Author Topic: Famous Shiv Temples In Uttarakhand - उत्तराखंड मे महादेव के प्रसिद्ध मन्दिर  (Read 95360 times)

Anil Arya / अनिल आर्य

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THANKS ANUBHAV DA, APKA SWAGAT HAI & MULAKAT KI ICHCHHA BHI. SATH SATH JAYENGE TAPKESHWAR MAHADEV DARSHAN KARNE . JAI BHOLE !

विनोद सिंह गढ़िया

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मानेश्वर मंदिर प्रमुख पौराणिक देवधामों में से एक है। इस धाम को शिव लोक का मार्ग कहा जाता है। बीसवीं सदी के आठवें दशक तक कैलास मानसरोवर की यात्रा का यह महत्वपूर्ण पड़ाव था। यहां शिवलिंग के दर्शन से पूर्व पास में ही स्थित नौले में स्नान की परंपरा है। शिवरात्रि पर यहां भारी संख्या में भक्त उमड़ते हैं।
चंपावत से सात किलोमीटर दूर मोटर मार्ग के बाद करीब 400 मीटर की चढ़ाई पर एक सुरम्य पहाड़ी में मानेश्वर का मंदिर है। यह चंद राजवंश के शासकों के समय की खूबसूरत स्थापत्य कला का जीवंत सबूत है। इस स्थान की गाथा महाभारत कालीन युग से जुड़ी मानी जाती है। पौराणिक कथाओं के मुताबिक वनवास काल में पांडवों के यहां पहुंचने पर उनके पिता के श्राद्ध का समय आ गया। कुंती ने मानसरोवर के जल की इच्छा प्रकट की। तब नजदीक में कहीं जल न देख धर्मराज युधिष्ठर ने अर्जुन से मंत्रणा की। अर्जुन ने भगवान शंकर का ध्यान कर गांडीव से बाण चला जलधारा उत्पन्न की। इसी जल से पांडवों ने पितरों का श्राद्ध तर्पण किया। उसी बाण से एक नौला बना। ये नौला अब भी जल से भरा है। अमृत तुल्य माने जाने वाले इस जल से स्नान करने से पुण्य मिलता है। कहते हैं कि भगवान शंकर की कृपा से वह जल मानसरोवर से आया था। और पांडवों ने कृतज्ञता स्वरूप मानेश्वर में यह शिवलिंग स्थापित किया। इस स्थान पर स्नान कर शिव पूजन करने वाले को मुक्ति का लाभ मिलता है।

स्कंदपुराण के मानसखंड के 65वें अध्याय में मानेश्वर के शिवालय का उल्लेख है:

मानसेयेति विख्यातो मध्ये कूर्माचलस्य हि।
पर्वतो मुनिशार्दूला विद्याधर निषेवित:।
शिखरे तस्य वै विप्रा मानसेशो हर:स्मृत:।
स तु मुक्तिप्रदो विप्रा:सैव भुक्तिप्रद:स्मृत:।



चंपावत जिले की सुरम्य पहाड़ी में स्थित मानेश्वर धाम।वर्ष 1208 में चंद राजा निर्भय चंद ने यहां मंदिर का निर्माण किया।

श्रोत: अमर उजाला

विनोद सिंह गढ़िया

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          नमामीश मीशान निर्वाण रूपं, विभुं व्यापकं ब्रह्मवेद: स्वरूपम
              निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहम चिदाकाशमाकास गौरम गंभीरम



भगवान शंकर ने यहीं से देखा था राम-रावण युद्ध

 नैनीताल जिले के उत्तर पूर्व में गौला नदी से सटी पहाड़ी पर स्थित हैड़ाखंडी कैलास (छोटा कैलास) के बारे में पौराणिक मान्यता है कि त्रेता युग में भगवान शंकर ने राम-रावण युद्ध इसी पहाड़ी से देखा था। द्वापर युग में बनवास के दौरान पांडवों ने भी भीमताल ब्लाक के पिनरौं न्याय पंचायत में स्थित इस पर्वत चोटी पर एक रात गुजारी थी। इन मान्यताओं के चलते छोटा कैलास में स्थित शिव मंदिर के प्रति लोगों में अपार आस्था है। शिवरात्रि पर हजारों शिवभक्त यहां आकर पूजा अर्चना करते हैं।
यहां शिवलिंग कब से मौजूद है इसका कोई लिखित प्रमाण नहीं है। लेकिन बुजुर्गों की मानें तो त्रेता युग में सती (पार्वती) द्वारा भगवान राम की परीक्षा लिए जाने पर जब भगवान शंकर ने सती को अपने बायीं ओर बैठने के अधिकार से वंचित कर दिया और सती कैलास मानसरोवर को चली गई तो भगवान शंकर राम की लीला देखने के लिए दक्षिण दिशा की ओर बढ़ गए। वह छोटा कैलास (पिथौरागढ़), सालम कैलास (अल्मोड़ा) होते हुए हैड़ाखान पहुंचे। वह यहां उज्ज्वल गांव (उढुंवा) के सुरकोट से होते हुए पींडर गांव (पिनरौं) की चोटी पर जा पहुंचे। इसी चोटी से उन्होंने राम-रावण युद्ध देखा था। तभी से इस चोटी को छोटा कैलास की मान्यता मिली। किंवदंती है कि द्वापर में अपने वनवास काल में पांडवों ने इस चोटी पर एक रात बिताई थी और यह भी कि किरात रूपधारी भगवान शंकर का अर्जुन के साथ युद्ध इसी चोटी पर हुआ था। छोटा कैलास में शिवरात्रि पर श्रद्धा और भक्ति के साथ की गई पूजा-अर्चना से मन्नतें पूरी होती हैं। उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के विभिन्न शहरों से हजारों की संख्या में शिवभक्त शिवरात्रि पर एक दो दिन पहले से ही छोटा कैलास पहुंचने लगते हैं। भीमताल से छोटा कैलास की दूरी 27 किलोमीटर और हल्द्वानी से 28 किलोमीटर है। पहाड़ी की चोटी तक पहुंचने के लिए शिवभक्तों को शक्ति नामक स्थान से लगभग चार किलोमीटर की दूरी पैदल तय करनी होती है।

श्रोत : अमर उजाला

विनोद सिंह गढ़िया

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यहां महामृत्युंजय रूप में पूजे जाते हैं भगवान शिव


अल्मोड़ा जिले में जागेश्वर धाम और द्वाराहाट में महामृत्युंजय मंदिर आस्था के प्रमुख केंद्र हैं। जागेश्वर के महामृत्युंजय मंदिर का वर्णन शिव पुराण, स्कंध पुराण, लिंग पुराण आदि धार्मिक ग्रंथों में भी मिलता है। मंदिर का निर्माण कत्यूरी राजा शालीमार ने करवाया। जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने यहां आकर मंदिर की मान्यता को पुनर्स्थापित किया। जागेश्वर का महामृत्युंजय मंदिर नागर शैली का है। श्रद्धालु इस मंदिर में अकाल मृत्यु टालने और दीर्घायु के लिए महामृत्युंजय पाठ और यज्ञ करते हैं। मान्यता है कि महामृत्युंजय मंदिर में पूजा से मनुष्य के दैहिक, दैविक और भौतिक दु:ख दूर होते हैं। अल्प मृत्यु, काल सर्प दोष निवारण, रोग-शोक और शत्रु भय से बचने के लिए श्रद्धालु यहां पूरे वर्ष पूजा अर्चना करते हैं लेकिन महाशिवरात्रि और श्रावण मास की चतुर्दशी को की गई पूजा का विशेष महत्व माना गया है। खासकर महिलाएं महाशिवरात्रि और श्रावण चतुर्दशी को संतान प्राप्ति के लिए दीपक अनुष्ठान का कठिन संकल्प लेती हैं। इसके तहत पूरी रात दीपक हाथ में लेकर तपस्या की जाती है।
उधर द्वाराहाट के सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व का उल्लेख प्राचीन धर्मग्रंथों में भी हुआ है। कहा जाता है कि महाभारत काल में अर्जुन की दिग्विजय यात्रा के दौरान जिन पांच प्रमुख हाटकों का उल्लेख मिलता है, उनमें गंगोलीहाट, गरुड़हाट, डीडीहाट, विरहहाट-वैराठ और द्वाराहाट शामिल हैं। इतिहासकार बीडी पांडे के अनुसार देवतागण कोसी और रामगंगा को लाकर द्वाराहाट में द्वारिका बनाना चाहते थे, किंतु कोसी नदी नहीं पहुंची तो यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी। नगर क्षेत्र में 30 मंदिरों और 365 नौलों के अवशेष इसके ऐतिहासिक महत्व को प्रमाणित करते हैं। यहां शिवजी के दो मंदिर हैं। केदारनाथ मंदिर में शिवलिंग के अलावा शिव, गणेश और चतुर्मुखी ब्रह्मा की छोटी-छोटी पाषाण प्रतिमाएं मौजूद हैं। मृत्युंजय मंदिर भव्य है। रानीखेत मार्ग पर स्थित यह मंदिर वर्गाकार मैदान में बना हुआ है। वर्गाकार गर्भग्रह पर पाषाणखंडों को जोड़कर बने इस मंदिर को पुरातत्व वेत्ता नागर शैली का मंदिर मानते हैं। इसका मंडप गोलाकार है। मंदिर के मुख्य द्वार में बाईं ओर गणेश तथा दायीं ओर त्रिशूल की पाषाण प्रतिमाएं बनी हुई हैं। गर्भगृह में चार फीट ऊंचा शिवलिंग है। यहां सूर्य, गणेश, लक्ष्मी और पार्वती की पाषाण निर्मित प्राचीन मूर्तियां भी थी, जो पुरातत्व विभाग के संरक्षण में हैं। इस मंदिर का गोल गुंबद भी पत्थर से बना है। परिसर में भैरव का भी एक छोटा मंदिर है। मान्यता के अनुसार मृत्यु से भयभीत मनुष्य को अभयदान प्रदान करने वाले भगवान शिव की इस मंदिर में पूजा होती है और मनोकामनाएं पूरी होती हैं। द्वाराहाट के अन्य मंदिरों की तरह यह मंदिर भी 11वीं और 12वीं सदी के मध्य तत्कालीन कत्यूरी शासकों द्वारा बनाया गया। 1743-44 में रुहेलों ने मूर्तियों को नुकसान पहुंचाया।

द्वाराहाट का मृत्युंजय मंदिर


जागेश्वर के महामृत्युंजय मंदिर में स्थापित शिव लिंग।

श्रोत : अमर उजाला


विनोद सिंह गढ़िया

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भगवान राम ने स्थापित किया था रामेश्वर मंदिर

मानसरोवर झील से निकली सरयू और परशुराम द्वारा प्रवाहित रामगंगा (पूर्वी) के संगम में स्थित शिव मंदिर भगवान श्रीराम ने स्वर्गारोहण से पहले अपने हाथों से स्थापित किया था। पौराणिक धामों का प्रमाण माने जाने वाले महर्षि व्यास द्वारा रचित स्कंदपुराण के मानसखंड में रामेश्वर का वर्णन करते हुए कहा गया है कि काशी विश्वनाथ के पूजन की अपेक्षा दस गुना और वैद्यनाथ और सेतुबंध रामेश्वर की अपेक्षा सौ गुना अधिक फल रामेश्वर पूजन से मिलता है। (संबंधित श्लोक ऊपर दिया गया है) मानसखंड में भगवान राम के महाप्रयाण के बाद अयोध्यावासियों के सरयू-रामगंगा संगम में आने का वर्णन है।
मानसखंड में रामेश्वर नाम से 95वां अध्याय है। 143 श्लोकों वाले इस अध्याय में जिला मुख्यालय से 36 किमी की दूरी पर गंगोलीहाट तहसील के छोर पर्णपत्रा (पनार) में सरयू और रामगंगा के संगम पर स्थित पौराणिक शिव मंदिर का बखान है। पुराण में ब्रह्माजी, गौतम ऋषि, भीष्म और नारद मुनि के मध्य हुए वार्तालाप का बखान करते हुए महर्षि व्यास ने लिखा है कि हिमालय के रमणीय तट पर सिद्ध तथा किन्नरों से सेवित एवं देवगणों से पूजित विष्णु भगवान का चरण है। वहीं मानसरोवर से प्रवाहित सरयू नदी प्रकट हुई। महर्षि वशिष्ठ उसे प्रकाश में लाए। वह गंगा के समान पवित्र सरयू नाम से प्रसिद्ध है। इसी प्रकार हिमालय के एक प्रांत में परशुराम द्वारा प्रवाहित रामगंगा (पूर्वी) है। उन दोनों के मध्य दिव्य रामेश्वर क्षेत्र है। रामेश्वर में देवों, दैत्यों, सिद्घों, मानवों आदि से सेवित भवानी सहित रामेश्वर का वास है।
पुराण में कहा गया है कि स्वयं ब्रह्मा जी ने रामेश्वर को कैलास, मंदराचल, वागीश्वर (बागेश्वर), विश्वनाथ, यागीश्वर (जागेश्वर) की तरह सर्वपूज्य बताया। ब्रह्मा जी ने नारद जी को बताया कि काशीवास कर विश्वनाथ के पूजन की अपेक्षा दस गुना और वैद्यनाथ और संबंध रामेश्वर कीअपेक्षा सौ गुना अधिक फल रामेश्वर पूजन से मिलता है। इन दोनों नदियों के मध्यस्थ क्षेत्र में देवता भी आत्मसमर्पण करना चाहते हैं, मनुष्यों का तो कहना ही क्या नारद। कौशल में जन्मे दशरथ के पुत्र अवतार पुरुष रामचंद्र ने सत्यलोक जाने की इच्छा यहां स्नान कर शंकर का पूजन किया था। वे सशरीर वैकुंठधाम गए। उन्होंने अपने नाम से यहां शिवलिंग स्थापित किया। भगवान राम के वैकुंठलोक जाने पर अयोध्या की जनता सरयू-सेवित रामेश्वर क्षेत्र में आई थी। वे लोग चतुर्दशी के दिन उपवास कर रामेश्वर का पूजन करने लगे। एक बूढ़ी ब्राह्मणी दर्शन नहीं कर पाई और शान्त शंकर का स्मरण करते-करते वह मर गई। तब शिवगणों ने उसे विमान में चढ़ा कर शिवलोक पहुंचा दिया। इस प्रकार रामेश्वर के स्मरण मात्र से ही वृद्धा शिवलोक प्राप्त कर सकी। रामेश्वर में चतुर्दशी के दिन सरयू स्नान, शिव पूजन, तर्पणादि के श्रेष्ठफल बताए गए हैं।



पनार के रामेश्वर में स्थित शिवजी का पौराणिक मंदिर।

विनोद सिंह गढ़िया

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बाली के तप से बालक रूप में प्रकट हुए थे भगवान शंकर

हजारों लोगों की आस्था के केंद्र थल के शिव मंदिर का पुराणों में बड़ा महत्व है। स्कंद पुराण के मानसखंड में रामगंगा के तट पर विद्यमान पौराणिक शिव मंदिर को बालतीर्थ (बालीश्वर) नाम दिया गया है। सुग्रीव की खोज में हिमालय की ओर निकले बानरराज बाली द्वारा रामगंगा में तप करने और भगवान शंकर के बाल रूप में प्रकट होने का वृतांत है। रामगंगा के साथ ही थल क्षेत्र में क्रांति (कोकिला) और बहुला (बलतिर) नामक नदियां बताते हुए कहा गया है कि क्रांति, बहुला और रामगंगा ये तीनों नदियां बड़ी पवित्र हैं। इनके संगम में स्नान तथा प्रेतशिला का पूजन करने से दिव्यदेह प्राप्त होती है। मानसखंड में वर्णन है कि सुग्रीव के वध को उसकी खोज के लिए बाली हिमालय की ओर गया। उसने रामगंगा में स्नान एवं पितृकार्य संपादित कर शिव की स्तुति करनी प्रारंभ की, बाली 20 वर्ष तक रामगंगा में तप करता रहा। तब बालक रूप में भगवान शंकर ने उसके सामने आकर रामगंगा के तट पर स्थित शिवलिंग के दर्शन करने को कहा। बाद में बालक रूपी भगवान शिव लिंग में समा गए। इसी कारण इस मंदिर को बालतीर्थ (बालीश्वर) कहा गया।

मानसखंड 108वें अध्याय के 17वें श्लोक में बालतीर्थ का वर्णन करते हुए कहा गया है-
समर्च्य विधिवत्तत्र श्रियं प्राप्नोति मानव:
तत: क्रान्तया जले पुण्ये बालतीर्थमिति स्मृतम
बालीश्वरस्य देवस्य पार्श्वे तीर्थोत्तमे शुभे
निमज्य मानवस्तत्र माघस्नानफलं लभेत


अर्थात क्रांति के मूल में पूजन करने से सद्गति प्राप्त होती है। बाईं ओर स्थित महादेवी (कोटगाड़ी-कोकिला) का पूजन करने से मानव लक्ष्मीवान होता है। तदंतर क्रांति के जल में सुविदित बालतीर्थ है। उसमें स्नान करने से माघ स्नान का फल मिलता है। वर्तमान में भी थल के इस पावन धाम का काफी महत्व है। खुद व्यास जी ने लिखा है कि मानसरोवर की यात्रा पर जाते समय उन्होंने थल रामगंगा में स्नान किया था। शिवरात्रि, मकर संक्रांति आदि पर्व पर बड़े मेले लगते हैं। रामगंगा में स्नान के बाद भगवान शिव की पूजा, अर्चना कर मन्नत मांगी जाती है। मंदिर की व्यवस्था के लिए कमेटी बनी हुई है। पुजारी धामीगांव (कोटीगांव) के भट्ट उपजाति के लोग हैं। कुल मिलाकर भगवान बालीश्वर का धाम मन को सकून देने वाला है। यही वजह है कि हजारों-हजार साल से मंदिर और रामगंगा की महत्ता बनी हुई है।

श्रोत : अमर उजाला

Rajen

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FAMOUS SHIVA TEMPLES IN UTTARAKHAND

Daksheswara Mahadev Temple, Kankhal
Rudreshwar Mahadev Temple
Baleshwar Temple, Champawat
Gopinath Mandir, Chamoli Gopeshwar
Neelkanth Mahadev Temple, near Rishikesh
Panch Kedar
Kedarnath Temple, Kedarnath– one of the most revered shrines dedicated to Lord Shiva
Tungnath, Chamoli district
Rudranath
Madhyamaheshwar
Kalpeshwar

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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चमोली जिले कि उर्गम घाटी में स्थित कल्पेश्वर महादेव
 
 केदार खंड में पुराण में उल्लेख मिलता है कि कल्पस्थल में दुर्वासा ऋषि ने कल्पवृक्ष के नीचे तपस्या की थी। देवताओं ने असुरों से त्रस्त होकर यहीं पर नारायणस्तुति की और भगवान शिव-कल्पेश्वर के दर्शन कर अभय प्राप्त किया था।
 
 कल्पेश्वर (2020 मीटर) मंदिर चमोली जिले कि उर्गम घाटी में अवस्थित है। कल्पेश्वर, विशाल चट्टान के पाद में, गुहा के गर्भ में, स्वयंभू शिवलिंग रूप में विराजमान हैं। जनश्रुति है, कि यहाँ इंद्र ने दुर्वासा ऋषि के शाप से मुक्ति पाने हेतु शिव-आराधना कर कल्पतरु प्राप्त किया था। कल्पेश्वर दो मार्गों से पहुँचा जा सकता है। प्रथम-मंडल से अनुसूया देवी होकर, द्वितीय-जोशीमठ से हेलंग न उर्गम होकर। प्रथम मार्ग अनुसूया देवी से आगे रुद्रनाथ होकर जाता है। द्वितीय हेलंग तक मोटर मार्ग द्वारा व तत्पश्चात ''6 किमी.'' सँकरे सामान्य तीव्र ढाल से गुज़रनेवाले पैदल मार्ग को तय कर, उर्गम आरक्षित वन क्षेत्र के निकट, ''76 मीटर'' ऊँचा एक प्रपात देखकर, मार्ग की थकान दूर हो जाती है

Devbhoomi,Uttarakhand

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अष्टादश पुराण और पंचकुंडीय ब्रह्मयज्ञ शुरू




  तिलवाड़ा/श्रीनगर, सुमाडी भरदार के सूर्यप्रयाग के त्रिपुरेशवर महादेव मंदिर में भव्य जल कलश यात्रा एवं विधिवत पूजा-अर्चना के साथ अष्टादश पुराण एवं पंचकुंडीय ब्रह्मयज्ञ कथा का शुभारंभ हो गया है।



मंदाकिनी व लस्तर नदी के पवित्र संगम पर स्थित सूर्यप्रयाग के त्रिरपुरेश्वर मंदिर में महंत माई शंकर गिरी महाराज व प्रहलाद पुरी व सुमाड़ी गांव के सहयोग से अष्टादश पुराण एवं पंचकुंडीय ब्रह्मयज्ञ धार्मिक अनुष्ठान का विधिवत शुभारंभ हो गया है। इससके बाद भव्य जल कलश यात्रा ढोल-दमाऊ के साथ तिलवाड़ा मुख्य बाजार में स्थित लक्ष्मीनारायण मंदिर से शुरु होकर सूर्यप्रयाग(सुमाडी) मंदिर में समाप्त हुई।




 इस दौरान यात्रा में सैकड़ों की संख्या में श्रद्धालुओं का जनसैलाब उमड़ा । अष्टादश पुराण एवं ब्रह्मयज्ञ में 24 व्यास एवं 51 ब्राह्मण प्रतिदिन पंचपूजा, गणेशपूजा, रुद्रीपाठ के साथ पूजा-अर्चना की जा रही है।
श्रीनगर गढ़वाल: चौरास झूला पुल के समीप रेवड़ी में एक भव्य धार्मिक कार्यक्रम के मध्य डॉ. हर्षपति ममगांई ने श्रीमद्भागवत कथा का शुभारंभ किया । इससे पूर्व 108 महिलाओं ने भव्य शोभा कलश यात्रा निकाली।


Source Dainik Jagran

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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उत्तराखंड के अनदेखे पर्यटक स्थलः-[टनकपुर ब्रह्मदेव मंदिर]......(यात्रा वृतांत)
 उत्तराखंड राज्य के बहुप्रचारित पर्यटन स्थलों मे जमा होने वाली भीड़ ने अब उन स्थलों को इतना भीड भरा और प्रदूषण से युक्त बना दिया है कि  इस बार गरमी की  में अवकाश मिलने पर पर्वतों की शान्ति की असली आनंद पाने के लिये कुछ अनदेखे पर्यटक स्थलो की ओर जाने की इच्छा हुयी।
 इस इच्छा के कारण पहला वैचारिक संघर्ष तो घर पर ही प्रारंभ हुआ जब मैने पत्नी और बच्चों को इसके बारे में बताया । उन सबका एक स्वर में यह मानना था कि प्रचारित पर्यटक स्थलों पर खान पान और ठहरने आदि की जो सुविधाये मुहैया हो सकती हैं वे ऐसे अनजाने अनखोजे स्थानों में नहीं हो सकतीं। बहरहाल बड़ी मान मनौवल के बाद मेरी पत्नी और पुत्र तथा पुत्री मेरे प्रस्ताव से इस सीमा तक सहमत हो सके कि कुछ नये स्थानो पर जाने में यदि उन्हे रोमांच नही आया तो फिर यात्रा मार्ग बीच में ही परिवर्तित कर पुराने प्रचारित पर्वतीय स्थलों की ओर मुड लिया जायेगा।
 
 उत्तराखंड की आरंभिक पहाड़ियों  की तलहटी में बसा कस्बा टनकपुर
 
 अपनी यात्रा का प्रारंभ किया उत्तर प्रदेश से सबसे नजदीक स्थित उत्तराखंड के तीर्थस्थान माँ पुण्यागिरी देवी के दर्शनों से। यह तीर्थ स्थान जनपद पीलीभीत से लगभग चालीस किलोमीटर दूर स्थित उत्तराखंड के कस्बे  टनकपुर में समुद्रतन से लगभग आठ सौ पचास मीटर (लगभग तीन हजार फिट) की उँचाई पर स्थित है । पृथक उत्तराखंड राज्य बनने के बाद इस तीर्थ स्थान के नाम से एक पृथक प्रशासनिक इकाई तहसील का निर्माण किया गया है।
 माँ पुर्णागिरी देवी का मंदिर इस कस्बे से लगभग बीस किलोमीटर अर्द्ध पहाडी मार्ग चलने के बाद लगभग चार किलोमीटर पैदल ट्रैकिंग की दुरी पर स्थित है। प्रशासनिक व्यवस्था के तहत दिन रात यात्रियों के आने जाने हेतु छोटे वाहन चलते रहने की अनुमति रहती है परन्तु  टनकपुर पहुँचने पर ज्ञात हुआ कि पर्वतीय मार्ग अवरूद्ध होने के कारण वाहनों की आवा जाही बंद है सो अपने वाहन से जाना संभव नहीं है। इस सूचना के बाद पहला पड़ाव टनकपुर कस्बे में डाला गया और स्थानीय भृमण योग्य स्थानों की जानकारी की गयी तो ज्ञात हुआ कि कस्बे से होकर गुजरने वाली काली नदी के तट पर (मैदानी इलाकों में आने पर इसका प्रचलित नाम शारदा नदी है) प्रतिदिन सांयःकालीन आरती का आयोजन होता है। इसके अतिरिक्त नदी के दूसरी ओर नेपाल देश का प्रसिद्ध ब्रह्मा विष्णु का मंदिर ब्रह्मदेव मंदिर कंचनपुर में स्थित है । ब्रह्मदेव मंदिर कंचनपुर जाने के लिये नदी पर बने बैराज से  होकर रास्ता  जाता है जिस पर सीमा सुरक्षा बल के जवान तैनात रहते हैं।
 
 नेपाल  का कस्बा ब्रह्मदेव जनपद कंचनपुर
 
 दोपहर के बाद बैराज के उस पार नेपाल जाकर प्रसिद्ध ब्रह्मा विष्णु का मंदिर देखने का कार्यक्रम तय हुआ। यहाँ तैनात सीमा सुरक्षा बल के जवानो का रवैया दर्शनार्थियो के प्रति अत्यंत सहृदय है। बैराज पार कर लगभग एक किलोमीटर का मार्ग काली नदी के किनारे बने बंधे पर तय करना पडता है उसके बाद नेपाल का एक छोटा सा कस्बा ब्रह्मदेव स्थित है जो नेपाल देश के कंचनपुर जिले का हिस्सा है। इस कस्बे में सौंदर्य प्रसाधन, चीन से आयातित कपड़े, अन्य विदेशी सामान तथा प्रसिद्ध फुटवियर कंपनियों का नेपाल को निर्यातित सामान अपेक्षाकृत काफी कम दामो पर उपलब्ध रहता है।
 
 ब्रह्मदेव कस्बे में स्थित ब्रह्मा विष्णु के मंदिर का प्रांगण
 ब्रह्मा विष्णु का मंदिर ब्रह्मदेव मंदिर के प्रांगण में छोटे छोटे दो तीन मंदिर स्थित हैं तथा एक बहुत प्राचीन बरगद का पेड है जिसके नीचे  सिद्ध महात्मा की समाधि का स्थल है । नेपाल और भारत से जाने वाले भक्तगणों की मनोकामना को सिद्ध करने के लिये इस पर पीले वस़्त्र का टुकडा बाँधकर मनौती माँगने की परंपरा है। यह पूरा परिसर ऐसे पीले वस्त्रों से पटा पड़ा है। वृक्ष की डाल, मंदिर की रेलिंग आदि से बंधे ये पीले वस्त्र इस परिसर को बसंत पंचमी सरीखी अनोखी छटा प्रदान करते हैं।
 
 ब्रह्मदेव मंदिर में सिद्ध महात्मा की समाधि पर आर्शिवाद लेते हुये
 इस स्थान पर दर्शन करने और स्थानीय बाजार से खरीददारी करते करते कब सांयः हो गयी यह पता ही न चला ।
 
  ब्रह्मदेव मंदिर के प्रांगण स्थित  सिद्ध महात्मा की समाधि का स्थल
 
 सांयः सूर्यास्त की बेला में लौटने पर बैराज से टनकपुर कस्बे तक का सफर काली नदी के किनारे बने बैराज पर तय करना बहुत मोहक लगा। बैराज के कारण निर्मित जलाशय में पड़ने वाली अस्त होते सूर्य की छटा ने मन मोह लिया।
 
 काली नदी के किनारे बने जलाशय में अस्त होते सूर्य की छटा
 टनकपुर कस्बे में पहुंचने पर स्थानीय घाट पर काली नदी की आरती देखने हेतु गये । वहाँ पानी में अठखेलियाँ करते स्थानीय बच्चो ने मन मोह लिया । यहाँ पानी मे किसी अप्रिय घटना से निबटने के लिये उत्तराखंड जल पुलिस अपनी राफ्ट और लाइफ सेविंग जैकेटों के साथ पूरी तरह मुस्तैद दिखी।
 
 
 टनकपुर कस्बे में स्थानीय घाट पर काली नदी की आरती
 आरती के बाद टी0वी0 न्यूज के साथ रात्रि का भोजन करते हुये अगले दिन ब्रह्म मुहूर्त में माँ पुण्यागिरी का दर्शन करने का संकल्प लेकर हम सभी सो गये।
 
 नोटः-यात्रा वृतांत की पिछली पोस्ट तथा वर्तमान में लगाये सभी छायाचित्रों के छायाकर है मेरे सुपुत्र चि0 साकार शुक्ला
 
  लेखक परिचयः-अशोक कुमार शुक्ला
  ‘‘तपस्या’’ 2-614 सेक्टर ‘‘एच’’ जानकीपुरम्,
  लखनऊ,उ.प्र.
 उ0प्र0 राजस्व (प्रशासनिक) सेवा के अघिकारी के रूप में कार्यरत।

 

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