Author Topic: Do you know this Religious Facts About Uttarakhand- उत्तराखंड के धार्मिक तथ्य  (Read 27873 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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शिव रूप में होती है कल्पवृक्ष की पूजा
28 Nov 2012 11:07
 

जाका, अल्मोड़ा : औषधीय गुणों से भरपूर जिला मुख्यालय पर लगा कल्पवृक्ष लोगों की आस्था का केंद्र है। मान्यता है कि धरती पर कल्पवृक्ष का उद्भव समुद्र मंथन के समय हुआ था। इससे इसे साक्षात शिव का रूप माना जाता है। यही वजह है कि यहां वर्ष भर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। लोक मान्यताओं के अनुसार इसकी उम्र करीब आठ हजार वर्ष है। इस स्थान को तंत्र साधना का श्रेष्ठ केंद्र माना जाता है। विशेष रूप से नागा बाबाओं को यह स्थान काफी मुफीद रहता है। मनोकामना पूर्ण होने के लिए कल्पवृक्ष में धागा बांधने की परंपरा है। मुराद पूरी होने पर धागा खोलना जरूरी होता है। एक और रवायत यहां खिचड़ी बना कर खाने की भी है। शिव रूप में मान्यता होने के कारण महाशिवरात्रि को श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है। कल्पवृक्ष का वानस्पतिक नाम ओलिया कस्पीडाटा है। धार्मिक मान्यता व जनश्रुति के अनुसार भारत में केवल काशी, कर्नाटक व अल्मोड़ा के ग्राम छानी में ही यह वृक्ष है सदाबहार रहने वाले कल्पवृक्ष की पत्तियां बिरले ही गिरती है। जिसे गिरी पत्ती मिल जाती है, बड़ा ही शुभ माना जाता है। तमाम मान्यताओं, गहरी आस्था के बावजूद यह ऐतिहासिक धार्मिक स्थल उपेक्षा का शिकार है।

इंसेट-

ओलिएसी कुल के इस वृक्ष का वैज्ञानिक नाम ओलिया कस्पीडाटा है। यह यूरोप के फ्रांस व इटली में बहुतायत मात्रा में पाया जाता है। इसके बीजों का तेल हृदय रोगियों के लिए लाभकारी होता है। इसके तेल में एचडीएल (हाईडेंसिटी कोलेस्ट्राल) होता है।

-प्रो. गणेश चंद्र जोशी,पूर्व विभागाध्यक्ष वनस्पति विज्ञान, एसएसजे परिसर, अल्मोड़ा

(Dainik jagran)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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      जाग्रत हुए शिव तो नाम पड़ा 'जागेश्वर'
   -सुर, नर, मुनि से सेवित देवाधिदेव
 जागेश्वर (अल्मोड़ा): 'मा वैद्यनाथ मनुषा व्रजंतु, काशीपुरी शंकर बल्ल्भावां। मायानगयां मनुजा न यान्तु, जागीश्वराख्यं तू हरं व्रजन्तु'। अर्थात मनुष्य वैद्यनाथ न जा पावे, शंकर प्रिय काशी, मायानगरी (हरिद्वार) भी न जा सके तो जागेश्वर धाम में शिवदर्शन अवश्य करना चाहिए। मान्यता है कि सुर, नर, मुनि से सेवित हो देवाधिदेव जाग्रत हुए तो यहां का नाम जगेश्वर पड़ा। तभी इसे द्वादश ज्योतिर्लिग की ख्याति भी प्राप्त है।
 पहाड़ में आज श्रावण माह के प्रथम सोमवार को भगवान शिव की विशेष आराधना की जाती है। परम पावन धाम जागेश्वर 'लिंग रूप' में शिव पूजन का प्रथम स्थान है। हालांकि श्रावण मास 3 जुलाई से लगा गया, लेकिन पहाड़ में इसकी शुरुआत आज से हुई। जागेश्वर धाम समुद्र तल से 1860 मीटर उंचाई पर स्थित महादेव का यह धाम चारों ओर देववृक्ष देवदार से घिरा है। मुख्य मंदिर परिसर में 125 प्राचीन मंदिर स्थापित हैं। इनमें 108 मंदिर भगवान शिव जबकि 17 मंदिर अन्य देवी-देवताओं को समर्पित हैं। महामृत्युंजय, जागनाथ, पुष्टि देवी व कुबेर के मंदिरों को मुख्य मंदिर माना जाता है। पुरातत्वविदों के अनुसार मंदिरों का निर्माण 7वीं से 14वीं सदी में हुआ था। इस काल को पूर्व कत्यूरी काल, उत्तर कत्यूरी व चंद तीन कालों में विभक्त किया गया है। सुर, नर, मुनि द्वार पूजित जाग्रत शिव के पूजन से ही यहां का नाम जागेश्वर धाम पड़ा। स्कंद पुराण, लिंग पुराण मार्कण्डेय आदि पुराणों ने जागेश्वर की महिमा का बखूबी बखान किया है।
  चार दिशाओं से घिरे जागेश्वर मंदिर समूह के पूर्व में कोटेश्वर, पश्चिम में डंडेश्वर, उत्तर में वृद्ध जागेश्वर व दक्षिण में झांकर सैम मंदिर स्थापित है।
 ====इंसेट=====
 रावण, मार्कण्डेय, पांडव व लव-कुश ने भी किया था शिव पूजन
 मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के पुत्रों लव-कुश ने अपने पिता की सेना से युद्घ किया। राजा बनने के बाद वे यहां आऐ। उन्होंने अज्ञानतावश किए युद्ध के प्रायश्चित को यहां यज्ञ किया था। वह यज्ञ कुंड आज भी विद्यमान है। रावण, पांडव व मार्कण्डेय ऋषि जागेश्वर धाम में शिव पूजन का उल्लेख मिलता है।

(source dainik jagnra)

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ऐसा भी मंदिर जहां नहीं होती पूजा

पिथौरागढ़ : स्थापत्य कला के लिए मशहूर जिले के एक हथिया मंदिर में पूजा नहीं होती है। भगवान शिव के इस मंदिर में लिंग का मुंह दक्षिण दिशा की तरफ होने के कारण पूजा वर्जित है।
 जिला मुख्यालय से लगभग 55 किमी दूर थल के निकट बलतिर गांव के मध्य में भोलिया की छींड़ नामक जल प्रपात के पास यह मंदिर स्थित है। उत्तर भारत के अकेले राककट टैंपल को चट्टान में खूबसूरती के साथ गढ़ कर तैयार किया गया है। कहा जाता है कि एक ही रात को एक मिस्त्री ने एक ही हाथ से इसका निर्माण किया, जिस कारण इसे एक हथिया देवाल के नाम से जाना जाता है।
 पौराणिक काल में यह क्षेत्र माल तीर्थ नाम से जाना जाता था। स्कंद पुराण में भी इस क्षेत्र का उल्लेख है। तत्कालीन कत्यूरी राजा ने सोचा था कि कलात्मक मंदिरों का निर्माण कहीं और नहीं होना चाहिए। इसे देखते हुए मंदिर का निर्माण करने वाले शिल्पी का हाथ राजा ने कटवा दिया था। बाद में शिल्पी ने एक ही हाथ से मंदिर का निर्माण किया। इस घटना को अपशकुन मानते हुए जनता ने यहां पर स्नान करना छोड़ दिया। एक ही रात को बने इस मंदिर और लिंग का मुंह दक्षिण दिशा दिशा की ओर होने से पूजा भी वर्जित रही। हिन्दू धर्म में दक्षिणमुखी मंदिरों में पूजा का विधान नहीं है।
 स्थापत्य कला के इस बेजोड़ नमूने को शिल्पी ने इस प्रकार गढ़ा है जो पश्चिम और दक्षिण की तरफ खुला हुआ है। पूर्व और उत्तर दिशा से शिला में गड़न की गई है। मंदिर की तलछंद में गर्भगृह और मंडप का विधान रखा गया है। चट्टान के भीतरी भाग को काट कर मूल देवता के रूप में शिवलिंग गढ़ा गया है। मंडप के सामने जल प्रणाली बनाई गई है। वास्तुकला विशेषज्ञों का कहना है कि इसमें नागर और लेटिन शैली का उपयोग किया गया है। अद्भुत स्थापत्य कला के चलते यह मंदिर पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, जिसे देखने देशी और विदेशी पर्यटक यहां तक पहुंचते हैं।
http://www.jagran.com/uttarakhand/

 

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