह ने इसका जीर्णाद्धार कराया था। कहते हैं यह मंदिर भूस्खलन और भूकंप से दो बार क्षतिग्रस्त हो गया और हर बार इसका पुनर्निर्माण कराना पड़ा। मंदिर में यमुना की काले संगमरमर प्रतिमा है। यमुनोत्री में यमुना का जल इतना ठंडा होता है उसे स्पर्श करते ही ऐसा अनुभव होता है मानो हाथ निष्प्राण हो गए हों जबकि यमुना मंदिर के निकट ही सूर्य कुंड है, जिसका जल इतना गर्म होता है कि यदि आप उसमें हाथ डाल दें तो हाथ जल जाएगा, फफोले पड़ जाएंगे। यहां एक रिवाज है कि श्रद्धालु इस कुंड में कपड़े में चावल व आलू बांधकर थोड़ी देर के लिए डाल दैते हैं तो वह पक जाता है, वही यहां का प्रसाद माना जाता है। यमुनोत्री मंदिर में प्रवेश से पूर्व एक शिला का पूजन अवश्य किया जाता है, वह दिव्य शिला के नाम से जानी जाती है। यहां रोज करीब 2000 श्रद्धालु आते हैं। मई से अक्टूबर के बीच यहां जाने का सर्वोत्तम समय है। भारी बर्फबारी के कारण यह मंदिर नवंबर से मई तक बंद रहता है।

पंकज सिंह महर

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देहरादून। उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में स्थित गंगोत्री और यमुनोत्री धाम मुख्य मंदिर के कपाट आगामी 27 अप्रैल को अक्षय तृतीया के दिन श्रृद्धालुओं के दर्शनार्थ खोल दिये जायेंगे।
गंगोत्री-यमुनोत्री मंदिर समिति सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार दोनों धामों के मुख्य मंदिरों के कपाट आगामी 27 अप्रैल को अक्षय तृतीया के दिन शुभ मुहूर्त में मंदिर समिति के पदाधिकारियों, पुजारियों हक-हकूकधारियों तथा जिला प्रशासन अधिकारियों और गणमान्य नागरिको एवं श्रृद्धालुओं की मौजूदगी में वैदिक मंत्रोच्चारण एवं विधि-विधान पूर्वक पूजा अर्चना के बाद श्रृद्धालुओं के दर्शनार्थ खोल दिये जायेंगे। गंगाजी की भोगमूर्ति मुखीमठ(मुखबा) से लाकर गंगोत्री धाम मुख्य मंदिर में तथा यमुना जी की भोगमूर्ति खरसाली से लाकर यमुनोत्री धाम मुख्य मंदिर में प्रतििष्ठत की जायेगी।
गौरतलब है कि शीतकाल में बर्फ गिरने के कारण कपाट बंद कर दिये जाते हैं तथा गंगाजी की भोगमूर्ति उनके शीतकालीन प्रवास मुखबा (मुखीमठ) तथा यमुनाजी की भोगमूर्ति खरसाली में प्रतििष्ठत कर दी जाती है। शीतकाल में यहीं उनकी पूजा-अर्चना और दर्शन किये जाते हैं।
गढ़वाल हिमालय की पश्चिम दिशा में स्थित यमुनोत्री धाम चार धाम का पहला पड़ाव है। यमुनोत्री धाम यमुना नदी के उम के समीप स्थित है। यमुना देवी को समर्पित यमुनोत्री धाम मंदिर समुद्रतल से तीन हजार दो सौ पैतीस मीटर ऊंचाई पर स्थित है। मई से लेकर अक्टूबर तक श्रृद्धालुओं का केन्द्र बना रहता है।
हिमालय पर्वत श्रंृखलाओं की गोद में भागीरथी के दायें तट पर गंगा देवी को समर्पित गंगोत्री मंदिर 18 वीं शताब्दी में गोरखा कमांडर अमर सिंह थापा द्वारा निर्मित है। पुराणों के अनुसार स्वर्ग की बेटी गंगा देवी ने नदी का रूप लेकर राजा भागीरथ के पूर्वजों को पाप मुक्त किया था। कहा जाता है कि यह वह स्थल है जहां गंगा मां ने धरती को कृतार्थ किया था। यह तीर्थस्थल समुद्रतल से तीन हजार एक सौ चालीस मीटर की ऊंचाई पर स्थित है यहां भी हर साल मई से अक्टूबर तक लाखों श्रृद्धालु इस पावन मंदिर के दर्शन करने आते हैं।
(वार्ता)

पंकज सिंह महर

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उत्तराखण्ड के चार धामों में से एक प्रसिद्ध तीर्थ केदारनाथ के पौराणिक मंदिर का निर्माण पांडवों ने किया था। आठवीं शताब्दी में आदि जगद्गुरू शंकराचार्य ने केदारनाथ का वर्तमान मंदिर बनवाया। पांडवों द्वारा निर्मित तथा शंकराचार्य जी द्वारा निर्मित मंदिर आमने-सामने हैं। श्री केदारनाथ भगवान शिव के बाहर ज्योतिर्लिंगों में से एक है। पौराणिक मतानुसार केदारनाथ में शिवलिंग, तगनाथ में बाहु, रुद्रनाथ में मुख, मदमहेश्वर में नाभि तथा कल्पेश्वर में जटा के रूप में भगवान शिव की पूजा अर्चना की जाती है। पौराणिक ग्रंथों में कहा गया है कि केदारनाथ अर्थात केदारांचल में प्राण त्याग करने वाले मनुष्य को शिवलोक की प्राप्ति होती है। गरूड पुराण के अनुसार केदार तीर्थ में स्नान करने से सभी पापों का शमन हो जाता है। वामन पुराण के अनुसार केदार क्षेत्र में निवास करने से तथा रुद्र का पूजन करने से मुनष्य स्वर्ग को प्राप्त करता है। पद्म पुराण के अनुसार केदारनाथ के दर्शन करने से मनुष्य मोक्ष को प्राप्त होता है।
ब्रह्म वैवृत पुराण के अनुसार सतयुग में सप्तद्वीप का केदार नाम का राजा था। अपनी वृद्धावस्था समीप देखकर उसने अपना सम्पूर्ण राज्य अपने पुत्र को सौंपा तथा हिमालय की वादियों में जाकर जप, तप करने लगा। जहां इस राजा ने तपस्या की वह स्थान कालान्तर में केदार खण्ड नाम से प्रसिद्ध हुआ। शिव पुराण में कहा गया है कि केदारनाथ में केदारेश्वर लिंग के दर्शन करने से महापापी भी पापों से छूट जाता है। स्कन्द पुराण के अनुसार महाभारत युद्ध की विभीषिका से उकताकर जब युधिष्ठर आदि पांडवों ने गौत्र हत्या तथा गुरु हत्या के पाप से छूटने के उपाय जानने हेतु वेद व्यास जी से पूछा तो व्यास जी ने कहा कि शास्त्रों में पापों के प्रायश्चित नहीं है। बिना केदार के जाए यह पाप नहीं छूट सकते ह। तुम लोग केदारनाथ जाओ, वहां निवास करने से सब प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं। केदारनाथ में मृत्यु होने से मनुष्य शिव रूप हो जाता है यही महापथ है। तब पांडवों ने अपने हिमालय के लिए प्रस्थान किया। कहते हैं कि जब पांडव केदारनाथ जाने लगे तो भगवान शिव वहां से भैंसे का रूप धारण करके भाग गये। जब भीम को पता चला कि भगवान शिव ने भैंसे का रूप धर लिया है तो भीम रास्ता घेरकर खडे हो गये। शिव की माया से सैकडों भैंस केदारनाथ से नीचे उतरने लगीं उनमें भगवान शिव भी भैंस रूप में थे। भीम ने अपने विशाल शरीर से मार्ग को घेर लिया तथा एक पांव मार्ग के इस ओर व दूसरा दूसरी ओर करके खडे हो गये। अन्य भैंसे तो भीम के पांवों के नीचे से गुजरने लगीं लेकिन जब भैंस रूपी भगवान शिव का नम्बर आता तो वे मार्ग से उलटा चल देते। भीम समझ गये कि यही भगवान शिव हैं जैसे ही पांडवों ने उन्हें पकडना चाहा भगवान शिव ने भैंस रूपी शरीर से धरती पर वार करना शुरू कर दिया। कहते हैं वहां से सिर रूप में भगवान शिव नेपाल में निकले तथा धड यहीं रह गया। नेपाल में पशुपतिनाथ का विश्व प्रसिद्ध शिव मंदिर इसी स्थान पर है। बाद में भगवान शिव ने तब पांडवों को दर्शन दिये।
समुद्र तल से ३५८१ मीटर की ऊंचाई पर बसे केदार पुरी के उत्तरी छोर पर श्रीकेदारनाथ हैं। श्रीकेदारनाथ के मुख्य मंदिर का निर्माण पांडवों ने किया था। यह यहां का प्राचीन मंदिर है। मंदिर के ऊपर बीस द्वार की चट्टी है। सबसे ऊपर सुनहरा कलश है। मंदिर के ठीक सामने श्री केदारनाथ जी की स्वयंभू मूर्ति है। उसी में भैंसे के पिछले धड की आकृति है। यात्री श्री केदारनाथ जी का स्पर्श करते हैं। श्री केदारनाथ जी का मंदिर आगे से पत्थर का बना हुआ है। यहां पर द्रोपदी सहित पांचों पाण्डवों की मूर्तियां हैं। इसके मध्य में पीतल का एक छोटा सा नन्दी और बाहर दक्षिण की ओर बडा नन्दी तथा छोटे बडे कई घंटे लगे हुए हैं। मंदिर के द्वार के दोनों ओर दो द्वारपाल तथा अनेकों देवी देवताओं की मूर्तियां हैं। श्री केदारनाथ जी की श्रृंगार की पंचमुखी मूर्तियां हैं। इन्हें हमेशा वस्त्र तथा आभूषणों से विभूषित रखा जाता है। केदारनाथ का मंदिर काफी भव्य है। मंदिर के बाहरी प्रासाद में देवी पार्वती, पांडव, लक्ष्मी आदि की मूर्तियां विराजमान हैं। मंदिर के नजदीक हंसकुण्ड है जहां पर पितरों की मुक्ति के लिए श्रृद्धालु श्राद्ध व तर्पण आदि पितृ पूजा करते हैं। मंदिर के दरवाजे पर नन्दी जो कि बाबा भोलेनाथ का वाहन है उसकी उपस्थिति इस मंदिर को अनुपम छटा प्रदान करती है। मंदिर के पीछे अमृत कुण्ड है उससे कुछ ही दूरी पर रेतस कुण्ड स्थित है कहा जाता है कि इस कुण्ड का जल पीने से प्राणी शिव तुल्य हो जाता है। इसके उत्तर में स्फटिक लिंग है जिसके पूर्व में सात पद वन्हितीर्थ में बर्फ के बीच में तप्त जल है। इसी स्थान पर भीमसेन ने मुक्ताओं से श्री शंकर जी की पूजा की थी। इससे आगे महापथ है वहां जाने पर मनुष्य जीवन के बार-बार आवागमन से मुक्ति पा लेता है और मोक्ष को प्राप्त होता है। पुरी के दक्षिणी भाग में छोटी सी पहाडी पर मुकुण्ड भैरव हैं यहां विशाल हिमालय की आभा देखते ही बनती है। यहीं पास में ही बर्फानी जल की निर्मल झील है यहीं से मन्दाकिनी नदी का उद्गम होता है। श्री केदारनाथ मंदिर के पीछे दो-तीन हाथ लम्बा अमृत कुण्ड है जिसमें दो शिवलिंग स्थित हैं। पूरब उत्तर की ओर हंस कुण्ड तथा रेतस कुण्ड हैं। रेतस कुण्ड के बारे में कहा जाता है कि यहां पर जंघा टेककर तीन आचमन बांये हाथ से तीन आचमन दाहिने हाथ से लिये जाते हैं। यहीं पर ईशानेश्वर महादेव हैं तथा इसके पश्चिम में एक सुबलक कुण्ड है। श्री केदारनाथ मंदिर के सामने छोटे-छोटे कुण्ड तथा शिवलिंग हैं।
अधिकांश तीर्थ यात्री पहले श्री केदारनाथ के दर्शन करने के बाद ही बद्रीनाथ जाते हैं। कहा जाता है कि श्री बद्रीनाथ व श्री केदारनाथ की यात्रा तभी सफल मानी जाती है जब पहले केदारनाथ की यात्रा की जाये। क्योंकि श्री केदारनाथ बाबा हमारे पापों से मुक्ति प्रदान करते हैं और बद्रीनाथ आकर प्राणी मोक्ष की कामना करते हैं।
श्री केदारनाथ यात्रा में दर्शनीय स्थलों में आदि गुरू शंकाराचार्य की समाधि भी है। कहते हैं कि भारत की चार दिशाओं में चार धाम स्थापित करने के बाद जगत्गुरू शंकराचार्य ने ३२ वर्ष की आयु में यहीं श्री केदारनाथ धाम में समाधि ली थी। यहां एक झील है जिसमें बर्फ तैरती रहती है इस झील के बारे में प्रचलित है इसी झील से युधिष्ठिर स्वर्ग गये थे। श्री केदारनाथ धाम से छह किलोमीटर की दूरी चौखम्बा पर्वत पर वासुकी ताल है यहां ब्रह्म कमल काफी होते हैं तथा इस ताल का पानी काफी ठंडा होता है। यहां गौरी कुण्ड, सोन प्रयाग, त्रिजुगीनारायण, गुप्तकाशी, उखीमठ, अगस्तयमुनी, पंचकेदार आदि दर्शनीय स्थल हैं। केदारनाथ आने के लिए कोटद्वार जो कि केदारनाथ से २६० किलोमीटर तथा ऋर्षिकेश जो कि केदारनाथ से २२९ किलोमीटर दूर है तक रेल द्वारा आया जा सकता है। सडक मार्ग द्वारा गौरीकुण्ड तक जाया जा सकता है जो कि केदारनाथ मंदिर से १४ किलोमीटर पहले है। यहां से पैदल मार्ग या खच्चर तथा पालकी से भी केदारनाथ जाया जा सकता है। नजदीक हवाई अड्डा जौली ग्रांट २४६ किलोमीटर दूरी पर स्थित है, यहां से केदारनाथ के लिए हवाई सेवा अभी-अभी शुरू हुई है। केदारनाथ यात्रा काल अप्रैल से नवम्बर तक होता है। यहां आने का सबसे अच्छा समय सितम्बर से नवम्बर है जिस दौरान कपाट बंद होने तक आया जा सकता है। अप्रैल से मई तक भी उचित समय है लेकिन जून से अगस्त के बीच यदि भारी बरसात हो तो यात्रा मार्ग काफी कठिन हो सकता है। यहां बरसात में अपने वाहन से न आया जाए तो ठीक रहेगा। यहां आते समय गरम कपडे, टार्च तथा जीवनरक्षक दवाइयां आदि साथ लेकर आना अच्छा रहेगा। गौरी कुण्ड से जब आप केदारनाथ जाते हैं तो रास्ते में किसी जंगली जानवर आदि को न छेडें यहां पर वैसे तो मार्ग अच्छा बन गया है लेकिन यहां रात के समय यात्रा नहीं करनी चाहिए। केदारनाथ यात्रा पर आते समय बदरीनाथ की यात्रा भी साथ-साथ करें तो आपको इस पावन भूमि में आने तथा तीर्थ यात्रा का शास्त्रोक्त फल भी मिलेगा साथ ही इन शांत वादियों में आपका मन व तन आत्मिक शांति का अनुभव करेगा। तो जब भी उत्तराखण्ड आयें बदरीनाथ व केदारनाथ की यात्रा का प्रोग्राम बनाकर आयें। श्री केदारनाथ आकर आपका मन सांसारिक बन्धनों से मुक्त होने को लालायित हो जाता है। यहां आकर आपको लगेगा कि सच ही कहा है कि श्री केदारनाथ एक ऐसा तीर्थ है जहां मानव जीते जी सब पापों से मुक्त हो जाता है।

हेम पन्त

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Apr 28, 2009 Dainik Jagran

उत्तरकाशी। अक्षय तृतीया के पुण्य पर्व पर गंगोत्री व यमुनोत्री धाम के कपाट वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ श्रद्धालुओं के लिए खोल दिए गए हैं। इस वर्ष कपाट 17 अक्टूबर को लक्ष्मी पूजन के दिन बंद होंगे।

अक्षय तृतीया व परशुराम जयंती की पावन बेला पर गंगोत्री धाम के कपाट शुभ मुहूर्त 12 बजकर 30 मिनट पर खोले गए। ढोल, रणसिंगा और सेना की राजपूत रेजीमेंट हर्षिल के बैंड की धुन पर सोमवार सुबह 6 बजे गंगा की मूर्ति डोली में सजकर गंगोत्री के लिए रवाना हुई। गंगोत्री में वैदिक मंत्रों व धार्मिक अनुष्ठान के साथ दोपहर 12 बजकर 30 मिनट पर गंगोत्री के कपाट खुलने के साथ ही गंगा मूर्ति व अखड दीप के दर्शनों के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ी। इस अवसर पर करीब छह हजार से अधिक लोगों ने पूजा अर्चना के साथ ही गंगा में डुबकियां लगाई। इस मौके पर चुनाव आयुक्त विपिन चंद चंदोला, गमंविनि के महानिदेशक नीरज सेमवाल, उप जिलाधिकारी भटवाड़ी एसएल सेमवाल, गंगोत्री विधायक गोपाल रावत आदि मौजूद रहे। गंगोत्री मंदिर समिति के अध्यक्ष रमेश सेमवाल, सचिव हरीश सेमवाल, महेश चंद सेमवाल, कृष्णानंद सेमवाल, विजेंद्र सेमवाल ने वैदिक मंत्रों के साथ गंगा लहरी, गंगा सहस्रनाम आदि मंत्रों से गंगा पूजन किया। दूसरी तरफ यमुनोत्री की मूर्ति सोमवार सुबह अपने शीतकालीन वास खरसाली के शनि मंदिर से यमुनोत्री के लिए रवाना हुई। पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ शनि देवता और यमुनोत्री की डोली सुबह साढ़े दस बजे यमुनोत्री पहुंची। वैदिक मंत्रोच्चारण व धार्मिक अनुष्ठान के साथ शुभ पर्व पर 11 बजकर 30 मिनट पर यमुनोत्री की भोग मूर्ति ने गर्भगृह में प्रवेश किया। इस अवसर पर यमुनोत्री विधायक केदार सिंह रावत, जिला पंचायत अध्यक्ष नारायण सिंह चौहान, उप जिलाधिकारी हिमालय सिंह मर्तोलिया आदि मौजूद रहे। यमुनोत्री समिति के अध्यक्ष मनोहर उनियाल के नेतृत्व में वैदिक मंत्रों व यज्ञ अनुष्ठान संपन्न किए गए।

हेम पन्त

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Kapat of Kedarnath temple reopened
« Reply #46 on: April 30, 2009, 10:40:59 PM »
Dehra Dun, Apr 30 The portals of famous Hindu shrine of Kedarnath in Uttrakhand were reopened today after a gap of six months as thousands of pilgrims witnessed the opening ceremony braving chilly winds.

Amid chanting of vedic hymns, chief priest of the Kedarnath temple Raj Shekhar Ling in the presence of religious officials performed a special puja and unlocked the doors of the shrine, dedicated to Lord Shiva, at 0615 hours for a period of six months, said Anusuiya Prasad Bhatt, chairman of Shri Badrinath- Kedarnath temple committee.

Thousands of pilgrims were also present outside the sanctum sanctorum of the temple, located in Garhwal Himalayas, chanting"Bam Bhole"and"Jai Bhole".

Former chief minister of Madhya Pradesh Uma Bharti was among the early visitors who paid obeisance at the temple.

The doors of another famous Hindu shrine of Badrinath in Chamoli district would be reopened tomorrow while the portals of Yamunotri and Gangotri temples, both in Uttarkashi district, were reopened on April 27 on the auspicious day of Akshay Tritiya.

हेम पन्त

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बदरीनाथ मन्दिर सिर्फ अध्यात्म का ही धाम नहीं बल्कि राष्ट्रीय एकता का भी अदभुत उदाहर्ण है. आद्य गुरु शंकराचार्य ने हजारों वर्ष पूर्व इस मंदिर को स्थापित किया था. इस धाम के मुख्य पुजारी दक्षिण के नम्बूदरीपाद ब्राह्मण होते हैं. भगवान के भोग की केसर कश्मीर से आती है और चन्दन कर्नाटक से. बदरीनाथ धाम में शैव, वैष्णव सम्प्रदाय के लोगों के साथ ही बौद्ध धर्म के लोग श्री हरि के विग्रह में भगवान बुद्ध की छवि देखते हैं तो जैन धर्म के लोग आदिनाथ के दर्शन करते हैं.

बद्रीनाथ को प्रथम धाम और मोक्षधाम भी कहा जाता है. 10350 फीट की ऊंचाई पर नर-नारायण पर्वतों के बीच पुण्य अलकनन्दा नदी के तट पर स्थित बदरीनाथ धाम को साक्षात भू-बैकुण्ठ भी कहा गया है. इस क्षेत्र में देवताओं, ॠषि मुनियों, पित्रों तथा समस्त तीर्थों का वास रहता है. कलियुग में न दिखाई देने वाले बद्री वृक्ष की छाया में ही भगवान श्री हरि ने तप किया था इसलिये इस क्षेत्र का नाम बद्रीपुरी पङा. बद्री वृक्ष को साक्षात लक्ष्मी का स्वरूप माना जाता है.इसे पूर्व में विशालापुरी भी कहा जाता था. नारद ने यहां साठ हजार वर्ष तक तपस्या की थी इसलिये इस क्षेत्र को नारायण आश्रम भी कहा गया है.

पंच शिलाओं यथा मार्कंडेय, नारद, गरुङ, वाराही तथा नरसिंही शिलाओं के मध्य विराजमान आद्य श्री  बद्रीनारायण मुक्ति और भक्ति के प्रदाता माने जाते हैं. यहां पर तप्त कुण्ड भी है. नारद कुण्ड, सूर्य कुण्ड, ब्रह्म कुण्ड, लक्ष्मी धारा, प्रहलाद धारा तथा ब्रह्म कपाल जैसे पुण्य दायक तीर्थों के कारण यह क्षेत्र मुक्ति प्रदा कहा जाता है.   

"हिन्दुस्तान दैनिक" 1 मई 2009, देहरादून संस्करण से साभार

Devbhoomi,Uttarakhand

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सूर्यकुंड में पका हुआ चावल ही है यमुनोत्री का प्रसाद

यमुनोत्री के कपाट वैशाख शुक्लपक्ष की तृतीया को खुलते हैं और कार्तिक में यम द्वितीया के दिन बंद हो जाते हैं। शीतकाल में 6 महीने खरसाली के पंडे यमुनोत्री की पूजा अपने गांव में ही करते हैं। टिहरी नरेश महाराजा प्रतापशाह ने वि.सं. 1919 में यमुनोत्री मंदिर बनवाया था। मंदिर में काला संगमरमर है। गंगा-यमुना को सौतेली बहनें माना जाता है। इस मंदिर में गंगा जी की भी मूर्ति शोभित है। हमारी संस्कृति में ये दोनों माता का रूप लिए हुए हैं। क्या यह कम महत्व की बात है कि इन दोनों नदियों ने भारतीय सभ्यता को पनपाया है।
 मंदिर के निकटस्थ पहाड़ की चट्टान के अंदर गर्म पानी का कुंड है। इसे सूर्यकुंड के नाम से जाना जाता है जिसका तापमान 100 डिग्री सेंटीग्रेड फॉरेनहाइट रहता है। इसमें आलू-चावल पोटली में रखे जाएँ, तो वह पककर तैयार हो जाते हैं। यही यहाँ का प्रसाद होता है। यमुनोत्री का प्रसाद इस जल का पका हुआ चावल माना जाता है।
गौरीकुंड का जल थोड़ा कम गर्म रहता है। इसी में यात्री स्नान करते हैं। प्रकृति का कितना अजूबा है यह स्थान। सूर्यकुंड के पास ही एक शिला है, जिसे दिव्य-शिला कहते हैं। इसकी पूजा का विशेष महत्व है। स्नान के बाद दिव्य-शिला की पूजा की जाती है। उसके बाद यमुना नदी की पूजा की जाती है।
एक हैरानी की बात है कि असित मुनि ने यहाँ तप किया था। अपनी आध्यात्मिक व मानसिक शक्ति के बल पर वे प्रतिदिन यमुनोत्री व गंगोत्री दोनों जगहों पर स्नान करके यमुनोत्री लौट जाते थे, लेकिन बुढ़ापे में जब यह नामुमकिन हो गया तो गंगाजी खुद एक सूक्ष्म धारा के रूप में इसी स्थान पर चट्टान से निकलकर फूट पड़ीं। यही वजह है कि आज भी यमुनोत्री में गंगा जी की पूजा का प्रचलन है। यहां से आगे सप्तकुंड है, जिसका खास महत्व माना गया है।
कूर्म पुराण के मुताबिक यमुना की जन्मकथा यूं है - सूर्य की संध्या व छाया नामक दो पत्नियां थीं। संध्या से गंगा तथा छाया से यमुना व यमराज पैदा हुए। इस प्रकार गंगा, यमुना सौतेली बहिनें व यमुना व यमराज सगे भाई-बहन हैं।
स्कंद पुराण के अनुसार संध्या प्रजापति की पुत्री व छाया संज्ञा की सवर्णा थी।
 संज्ञा से वैवस्वत मनु यम व यमुना पैदा हुए और छाया से सावर्ण मनु (आठवें मनु) व श्यामवर्ण शनैश्चर यम ने जन्म लिया। यमुनोत्री में एक हनुमान का मंदिर है। कालीकमली वालों की धर्मशाला है। यह स्थान बहुत ठंडा होता है। आवास की सुविधाएँ नाममात्र की हैं। यात्री रात को नीचे की चट्टियों में आ जाते हैं।
यमुनोत्री जाने के लिए अभी भी कुछ किलोमीटर पैदल जाना होता है। उम्मीद करनी चाहिए कि यहाँ भी बस-मार्ग जल्दी पूरा हो जाएगा। यात्रियों का चाहिए कि वे गर्म कपड़े साथ ले जाएँ। जाने के लिए त्र+षिकेश से बस-सुविधा उपलब्ध है।


Devbhoomi,Uttarakhand

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पंच बदरी    


भगवान विष्णु के महत्व के कारण पंच बदरी की पवित्रता अलग ही है। बदरीनाथ विष्णुजी का आराधना को समर्पित है। एक मनोंरजक किंवदनी के अनुसार, विष्णुजी
सम्बन्धित जानकारी
ने इस जगह को शिवजी से छीना था। जैसा कि अन्य देवता करते है। विष्णुजी भी यहां प्रायश्चित करने आये थे। उन्हें यह स्थान इतना भाया कि उन्होने शिवजी का ध्यान साधना से भंग करने की योजना बनाई, विष्णुजी ने एक बालक का रूप धारण किया और रोना-धोना शुरू कर दिया। शिवजी की पत्नी पार्वतीजी ने बालकरूपी विष्णुजी को चुप कराने हेतु गोद में उठाया लेकिन वे उसे चुप कराने में असफल रही। चूंकि बाल का रोना
साधना में विघ्न डाल रहा था, अतः शिवजी ने यह स्थान खाली कर केदारनाथ में डेरा डाला और यह स्थान विष्णुजी को मिल गया। परंतु शिवजी के यहां वास करने के कुछ चिन्ह अब भी यहां मौजूद है। उनमें से शिवजी को अत्यंत्र प्रिय, सबसे अधिक पाया जानेवाला रसभरी की जाति का फल बदरी, वे विशाल वृक्ष, जिन्होने शिवजी की सेवा की, लेकिन ये वृक्ष भौतिक जगत के वासियों को दिखाई नहीं देते। चार धामों में से एक तथा हिंदुओं के लिए मोक्षदाता के रूप में पूज्यनीय चार मुख्य देवस्थलों में से एक बदरीनाथ के चार उपक्रमों में से अन्य बदरियां है-

 

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