Tourism in Uttarakhand > Religious Places Of Uttarakhand - देव भूमि उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध देव मन्दिर एवं धार्मिक कहानियां

Mahabharat & Ramayan - उत्तराखंड में महाभारत एव रामायण से जुड़े स्थान एव तथ्य

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Pawan Pathak:
द्रोणागिरी यानी दूनागिरी की सभी पर्वतमालाएं औषधीय वनस्पतियों के लिए विख्यात हैं।
दीप सिंह बोरा, रानीखेत
कलांतर में यहां पांडवों ने शरण ली तो इसे पाण्डव खोली कहा जाने लगा। इस क्षेत्र में आज भी दुर्लभ जड़ी बूटियां हैं। शरीर को वज्र बनाने की औषधि यहीं पाई जाती है। दांत और हड्डियों को मजबूती देने वाली इस औषधि को वज्रदंती कहा जाता है। मगर अवैज्ञानिक दोहन से इस औषधि का वजूद खतरे में हैं। इस पर्वतमाला पर जड़ी बूटियों के भंडार की अहमियत न तो भावी पीढ़ी समझ सकी न ही सरकारें व उसके नुमाइंदे इन पर्वत श्रृंखलाओं में मौजूद औषधीय वनस्पति को सहेजे रखने के लिए ठोस नीति ही बना सके। नतीजतन अवैज्ञानिक दोहन से जहां अनगिनत जड़ी बूटियां विलुप्त हो गई हैं, वहीं पांडवखोली में पग-पग पर मिलने वाली बजर वनस्पति यानी वज्रदंती की बेहिसाब पौध पर संकट मंडराने लगा है। स्कंद पुराण में है दूनागिरी का उल्लेख: स्कंद पुराण के मानसखंड में द्रोणागिरी की ब्रrा व लोध्र (लोध) पर्वतमालाओं को औषधीय वनों का खजाना कहा गया है। ऋषि द्रोण, गर्ग, सुकदेव, महावतार बाबा समेत तमाम ऋषि मनिषियों की तपोस्थली रही इन पर्वतमालाओं में अज्ञातवास के दौरान पांडवों का यहां शरण लेने के पीछे भी औषधीय वनों की बहुलता तथा शक्ति से भरपूर वनस्पतियों की प्रचुरता को भी बड़ी वजह मानी जाती है।
वज्रदंती ही नहीं अन्य औषधियां भी खतरे में :
आधुनिक काल का पहिया घूमने के साथ ही स्थानीय वाशिंदों की अज्ञानता, अवैज्ञानिक दोहन, कथित जानकारों का गलत तरीके से औषधीय वनस्पतियों की जड़ों तक खदान आदि तमाम कारणों से अब औषधीय वन का वजूद खतरे में पड़ने लगा है। सतावरी , चिरायता जैसी औषधियां विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गई हैं। कुछ वर्ष पूर्व तक पांडवखोली स्थित भीम की गुदड़ी (कई मीटर लंबा मैदान) वज्रदंती की पौध से भरा था। लेकिन दोहन की मार इस पर पड़ी है।
 Source   -http://epaper.jagran.com/ePaperArticle/22-dec-2015-edition-Pithoragarh-page_3-27088-3375-140.html

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
उत्तराखंड के मांणा गांव यहां मौजूद है महाभारत काल का सबसे बड़ा गवाह
उत्तराखंड के मांणा गांव में महाभारत काल की सबसे बड़ा गवाह मौजूद है। यहां महाभारत ग्रंथ के रचयिता मुनि व्यास का निवास स्‍थान है। इस जगह को व्यास पोथी के नाम से जाना जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार व्यास जी ने गणेश जी को अपनी बातों में उलझा दिया और गणेश जी को पूरी महाभारत कथा मांणा गांव में ‌स्थित व्यास गुफा में बैठकर लिखनी पड़ी थी। यह पवित्र स्थान देवभूमि उत्तराखंड में बद्रीनाथ धाम से करीब तीन किलोमीटर की दूरी पर भारतीय सीमा के अंतिम गांव माणा में स्थित है। कहा जाता है कि इसी गुफा में रहकर वेदव्यास जी ने सभी पुराणों की रचना की थी। व्यास गुफा को बाहर से देखकर ऐसा लगता है मानो कई ग्रंथ एक दूसरे के ऊपर रखे हुए हैं। इसलिए इसे व्यास पोथी भी कहते हैं। बद्रीनाथ के दर्शनों के बाद जो यात्री गणेश गुफा और व्यास गुफा की यात्रा करना चाहते हैं वह तीन किलोमीटर की पैदल यात्रा भी कर सकते हैं। रास्ते में साथ चलते अलकनंदा नदी को देखना मन को आनंदित करता है। जो यात्री पैदल नहीं चलना चाहते हैं वह बद्रीनाथ से माणा गांव तक के लिए सवारी ले सकते हैं। यहां कार और जीप की सुविधा हमेशा उपलब्ध रहती है। (source amar ujala)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
महाभारत काल में पांडव इस चट्टान के आकार के पकोड़े से अपनी भूख मिटाते थे। पौराणिक मान्यताओं के अनुसान अज्ञातवास के दौरान पांडव उत्तराखंड के लैंसडौन से गुजरे थे। उत्तराखंड के लैंसडौन स्थित भीम पकोड़ा पत्थर को देखने के लिए पर्यटकों में उत्सुकता बनी रहती है। कहा जाता है कि पांडवों के अज्ञातवास के दौरान केदारनाथ के लिए प्रस्थान करने के लिए वे यहां से गुजरे थे। पांडवों ने यहां भोजन किया बड़े-बड़े भूकम्पों के आने के बाद भी इन पत्थरों की स्थिति यथावत बनी है। इनको देखने के लिए पर्यटक विशेष रूप से भीम पकोड़ा की ओर जाते हैं।बड़े-बड़े भूकम्पों के आने के बाद भी इन पत्थरों की स्थिति यथावत बनी है। इनको देखने के लिए पर्यटक विशेष रूप से भीम पकोड़ा की ओर जाते हैं। (amar ujala)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:



अगस्त्यमुनि के पास एक छोटा सा गाँवनुमा बाजार है सौड़ी। सौड़ी जितना छोटा है उतना ही उसका महत्व बड़ा। ऐतिहासिक रूप में कहूँ तो बहुत कम लोगो को शायद पता हो कि सौड़ी का एक नाम विनोवापुरी भी है। पहाड़ में सर्वोदयी आन्दोलन में सौड़ी मन्दाकिनी घाटी का वह सितारा था जिसे आचार्य विनोवाभावे के सर्वोदयी कार्यकर्ताओ ने विनोवापुरी नाम देकर ऐतिहासिक बना दिया। तब इसी सौड़ी से सर्वोदयी आन्दोलन पहाड़ में फैला और पहाड़ में व्यापक रूप से विनोवाभावे के विचार जागृति की धूरी बनने लगी।

सामाजिक रूप से सौड़ी केदारयात्रा का एक छोटा पड़ाव या कहे चट्टी थी जहाँ यात्री आम के पेड़ो के नीचे सुस्ताते थे। इन आम के झुरमुटे में ही था सौड़ी के प्राचीन महादेव। सौड़ी के बीचो बीचो कुमार कार्तिकेय की तपस्थली कार्तिकस्वामी उपत्यीआ से एक गंगधारा निकलती है। जिसमें आज भी सौकड़ो की संख्या में घराट है। जहाँ रोजमर्रा की जरूरतो के बनिस्पत हर दिन कई लोग चड़ते और उतरते रहते। इन घराटो में जीवन और समाज की कितनी कहानीयाँ गुथी होगी आप कल्पना कर सकते है।

सत्तुढुँगा
सत्तुढुँगा

पौराणिक रूप से सौड़ी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना ऐतिहासिक और सामाजिक रूप में। सौड़ी मन्दाकिनी के छोर पर बसा है। सौड़ी के खेतो से उतरकर एक रास्ता मन्दाकिनी के उन छोरो तक जाता है। जहाँ एक विशालकाय पत्थर मंदाकिनी की धारा को जोशीले अंदाज में थपथपाता रहता है। स्थानीय निवासी इसी पत्थर को कहते है सतढुँगा। इस नाम को पाण्डवो से जोड़ा जाता है। कहा जाता है महाभारत युद्ध के पश्चात पाण्डव  मोक्ष के लिऐ स्वार्गारोहिणी की ओर इसी रास्ते से होकर आते है। कहते है जब वो यहाँ पहुँचे तो रात घिर आती है। थके हारे पाण्डव सत्तू खाकर अपनी भूख मिटाते है और सो जाते है। लेकिन विशालकाय भीम के लिऐ थोड़ा सा सत्तू पर्याप्त नही होता है। वो चुपचाप उठकर मन्दाकिनी के तट पर सत्तू पीसने चले जाते है। कहते है रात में मंद मंद बहती मंदाकिनी की मधुर आवाज उन्हे इतना मोहित कर देती है कि सत्तू का बड़ा ढेर कब तैयार हो गया उन्हे पता ही नही लगता है। भोर होती है तो पक्षियों का कलरव भीम की तंद्रा को भंग करता है।  भीम के सामने सत्तू का बड़ा ढेर खड़ा होता है, यह इतना अधिक था कि इसे पूरा का पूरा साथ नही ले जाया जा सकता था। फिर भीम इस सत्तू को मन्दाकिनी के जल से भीगोकर बड़ी ढेरी बना लेता है। कहते है सत्तू की यही ढेरी जमकर पत्थर बन जाती है। जाते समय भीम इस ढेरी को तोड़ने के लिऐ मुष्टिका प्रहार करता है लेकिन यह ढेरी टूटती नही बस एक छोटी सी दरार इस ढेरी के बीचो बीच पड़ जाती है। आज भी वह दरार इस विशाल पत्थर शिला के बीचो बीच है जिसमे से होकर इसके शिखर तक जाया जा सकता है। इसके शिखर पर आसानी से 30-40 आदमी बैठ सकते है। भीम और पाण्डवो से जुड़े होने के कारण मन्दाकिनी के दोनो किनारो पर बसे गाँवो के पाण्डव पश्वा ( पाण्डव नृत्य के समय के वाहक ) यहाँ स्नान करने आते है।

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पाडव नृत्य

लोकमान्यता के अनुसार गोत्र हत्या के बाद महादेव के दर्शनो के लिऐ पाण्डव केदार घाटी में पहुचते है। कण कण में शंकर की भावना को सहेजे घाटी के गाँवो की पवित्र सुन्दरता उन्हे मोहित कर देती है। तब घाटी के निवासियो को अपनी स्मृति के प्रतीक के रूप में बाण और निशानो को सौपते है और पुकारे जाने पर प्रकट होने का वचन देते है। कहते है वो उस घाटी में कई मठ मंदिरो, धारा नौलो का निर्माण भी करते है, जो आज भी मौजूद है। तभी से यहाँ के निवासी पाण्डव नृत्य का आयोजन कर पाण्डवो को यहाँ आमंत्रित करते है।

Source - https://dastakpahadki.in/

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