Tourism in Uttarakhand > Religious Places Of Uttarakhand - देव भूमि उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध देव मन्दिर एवं धार्मिक कहानियां

Devbhoomi - उत्तराखंड देवीभूमि, तपो भूमि के स्थान जहाँ की ऋषि मुनियों ने तपस्या

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

PENANCE BY NARAD RISHI AT BADRINATH
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At Badarinath Lord MahaVishnu is believed to have done his penance. Seeing the Lord doing his penance in the open, Goddess Mahalaxmi is believed to have assumed the form of Badari tree to provide him shelter to face the onslaught of the adverse weather conditions, therefore the name Badari Narayan. It is believed that Lord Vishnu revealed to Narad rishi that Nar & Naryans forms were his own. It is also believed that Narad rishi, who also did his penance here, is even now worshipping the supreme God with Ashtakshara mantras.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

HARIDWAR : Suryavanshi prince Bhagirath performed penance
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Suryavanshi prince Bhagirath performed penance here to salvage the souls of his ancestors who had perished due to the curse of sage Kapila. The penance was answered and the river Ganga trickled forth form Lord Shiva's locks and its bountiful water revived the sixty thousand sons of king Sagara. In the traditional of Bhagirath, devout Hindus stand in the sacred waters here, praying for salvation of their departed elder.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

Rishi Ashtavakra's penance

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Srinagar (GARWAL) has Kshetrapals sitting in all directions of the town. Ghasya Mahadev in the East. (Devotees offer Grass (Ghaas), etc. to lord Shiva here hence they are called Ghasya Mahadev). Ashtavakra Mahadev in South (Legend and story of Rishi Ashtavakra's penance) at a height at Shring Parvat. Bhairav Ji in the West in Kanda village and finally Maniknath Mahadev as the Northern Kshetrapal in North.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

श्रीनगर स्थित कमलेश्वर (Garwal)भगवान विष्णु ने तपस्या कर सुदर्शन-चक्र प्राप्त किया
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श्रीनगर स्थित कमलेश्वर मन्दिर पौराणिक मन्दिरों में से है। इसकी अतिशय धार्मिक महत्ता है, किवदंती है कि यह स्थान देवताओं की नगरी भी रही है। इस शिवालय में भगवान विष्णु ने तपस्या कर सुदर्शन-चक्र प्राप्त किया तो श्री राम ने रावण वध के उपरान्त ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति हेतु कामना अर्पण कर शिव जी को प्रसन्न किया व पापमुक्त हुए।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
उत्तराखंड के अल्मोडा से 35किलोमीटर दूर स्थित केंद्र जागेश्वर धाम
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पुराणों के अनुसार शिवजी तथा सप्तऋषियोंने यहां तपस्या की थी। कहा जाता है कि प्राचीन समय में जागेश्वर मंदिर में मांगी गई मन्नतें उसी रूप में स्वीकार हो जाती थीं जिसका भारी दुरुपयोग हो रहा था। आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य जागेश्वर आए और उन्होंने महामृत्युंजयमें स्थापित शिवलिंगको कीलित करके इस दुरुपयोग को रोकने की व्यवस्था की। शंकराचार्य जी द्वारा कीलित किए जाने के बाद से अब यहां दूसरों के लिए बुरी कामना करने वालों की मनोकामनाएंपूरी नहीं होती केवल यज्ञ एवं अनुष्ठान से मंगलकारी मनोकामनाएंही पूरी हो सकती हैं।

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shiv chalisa

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अज अनादि अविगत अलख, अकल अतुल अविकार।
बंदौं शिव-पद-युग-कमल अमल अतीव उदार॥
आर्तिहरण सुखकरण शुभ भक्ति -मुक्ति -दातार।
करौ अनुग्रह दीन लखि अपनो विरद विचार॥
पर्यो पतित भवकूप महँ सहज नरक आगार।
सहज सुहृद पावन-पतित, सहजहि लेहु उबार॥
पलक-पलक आशा भर्यो, रह्यो सुबाट निहार।
ढरौ तुरन्त स्वभाववश, नेक न करौ अबार॥
जय शिव शङ्कर औढरदानी। जय गिरितनया मातु भवानी॥
सर्वोत्तम योगी योगेश्वर। सर्वलोक-ईश्वर-परमेश्वर॥
सब उर प्रेरक सर्वनियन्ता। उपद्रष्टा भर्ता अनुमन्ता॥
पराशक्ति -पति अखिल विश्वपति। परब्रह्म परधाम परमगति॥
सर्वातीत अनन्य सर्वगत। निजस्वरूप महिमामें स्थितरत॥
अंगभूति-भूषित श्मशानचर। भुजंगभूषण चन्द्रमुकुटधर॥
वृषवाहन नंदीगणनायक। अखिल विश्व के भाग्य-विधायक॥
व्याघ्रचर्म परिधान मनोहर। रीछचर्म ओढे गिरिजावर॥
कर त्रिशूल डमरूवर राजत। अभय वरद मुद्रा शुभ साजत॥
तनु कर्पूर-गोर उज्ज्वलतम। पिंगल जटाजूट सिर उत्तम॥
भाल त्रिपुण्ड्र मुण्डमालाधर। गल रुद्राक्ष-माल शोभाकर॥
विधि-हरि-रुद्र त्रिविध वपुधारी। बने सृजन-पालन-लयकारी॥
तुम हो नित्य दया के सागर। आशुतोष आनन्द-उजागर॥
अति दयालु भोले भण्डारी। अग-जग सबके मंगलकारी॥
सती-पार्वती के प्राणेश्वर। स्कन्द-गणेश-जनक शिव सुखकर॥
हरि-हर एक रूप गुणशीला। करत स्वामि-सेवक की लीला॥
रहते दोउ पूजत पुजवावत। पूजा-पद्धति सबन्हि सिखावत॥
मारुति बन हरि-सेवा कीन्ही। रामेश्वर बन सेवा लीन्ही॥
जग-जित घोर हलाहल पीकर। बने सदाशिव नीलकंठ वर॥
असुरासुर शुचि वरद शुभंकर। असुरनिहन्ता प्रभु प्रलयंकर॥
नम: शिवाय मन्त्र जपत मिटत सब क्लेश भयंकर॥
जो नर-नारि रटत शिव-शिव नित। तिनको शिव अति करत परमहित॥
श्रीकृष्ण तप कीन्हों भारी। ह्वै प्रसन्न वर दियो पुरारी॥
अर्जुन संग लडे किरात बन। दियो पाशुपत-अस्त्र मुदित मन॥
भक्तन के सब कष्ट निवारे। दे निज भक्ति सबन्हि उद्धारे॥
शङ्खचूड जालन्धर मारे। दैत्य असंख्य प्राण हर तारे॥
अन्धकको गणपति पद दीन्हों। शुक्र शुक्रपथ बाहर कीन्हों॥
तेहि सजीवनि विद्या दीन्हीं। बाणासुर गणपति-गति कीन्हीं॥
अष्टमूर्ति पंचानन चिन्मय। द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग ज्योतिर्मय॥
भुवन चतुर्दश व्यापक रूपा। अकथ अचिन्त्य असीम अनूपा॥
काशी मरत जंतु अवलोकी। देत मुक्ति -पद करत अशोकी॥
भक्त भगीरथ की रुचि राखी। जटा बसी गंगा सुर साखी॥
रुरु अगस्त्य उपमन्यू ज्ञानी। ऋषि दधीचि आदिक विज्ञानी॥
शिवरहस्य शिवज्ञान प्रचारक। शिवहिं परम प्रिय लोकोद्धारक॥
इनके शुभ सुमिरनतें शंकर। देत मुदित ह्वै अति दुर्लभ वर॥
अति उदार करुणावरुणालय। हरण दैन्य-दारिद्रय-दु:ख-भय॥
तुम्हरो भजन परम हितकारी। विप्र शूद्र सब ही अधिकारी॥
बालक वृद्ध नारि-नर ध्यावहिं। ते अलभ्य शिवपद को पावहिं॥
भेदशून्य तुम सबके स्वामी। सहज सुहृद सेवक अनुगामी॥
जो जन शरण तुम्हारी आवत। सकल दुरित तत्काल नशावत॥
दोहा
बहन करौ तुम शीलवश, निज जनकौ सब भार।
गनौ न अघ, अघ-जाति कछु, सब विधि करो सँभार॥
तुम्हरो शील स्वभाव लखि, जो न शरण तव होय।
तेहि सम कुटिल कुबुद्धि जन, नहिं कुभाग्य जन कोय॥
दीन-हीन अति मलिन मति, मैं अघ-ओघ अपार।
कृपा-अनल प्रगटौ तुरत, करो पाप सब छार॥
कृपा सुधा बरसाय पुनि, शीतल करो पवित्र।
राखो पदकमलनि सदा, हे कुपात्र के मित्र॥

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