Author Topic: Devbhumi Uttarakhand - ऎसे ही नही कहते है उत्तराखंड को देव भूमि  (Read 14484 times)

पंकज सिंह महर

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अनोखी परंपरा है अग्नि भेंट सेवा

जो धार्मिक गुटका वृद्ध हो गया, उसका क्या किया जाए-यह ऐसा सवाल है, जो हर घर में कभी न कभी अवश्य उठता है। दुविधा यह रहती है कि जिन पुस्तकों ने ज्ञान और भक्ति का मार्ग दिखाया, उनके पन्नों के फटने, पुराने हो जाने पर उनका किया क्या जाए? रास्ता दिखाता है देहरादून का खुशहालपुर गांव। यहां एक ऐसा गुरुद्वारा है, जहां दुनिया भर से फटे- पुराने धार्मिक ग्रंथ लाकर उन्हें सम्मान पूर्वक अग्नि के हवाले किया जाता है। इस अग्नि भेंट सेवा का मकसद पवित्र ग्रंथों को बदहाली से बचाना और उनका सम्मान करना है। मनुष्य देह की तर्ज पर धार्मिक ग्रंथों का भी अंतिम संस्कार होता है। खुशहालपुर स्थित गुरुद्वारे को अंगीठा साहिब नाम से जाना जाता है। यहां गुरु के उस वचन को पूरा किया जाता है, जिसमें उन्होंने धार्मिक ग्रंथों व पुस्तकों को बदहाली से बचाने की बात कही थी। गुरुद्वारे के सेवक हर साल दुनिया घूम कर सभी धर्मो के फटे-पुराने ग्रंथों को एकत्र करके अंगीठा साहेब लाते हैं। गुरुद्वारे में इन ग्रंथों को मखमली कपड़े से साफ कर सफेद चादर में लपेटकर रखा जाता है और अग्नि भेंट सेवा का आयोजन होता है। गुरुद्वारे के एक हाल में 24 अंगीठे बनाए गए हैं। अग्नि भेंट सेवा में पीला चोला पहने पंच प्यारों की भूमिका अहम होती है। इस अनूठी सेवा की प्रक्रिया भी रोचक है। गुरु सेवक विधि-विधान के साथ एक-एक ग्रंथ को अपने सिर पर रखकर गुरुद्वारे से हाल तक पहुंचाते हैं। एक बार में सिर्फ छह अंगीठों को ही लकडि़यों से सजाते हैं। प्रत्येक अंगीठे के ऊपर 13-13 ग्रंथ, 13 चादरों और 13 रूमालों के बीच रखे जाते हैं। पंच प्यारे हर अंगीठे की 5-5 परिक्रमा करने के बाद अरदास के साथ अग्नि प्रज्वलित करते हैं। एकत्रित सभी ग्रंथों के संस्कार तक यह प्रक्रिया लगातार चलती रहती है। दूसरे दिन कच्ची लस्सी का छींटा मारकर प्रत्येक अंगीठे से फूल (ग्रंथों की राख) चुने जाते हैं। अग्नि भेंट सेवा का अंतिम चरण हिमाचल प्रदेश के पांवटा साहिब में पूर्ण होता है। पंच प्यारों द्वारा अंगीठों से चुने गए फूलों को विधि-विधान से पांवटा साहिब स्थित गुरुद्वारे के पीछे यमुना नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है।

हेम पन्त

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उत्तरकाशी। डुण्डा ब्लाक के भेंटियारा गांव में प्रसिद्ध हलवा देवता मेले में देवता के पस्वा ने करीब 50 किलो प्रसाद का भोग लगाया।

ब्लाक डुण्डा का चौरंगीखाल क्षेत्र कभी नाथों के प्रभाव में रहा। गुरु गोरखनाथ व मछेन्द्र नाथ के शिष्य चौरंगी नाथ की इस धरती को चमत्कारी धरती भी कहा जाता है। चौरंगी की थाती पर उमड़े मेले की प्राचीन गाथा बुजुर्ग कुछ इस प्रकार करते हैं। कहते हैं कि दक्षिण के राजा शालीवाहन की तीन पत्‍ि‌नयां थी। शालीवाहन के पुत्र चौरंगी पर उसकी दूसरी मां की नजर पड़ी और उसने उससे संबंध बनाने की कोशिश की किन्तु चौरंगी ने इंकार कर दिया। तब चौरंगी के हाथ-पांव काटकर कुएं में फेंक दिए। कुएं में तड़पते चौरंगी की आवाज गोरखनाथ ने सुनी और गोरख ने दिव्य दृष्टि से चौरंगी का पूरा वृतांत जानने के बाद उससे देव शक्तियों ने परिपूर्ण कर दिया। इसके बाद चौरंगी नागपंथ प्रचार के लिए चौरंगीखाल पहुंचे। वहां तपस्या के बाद उन्हें अपार सिद्धियां प्राप्त हुई। चौरंगीनाथ ने अपनी शक्तियां क्षेत्र के हलवा वीर, भैरव देवता, हुणिया, रुपदेव समेत अन्य शिष्यों को वितरित कर दी। चौरंगी नाथ के शिष्यों के प्रकाट्य उत्सव भेटियारा में मंगलवार में आयोजित हुई। तीन साल में लगने वाला वाला यह मेला ब्लाक डुण्डा के गांव चौडियाट, सौड, दिखोली, लुदाड़ा के बाद अंतिम दिन भेंटियारा में आयोजित किया जाता है। हलवा वीर पांच दिन तक चलने वाले इस मेले में करीब 50 किलो प्रसाद का भोग लेता है। यह प्रसाद इसमें दूध, घी व दही मिलाकर भोग लगता है।

पंकज सिंह महर

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वकील न तारीख, फैसला एक रुपये में


एक मशहूर फिल्मी संवाद है-तारीख पर तारीख..। धीमी न्यायिक प्रक्रिया पर चुभती हुई टिप्पणी करने वाले इस संवाद पर सिनेमा हालों में खूब तालियां बजीं। आम भावना है कि अदालतों में न्याय मांगने वाले की चप्पलें घिस जाती हैं। लेकिन राह दिखाता है देहरादून का जनजाति क्षेत्र जौनसार बावर, जहां मात्र एक रुपये में इंसाफ मिलता है। इस अदालत में न तो वकील होता है और न तारीखें लगती हैं। एक रुपये फीस और एक पेशी में पीडि़त को न्याय मिल जाता है। यह कोई सरकारी व्यवस्था नहीं, बल्कि यहां के लोगों को विरासत में मिली परंपरा है, जिसे खुमड़ी कहते हैं। इन लोक अदालतों में दीवानी हो या फौजदारी सभी मुकदमों की त्वरित सुनाई होती है और फैसला भी तुरंत होता है। यही वजह है कि क्षेत्र की राजस्व पुलिस चौकियों में नाममात्र के मुकदमे दर्ज हैं। अधिकतर विवाद खुमड़ी में ही सुलझा लिये जाते हैं। खुमड़ी ब्रिटिश काल से लागू है। यहां प्रत्येक गांव की प्रशासनिक व्यवस्था को चलाने के लिए उस गांव के एक तेज-तर्रार और प्रबुद्ध व्यक्ति को मुखिया चुना जाता है, जिसे स्याणा कहते हैं। कई गांवों को मिलाकर अलग-अलग समूह बनाए गए हैं, जिन्हें खत कहा जाता है। प्रत्येक खत में भी एक-एक स्याणा नियुक्त किया जाता है, जिसे सदर स्याणा कहते हैं। सदर स्याणा का ओहदा गांव के स्याणा से बड़ा होता है। कोई भी विवाद होने पर पीडि़त व्यक्ति गांव स्याणा के पास एक रुपया नालस (फरियाद शुल्क) जमा करके शिकायत दर्ज कराता है। स्याणा के आदेश पर गांव की खुली बैठक (खुमड़ी) होती है। बैठक में स्याणा के अलावा चार अन्य प्रबुद्ध व्यक्ति (पंच) वादी और प्रतिवादी दोनों पक्षों की दलीलें सुनते हैं। अंत में स्याणा फैसला सुनाता है। वादी या प्रतिवादी में किसी को फैसला मान्य न हो तो वह सदर स्याणा की अदालत में न्याय की गुहार लगा सकता है। सदर स्याणा भी एक रुपया नालस लेकर पूरे खत की खुमड़ी बुलाता है। दोनों पक्षों को सुनने के बाद सदर स्याणा का फैसला अंतिम होता है, जिसे मानने के लिए दोनों पक्ष बाध्य होते हैं। कोई भी सदर स्याणा के फैसले का उल्लंघन करता है तो उसका सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता है। बिरपा गांव के स्याणा अर्जुन सिंह का कहना है कि मौजूदा न्याय व्यवस्था के बजाय खुमड़ी अच्छी है, जिसमें फैसले शीघ्र हुआ करते हैं। फनार खत के स्याणा दीवान सिंह कहते हैं कि वर्तमान न्याय व्यवस्था पैसे से प्रभावित है, जिसमें निर्धन को न्याय मुश्किल से मिलता है। 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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भगवान् मूल नारायण जी यह चमत्कारिक एव सच्ची कहानी

नंदा देवी के भतीजे सही मूल नारायण भगवान् का मंदिर बागेश्वर जिले शिखर नामक स्थान पर है जहाँ की हर साल कार्तिक पूणिमा मेला लगता है! 

चमत्कारिक कहानी
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एक बार मेरी दीदी और चाची इस मेले में गए थे !  आरती के समय पर डंगरिया ( जिस पर भगवान् की आत्मा आती है) सबको आशीर्वाद दे रहे थे ! मेरी दीदी एव चाची दूर काफी दूर कह रहे थे कि " देखो ये देवता" हमें कुछ कहता है कि नहीं ?

ये लोग काफी दूर खड़े थे डंगरिया ने चावल और फूल फेक कर कहा वहां पर खड़े दो महिलाओ को बुलाओ !

ये लोग चकित रह गए और उनसे डंगरिया ने पुछा कि " आप लोग आपस में ये बाते कर रहे थे कि ये भगवान् हमे पास बुलाते है कि नहीं" !

तब डंगरिया ने इनको भी फूल फल आदि देकर आशीर्वाद दिया !

उत्तराखंड को यो ही नहीं देव भूमि नहीं कहते है ?
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मुझे आशा है कि आप लोगो के व्यक्तिगत जीवन मी भी इस प्रकार के चमत्कार हुए होंगे ! जिन्हें आप यहाँ पर share करना चाहिंगे !

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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See this temple..

Step to step Temple in Uttarakhand.


Devbhoomi,Uttarakhand

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YE BHI SHIRF UTTARAKHAND MAIN HI HOTA ISILIYE ISE DEVBHOOMI UTTARAKHAND KAHA JAATAA HAI

[youtube]http://www.youtube.com/watch?v=UOAsQHLsrH8&feature=related

Devbhoomi,Uttarakhand

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गेंदी का खकोटी मेला



देवभूमि ऐसे ही नहीं कहते हैं उत्तराखंड को  ये हैं उत्तराखंड में मनाये जाने वाला मेला जिसकी शुरुआत पांडवों से ही हुयी है !


इस मेले की परम्परा पाण्डवों से जुड़ी है। मानना है कि महाभारत काल में राजा पाण्डु श्राद्ध तर्पण हेतु यज्ञ करवाता था। विधान के अनुसार गेंदी (मादा गेंडा) की खकोटी (खाल) खीचने का प्रावधान है। गेंदी को पाने के लिए पाण्डवों को कई दिन नागमल से युद्ध करना पड़ा था । बाद में अर्जुन गेंदी पर अपने धनुष के प्रहार कर मारने में सफल हो जाता है। इसी में पाण्डु के श्राद्ध तर्पण का विधिवत्‌ समापन होता है।

इसी परम्परा को पौड़ी के समीप सते गांव के लोग आज भी बनाए रखे हैं। मेले में पांच युवक पाण्डव बनते हैं, एक युवक नागमल और एक युवती नागमती की भूमिका अदा करती है। मेले के आयोजन से 3 दिन पूर्व रात को देवी-देवताओं को अवतारित कराया जाता है। ढोल दमाऊ की ताल पर लोग रात भर चौपुला व झुमैलो नृत्य करते है।

इस उत्सव के अन्तिम दिन वैशाखी को दिन भर घर-घर जाकर पारम्परिक गीत गाए जाते हैं। पारम्परिक ढोल नगाड़ों के साथ नृत्य करते हुए कलाकार गांव के देवी मन्दिर में जमा होते है। काफी देर तक नृत्य के माध्यम से युद्ध की भंगिमाएँ अदा करते हैं। नागमती बनी युवती के गोद में गेंदी का प्रतीक होता है, जिसे कद्दू या लौकी से बनाया जाता है।

नागमती गेंदी को पांचों पाण्डवों से बचाने का प्रयास करती है और पाण्डव अस्त्रों से प्रहार का अभिनय करते हैं। पाण्डवों के प्रहार के साथ ही नृत्योत्सव का समापन होता है। यह उत्सव बसन्त पंचमी से वैशाखी तक चलता है।

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कण्वाश्रम  कोटद्वार उत्तराखंड


गढ़वाल जनपद में कोटद्वार से १४ किमी दूर शिवालिक पर्वत श्रेणी के पाद प्रदेश में हेमकूट और मणिकूट पर्वतों की गोद में स्तिथ कण्वाश्रम ऐतिहासिक तथा पुरातात्विक दिर्ष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल है!

पुन्य सलिला मालिन के तट पर स्तिथ यह आश्रम चक्रवर्ती सम्राट भरत (जिनके नाम पर भारतवर्ष का नाम रखा गया है ) की शैशव किर्डास्थली  दुष्यंत शकुन्तला की प्रणय स्थली,मह्रिषी कण्व,गोतम और विश्वामित्र की तपोभूमि तथा कविकुल शिरोमणि महकवि कालिदास के महाकाब्य "अभिज्ञान शाकुंतलम"  का प्रेरणा स्रोत है !

पुरातत्वा वेताओं के अनुसार इस क्षेत्र में मालिनी -सभ्यता के प्रतीक स्वरूप १५०० साल पूर्व भाबी मंदिर एवं आश्रम थे !महाकवि कालिदास इसे किसलय प्रदेश के रूप में ब्यक्त करते हैं !

अभिज्ञान शाकुनतम में कण्वाश्रम का परिचय इस प्रकार है "एस कण्व खलु कुलाधिपति आश्रम " धार्मिक तथा तिर्थ्तन की दिर्ष्टि से कण्वाश्रम की गौरभशाली पौराणिक गाथा तथा मालिन का गंगा सदिर्स्य महत्व रहा है !




                                तत:सर्वे कण्वाश्रम गत्वा,बदरीनाथ क्षेत्र के तत:!
                               तपेशु सर्वेषु स्नान चैतर्म यथाविधि तत :!


Devbhoomi,Uttarakhand

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प्राचीनकाल से ही मानशखंड तथा केदारखंड की यात्राएं श्रधालुओं द्वारा पैदल संपन्न की जाती थी हैद्वार गंगाद्वार से कण्वाश्रम,महावगढ़,ब्यासघाट,देवप्रयाग होते हुए चारधाम यात्रा अनेक कष्ट सहकर पूर्ण की जाती थी !स्कन्द पुराण केदारखंड के ५७ वें अध्याय में इस पुन्य क्षेत्र का उल्लेख निम्नत किया गया है !

                                       कण्वाश्रम समारम्य याव नंदा गिरी भवेत !
                                     यावत क्षेत्रम परम पुण्य  मुक्ति प्रदायक !!


सन १९५५ में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री सम्पूर्नान्द के प्रयासों से कण्वाश्रम का जीर्णोद्वार किया गया था !वर्तमान में गढ़वाल मंडल विकास निगम कण्वाश्रम विकास समिति तथा साश्कीय प्रयासों से इस स्थल की उचित देख-रेख होती है !भरत स्मारक के साथ-साथ यहाँ पुरातविक महत्व की अनेक मूर्तियाँ सुरक्षित हैं !

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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