Tourism in Uttarakhand > Religious Places Of Uttarakhand - देव भूमि उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध देव मन्दिर एवं धार्मिक कहानियां

Famous Shiv Temples In Uttarakhand - उत्तराखंड मे महादेव के प्रसिद्ध मन्दिर

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
वभूमि में मौजूद ऐसा शिव मंदिर जहां पूजा करने से मिलता है 'श्राप'
देवभूमि उत्तराखंड के पिथौरागढ़ के थल में छह किमी दूर स्थित है बल्तिर गांव में एक हथिया देवाल नाम का भगवान शिव का मंदिर स्थित है। यहां दूर-दूर से लोग आते हैं, लेकिन यहां पूजन नहीं किया जाता। यहां लोग मंदिर की अनूठी स्थापत्य कला को निहारते हैं। इस मंदिर की खास बात यह है कि लोग यहां भगवान शिव के दर्शन करने तो आते हैं, लेकिन यहां भगवान पूजा नहीं की जाती। इस मंदिर का नाम एक हथिया देवाल इसलिए पड़ा है क्योंकि यह एक हाथ से बना हुआ है। यह मंदिर बेहद पुराना है और ग्रंथों, अभिलेखों में भी इस मंदिर का वर्णन मिलता है। पुराने समय में यहां राजा कत्यूरी का शासन था। उस दौर के शासकों को स्थापत्य कला से बहुत लगाव था। लोगों का मानना है कि कुशल कारीगर ने मंदिर का निर्माण किया। खास बात यह थी कि कारीगर ने एक हाथ से मंदिर बनाना शुरू किया और पूरी रात में मंदिर तैयार कर दिया। जब स्थानीय पंडितों ने उस देवालय के अंदर उकेरी गए भगवान शंकर के लिंग और मूर्ति को देखा तो यह पता चला कि रात्रि में शीघ्रता से बनाए जाने के कारण शिवलिंग का अरघा उल्टी दिशा में बनाया दिया गया है जिसकी पूजा अनिष्टकारक हो सकती है। बस इसी के चलते मंदिर में विराजमान शिवलिंग की पूजा नहीं की जाती। मंदिर की स्थापत्य कला नागर और लैटिन शैली की है। चट्टान को तराश कर बनाया गया यह पूर्ण मंदिर है। चट्टान को काट कर ही शिवलिंग बनाया गया है। मंदिर का साधारण प्रवेश द्वार पश्चिम दिशा की तरफ है। (source amar ujala)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
उत्तराखंड में मौजूद पंच केदारों में से एक तुंगनाथ मंदिर को दुनिया के सबसे ऊंचाई पर स्थित शिव मंदिर होने का गौरव प्राप्त है।
यह मंदिर तुंगनाथ माउंटेन रेंज में समुद्र स्तर से 3680 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, इस मंदिर का निर्माण अर्जुन ने किया था। तुंगनाथ का शाब्दिक अर्थ 'पीक के भगवान' है। इस मंदिर में भगवन शिव के हाथ कि पूजा की जाती है, जो कि वास्तुकला के उत्तर भारतीय शैली का प्रतिनिधित्व करती है। मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार पर नंदी बैल की पत्थर कि मूर्ति है, जो हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान शिव का आरोह है। काला भैरव और व्यास के रूप में लोकप्रिय हिंदू संतों की मूर्तियों भी पांडवों की छवियों के साथ मंदिर में निहित हैं। इसके अलावा, विभिन्न देवी देवताओं के छोटे छोटे मंदिरों को इस मंदिर के आसपास देखा जा सकता है। भारी बर्फबारी की वजह से यह मंदिर नवंबर और मार्च के बीच में बंद रहता है। तुंगनाथ मन्दिर उत्तराखंड के गढ़वाल के चमोली ज़िले में स्थित है। यह मन्दिर भगभान शिव को समर्पित है और तुंगनाथ पर्वत पर अवस्थित है। हिमालय की ख़ूबसूरत प्राकृतिक सुन्दरता के बीच बना यह मन्दिर तीर्थयात्रियों और पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है। मुख्य रूप से चारधाम की यात्रा के लिए आने वाले यात्रियों के लिए यह मन्दिर बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस मन्दिर से जुडी एक मान्यता यह प्रसिद्ध है कि यहां पर शिव के ह्रदय और उनकी भुजाओं की पूजा होती है। इस मन्दिर की पूजा का दायित्व यहां के एक स्थानीय व्यक्ति को है। समुद्रतल से इस मन्दिर की ऊंचाई काफ़ी अधिक है, यही कारण है कि इस मन्दिर के सामने पहाडों पर सदा बर्फ जमी रहती है। एक अन्य मान्यता के अनुसार भगवान राम ने जब रावण का वध किया, तब स्वयं को ब्रह्माहत्या के शाप से मुक्त करने के लिये उन्होंने यहां शिव की तपस्या की। तभी से इस स्थान का नाम 'चंद्रशिला' भी प्रसिद्ध हो गया।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

उत्तराखंड में मिली 'पाताल' तक जाने वाली गुफा, अंदर शिवलिंग का भंडार

तीन दिन पहले खोजी गई गुफा के भीतर ग्रामीण कौतूहलवश सात किमी अंदर तक जा चुके हैं लेकिन इसके बाद भी ये गुफा खत्म नहीं हुई। ग्रामीणों ने इसके और लंबी होने की संभावना जताई है। गुफा मिलने की सूचना पुरातत्व विभाग को भी दे दी गई है।

http://www.amarujala.com/photo-gallery/dehradun/seven-kilometer-deep-cave-found-in-tiuni-dehradun?pageId=3

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
इस प्राचीन मंदिर में देवताओं के साथ होती है दानव की भी पूजा
उत्तराखंड के पौड़ी में स्थित थलीसैण ब्लॉक के एक गांव पैठाणी का धार्मिक महत्व देश के धार्मिक स्थानों से अनोखा माना जाता है, क्योंकि यहां देवता के साथ दानव की भी पूजा की जाती है।लोग कहते हैं कि पैठाणी के मंदिर में सदियों से दानव की पूजा होती आ रही है। पूरे भारत वर्ष में यहां राहू का एकमात्र प्राचीनतम मंदिर स्थापित है। यह मंदिर पूर्वी और पश्चिमी नयार नदियों के संगम पर स्थापित है। यह मंदिर उत्तराखंड के कोटद्वार से लगभग 150 किलोमीटर दूर थलीसैण ब्लॉक के पैठाणी गांव में स्थित है। इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि जब समुद्र मंथन के दौरान राहू ने देवताओं का रूप धरकर छल से अमृतपान किया था तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शनचक्र से राहू का सिर धड़ से अलग कर दिया, ताकि वह अमर न हो जाए। कहते हैं, राहू का कटा सिर इसी स्थान पर गिरा था। कहते हैं कि जहां पर राहू का कटा हुआ सिर गिरा था वहां पर एक मंदिर का निर्माण किया गया और भगवान शिव के साथ राहू की प्रतिमा की स्थापना की गई और इस प्रकार देवताओं के साथ यहां दानव की भी पूजा होने लगी। वर्तमान में यह राहू मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। धड़ विहीन की राहू की मूर्ति वाला यह मंदिर देखने से ही काफी प्राचीन प्रतीत होता है। इसकी प्राचीन शिल्पकला अनोखी और आकर्षक है। पश्चिममुखी इस प्राचीन मंदिर के बारे में यहां के लोगों का मानना है कि राहू की दशा की शान्ति और भगवान शिव की आराधना के लिए यह मंदिर पूरी दुनिया में सबसे उपयुक्त स्थान है। Source Amar ujala

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
भगवान श‌िव के इस मंद‌िर में पहुंचते ही उल्टी बहने लगती है गंगा, कोई नहीं जान पाया रहस्य

एक कहावत है 'उल्टी गंगा बहना'। लेक‌िन यहां यह कहावत एक दम सच हो जाती है। भारत में एक ऐसा मंद‌िर है जहां पर पहुंचते ही गंगा की धारा उल्टी बहने लगती है। कोई भी आज तक इसका रहस्य नहीं जान पाया है। यह मंद‌िर उत्तराखंड में रुड़की के सुल्तानपुर क्षेत्र के पंचेवली गांव स्थित पौराणिक पंचलेश्वर महादेव शिव मंदिर है। जानकारी के मुताब‌िक, पंचलेश्वर महादेव मंदिर काफी प्राचीन है और इसका महाभारत काल में पांडवों से भी संबंध रहा है।आमतौर पर गंगा उत्तर से दक्षिण की ओर बहती है, जबकि यहां गंगा पूरब से पश्चिम की ओर बहती है। यह स्थान दिव्य है। पौराणिक काल में पांडवों के वंशज यहां मन का पाप धोने के लिए आए थे और इसी स्थान पर गाय के गोबर से बने उपले से खुद को दग्ध कर मुक्ति प्राप्त की थी। इसके अलावा इस स्थान पर अज्ञातवास के दौरान पांच पांडव के आकर ठहरने की भी मान्यता है। कहा जाता है कि यहां पहुंचने वाले लोगों की मन की मुरादें पूरी हो जाती हैं। मंदिर के पुजारी भभूति गिरी ने बताया कि इस पौराणिक स्थान पर हर साल महाशिवरात्रि और गंगा दशहरे पर मेले का आयोजन होता है, जिसमें हजारों श्रद्धालु आकर मत्था टेकते हैं और गंगा में स्नान कर पुण्य कमाते हैं। जानकारों का कहना है कि इसके पीछे भौगोलिक कारण हैं। लेक‌िन करीब आधा किलोमीटर तक पूरब से पश्चिम की तरफ बहने के बाद खुद ही उत्तर से दक्षिण की ओर बहने लगती है।

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