चार धाम यात्रा करने वाले लोगों के लिए गोपेश्वर एक उत्तम स्थान है। यहां कुछ पल रुककर भक्त अपनी थकान तो मिटाते ही हैं, साथ ही यहीं स्थित प्राचीन शिव मंदिर के दर्शन भी करते हैं। यह स्थान बहुत से मंदिरों के बीचो-बीच स्थित है, इसलिए यात्री यहां आराम करने के लिए पड़ाव डालते हैं। दरअसल, धार्मिक आस्था का केंद्र होने के अलावा यह स्थल देश के मनोरम पर्यटन स्थलों में भी शामिल है।
गोपेश्वर का प्राचीन नाम गोस्थल या गोथल था। केदारखंड से पता चलता है कि भगवान शिव ने यहां घोर तपस्या की थी तथा कामदेव को भस्म की जाने वाली घटना भी यहीं घटित हुई थी।
1962 से पहले यहां केवल एक गांव था, जिसे गोपीनाथ मंदिर ही कहा जाता था। मान्यता है कि राजा सगर के शासन काल में एक गाय प्रतिदिन लिंग स्थल पर आती थी और उसके थनों से स्वतः दुग्ध धारा लिंग के ऊपर गिरने लगती थी। जब राजा सगर को इस बात का पता चला तो सच्चाई जानने के लिए वह गाय के पीछे-पीछे चल दिए। अपनी आंखों से संपूर्ण घटनाक्रम को जानकर राजा हैरान हो गए। गाय जहां दूध अर्पित करती थी, वहां से पत्तों को हटाने पर पता चला कि एक शिवलिंग पत्तों के नीचे हैं। वहां शिवलिंग देखकर उन्होंने वहां मंदिर बनाना चाहा, मगर मंदिर निर्माण की नींव निरंतर धंसती चली गई। आज भी वर्तमान मंदिर के आसपास कुछ निचली भूमि देखी जा सकती है। कहा जाता है कि भैरव की स्थापना के बाद ही मंदिर का निर्माण संभव हो पाया। यह एक मान्य तथ्य है कि भैरव के दर्शन के बिना भगवान शिव का दर्शन संभव नहीं हो पाता है। राजा सगर द्वारा इस घटनाक्रम को अपनी आंखों से देखने के बाद ही इस स्थान को गोथल के नाम से जाना जाने लगा। धीरे-धीरे इसका नाम गोपेश्वर हो गया। मंदिर से कुछ दूरी पर राजा सगर के नाम से सगर गांव आज भी
स्थित है।
गढ़वाल के इतिहास में यह मंदिर केदारनाथ के बाद सबसे विशाल व प्राचीन मंदिर है। 56 फीट ऊंचे इस मंदिर में मूलरूप से पाषाण शिवलिंग के अलावा वीणाधर नटराज की मूर्ति, परशुराम, सूर्यमूर्ति, आकाश भैरव मूर्ति तथा गर्भगृह के बाहर से पाषण नंदी है। मंदिर की चिनाई में तराशे गए पत्थरों के बीच लोहे की कीलों का भी इस्तेमाल किया गया है। मंदिर का गर्भगृह वर्गाकार रूप में है। चार पाषण ख्ंाडों के मध्य में शिवलिंग है। ये सब मंदिर की भव्यता को दर्शाते हैं। मंदिर के सामने बाईं ओर एक विशाल 16 फीट ऊंचा लौह त्रिशूल है। माना जाता है कि यह त्रिशूल छटी सदी का है। त्रिशूल के निचले भाग पर दाक्षिणी ब्राह्मी में अष्टधातु का एक लेख है और त्रिशूल के ऊपरी भाग में संस्कृत लेख है। लौह त्रिशूल के मध्य भाग पर परशुराम का फरसा भी है। राहुल सांकृत्यायन के अनुवाद अनुसार इसे अशोक चल्ल का विजय लेख माना गया है। त्रिशूल को देखने से लगता है कि इसका ऊपरी भाग लौह का तथा उसका निचला भाग अष्टधातु से बना है। लौह भाग तो उस पर लगे डंडे से भी पुराना दिखाई जान पड़ता है।
मंदिर से ख्00 मीटर की दूरी पर एक कुंड भी है, जिसे वैतरणी कुंड के नाम से जाना जाता है। इसके अलावा यहां पर छोटे- छोटे मंदिरों का समूह भी है। ऐसी मान्यता है कि कुंड जल से स्नान करने से सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है। यहां आने वाला प्रत्येक व्यक्ति इस कुंड में स्नान जरूर करता है। रुद्रनाथ की वैतरणी को इसका उद्गम स्थल माना जाता है। यहीं से कुछ दूरी पर बालाखिला नदी प्रवाहित होती है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि गोपेश्वर का संबंध भगवान श्रीकृष्ण से भी है।
गोपेश्वर के आसपास तुंगनाथ, अनुसुयादेवी, रूद्रनाथ और बद्रीनाथ 4 बड़े तीर्थस्थल भी हैं। इन चारों धर्मस्थली के दर्शन के लिए आने वाले भक्तगण स्वतः गोपेश्वर भगवाान शिव के दर्शन के लिए पहुंच जाते हैं।
कैसे पहुंचें
सड़क या रेल मार्ग से ऋषिकेश पहुंचने के बाद मिनी बस या टैक्सी से गोपेश्वर तक पहुंचा जा सकता है। दिल्ली से गोपेश्वर तक की दूरी लगभग 500 किमी है। ऋषिकेश से श्रीनगर, कर्णप्रयाग और चमोली होते हुए भी गोपेश्वर पहुंचा जा सकता है।