Author Topic: Gopeshwar: Historical City - गोपेश्वर: एक ऎतिहासिक नगर  (Read 19923 times)

annupama89

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thanks anubhavji

annupama89

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annupama89

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about badrinath

Badrinath temple, sometimes called Badrinarayan temple, is situated along the Alaknanda river, in the hill town of Badrinath in Uttarakhand state in India. It is widely considered to be one of the holiest Hindu temples, and is dedicated to Lord Vishnu. The temple and town are one of the four Char Dham pilgrimage sites. It is also one of the 108 Divya Desams, holy shrines for Vaishnavites. The temple is open only six months every year (between the end of April and the beginning of November), due to extreme weather conditions in the Himalayan region.

Several murtis are worshipped in the temple. The most important is a one meter tall statue of Vishnu as Lord Badrinarayan, made of black Saligram stone. The statue is considered by many Hindus to be one of eight swayam vyakta keshtras, or self-manifested statues of Vishnu.[1] The murti depicts Vishnu sitting in meditative posture, rather than His far more typical reclining pose. In November each year, when the town of Badrinath is closed, the image is moved to nearby Jyotirmath




पंकज सिंह महर

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चार धाम यात्रा करने वाले लोगों के लिए गोपेश्वर एक उत्तम स्थान है। यहां कुछ पल रुककर भक्त अपनी थकान तो मिटाते ही हैं, साथ ही यहीं स्थित प्राचीन शिव मंदिर के दर्शन भी करते हैं। यह स्थान बहुत से मंदिरों के बीचो-बीच स्थित है, इसलिए यात्री यहां आराम करने के लिए पड़ाव डालते हैं। दरअसल, धार्मिक आस्था का केंद्र होने के अलावा यह स्थल देश के मनोरम पर्यटन स्थलों में भी शामिल है।
गोपेश्वर का प्राचीन नाम गोस्थल या गोथल था। केदारखंड से पता चलता है कि भगवान शिव ने यहां घोर तपस्या की थी तथा कामदेव को भस्म की जाने वाली घटना भी यहीं घटित हुई थी।
1962 से पहले यहां केवल एक गांव था, जिसे गोपीनाथ मंदिर ही कहा जाता था। मान्यता है कि राजा सगर के शासन काल में एक गाय प्रतिदिन लिंग स्थल पर आती थी और उसके थनों से स्वतः दुग्ध धारा लिंग के ऊपर गिरने लगती थी। जब राजा सगर को इस बात का पता चला तो सच्चाई जानने के लिए वह गाय के पीछे-पीछे चल दिए। अपनी आंखों से संपूर्ण घटनाक्रम को जानकर राजा हैरान हो गए। गाय जहां दूध अर्पित करती थी, वहां से पत्तों को हटाने पर पता चला कि एक शिवलिंग पत्तों के नीचे हैं। वहां शिवलिंग देखकर उन्होंने वहां मंदिर बनाना चाहा, मगर मंदिर निर्माण की नींव निरंतर धंसती चली गई। आज भी वर्तमान मंदिर के आसपास कुछ निचली भूमि देखी जा सकती है। कहा जाता है कि भैरव की स्थापना के बाद ही मंदिर का निर्माण संभव हो पाया। यह एक मान्य तथ्य है कि भैरव के दर्शन के बिना भगवान शिव का दर्शन संभव नहीं हो पाता है। राजा सगर द्वारा इस घटनाक्रम को अपनी आंखों से देखने के बाद ही इस स्थान को गोथल के नाम से जाना जाने लगा। धीरे-धीरे इसका नाम गोपेश्वर हो गया। मंदिर से कुछ दूरी पर राजा सगर के नाम से सगर गांव आज भी
स्थित है।
गढ़वाल के इतिहास में यह मंदिर केदारनाथ के बाद सबसे विशाल व प्राचीन मंदिर है। 56 फीट ऊंचे इस मंदिर में मूलरूप से पाषाण शिवलिंग के अलावा वीणाधर नटराज की मूर्ति, परशुराम, सूर्यमूर्ति, आकाश भैरव मूर्ति तथा गर्भगृह के बाहर से पाषण नंदी है। मंदिर की चिनाई में तराशे गए पत्थरों के बीच लोहे की कीलों का भी इस्तेमाल किया गया है। मंदिर का गर्भगृह वर्गाकार रूप में है। चार पाषण ख्ंाडों के मध्य में शिवलिंग है। ये सब मंदिर की भव्यता को दर्शाते हैं। मंदिर के सामने बाईं ओर एक विशाल 16 फीट ऊंचा लौह त्रिशूल है। माना जाता है कि यह त्रिशूल छटी सदी का है। त्रिशूल के निचले भाग पर दाक्षिणी ब्राह्मी में अष्टधातु का एक लेख है और त्रिशूल के ऊपरी भाग में संस्कृत लेख है। लौह त्रिशूल के मध्य भाग पर परशुराम का फरसा भी है। राहुल सांकृत्यायन के अनुवाद अनुसार इसे अशोक चल्ल का विजय लेख माना गया है। त्रिशूल को देखने से लगता है कि इसका ऊपरी भाग लौह का तथा उसका निचला भाग अष्टधातु से बना है। लौह भाग तो उस पर लगे डंडे से भी पुराना दिखाई जान पड़ता है।
मंदिर से ख्00 मीटर की दूरी पर एक कुंड भी है, जिसे वैतरणी कुंड के नाम से जाना जाता है। इसके अलावा यहां पर छोटे- छोटे मंदिरों का समूह भी है। ऐसी मान्यता है कि कुंड जल से स्नान करने से सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है। यहां आने वाला प्रत्येक व्यक्ति इस कुंड में स्नान जरूर करता है। रुद्रनाथ की वैतरणी को इसका उद्‌गम स्थल माना जाता है। यहीं से कुछ दूरी पर बालाखिला नदी प्रवाहित होती है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि गोपेश्वर का संबंध भगवान श्रीकृष्ण से भी है।
गोपेश्वर के आसपास तुंगनाथ, अनुसुयादेवी, रूद्रनाथ और बद्रीनाथ 4 बड़े तीर्थस्थल भी हैं। इन चारों धर्मस्थली के दर्शन के लिए आने वाले भक्तगण स्वतः गोपेश्वर भगवाान शिव के दर्शन के लिए पहुंच जाते हैं।
कैसे पहुंचें
सड़क या रेल मार्ग से ऋषिकेश पहुंचने के बाद मिनी बस या टैक्सी से गोपेश्वर तक पहुंचा जा सकता है। दिल्ली से गोपेश्वर तक की दूरी लगभग 500 किमी है। ऋषिकेश से श्रीनगर, कर्णप्रयाग और चमोली होते हुए भी गोपेश्वर पहुंचा जा सकता है।
 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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सामाजिक समरसता का प्रतीक है पांडुकेश्वर
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गोपेश्वर। भारतीय संविधान में सभी जातियों को एकसमान अधिकार प्रदत्त होने के बावजूद आज भी देश के कई हिस्सों में जाति या ऊंच-नीच के आधार पर लोगों के बीच तलवारें खिंचती देखी जा सकती हैं। विभिन्न सामाजिक संगठन यहां तक कि कानून भी जहां अब तक देश को इस बुराई से पूरी तरह निकाल नहीं सका है, वहीं उत्तराखंड का एक गांव ऐसा भी है, जो जाति भेद में विश्वास न कर जातिवाद के पहरेदारों को आईना दिखाता है। सामाजिक समरसता का प्रतीक पांडुकेश्वर नामक इस छोटे से गांव में समाज के कुलीन वर्ग में विवाह को लेकर जाति का कोई बंधन नहीं है।

पांडुकेश्वर गांव हिन्दुओं के चार धामों में से एक श्री बदरीनाथ और जोशीमठ के बीच में स्थित है। मान्यता है कि हस्तिनापुर की गद्दी राजा परीक्षित को सौंपने के बाद पांडवों ने यहां तपस्या की थी, लिहाजा इस गांव का नाम पांडुकेश्वर रख दिया गया। गांव के बड़े बुजुर्गो की मानें, तो पास में श्री बदरीनाथ धाम स्थित होने के कारण देश के तमाम हिस्सों से यहां लोग आते गए और बसते चले गए। पांडुकेश्वर में निवास करने वाले लोग राजस्थान व दक्षिण भारत से आए आव्रजक जातियों के वंशज बताए जाते हैं। यह गांव भले ही छोटा सा हो, लेकिन पूरे देश को सामाजिक समरसता की राह दिखा रहा है। दरअसल, इस गांव के कुलीन समाज में विवाह के संबंध में कोई जाति बंधन नहीं है। इन दोनों जातियों के लोग आपसी वैवाहिक रिश्ते को तहेदिल से स्वीकार करते हैं। अन्तर्जातीय विवाह की परंपरा गांव में कब, कैसे और क्यों शुरू हुई, इस बारे में कोई ठोस प्रमाण या मान्यता नहीं है, हालांकि बुजुर्गो का कहना है कि क्योंकि गांव में अधिकांश लोग बाहरी राज्यों से आकर बसे थे, ऐसे में वैवाहिक संबंधों के लिए आसपास के क्षेत्र में कोई उनकी नजदीकी रिश्तेदार या बिरादरी का नहीं था। बुजुर्गो के मुताबिक उस समय कुलीन वर्ग के ग्रामीणों में अन्तर्जातीय विवाह की एक आम राय बन गई होगी, जो अब तक कायम है। शायद उस समय के ग्रामीणों ने इस बात की कल्पना नहीं की होगी कि उनकी यह आम राय आने वाले समय में सामाजिक समरसता की एक मिसाल बन जाएगी। इतना ही नहीं, पूर्वजों के अन्तर्जातीय विवाह का जबर्दस्त वैज्ञानिक लाभ उनकी पीढि़यों को भी मिला। बौद्धिक दृष्टि से नई पीढि़यां काफी प्रखर निकलीं। नतीजतन, पाण्डुकेश्वर के कई लोग वर्षो से उच्च प्रशासनिक व विशेषज्ञ पदों पर देश को अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। बुद्धिजीवी वर्ग के प्रयासों से एडवांस हो चुके इस गांव को लोग अब 'मिनी बाम्बे' की संज्ञा देने से भी नहीं चूकते।

source ": http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_5978992.html


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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जब रासलीला की चाह में शिव बने गोपी

 गोपेश्वर (चमोली)। रुद्र हिमालय में स्थित गोपेश्वर को प्राचीन एवं पवित्रतम तीर्थ माना जाता है। पुराणों के अनुसार इंद्रियों के नियंता और पशुओं के पति भगवान शिव को यहां गोपेश्वर या गोपीनाथ भी कहा जाता है और इन्हीं के नाम पर चमोली जिले के इस कस्बे को गोपेश्वर नाम मिला।

शिव का नाम गोपीनाथ पड़ने के पीछे एक रोचक कहानी है। लोकमान्यता है कि सृष्टि रचनाकाल में जब गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण राधा के साथ महारासलीला में निमग्न थे, तो उन्हें देख भगवान शिव में भी गौरी के साथ रासलीला करने की इच्छा जाग्रत हुई, परन्तु भगवान त्रिपुरारी, स्वयं त्रैलोक्यनाथ कृष्ण नहीं बन सकते थे और उनकी अद्र्धागिनी गौरी भी राधा नहीं बन सकती थी। इसलिए भगवान शिव स्वयं गोपी बन गए और गौरी ने गोप का रूप धारण किया और दोनों रासलीला में मग्न हो गए, लेकिन अंतर्यामी भगवान श्रीकृष्ण को उन्हें पहचानने में देर नहीं लगी और उन्होंने मुस्कराते हुए भगवान शिव को गोपीनाथ की उपाधि प्रदान की। गोपीनाथ का मंदिर स्थित होने के कारण गोपेश्वर को यह नाम दिया गया।

इसकी एक और वजह मानी जाती है। कहते हैं कि राजा सगर की सात हजार गायें थीं। उसके ग्वाले आसपास के क्षेत्र में इन गायों को चराते थे। उनमें से एक गाय हमेशा जंगल में स्थित एक शिवलिंग को अपने दूध से नहलाती थी। ग्वाले ने जब यह बात राजा को बताई, तो उन्होंने स्वयं मौके पर पहुंचकर यह नजारा देखा। चूंके उस समय ग्वालों को गोप कहा जाता था, इसलिए राजा ने उस शिवलिंग अथवा भगवान शिव को गोपेश्वर नाम से पुकारा और गोपीनाथ मंदिर की स्थापना की गई। मान्यता के मुताबिक गोपीनाथ मंदिर के कारण ही गोपेश्वर का भी नाम रखा गया।

Rajen

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रुद्रनाथ: आसान नहीं शिव दर्शन (Jagran News) May 25, 01:29 am

  गोपेश्वर (चमोली)। पंच केदारों में से एक चतुर्थ केदार रुद्रनाथ ही मात्र ऐसा मंदिर है जहां भगवान शिव के मुख मंडल के दर्शन होते हैं। माना जाता है कि यहां शिव की मूर्ति के चेहरे के भाव तीनों प्रहर अलग-अलग दिखाई देते हैं। गढ़वाल मंडल के अन्य मंदिरों की अपेक्षा यहां की यात्रा सबसे कठिन मानी जाती है। प्रसिद्ध धार्मिक स्थल होने के बावजूद इस चतुर्थ केदार को पर्यटन मानचित्र में अभी तक स्थान नहीं मिल पाया है।

चमोली जिला मुख्यालय गोपेश्वर के पास 12 हजार फिट की ऊंचाई पर रुद्र अथवा लालमाटी पर्वत स्थित है। इस पर्वत के मध्य में एक गुफा के रूप में भगवान रुद्रनाथ जी का मंदिर स्थित है। गोपेश्वर से मण्डल-चोपता मोटर मार्ग पर स्थित सगर गांव से 18 किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़कर रुद्रनाथ पहुंचा जाता है। हिमालय की तलहटी पर बसे रुद्रनाथ मंदिर के चारों ओर मखमली बुग्याल की खूबसूरती देखते ही बनती है। ऊंचाई पर स्थित होने की वजह से इस मंदिर के कपाट शीतकाल में छह माह के लिए बंद कर दिए जाते हैं। मान्यता है कि अंधक नामक दैत्य ने लोकपाल और देवराज इन्द्र को पराजित कर जब अमरावती को भी जीत लिया तो देवता पृथ्वी पर भटकने लगे। भटकते-भटकते देवता रुद्र पर्वत में स्थित प्राकृतिक गुफा में पहुंचे, जहां उन्होंने तपस्या कर शिव को प्रसन्न किया। इसके बाद भगवान शिव ने अन्धकासुर का वध किया और फिर से पार्वती के साथ इसी गुफा में निवास करने लगे। कहते हैं भगवान ने यहां रौद्र रुप में प्रकट हुए थे, तभी से यह गुफा उनका मंदिर कहलाने लगी और यहां उनके मुख मंडल के दर्शन होने लगे। मंदिर की पूजा की जिम्मेदारी गोपेश्वर गांव के भट्ट व तिवारी जाति के परिवारों पर है। मंदिर के पुजारी को कपाट खुले रहने की अवधि तक बाल, नाखून व दाढ़ी बनाना भी प्रतिबंधित है। 18 किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई होने के कारण इस मंदिर की यात्रा को सबसे कठिन माना जाता है। मंदिर के पुजारी हरीश भट्ट का कहना है कि इतना रमणीक स्थान होने के बावजूद रुद्रनाथ को पर्यटन अथवा साहसिक यात्रा के लिहाज से विकसित करने के प्रयास नहीं किए जा रहे हैं।

पंकज सिंह महर

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गोपीनाथ मन्दिर रात में


 

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