Author Topic: Famous Temples Of Bhagwati Mata - उत्तराखंड मे देवी भगवती के प्रसिद्ध मन्दिर  (Read 75513 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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गबलादेव का मेला - जनपद पिथौरागढ़

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सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ की दारमाघाटी अपने नैसर्गिक सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध है । तेरह हजार फुट से अधिक की ऊँचाई पर रहने वाले लोग प्रकृति की दुरुहता को झेलते हुए भी किस प्रकार जीते हैं, गबलादेव के मेले में देखा जा सकता है । तिब्बत-नेपाल दारमा घाटी से लगे हुए हैं । इस दारमा घाटी का सबसे बड़ा मेला है - गबलादेव का मेला । गबलादेव चूँकि शौकाओं का इष्टदेव है, इसलिए यह आयोजन धार्मिक जीवन से जुड़ा है । दारमा घाटी के जन-जीवन पर तिब्बत की संस्कृति की गहरी छाप है । इसलिए गबलादेव भी बौद्ध 'शाक्यमुनि' तथा हिन्दू महादेव शिव का समन्वयात्मक रुप हैं । अगस्त के तीसरे सप्ताह में मनाये जाने वाले इस मेले की तिथि का निर्धारण सीमान्त के अन्तिम दाँत और बुगत नामक ग्राम करते हैं । जो गाँव इस मेले में भाग लेते हैं वे हैं - दाँत, गो, बौन, मार्छा, दुग्त, सेला, चल, किंग, सिव, तिदांग, सोन, डाकर, बालिंग तथा नागलिंग ।

परम्परागत वाद्ययन्त्रों से सजे-धजे, छोलिया नर्तकों की अगुवाई में शौका उमंग के साथ इस मेले में भाग लेते हैं ।

 


Source : http://tdil.mit.gov.in/coilnet/ignca/utrn0030.htm

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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देवी के माता के कुछ और मंदिर कुमाउ मे

१.  उल्का देवी मंदिर, अल्मोडा, चखाता, नौला और चौंन में

२.  उगारी देवी का मंदिर गिवाड़ में (अल्मोडा)

३.  श्यामा देवी का मंदिर स्याही पर्वत में

४.  शीतला देवा का मंदिर अल्मोडा मे -  जागीश्वर बेलपट्टी में, महर के डोला गाव में, द्वाराहाट के स्याल्दे में, जो शीतला देवी का अपभ्रंश है !

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Some Temple in Almora :
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1.  Banari Devi  Near Almora

2.  Chandra Ghanta Mata Mandir - Chakhata ev Silauti me

3.  Akhiltarani Devi Mandir  - Khilpati Me

4.  Khiyal Devi Mandir - Haat me

5.  Uprade Devi Temple  -  Koshiya me.

The temple of Yakshani and Putreshwari Devi are also in Almora somehere.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Manila Devi Temple
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मा मानिला- यह मन्दिर बहुत ही पूराना ओर एतिहासिक है| अल्मोड,ा के पाली पछायू क्षेत्र में क‰यूरी राजा सारंग देव के प्रथम पुत्र विरम देव का शासन था। सन् 1488 में चन्द्रवंशी राजा किती–चन्द कुमायू पर अपना शासन की पिपासा से क‰यूरी राज्यों को नरसंहार का क‰लेआम से जीतते हुये, भिकियासैण पहुचकर लखनपुर ह्यविराट नगरी वत–मान चौखुटियाहृ पर आक्रमण की तैयारी कर रहे थे कि लखनपुर के शासक विरमदेव को ज्ञात होन पर उन्होंने अपने सुख, सुविधा व स्वाभिमान की परवाह किये बिना बेकसुर प्रजा के क‰लेआम से बचने के लिये सन्धि करके, चंदराजा को अपनी प्रजा व राज्य सौंप दिया तब पाली जीता गया। तब यहां के शासक विरमदेव ने सन् 1488 में लखनपुर के किले की तज– पर सयणामानुर में किला बनाकर बसे फिर क‰यूरी कुलदेवी अगनेरी ह्यआग्नेय दिशा में स्थित होने सेहृ की तज– पर मानिला वन में मन्दिर बनाकर "मानिलादेवी" की स्थापना की।

"मां मानिलादेवी" जनश्रुति के आधार पर मां मानिलादेवी के प्राचीन मंदिर से करूणामयी मां के भक्तों के प्रति वा‰सल्य रूप में प्रकट होकर आवश्यक निदे–श देती थी। एक बार दूर प्रदेश से कुछ व्यापारी बैलों के कुछ जोड,े खरीदने के उ¬द्देश्य से यहां आए। उन्हें बैलों का एक जोड,ा बहुत पसंद आया परन्तु उन बैलों के मालिक ने उन्हें वे बैल नही दिये, प्रिय बैलों के न मिलने पर उन्होंने उस बैलों की जोडी को रात में चुराने का निश्चय किया। मां मानिला देवी ने रात में उन बैलों के मालिक को आवाज ह्यधादहृ से जगा दिया कि कुछ लोग तुम्हारे बैलों को चुराने आ रहे हैं। यह आवाज सुनकर, चोर व्यापारी वहा जाने कि हिम्मत नहीं जुटा पाये, इस घटना से उन व्यापारियों को मां की शक्ति का आभास हुआ जैसा कि उन्होंने पहले भी सुन रखा था तब उन्होंने मां की मूति– को अपने प्रदेश में ले जाने का निश्चय किया और मन्दिर से मूति– उखाडने लगे, परन्तु बहुत प्रय‰न करने पर भी वह मूति– उनसे नहीं उठी इसी खीचातानी में मूति– का हाथ टूट गया तब उन्होंने मूति– का हाथ ही लेकर अपने प्रदेश पश्चिम की ओर चले ही थे कि इस हस्त शिला के भार से वे एक के बाद एक हताश होते गये तब चारों व्यापारीयों ने मिलकर भी हाथ उठाने में धीरे–धीरे असफल होते गये, फिर उन्होंने क्षेत्र से खरीदे बैलों की जोडी से भी खिचवाने पर मां की हस्त शिला को मानिला शक्तिपीठ ह्यवत–मान मल्ली मानिला मन्दिरहृ से आगे न ले जा सके। तब से मां की यहां स्थापित होकर दोनों मन्दिरों में पूजा होती है परन्तु मां के प्र‰यक्ष दशी– निदे–शों से क्षेत्र के भक्त वंचित हो गये।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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कसार देवीमंदिर :
यह मुख्य नगर से आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस मंदिर से हिमालय की ऊँची-ऊँची पर्वत श्रेणियों के दर्शन होते हैं। कसार देवी का मंदिर भी दुर्गा का ही मंदिर है। कहते हैं कि इस मंदिर की स्थापना ईसा के दो वर्ष पहले हो चुकी थी। इस मंदिर का धार्मिक महत्व बहुत अधिक आंका जाता है।

Devbhoomi,Uttarakhand

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                      चामुंडा देवी मंदिर,रूद्रप्रयाग में


यह मंदिर  संगम  के समीप  स्थित  है तथा  चामुंडा  देवी  को समर्पित  है। पिछले  70 सालों  से इस  पौराणिक  मंदिर  में मां  गोविंद  गिरि  एवं उनके  गुरू  पूर्ण  गिरि  ने सेवा  की है।  मंदिर  में आरती  प्रात: 8 बजे से  9 बजे तथा  शाम को  6 बजे से  7 बजे होती  है।

Devbhoomi,Uttarakhand

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उमा देवी मंदिर,कर्णप्रयाग



मंदिर की स्थापना 8वीं सदी में आदि शंकराचार्य द्वारा हुआ जबकि उमा देवी की मूर्ति इसके बहुत पहले ही स्थापित की गयी। कुछ वर्षों के बाद देवी 6 महीने की यात्रा पर जोशीमठ तक गांवों के दौरे पर निकलती है।

 उनकी देवी जब इस क्षेत्र से गुजरती है तो प्रत्येक गांव के भक्तों द्वारा पूजा, मडान तथा जग्गरों का आयोजन किया जाता है जहां से वह गुजरती है। जब वह अपने मंदिर लौटती है तो एक भगवती पूजा कर उन्हें मंदिर में पुनर्स्थापित कर दिया जाता है। इस मंदिर पर नवरात्री समारोह धूम-धाम से मनाया जाता है।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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हिंग्लादेवीमंदिर: जहां भक्तों की मुरादें होती है पूरी

चम्पावत। जनपद मुख्यालय की शीर्ष चोटी में बसे मॉ हिंग्लादेवी के धाम में हरएक की मुरादें पूरी होती है। ऋद्धि-सिद्धि के साथ ही निसंतान दपंत्तियों की मनोकामना पूर्ण करने के लिए यह मंदिर भक्तों की आस्था का केंद्र बना हुआ है। नवरात्र के मौके पर यहां दिन-रात भक्तों का तांता लगा रहता है। इस धाम की अपनी अलग मान्यता है। मंदिर के पुजारी सतीश पांडेय बताते है कि सातवीं सदी से पूर्व जब चंद राजा यहां आए तो उनके साथ आए उनके व्यासगुरु पांडेय के वंशजों को स्वप्न में मॉ भगवती ने दर्शन देकर कहा कि शीर्ष चोटी में उनकी शक्ति के साथ ही झूला (हिंग्ला) भी जमींदोज हुआ है। स्वप्न में ही उस स्थान पर मंदिर बनाने का आदेश दिया गया। इसी के अनुरूप खुदाई करने पर वहां मॉ का शक्तिस्थल शिला के रूप में मिला और झूले के अवशेष भी दिखे। विधि विधान से वहां मंदिर की स्थापना की गई और व्यासगुरु के एक भाई मंदिर के पुजारी के रूप में उसी के निकट पवेत गांव में रहने लगे। तभी से इसको शक्तिस्थल के रूप में पूजा जाने लगा और ऋद्घि-सिद्घि के साथ ही निसंतान दंपत्तियों की मनोकामना यह देवी पूरी करती आई है। कहा जाता है कि इस स्थल से मॉ भगवती अखिल तारिणी चोटी तक झूला (हिंग्ला) झूलती थी। इसी वजह से इस स्थान को हिंग्लादेवी कहा जाता है। बसंत और शारदीय नवरात्र के मौके पर तो यहां भक्तों का सैलाब उमड़ पड़ता है। जिले ही नहीं बल्कि कुमाऊं के अन्य हिस्सों से भी लोग यहां आकर अपनी मुरादें पूरी करते है।



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अटूट आस्था का प्रतीक है डंगोली का कोट मंदिर


गरुड़(बागेश्वर)। कत्यूर घाटी के मध्य में स्थापित भगवती का कोट भ्रामरी मंदिर जन जन की आस्था का प्रतीक है। मां नंदा सुनंदा व भ्रामरी के इस मंदिर में वर्ष में दो बार विशाल मेला लगता है। चैत्र मास की शुक्ल अष्टमी को भ्रामरी देवी की पूजा अर्चना के साथ मेला लगता है।

करीब 2500 वर्ष ईसा पूर्व सातवीं ईसवी तक यहां पर कत्यूरी राजाओं का शासन रहा है। इन्हीं कत्यूरी राजाओं ने कत्यूर घाटी के महत्वपूर्ण स्थानों को किले के रूप में स्थापित किया था। वर्तमान कोट मंदिर को भी किले का रूप दिया गया था। मंदिर की स्थापना के संबंध में कहा जाता है कि कत्यूर क्षेत्र में अरुण नामक दैत्य का बेहद आतंक था। उसी दौरान कत्यूरी राजा आसंति देव व बासंति देव कत्यूर को राजधानी बनाने की सोच रहे थे। इस संबंध में इतिहास के जानकार हरीश जोशी बताते है कि दैत्य से पीड़ित जनता ने राजाओं से अपनी व्यथा कही। कहा जाता है कि राजा ने भगवती मैया से इसका समाधान मांगा। विधि विधान से पूजा अर्चना करने के बाद मैया भंवरे के रूप में प्रकट हुई तथा मैया ने अरुण नामक दैत्य का बध कर दिया। तब कहीं जाकर कत्यूर के लोगों को दैत्य से मुक्ति मिली। मैया की इसी असीम अनुकंपा के कारण ही मैया की भंवर के रूप में पूजा होती है। मंदिर में दो शक्तियों का आख्यान मिलता है। कत्यूरी राजाओं की अधिष्ठात्री देवी भ्रामरी तथा चंदवंशावलियों द्वारा प्रतिष्ठापित नंद देवी स्थापित की गयी है। भ्रामरी रूप में देवी की पूजा अर्चना यहां पर मूर्ति के रूप में नहीं बल्कि शक्ति रूप में की जाती है। जबकि नंदा के रूप में स्थल पर मूर्ति पूजन, डोला स्थापना व विसर्जन का प्रचलन है!

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_6278888.html


 

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