Author Topic: Gopinath Temple Gopeswer Uttarakhand,गोपीनाथ मन्दिर, गोपेश्वर, चमोली उत्तराखण्ड  (Read 6280 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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 गोपीनाथ मंदिर एक हिन्दू मंदिर है जो भारत के उत्तराखण्ड राज्य के चमोली जिले के गोपेश्वर में स्थित है। गोपीनाथ मंदिर गोपेश्वर ग्राम में है जो अब गोपेश्वर कस्बे का भाग है।
 
 गोपीनाथ मंदिर एक प्राचीन मंदिर है जो भगवान शिव को समर्पित है। यह मंदिर अपने वास्तु के कारण अलग से पहचाना जाता है; इसका एक शीर्ष गुम्बद और ३० वर्ग फुट का गर्भगृह है, जिस तक २४ द्वारों से पहुँचा जा सकता है।
 
 मंदिर के आसपास टूटी हुई मूर्तियों के अवशेष इस बात का संकेत करते हैं कि प्राचीन समय में यहाँ अन्य भी बहुत से मंदिर थे। मंदिर के आंगन में एक ५ मीटर ऊँचा त्रिशूल है, जो १२ वीं शताब्दी का है और अष्ट धातु का बना है। इस पर नेपाल के राजा अनेकमल्ल, जो १३ वीं शताब्दी में यहाँ शासन करता था, का गुणगान करते अभिलेख हैं। उत्तरकाल में देवनागरी में लिखे चार अभिलेखों में से तीन की गूढ़लिपि का पढ़ा जाना शेष है।
 
 दन्तकथा है कि जब भगवान शिव ने कामदेव को मारने के लिए अपना त्रिशूल फेंका तो वह यहाँ गढ़ गया। त्रिशूल की धातु अभी भी सही स्थित में है जिस पर मौसम प्रभावहीन है और यह एक आश्वर्य है। यह माना जाता है कि शारिरिक बल से इस त्रिशुल को हिलाया भी नहीं जा सकता, जबकि यदि कोई सच्चा भक्त इसे छू भी ले तो इसमें कम्पन होने लगता है





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Chamoli_Indians (Uttarakhand)
गोपीनाथ मन्दिर, गोपेश्वर, चमोली (उत्तराखण्ड)


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गोपीनाथ मंदिर पौराणिक कथा |



गोपेश्वर में स्थित भोले नाथ के मंदिर गोपीनाथ को लेकर विभिन्न धार्मिक पौराणिक महत्व भी जुडे हुए हैं. पुराणों मे इस जगह के बारे में ज्ञात होता है कि यह स्थल भगवान शिव की तपोस्थली बना था. यहां पर भगवान शिव ने अनेक वर्षों तक तपस्या की तथा भगवान शिव द्वारा कामदेव को इसी स्थान पर भस्म किया गया था. कहा जाता है कि सती के देह त्याग के पश्चात जब भगवान शिव तप में लीन हो गए थे.

तब ताड़कासुर नामक राक्षस ने तीनो लोकों में आतंक मचा रखा था. तथा कोई भी उसे हरा नहीं पाया तब ब्रह्मा के कथन अनुसार शिव का पुत्र ही इसे मार सकता है. सभी देवों ने भगवान शिव की आराधना करनी शुरू कर दी परंतु शिव अपनी तपस्या से नहीं जागे इस पर इंद्र ने कामदेव को यह कार्य सौंपा ताकी भगवान शिव तपस्या को समाप्त करके देवी पार्वती से विवाह कर लें और उनसे उत्पन्न पुत्र ताड़कासुर का वध कर सके.

इसी वजह से इंद्र ने कामदेव को शिव की तपस्या भंग करने भेजा और जब कामदेव ने भगवान शिव पर अपने काम तीरों से प्रहार किया तो भगवान शिव की तपस्या भंग हो गई तथा शिव ने क्रोधित हो कामदेव को मारने के लिए अपना त्रिशूल फेंका तो वह त्रिशूल इस स्थान पर गढ़ गया जहां पर वर्तमान में गोपीनाथ जी का मंदिर स्थापित है. इसके अतिरिक्त एक अन्य कथा अनुसार यहां पर राजा सगर का शासन था.

कहते हैं कि उस समय एक विचित्र घटना घटी एक गाय जो प्रतिदिन इस स्थान पर आया करती थी तथा उसके स्तनों का दूध स्वत: ही यहां पर गिरने लगता जब राजा को इस बात का पता चला तो राजा ने सिपाहियों समेत उस गाय का पीछा किया संपूर्ण घटनाक्रम को देखकर राजा के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जहां गाय के दूध की धारा स्वतः ही बह रही थी वहां पर एक शिव लिंग स्थापित था. इस पर राजा ने उस पवित्र स्थल पर मंदिर का निर्माण किया.

कुछ लोगों का कथन है कि जब राजा ने यहां मंदिर का निर्माण कार्य शुरू करवाया तो भूमि धँसने लगी तब राजा ने यहां पर भैरव की स्थापना की जिसके फलस्वरूप मंदिर का निर्माण कार्य पूर्ण हो सका इस कथन के सत्यता का प्रमाण मन्दिर के आस पास की धंसी हुई ज़मीन से ज्ञात होता है साथ ही मान्यता है की यहां आने वाले व्यक्ति को भैरव जी के दर्शन अवश्य करने चाहिए तभी भगवान शिव का आशीर्वाद प्राप्त होता है.

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चमोली के गोपेश्वर में स्थित गोपीनाथ मंदिर लोगों कि आस्था एवं विश्वास का प्रमुख केन्द्र है इस मंदिर में एक बहुत बडा़ त्रिशुल स्थापित है. इस त्रिशूल की धातु का सही ज्ञान तो नहीं हो पाया है परंतु इतना अवश्य है कि यह अष्ट धातु का बना होगा. त्रिशुल आज भी सही सलामत खड़ा हुआ है इस त्रिशुल पर वहां के मौसम का तनिक भी प्रभाव नहीं पडा. और न ही इस त्रिशुल को उसके स्थान से हिलाया जा सका अभी भी वह उसी अवस्था स्थित में गढा़ हुआ है.

इस मंदिर में शिवलिंग, परशुराम, भैरव जी की प्रतिमाएं विराजमान हैं. मंदिर के निर्माण में भव्यता का अंदाजा लगाया जा सकता है. मंदिर के गर्भ गृह में शिवलिंग स्थापित है मंदिर से कुछ दूरी पर वैतरणी नामक कुंड स्थापित है जिसके पवित्र जल में स्नान करने का विशेष महत्व है. सभी तीर्थ यात्री इस पवित्र स्थल के दर्शन प्राप्त करके परम सुख को पाते हैं.


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गोपीनाथ मंदिर, का त्रिशूल



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वर्ष 1970 से मंदिर की भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के अनुसार गोपेश्वर बाजार के एक सिरे पर स्थित यह मंदिर गढ़वाल के सर्वाधिक ऊंचे एवं विशाल मंदिरों में से एक है। इसका निर्माण वर्तमान 9वीं से 11वीं सदी के बीच कत्युरी वंश के शासन के दौरान हुआ।



भूरे पत्थरों के टुकड़ों से निर्मित यह प्रभावशाली मंदिर परिसर के बीच स्थित है तथा यहां और कई छोटे-छोटे मंदिर भी हैं। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार यह पूरे उत्तराखंड में केदारनाथ मंदिर के बाद सर्वाधिक प्राचीन है। प्रमुख मंदिर का नागर शैली का एक शिखर, एक वर्गाकार गर्भगृह तथा एक मंडप एवं एक अंतराल है, जिन्हें अक्ष पर ‘बाद’ में जोड़ा गया। गर्भगृह की बाहरी दीवारों पर कुछ लेख खुदे हैं, जिन्हें अब तक पढ़ा नहीं जा सका है।


कमरे में गर्भगृह के सामने नंदी की एक प्राचीन प्रस्तर मूर्ति के साथ ही गणेश की एक प्रतिमा भी है। गर्भगृह के भीतर शिवलिंग, पार्वती की मूर्ति, चंद्रिका देवी, भगवान विष्णु, भगवान इन्द्र तथा राजा मारूत के पुत्र की प्रतिमाएं भी हैं।


यह मंदिर गढ़वाल के पंच केदारों में से एक रूद्रनाथ का जाड़े का आवास है। जब जाड़ों में ऊंची पहाड़ी पर रूद्रनाथ मंदिर का कपाट बंद हो जाता है तब भगवान शिव की पूजा इस मंदिर में होती है। यहां लिंग की पूजा एकानन की तरह होती है, जो भगवान शिव का चेहरा एवं उनका मृध रूप (भगवान विष्णु के रूप में) होता है, यह मंदिर भगवान शिव एवं भगवान विष्णु दोनों को समर्पित है। यह एक ऐसा शिव मंदिर है, जहां शिवलिंग पर परंपरागत दूध या जल नहीं चढ़ाया जाता और उसकी जगह केवल बेलपत्र चढ़ायी जाती है।


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परिसर के अन्य मंदिर गणेश, हनुमान, अनुसूया तथा नवदूर्गा को समर्पित हैं। परिसर में एक पुष्पित झाड़ी भी है जो झूमते गुलाब की तरह दिखता है, जिसे कल्प वृक्ष कहा गया है, जिसके सफेद फूल साल के 12 महीने खिलते हैं।

लोहे का विशाल त्रिशूल भी परिसर में गड़ा है, जिस पर खुदे अक्षर वर्तमान 6ठी से 7वीं सदी के हैं। 16 फीट ऊंचा त्रिशूल 4 फीट ऊंचे एक सिलिंडरनुमा पिंड पर आधारित है, जिसकी छड़ें 4 फीट लंबी हैं। इस पर चार लेख संस्कृत की नागरी लिपि में हैं जो स्कंदनाग, विष्णुनाग, गणपतनाग जैसे शासकों का वर्णन करते हैं।

वर्ष 1191 का एक अन्य संस्कृत लेख में नेपाल के माल्ला वंश के शासक अशोक चाल्ला का वर्णन है। कहा जाता है कि आप जितना भी जोर लगा लें त्रिशूल को हिला नहीं सकते, पर एक भक्त अपनी छोटी ऊंगली से छूकर इसे हिला सकता है।


स्कंद पुराण के केदारखंड में गोपेश्वर को गोस्थल कहा गया है। कहा जाता है कि अनंतकाल से ही प्राचीन स्वयंभू शिवलिंग गोपीनाथ मंदिर में है। उस समय यह क्षेत्र घने जंगलों से घिरा था और केवल चरवाहे ही मवेशी चराने वहां जाते थे। एक खास गाय प्रतिदिन वहां आकर शिवलिंग पर अपना दूध अर्पण कर जाती थी।

 चरवाहा चकित थे कि वह गाय दूध क्यों नहीं देती और एक दिन उसने उस गाय का पीछा किया और देखा कि वह गाय अपना दूध स्वेच्छापूर्वक शिवलिंग पर डाल रही थी। इस स्थान का नाम गोस्थल होने का यही कारण हो सकता है जो बाद में गोपीनाथ मंदिर के नाम पर बदलकर गोपेश्वर हो गया।


यही वह स्थान भी है, जहां भगवान शिव ने कामदेव को जलाकर भस्म कर दिया था, जब उसने उनकी समाधि भंग करने का साहस दिखाया। कामदेव को देवी-देवताओं ने ही शिव की समाधि भंग करने भेजा था, क्योंकि वे जानते थे कि भगवान शिव का पुत्र ही भयानक राक्षस तारकासुर का वध कर सकता था। भगवान शिव अपनी पत्नी द्वारा अपने पिता के हवन कुंड में सती होने के समय से ही भगवान शिव समाधिस्थ हो गये थे।

 देवी-देवताओं की इच्छा थी कि भगावन शिव, पार्वती से विवाह रचाये ताकि उनका पुत्र जन्म ले। रति ने कामदेव से बिछुड़कर लगभग एक किलोमीटर दूर वैतरणी कुंड में एक मछली का रूप धारण कर भगवान शिव की आराधना की। इस कुंड को रति कुंड भी कहा जाता है। उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उसके पति को पुन: जीवित कर दिया।

 

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