Author Topic: Joshimath,one of the four cardinal institutions, Adi Shankarachary,जोशीमठ  (Read 24801 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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कहा जाता है कि-यहां 8वीं सदी में धर्मसुधारक आदि शंकराचार्य को ज्ञान प्राप्त हुआ और बद्रीनाथ मंदिर तथा देश के विभिन्न कोनों में तीन और मठों की स्थापना से पहले यहीं उन्होंने प्रथम मठ की स्थापना की। जाड़े के समय इस शहर में बद्रीनाथ की गद्दी विराजित होती है जहां नरसिंह के सुंदर एवं पुराने मंदिर में इसकी पूजा की जाती है।

 बद्रीनाथ, औली तथा नीति घाटी के सान्निध्य के कारण जोशीमठ एक महत्त्वपूर्ण पर्यटन स्थल बन गया है तथा अध्यात्म एवं साहसिकता का इसका मिश्रण यात्रियों के लिए वर्षभर उत्तेजना स्थल बना रहता है।

जोशीमठ में आध्यात्मिता की जड़े गहरी है तथा यहां की संस्कृति भगवान विष्णु की पौराणिकता के इर्द-गिर्द बनी है। प्राचीन नरसिंह मंदिर जो उन्हे समर्पित है - उन्हे नमन तथा उनकी लोकप्रियता को दर्षाती है - लोगों का सालोंभर यहां लगातार आना रहता है। ऐतिहासिक तौर पर, जोशीमठ सदियों से वैदिक शिक्षा तथा ज्ञान का एक ऐसा केन्द्र जिसकी स्थापना 8वीं सदी में आदी शंकराचार्य ने की थी।

 यहां शहर की परिवेश तथा जलवायु निश्चित रूप से धार्मिक मान्यताओं से अधिकांशतः प्राचीन तथा पूजित स्थल हैं। शहर के आस-पास घूमने योग्य स्थानों में औली, उत्तराखंड का मुख्य स्की रिसॉर्ट शामिल है। जोशीमठ की यात्रा हमारे देश की संस्कृतिक विरासत का गहन दृश्य उपस्थित करेगा।

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इतिहास मैं जोशीमठ का वर्णन

पांडुकेश्वर में पाये गये कत्यूरी राजा ललितशूर के तांब्रपत्र के अनुसार जोशीमठ कत्यूरी राजाओं की राजधानी थी, जिसका उस समय का नाम कार्तिकेयपुर था।

लगता है कि एक क्षत्रिय सेनापति कंटुरा वासुदेव ने गढ़वाल की उत्तरी सीमा पर अपना शासन स्थापित किया तथा जोशीमठ में अपनी राजधानी बसायी। वासुदेव कत्यूरी ही कत्यूरी वंश का संस्थापक था। जिसने 7वीं से 11वीं सदी के बीच कुमाऊं एवं गढ़वाल पर शासन किया।

फिर भी हिंदुओं के लिये एक धार्मिक स्थल की प्रधानता के रूप में जोशीमठ, आदि शंकराचार्य की संबद्धता के कारण मान्य हुआ। जोशीमठ शब्द ज्योतिर्मठ शब्द का अपभ्रंश रूप है जिसे कभी-कभी ज्योतिषपीठ भी कहते हैं। इसे वर्तमान 8वीं सदी में आदि शंकराचार्य ने स्थापित किया था।

उन्होंने यहां एक शहतूत के पेड़ के नीचे तप किया और यहीं उन्हें ज्योति या ज्ञान की प्राप्ति हुई। यहीं उन्होंने शंकर भाष्य की रचना की जो सनातन धर्म के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है।

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कल्पवृक्ष एवं आदि शंकराचार्य मंदिर



कहा जाता है कि 8वीं सदीं में सनातन धर्म का पुनरूद्धार करने आदि शंकराचार्य जब उत्तराखंड आये थे तो उन्होंने इसी शहतूत पेड़ के नीचे जोशीमठ में पूजा की थी। यहां उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई। कहा जाता है कि उन्होंने राज-राजेश्वरी को अपना ईष्ट देवी माना था और इसी पेड़ के नीचे देवी उनके सम्मुख एक ज्योति या प्रकाश के रूप में प्रकट हुई तथा उन्हें बद्रीनाथ में भगवान विष्णु की मूर्ति को पुनर्स्थापित करने की शक्ति तथा सामर्थ्य प्रदान किया। जोशीमठ, ज्योतिर्मठ का बिगड़ा स्वरूप है, जो इस घटना से संबद्ध है।

अब यह पेड़ 300 वर्ष पुराना है तथा इसके तने 36 मीटर में फैले हैं। यह भी कहा जाता है कि यह पेड़ वर्षभर हरा-भरा रहता है एवं इससे पत्ते कभी नहीं झड़ते।पेड़ के ठीक नीचे आदि शंकराचार्य की गुफा है तथा इसमें आदि गुरू की एक मानवाकार मूर्ति स्थापित है।

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शंकराचार्य के जीवन के धार्मिक वर्णन के अनुसार भी ज्ञात होता है कि उन्होंने इसके पास ही अपने चार विद्यापीठों में से एक की स्थापना की और इसे ज्योतिर्मठ का नाम दिया, जहां उन्होंने अपने शिष्य टोटका को यह गद्दी सौंप दी। ज्योतिर्मठवह ज्योतिर्मठ के पहले शंकराचार्य बने।

लगभग 165 वर्षों तक बंद रहने तथा 20वीं सदी के मध्य में पुनरोदित होने के कारण मठ के इतिहास के बारे में बहुत जानकारी नहीं है। दावेदार महंथों द्वारा परंपरागत जानकारी के अनुसार अंतिम शंकराचार्य से बाद के समय में स्वामी रामकृष्ण असरामा वर्ष 1833 तक यहां रहे थे।

तब मठ की गद्दी खाली थी, संभवतः स्वामी रामकृष्ण के बाद कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं मिला या फिर गोरखों के आक्रमण के कारण ऐसा हुआ। फलस्वरूप, वर्ष 1930 के उत्तरकाल में ज्ञानानंद सरस्वती नामक बनारस के डंडी स्वामी ने यहां आकर ज्योतिर्मठ के लिये एक न्यास की स्थापना की, जिसकी देखभाल का भार उनके संगठन भारत धर्म महामंडल पर था और फिर उन्होंने पदस्थापन के लिये एक गुणी डंडी की खोज शुरू की क्योंकि वे स्वयं इस पद पर नहीं आना चाहते थे।

वर्ष 1941 में ब्रह्मानंद सरस्वती आये जो करयात्री स्वामी जी के नाम से प्रसिद्ध थे तथा जो पश्चिम में महेश जोगी के गुरू होने के कारण जाने गये। महेश योगी बीटल्स के तथा मीया फैरों के गुरू थे करपात्री के प्रभाव के विभूषित तथा शीघ्र ही उम्मीदवारी की उपयुक्तता के कारण ब्रह्मानंद को औपचारिक रूप से ज्योतिर्मठ का शंकराचार्य बनाया गया।

 वर्ष 1953 में उनकी मृत्यु के बाद जोशीमठ की गद्दी विवादों तथा मुकदमों में उलझी रही, जिस पद के लिए कई दावेदारों ने दावा पेश किया। फलस्वरूप, कल्पवृक्ष के बगल के पुराने मठ पर एक दावेदार का कब्जा है जबकि पहाड़ी के नीचे मठ का भवन स्थापित किया गया है।

 यहीं से वर्ष 1973 में नियोजित तथा द्वारका, ऋंगेरी एवं पुरी के तीनों शंकराचार्यों द्वारा मान्य यहां के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती द्वारका मठ की भी देखभाल करते हैं।

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जोशीमठ का पौराणिक संदर्भ

जैसा कि अधिकांश प्राचीन एवं श्रद्धेयस्थलों के लिये होता है, उसी प्रकार जोशीमठ का भूतकाल किंवदन्तियों एवं रहस्यों से प्रभावित है जो इसकी पूर्व प्रधानता को दर्शाता है। माना जाता है कि प्रारंभ में जोशीमठ का क्षेत्र समुद्र में था तथा जब यहां पहाड़ उदित हुए तो वह नरसिंहरूपी भगवान विष्णु की तपोभूमि बनी।



किंबदन्ती में दानव हिरण्यकश्यपु तथा उसके पुत्र प्रह्लाद की कथा है। हिरण्यकश्यपु को वरदान प्राप्त था कि किसी स्त्री या पुरूष, दिन या रात, घर के अंदर या बाहर या तथा किसी शस्त्र के प्रहार द्वारा उसे मारा नहीं जा सकेगा। इसने उसे अहंकारी बना दिया और वह अपने को भगवान मानने लगा। उसने अपने राज्य में विष्णु की पूजा को वर्जित कर दिया। प्रह्लाद, भगवान विष्णु का उपासक था और यातना एवं सजा के बावजूद वह विष्णु की पूजा करता रहा।

 क्रोधित होकर हिरण्यकश्यपु ने अपनी बहन होलिका से कहा कि वह अपनी गोद में प्रह्लाद को लेकर प्रज्ज्वलित अग्नि में चली जाय क्योंकि होलिका को वरदान था कि वह अग्नि में नहीं जलेगी। प्रह्लाद को कुछ भी नही हुआ और होलिका जलकर राख हो गयी। अंतिम प्रयास में हिरण्यकश्यपु ने एक लोहे के खंभे को गर्म कर लाल कर दिया तथा प्रह्लाद को उसे गले लगाने को कहा। एक बार फिर भगवान विष्णु प्रह्लाद को उबारने आ गये।

खंभे से भगवान विष्णु नरसिंह के रूप में प्रकट हुए तथा हिरण्यकश्यपु को चौखट पर, गोधुलि बेला में आधा मनुष्य, आधा जानवर (नरसिंह) के रूप में अपने पंजों से मार डाला।


http://hi.wikipedia.org

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कहा जाता है कि इस अवसर पर नरसिंह का क्रोध इतना प्रबल था कि हिरण्यकश्यपु को मार डालने के बाद भी कई दिनों तक वे क्रोधित रहे। अंत में, भगवती लक्ष्मी ने प्रह्लाद से सहायता मांगी और वह तब तक भगवान विष्णु का जप करता रहा जब तक कि वे शांत न हो गये। आज उन्हें जोशीमठ के सर्वोत्तम मंदिर में शांत स्वरूप में देखा जा सकता है।

नरसिंह मंदिर से संबद्ध एक अन्य रहस्य का वर्णन स्कंद पुराण के केदारखंड में है। इसके अनुसार शालीग्राम की कलाई दिन पर दिन पतली होती जा रही है। जब यह शरीर से अलग होकर गिर जायेगी तब नर एवं नारायण पर्वतों के टकराने से बद्रीनाथ के सारे रास्ते हमेशा के लिये बंद हो जायेंगे। तब भगवान विष्णु की पूजा भविष्य बद्री में होगी जो तपोवन से एक किलोमीटर दूर जोशीमठ के निकट है।



इस किंवदंती से उदित एक कथा यह है कि इस क्षेत्र के प्रारंभिक राजा वासुदेव का एक वंशज एक दिन शिकार के लिये जंगल गया तथा उसकी अनुपस्थिति में भगवान विष्णु नरसिंह मानव रूप में वहां आये तथा रानी से भोजन की याचना की। रानी ने उन्हें खाने को काफी कुछ दिया तथा खाने के बाद वे वहां राजा के बिस्तर पर सो गये। राजा जब शिकार से वापस आया तो उसने अपने बिस्तर पर एक अजनबी को सोया देखा। उसने अपनी तलवार उठायी और उसकी बांह पर आघात किया, परंतु वहां से रक्त के बदले दूध बह निकला।

तब भगवान विष्णु प्रकट हुए तथा राजा से बताया कि वह उन्हें आघात पहुंचाने का प्रायश्चित करने जोशीमठ छोड़ दे तथा अपना घर कत्यूर में बसा लें। उन्होंने कहा कि जो आघात उन्हें उसने दिया है वह मंदिर में उनकी मूर्ति पर रहेगा और जिस दिन वह गिर जायेगा, उस दिन राजा के वंश का अंत हो जायेगा।

जोशीमठ ही वह जगह है जहां ज्ञान प्राप्त करने से पहले आदि शंकराचार्य ने शहतूत के पेड़ के नीचे तप किया था। यह कल्पवृक्ष जोशीमठ के पुराने शहर में स्थित है और वर्षभर सैकड़ों उपासक यहां आते रहते हैं।

बद्रीनाथ के विपरीत जोशीमठ प्रथम धाम या मठ है जिसे शंकराचार्य ने स्थापित किया, जब वे सनातन धर्म के सुधार के लिये निकले। इसके बाद उन्होंने भारत के तीन कोनों में द्वारका (पश्चिम) श्री गोरी (दक्षिण) और पुरी (पूर्व) में मठ स्थापित किये।

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मंदिरों के हर प्राचीन शहर की तरह जोशीमठ भी ज्ञान पीठ है जहां आदि शंकराचार्य ने भारत के उत्तरी कोने के चार मठों में से पहला की स्थापना की। इस शहर को ज्योतिमठ भी कहा जाता है तथा इसकी मान्यता ज्योतिष केंद्र के रूप में भी है। संपूर्ण देश से यहां पुजारियों, साधुओं एवं संतों का आगमन होता रहा तथा पुराने समय में कई आकर यहीं बस गये।

बद्रीनाथ मंदिर जाते हुए तीर्थयात्री भी यहां विश्राम करते थे। वास्तव में तब यह मान्यता थी कि बद्रीनाथ की यात्रा तब तक अपूर्ण रहती है जब तक जोशीमठ जाकर नरसिंह मंदिर में पूजा न की जाए।



आदि शंकराचार्य द्वारा बद्रीनाथ मंदिर की स्थापना तथा वहां नम्बूद्रि पुजारियों को बिठाने के समय से ही जोशीमठ बद्रीनाथ के जाड़े का स्थान रहा है और आज भी वह जारी है।

जाड़े के 6 महीनों के दौरान जब बद्रीनाथ मंदिर बर्फ से ढंका होता है तब भगवान विष्णु की पूजा जोशीमठ के नरसिंह मंदिर में ही होती है। बद्रीनाथ के रावल मंदिर कर्मचारियों के साथ जाड़े में जोशीमठ में ही तब तक रहते हैं, जब कि मंदिर का कपाट जाड़े के बाद नहीं खुल जाता।

जोशीमठ एक परंपरागत व्यापारिक शहर है और जब तिब्बत के साथ व्यापार चरमोत्कर्ष पर था तब भोटिया लोग अपना सामान यहां आकर बिक्री करते थे एवं आवश्यक अन्य सामग्री खरीदकर तिब्बत वापस जाते थे।

 वर्ष 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद यह व्यापारिक कार्य बंद हो गया और कई भोटिया लोगों ने जोशीमठ तथा इसके इर्द-गिर्द के इलाकों में बस जाना पसंद किया।

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पर्वतों से दूर होने के कारण, जहां वे रहते हैं, यह सुनिश्चित हुआ कि वे अपने विशिष्ट सांस्कृतिक परंपरा को संगीत एवं नृत्य के रूप में कायम रख सकें। अधिकांश गीत एवं नाच या तो धार्मिक या फिर लोगों की जीवन शैली पर आधारित हैं जो आज भी मूल रूप से कृषिकार्य से संबंधित हैं।

गीत के साथ थाडिया नृत्य बसंत पंचमी को होता है जो बसंत के आगमन समारोह का प्रतीक है। झुमेला नृत्य दीपावली पर होता है तथा पांडव नृत्य जाड़े में फसल कटने के बाद किया जाता है, जिसमें महाभारत की प्रमुख घटनाओं को प्रदर्शित किया जाता है। जीतू बगडवाल तथा जागर जैसे अन्य नृत्यों में पौराणिक कथाओं का प्रदर्शन होता है।



 परंपरागत परिधानों से सज्जित नर्तक ढोल एवं रनसिंधे की धुन पर थिरकते हैं। लोकगीतों का गायन खासकर उस समय होता है जब महिलायें एक जगह जमा होकर परंपरागत गीत गाती हैं,

 जिनमें बहादुरी के कारनामे, प्रेम तथा कठिन जीवन, जो पहाड़ी पर वे व्यतीत करती हैं, शामिल रहते हैं। जिले में मनोरंजन एवं मनोविनोद के प्रमुख अवसर त्योहार, धार्मिक एवं सामाजिक मेले है। विशेष अवसरों पर लोग शिव एवं पार्वती से संवंधित किंवदन्तियों का स्वांग रचते हैं। दशहरे के दौरान रामलीला का वार्षिक आयोजन होता है।

नरसिंह मंदिर पर एक अन्य समारोह तिमुंडा बीर मेला आयोजित होता है। स्पष्ट रूप से इस समारोह में बीर 8 किलो कच्चा चावल, बड़ी मात्रा में गुड़ तथा घी के साथ एक बकरे का खून पीता है तथा उसके गुर्दे एवं हृदय का भक्षण करता है। उसके बाद वह भगवती के वशीभूत होकर अचेतावस्था में नाचता है।

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जोशीमठ की कला किर्तियाँ

वर्ष 1982) के अनुसार इस शहर की वास्तुकला इस प्रकार है, “विष्णुप्रयाग से इस शहर में प्रवेश किनारे के ऊपर से होता है जहां स्लेटों तथा पत्थरों से कटी सीढ़ियां हैं और इसी प्रकार इस स्थान के रास्तों में भी ऐसा ही है, पर यह बहुत ही अनियमित है।

घर साफ पत्थरों से बने हैं जिनकी छतें स्लेटों या चिकने पत्थरों या तख्तों से ढंकी होती हैं। इसके बीच रावलों तथा बद्रीनाथ के अन्य पुजारियों के सुंदर निर्मित घर हैं जो यहां नवंबर से मई के बीच रहते हैं, जब उनके मंदिर के रास्ते बर्फ से ढंके रहते हैं। नरसिंह की प्रतिमा वाला भवन निजी घर जैसा ही दिखता है, न कि एक हिंदू मंदिर की तरह। इसके निर्माण नुकीले भवन जैसा होता है जिसके छत की ढलान एक तांबे की चादर से ढंकी रहती है।

इसके सामने एक बड़ा खुला मैदान है जिसमें पत्थर की एक मांद है जिसमें दो नल हैं जिससे लगातार पानी का बहाव होता रहता है और इसमें पानी की आपूर्त्ति गांव के दक्षिण पहाड़ी पर एक झरने से होती है। पहले तीर्थयात्री यहीं रूकते थे पर वे अब धर्मशालाओं में विश्राम करते हैं जो अब शहर की मुख्य सड़कों पर स्थित हैं।

 एक दस फीट ऊंचे चबूतरे पर महान पुरातात्विक चिह्नों के कई मंदिर मैदान के एक ओर श्रेणीबद्ध हैं। क्षेत्र के बीच में 30 फीट स्थल पर दीवालों के अंदर विष्णु को समर्पित एक मंदिर है। कई मंदिर छिन्न-भिन्न हैं, जिनका अंश भूकंप से ध्वस्त हो गया है।”


इन दिनों, फिर भी प्राचीन मंदिरों के अलावा, शहर की वास्तुकला को बताने को कुछ खास नहीं है। उत्तरी भारत की कंक्रीट भवनों की तरह यहां भी ये प्रायः दिखाई पड़ते हैं।

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