कालीमठ में होती है महाकाली की पूजा
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दस महाविद्याओं में तीसरी महाविद्या षोढ़षी माता श्री राजराजेश्वरी का विशेष महात्म्य पाने के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु नवरात्रों के समय देवलगढ़ पहुंचते हैं। मान्यता है कि राजराजेश्वरी के श्रीयंत्र के पूजन से ऐश्वर्य, योग एवं मोक्ष को एक साथ प्राप्त किया जा सकता है।
किवदंती है कि जब भगवान विष्णु के पीछे राक्षस पड़े, तो उन्होंने भगवती को स्मरण किया। तब महादुर्गा के रूप में राजराजेश्वरी प्रकट हुई और उन्होंने भगवान विष्णु की रक्षा की।
वेदों में वर्णित है कि अन्य देवी देवताओं की अर्चना से ऐश्वर्य, योग एवं मोक्ष किसी एक की ही प्राप्ति हो सकती है, लेकिन श्रीयंत्र की अधिष्ठात्री देवी भगवती राजराजेश्वरी की पूजा अर्चना और उपासना से ऐश्वर्य, योग एवं मोक्ष तीनों एक ही साथ प्राप्त हो जाते हैं। राजा की कुलदेवी रहीं राजराजेश्वरी
हिंदू सनातनी राजाओं और उनके अनुयायियों पंवार, परमार, बिष्ट, कुंवर, भंडारी, कंडारी, रौथाण, रौतेला, रावत, फर्स्वाण के अलावा उनियाल, जुयाल, सकलानी, रतूड़ी, खंडूड़ी आदि जातियों के लोग राजराजेश्वरी को अपनी कुलदेवी के रूप में पूजन करते हैं।कालीमठ में होती है महाकाली की पूजा
रुद्रप्रयाग। शारदीय नवरात्राें को लेकर शक्तिपीठ कालीमठ मंदिर में भी सभी तैयारियां पूरी हो गई हैं। मठापति अब्बल सिंह राणा, पुजारी सुरेशानंद गौड़ और दिलबर रावत बताते हैं कि मान्यता है कि नवरात्राें में मां काली कुंड से बाहर आती हैं। इस मौके पर कुछ लोग जलती मशाल लेकर मंदिर की सात परिक्रमा कर दैत्याें को भगाने की परंपरा का निवर्हन करते हैं। यहीं किया था रक्तबीज का वध
मान्यता है कि मां काली ने कालीमठ मंदिर के समीप रक्तबीज का वध किया था। उसका रक्त जमीन पर न पडे़, इसलिए महाकाली ने मुंह फैलाकर उसके रक्त को चाटना शुरू किया। बताया जाता है कि रक्तबीज शिला नदी किनारे आज भी स्थित है। कुंड में समाई थीं महाकाली
कालीमठ मंदिर में एक कुंड है, जो रजत पट से ढका रहता है। अष्टमी को इसे खोलते हैं। नवमी को महाकाली पश्वा में अवरित होकर दर्शन देती है। अब नहीं होती पशुबलि
कालीमठ में पहले नवरात्राें में पशुबलि दी जाती थी। अब पशुबलि विरोधी आंदोलन चलाने वाले गबर सिंह राणा सत्यवर्ती और क्षेत्र के अन्य लोगाें के प्रयास से यह परंपरा बंद हो चुकी है।
Source Amarujala