हरिद्वारे कुशावर्ते, नीलके बिल्व पर्वते।
स्नात्वा कनखले तीर्थे, पुनर्जन्म न विद्यते॥
हर की पैड़ी, कुशावर्त, नीलधारा, कनखल और बिल्व पर्वत पर स्नान करने से पुनर्जन्म नहीं होता।
आज से लगभग २०५५ वर्ष पूर्व (५७ ई०पू०) में अवन्तिका (उज्जैन) के राजा भृतहरि अपना राज-पाट अपने छोटे भाई विक्रमादित्य को सौंपकर तप करने के लिये हरिद्वार आ गये थे और तप करते ही वे ब्रह्मलीन हो गये थे। राजा विक्रमादित्य ने अपने भाई की स्मृति में ब्रह्मकुंड तक पहुंचने के लिये पैड़ियों का निर्माण करवाया। कालान्तर में ब्रह्मकुंड ही हर की पैड़ी के नाम से विख्यात हो गया।
स्कंद पुराण में हरिद्वार को मायापुरी भी कहा गया है, कुछ लोगों के अनुसार मय दैत्य की निवास स्थली होने के कारण इसे मायापुरी कहा जाता है, किवदंती यह भी है कि महामाया सती की नाभि यहां गिरने के कारण इस क्षेत्र को माया क्षेत्र कहा जाता है। एक और किवदंति है कि भगवान शिव ने अपनी माया से दक्ष प्रजापति को पुनः जीवित कर दिया था, इसलिये इसे मायापुरी कहा गया।
आदिकाल में कपिल ऋषि का आश्रम यहां होने के कारण इस स्थान को "कपिला" भी कहा जाता था। तैमूर लंग के साथ आये (१३९९)इतिहास्कार शर्फुद्दीन ने हरिद्वार को कायोपिल या कपिला ही कहा है।
६३४ ई० में चीनी यात्री ह्वेनसांग ने हरिद्वार का उल्लेख "मो-यू-लो" के नाम से किया है।
अबुल फजल ने आइने अकबरी में लिखा है कि "माया को ही हरिद्वार के नाम से जाना जाता है" यूरोपियन यात्री टाम कार्बेट ने भी इस क्षेत्र को कैपिटल आफ शिवा कहा है।