गोपेश्वर का इतिहास गोपीनाथमन्दिर से निकट से जुड़ा है, जिसके इर्द-गिर्द यह शहर बसा है। मन्दिर परिसर में पाये गये एक लोहे के त्रिशूल पर खुदे लेख वर्तमान 6-7वीं सदी के हैं। चार लेख संस्कृत की नागरी लिपि में हैं, जिनमें स्कंदनाग, विष्णुनाग तथा गणपतनाग जैसे शासकों का वर्णन है। वर्ष 1191 से एक अन्य लेख में नेपाल के सामान्य वंश के शासक अशोक माल्ला का वर्णन है। प्राचीन काल में शासकों द्बारा अपनी प्रभुता की घोषणा करने का एक सामान्य तरीका होता था विजय के प्रतीक के रूप में एक त्रिशूल गाड़ देना। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण, जो वर्ष 1970 से ही मंदिर की देखभाल कर रहा है, के अनुसार मंदिर का निर्माण कत्यूरी शासन के दौरान 9-11वीं सदीं के मध्य हुआ।
मूलरूप से प्राचीन काल में यह गांव मन्दिर से 280 मीटर दूर था तथा उसे रानीहाट या कश्मीरहाट कहते थे। जैसा कि नाम से पता चलता है, यह एक बाजार था जो निपुण मूर्तिकारों के लिये प्रसिद्ब था, वे मुलायम पत्थरों से धार्मिक मूर्तियां गढ़ते थे और केदारनाथ-बद्रीनाथ जाने वाले पैदल तीर्थयात्रियों को बेचते थे। तीर्थ यात्रा के पथ पर गोपेश्वर बद्रीनाथ एवं केदारनाथ से समान दूरी पर था और इसीलिये तीर्थ यात्रियों का प्रिय था। शहर की मान्यता का दूसरा कारण यह था कि जो कोई भी तीर्थ यात्री बद्रीनाथ-केदारनाथ मन्दिरों तक नही पहुंच पाता था, वह यहां गोपीनाथ मन्दिर में पूजा कर अपनी तीर्थ यात्रा पूर्ण कर लेता था। यह एक ऐसा क्षेत्र था, जहां साधु-संत जगह की शांति एवं सुंदरता से अभिभूत होकर यहां पूजा एवं तप के लिये रूक जाते थे।