शंकराचार्य के जीवन के धार्मिक वर्णन के अनुसार भी ज्ञात होता है कि उन्होंने इसके पास ही अपने चार विद्यापीठों में से एक की स्थापना की और इसे ज्योतिर्मठ का नाम दिया, जहां उन्होंने अपने शिष्य टोटका को यह गद्दी सौंप दी। ज्योतिर्मठवह ज्योतिर्मठ के पहले शंकराचार्य बने।
लगभग 165 वर्षों तक बंद रहने तथा 20वीं सदी के मध्य में पुनरोदित होने के कारण मठ के इतिहास के बारे में बहुत जानकारी नहीं है। दावेदार महंथों द्वारा परंपरागत जानकारी के अनुसार अंतिम शंकराचार्य से बाद के समय में स्वामी रामकृष्ण असरामा वर्ष 1833 तक यहां रहे थे।
तब मठ की गद्दी खाली थी, संभवतः स्वामी रामकृष्ण के बाद कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं मिला या फिर गोरखों के आक्रमण के कारण ऐसा हुआ। फलस्वरूप, वर्ष 1930 के उत्तरकाल में ज्ञानानंद सरस्वती नामक बनारस के डंडी स्वामी ने यहां आकर ज्योतिर्मठ के लिये एक न्यास की स्थापना की, जिसकी देखभाल का भार उनके संगठन भारत धर्म महामंडल पर था और फिर उन्होंने पदस्थापन के लिये एक गुणी डंडी की खोज शुरू की क्योंकि वे स्वयं इस पद पर नहीं आना चाहते थे।
वर्ष 1941 में ब्रह्मानंद सरस्वती आये जो करयात्री स्वामी जी के नाम से प्रसिद्ध थे तथा जो पश्चिम में महेश जोगी के गुरू होने के कारण जाने गये। महेश योगी बीटल्स के तथा मीया फैरों के गुरू थे करपात्री के प्रभाव के विभूषित तथा शीघ्र ही उम्मीदवारी की उपयुक्तता के कारण ब्रह्मानंद को औपचारिक रूप से ज्योतिर्मठ का शंकराचार्य बनाया गया।
वर्ष 1953 में उनकी मृत्यु के बाद जोशीमठ की गद्दी विवादों तथा मुकदमों में उलझी रही, जिस पद के लिए कई दावेदारों ने दावा पेश किया। फलस्वरूप, कल्पवृक्ष के बगल के पुराने मठ पर एक दावेदार का कब्जा है जबकि पहाड़ी के नीचे मठ का भवन स्थापित किया गया है।
यहीं से वर्ष 1973 में नियोजित तथा द्वारका, ऋंगेरी एवं पुरी के तीनों शंकराचार्यों द्वारा मान्य यहां के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती द्वारका मठ की भी देखभाल करते हैं।