Author Topic: Mahabharat & Ramayan - उत्तराखंड में महाभारत एव रामायण से जुड़े स्थान एव तथ्य  (Read 66935 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Lakha mandal


About 75 kilometres from Mussoorie on Mussoorie-Yamunotri road, Lakhamandal, one of the very important temples is situated at a height of 1090 metres. One can reach the place via Kalsi also. Kalsi is 50 kilomctres from Dehra Dun.

Lakha mandal, or Lakshmandal as it used to be known, is presumed to be the spot where the palace made of resinous timber was built by the Kauravas, who conspired to kill the Pandavas. 'Lakh' or 'Lac' is Hindi for Resin and 'Mandal' means region. While the Pandavas lived here, Bhima slayed two tyrannical chieftains of this region, and it was here that he married Hidimba, (sister of one of the tyrants) and fathered Ghatotkach.A tunnel leading from a ruined fortress to the riverbed, and mentioned in Walten's Gazetteer of the Doon, is probably the one which the Pandavas took to escape from the palace on fire. On the Lakhamandal rock are inscribed the names of 9 rulers, of which 3 have been erased with time. The list includes two Chagleshs, one of whom built the Shiva temple at Lakhamandal. Here also, eleven generations of the Seoverman dynasty ruled. Divakarverman, the I 1 th ruler, was succeeded by his younger brother Bhaskerverman who married a commoner called Jayavali. Their daughter Ishwara, married Chandragupt, the son of the ruler of Jallandhar (Punjab). Widowed at an early age, Ishwara returned to her parental house in Lakhamandal, where she built a Shiva temple in memory of her husband. Inscribed on it is her prayer, that so long as the Earth, the Mountains, the Sea, the Moon, the Sun and the Stars exist, this temple built for the salvation of her husband's soul would last.




Source : http://uttarkashi.nic.in/aboutDistt/Temple.htm

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Hanuman Chatti

यहां हनुमान चट्टी में हनुमान मन्दिर है। यहां पांडवो को हनुमान मिले थे।



Hanuman Chatti

Hanuman Chatti (7200 feet) is a small hamlet a few miles from Gaurikund, the name "chatti" indicates that it was at one time a night stop on the pilgrim road.  Sanyasis from the Juna Akhara live there now during the pilgrim season, where they care for several small temples (the main one to Hanuman, shown here), where the passing pilgrims provide a steady stream of potential patrons (no one is here now because I took this photo in November).  The flat platform to the left of the temple is the samadhi shrine of Himalaya Giri, a sanyasi who must have lived in that spot for many seasons.  So at this site are two nodes of holiness for Hindus: a temple to a deity, and a memorial to a renunciant ascetic. 

 
 
 This is a frontal shot of the main temple, which even with the tower is only 6 feet high.  The corbelling (overlapping courses of stone) to create the arch is clearly visible, here, as are the painted signs  identifying the Juna Akhara (a particular group of sanyasas) and the place as Hanuman Chatti.  Enshrined in the temple is an image of Hanuman carrying the mountain, which is one of his central heroic acts in the Ramayana.  The reddish banners and the garlanded lion are also symbols of the Juna Akhara.



Source of information :http://personal.carthage.edu/jlochtefeld/picturepages/pilghanumanchatti.html

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लक्ष्मण झुला

प्राचीन मत के अनुसार लंका विजय के बाद जब भगवान राम अपने भाई लक्ष्मण के साथ हिमालय की तीर्थ यात्रा पर निकले तो लक्ष्मण ने प्रार्थना स्थान के रुप में इसी जगह को चुना तथा विशाल गंगा को पार करने के लिए रस्सी का उपयोग किया। उनके सम्मान स्वरुप रस्सी के एक झुला का निर्माण किया गया जो वर्ष 1809 तक मौजुद था। कलकत्ता के निवासी सेठ सुरजमल के दान शशि से एक अन्य रस्सी के पूल का निर्माण कराया गया। जो कि 1924 की बाद में बह गया वर्ष 1930 में एक अन्य लोहे के तारों से बने 140 मीटर लम्बे पुल ने उसकी जगह ले ली, इसे ही आज लक्ष्मण झुला कहते हैं। जब आप झुला पार कर रहे हों, आप झुला के नीचे बहती गंगा नदी के सुंदर दृश्य का आनंद लें लेकिन आप विचारों में न खो जाएं बल्कि अपने सामानों का भी ध्यान रखें क्योंकि इस क्षेत्र में फैले बन्दर आपको परेशान कर सकते हैं।


लक्ष्मण मंदिर

प्राचीन लक्ष्मण मंदिर, लक्ष्मण झुला के करीब स्थित है। सालों भर यात्री इस मंदिर में दर्शन के लिए आते हैं। यह ऋषिकेश से चार किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।इस मंदिर में लक्ष्मण की पौराणिक प्रतिमा है जो लोगों को धीरज देती है। लोकमत के अनुसार इस मंदिर का पुनरुद्वार वर्ष 1885 में हुआ। इसके पौराणिक महत्व के कारण लक्ष्मण झूला आने वाले तीर्थ यात्री, यहां भी आते हैं।

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Kankhal

Kankhal (Hindi:कनखल) is a small town of historical and religious importance, 3 km. south of Haridwar [1] in Uttarakhand state in India.

Mentioned in the Vayu Purana and the Mahabharata as Kanakhala [2] [3], Kankhal is one of 'Panch Tirth' (Five Pilgrimages) within Haridwar, with other spots being Gangadwara (Ancient name of Haridwar), Kushwart, Bilwa Teerth and Neel Parvat [4][5].

It is most known for the Daksheswara Mahadev temple, numerous ashrams and old houses built by Hindus pilgrims in the 19th century, with exquisite wall paintings [1].

History
Kankhal was the summer capital and Kurukshetra the winter capital of Shiva. Shiva after ascending to the throne visited plain areas, the present Haridwar. To give a warm welcome to Shiva the site of Haridwar was made a welcome-gate hence called Haridwar.

 
Exterior view of the gateway and facade of the chowk at Kankhal, 1814In the Vanaparva of the Mahabharat, where sage Dhaumya tells Yudhisthira about the tirthas of India, Gangadwar, i.e., Haridwar and Kankhal, have been referred to [6]. Kankhal also finds mention in the poem Meghaduta (Cloud messenger), of the 3rd century AD, classical Sanskrit poet and dramatist, Kalidas [2].

When the first Sikh Guru, Guru Nanak (1469-1539), visited Haridwar in 1504 AD, on the Baisakhi day, he went on to visit Kankhal, en route to Kotdwara in Garhwal. [7]. Kankhal also finds mention in the travel accounts of Sister Nivedita (1867-1911), a disciple of Swami Vivekananda, wherein she mentions that long before Haridwar became popular, Kankhal had been a center for education and pilgrimage [8] As late as early 19th century it used to be a separate town, from Haridwar and Mayapur in the areas [9], though due to urban development it now falls within the city limits of Haridwar.

Work on the Upper Ganga canal, commenced in April 1842, between Haridwar and Kankhal [10].

 


http://en.wikipedia.org/wiki/Kankhal

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श्री राम मंदिर एव राम पादुका - चौखुटिया (अल्मोडा)

अल्मोडा मे राम गंगा के किनारे मासी - पन्याली से १ किमी की दूरी पर ग्राम कोटयूडा में भगवान् राम का मंदिर है ! मान्यता है की जब मुनि विश्वामित्र यज्ञ कर रहे थे वह पर असुरो ने उनके यज्ञ मे उत्पात मचा दिया था तब विश्वामित्र मुनि राजा दसरथ के पास गए थे और राम चन्द्र एव लक्ष्मण को रक्षा के लिया वहां पर बुलाया था !

आज भी इस मंदिर और भगवान् राम चन्द्र के चरण पादुका है ! राज इन्द्र का भी यहाँ पर मंदिर और कपिला गाय के चिहन यहाँ पर है !

हर साल वैशाखी के दिन यहाँ पर मेला लगता है !

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कुकूछीनाः एक साल के अज्ञात के दौरान जब पांडव अपनी पहचान छुपाने के लिए एक जगह से दूसरी जगह की खाक छान रहे थे, कौरव इस क्षेत्र की पहाड़ियों में उनका पीछा कर रहे थे। कहा जाता है कि कुकूछीना अंतिम स्थल था जहां तक कौरव पांडवों को खोजने के लिए आए थे। इसके बाद वे वापस लौट गए थे। इसलिए इस जगह का नाम कौरावछीना रखा गया जिसे बाद में कुकूछीना कहा गया। यहां से 5 किलोमीटर पर पांण्डुखोली है। माना जाता है कि तड़ागताल का निर्माण पांडवों द्वारा कराया गया था। यह महज 3 किलोमीटर पर है। इन दोनों जगहों पर सिर्फ पैदल पहुंचा जा सकता है।

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उत्तराखंड मैं भी महभारत के अर्जुन

पाण्डवों के वन जाने का समाचार जब द्रुपद, वृष्णि, अन्धक आदि सगे सम्बंधियों को मिला तो उनके क्रोध का पारावार न रहा। वे सभी राजागण काम्यक वन में पाण्डवों से भेंट करने आये, उनके साथ वहाँ श्री कृष्ण भी पधारे। उन्होंने एक साथ मिल कर कौरवों पर आक्रमण कर देने की योजना बनाई किन्तु युधिष्ठिर ने उन्हें समझाया, "हे नरेशों! कौरवों ने तेरह वर्ष पश्चात् हमें अपना राज्य लौटा देने का वचन दिया है, अतएव आप लोगों का कौरवों पर इस प्रकार आक्रमण करना कदापि उचित नहीं है।" युधिष्ठिर के वचनों को सुन कर उन्होंने कौरवों पर आक्रमण का विचार त्याग दिया, किन्तु श्री कृष्ण ने प्रतिज्ञा की कि वे भीमसेन और अर्जुन के द्वारा कौरवों का नाश करवा के ही रहेंगे। उन सबके प्रस्थान के के बाद उनसे मिलने के लिये वेदव्यास आये। पाण्डवों ने उन्हें यथोचित सम्मान तथा उच्चासन प्रदान किया वेदव्यास जी ने पाण्डवों के कष्ट निवारणार्थ उन्हें प्रति-स्मृति नामक विद्या सिखाई। एक दिन मार्कणडेय ऋषि भी पाण्डवों के यहाँ पधारे और उनके द्वारा किये गये आदर-सत्कार से प्रसन्न होकर उन्हें अपना राज्य वापस पाने का आशीर्वाद दिया।

इस प्रकार ऋषि-मुनियों के आशीर्वाद एवं वरदान से पाण्डवों का आत्मबल बढ़ता गया। बड़े भाई युधिष्ठिर के कारण भीम और अर्जुन शान्त थे किन्तु कौरवों का वध करने के अपने संकल्प को वे एक पल के लिये भी नहीं भुलाते थे और अनेक प्रकार से अपनी शक्ति और संगठन को बढ़ाने के प्रयास में जुटे रहते थे। पांचाली भी भरी सभा में किये गये अपने अपमान को एक क्षण के लिये भी विस्मृत नहीं कर पा रही थीं और भीम और अर्जुन के क्रोधाग्नि में घृत डालने का कार्य करती रहती थीं।

एक बार वीरवर अर्जुन उत्तराखंड के पर्वतों को पार करते हुये एक अपूर्व सुन्दर वन में जा पहुँचे। वहाँ के शान्त वातावरण में वे भगवान की शंकर की तपस्या करने लगे। उनकी तपस्या की परीक्षा लेने के लिये भगवान शंकर एक भील का वेष धारण कर उस वन में आये। वहाँ पर आने पर भील रूपी शिव जी ने देखा कि एक दैत्य शूकर का रूप धारण कर तपस्यारत अर्जुन की घात में है। शिव जी ने उस दैत्य पर अपना बाण छोड़ दिया। जिस समय शंकर भगवान ने दैत्य को देखकर बाण छोड़ा उसी समय अर्जुन की तपस्या टूटी और दैत्य पर उनकी दृष्टि पड़ी। उन्होंने भी अपना गाण्डीव धनुष उठा कर उस पर बाण छोड़ दिया। शूकर को दोनों बाण एक साथ लगे और उसके प्राण निकल गये।

शूकर के मर जाने पर भीलरूपी शिव जी और अर्जुन दोनों ही शूकर को अपने बाण से मरा होने का दावा करने लगे। दोनों के मध्य विवाद बढ़ता गया और विवाद ने युद्ध का रूप धारण कर लिया। अर्जुन निरन्तर भील पर गाण्डीव से बाणों की वर्षा करते रहे किन्तु उनके बाण भील के शरीर से टकरा-टकरा कर टूटते रहे और भील शान्त खड़े हुये मुस्कुराता रहा। अन्त में उनकी तरकश के सारे बाण समाप्त हो गये। इस पर अर्जुन ने भील पर अपनी तलवार से आक्रमण कर दिया। अर्जुन की तलवार भी भील के शरीर से टकरा कर दो टुकड़े हो गई। अब अर्जुन क्रोधित होकर भील से मल्ल युद्ध करने लगे। मल्ल युद्ध में भी अर्जुन भील के प्रहार से मूर्छित हो गये।

थोड़ी देर पश्चात् जब अर्जुन की मूर्छा टूटी तो उन्होंने देखा कि भील अब भी वहीं खड़े मुस्कुरा रहा है। भील की शक्ति देख कर अर्जुन को अत्यन्त आश्चर्य हुआ और उन्होंने भील को मारने की शक्ति प्राप्त करने के लिये शिव मूर्ति पर पुष्पमाला डाली, किन्तु अर्जुन ने देखा कि वह माला शिव मूर्ति पर पड़ने के स्थान पर भील के कण्ठ में चली गई। इससे अर्जुन समझ गये कि भगवान शंकर ही भील का रूप धारण करके वहाँ उपस्थित हुये हैं। अर्जुन शंकर जी के चरणों में गिर पड़े। भगवान शंकर ने अपना असली रूप धारण कर लिया और अर्जुन से कहा, "हे अर्जुन! मैं तुम्हारी तपस्या और पराक्रम से अति प्रसन्न हूँ और तुम्हें पशुपत्यास्त्र प्रदान करता हूँ।" भगवान शंकर अर्जुन को पशुपत्यास्त्र प्रदान कर अन्तर्ध्यान हो गये। उसके पश्चात् वहाँ पर वरुण, यम, कुबेर, गन्धर्व और इन्द्र अपने-अपने वाहनों पर सवार हो कर आ गये। अर्जुन ने सभी देवताओं की विधिवत पूजा की। यह देख कर यमराज ने कहा, "अर्जुन! तुम नर के अवतार हो तथा श्री कृष्ण नारायण के अवतार हैं। तुम दोनों मिल कर अब पृथ्वी का भार हल्का करो।" इस प्रकार सभी देवताओं ने अर्जुन को आशीर्वाद और विभिन्न प्रकार के दिव्य एवं अलौकिक अस्त्र-शस्त्र प्रदान कर अपने-अपने लोकों को चले गये।


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महाभारत - घटोत्कच का जन्म

सुरंग के रास्ते लाक्षागृह से निकल कर पाण्डव अपनी माता के साथ वन के अन्दर चले गये। कई कोस चलने के कारण भीमसेन को छोड़ कर शेष लोग थकान से बेहाल हो गये और एक वट वृक्ष के नीचे लेट गये। माता कुन्ती प्यास से व्याकुल थीं इसलिये भीमसेन किसी जलाशय या सरोवर की खोज में चले गये। एक जलाशय दृष्टिगत होने पर उन्होंने पहले स्वयं जल पिया और माता तथा भाइयों को जल पिलाने के लिये लौट कर उनके पास आये। वे सभी थकान के कारण गहरी निद्रा में निमग्न हो चुके थे अतः भीम वहाँ पर पहरा देने लगे।

उस वन में हिडिम्ब नाम का एक भयानक असुर का निवास था। मानवों का गंध मिलने पर उसने पाण्डवों को पकड़ लाने के लिये अपनी बहन हिडिम्बा को भेजा ताकि वह उन्हें अपना आहार बना कर अपनी क्षुधा पूर्ति कर सके। वहाँ पर पहुँचने पर हिडिम्बा ने भीमसेन को पहरा देते हुये देखा और उनके सुन्दर मुखारविन्द तथा बलिष्ठ शरीर को देख कर उन पर आसक्त हो गई। उसने अपनी राक्षसी माया से एक अपूर्व लावण्मयी सुन्दरी का रूप बना लिया और भीमसेन के पास जा पहुँची। भीमसेन ने उससे पूछा, "हे सुन्दरी! तुम कौन हो और रात्रि में इस भयानक वन में अकेली क्यों घूम रही हो?" भीम के प्रश्न के उत्तर में हिडिम्बा ने कहा, "हे नरश्रेष्ठ! मैं हिडिम्बा नाम की राक्षसी हूँ। मेरे भाई ने मुझे आप लोगों को पकड़ कर लाने के लिये भेजा है किन्तु मेरा हृदय आप पर आसक्त हो गया है तथा मैं आपको अपने पति के रूप में प्राप्त करना चाहती हूँ। मेरा भाई हिडिम्ब बहुत दुष्ट और क्रूर है किन्तु मैं इतना सामर्थ्य रखती हूँ कि आपको उसके चंगुल से बचा कर सुरक्षित स्थान तक पहुँचा सकूँ।"

इधर अपनी बहन को लौट कर आने में विलम्ब होता देख कर हिडिम्ब उस स्थान में जा पहुँचा जहाँ पर हिडिम्बा भीमसेन से वार्तालाप कर रही थी। हिडिम्बा को भीमसेन के साथ प्रेमालाप करते देखकर वह क्रोधित हो उठा और हिडिम्बा को दण्ड देने के लिये उसकी ओर झपटा। यह देख कर भीम ने उसे रोकते हुये कहा, "रे दुष्ट राक्षस! तुझे स्त्री पर हाथ उठाते लज्जा नहीं आती? यदि तू इतना ही वीर और पराक्रमी है तो मुझसे युद्ध कर।" इतना कह कर भीमसेन ताल ठोंक कर उसके साथ मल्ल युद्ध करने लगे। कुन्ती तथा अन्य पाण्डव की भी नींद खुल गई। वहाँ पर भीम को एक राक्षस के साथ युद्ध करते तथा एक रूपवती कन्या को खड़ी देख कर कुन्ती ने पूछा, "पुत्री! तुम कौन हो?" हिडिम्बा ने सारी बातें उन्हें बता दी।

अर्जुन ने हिडिम्ब को मारने के लिये अपना धनुष उठा लिया किन्तु भीम ने उन्हें बाण छोड़ने से मना करते हुये कहा, "भैया! आप बाण मत छोड़िये, यह मेरा शिकार है और मेरे ही हाथों मरेगा।" इतना कह कर भीम ने हिडिम्ब को दोनों हाथों से पकड़ कर उठा लिया और उसे हवा में अनेकों बार घुमा कर इतनी तीव्रता के साथ भूमि पर पटका कि उसके प्राण-पखेरू उड़ गये।

हिडिम्ब के मरने पर वे लोग वहाँ से प्रस्थान की तैयारी करने लगे, इस पर हिडिम्बा ने कुन्ती के चरणों में गिर कर प्रार्थना करने लगी, "हे माता! मैंने आपके पुत्र भीम को अपने पति के रूप में स्वीकार कर लिया है। आप लोग मुझे कृपा करके स्वीकार कर लीजिये। यदि आप लोगों ने मझे स्वीकार नहीं किया तो मैं इसी क्षण अपने प्राणों का त्याग कर दूँगी।" हिडिम्बा के हृदय में भीम के प्रति प्रबल प्रेम की भावना देख कर युधिष्ठिर बोले, "हिडिम्बे! मैं तुम्हें अपने भाई को सौंपता हूँ किन्तु यह केवल दिन में तुम्हारे साथ रहा करेगा और रात्रि को हम लोगों के साथ रहा करेगा।" हिडिम्बा इसके लिये तैयार हो गई और भीमसेन के साथ आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगी। एक वर्ष व्यतीत होने पर हिडिम्बा का पुत्र उत्पन्न हुआ। उत्पन्न होते समय उसके सिर पर केश (उत्कच) न होने के कारण उसका नाम घटोत्कच रखा गया। वह अत्यन्त मायावी निकला और जन्म लेते ही बड़ा हो गया।

हिडिम्बा ने अपने पुत्र को पाण्डवों के पास ले जा कर कहा, "यह आपके भाई की सन्तान है अतः यह आप लोगों की सेवा में रहेगा।" इतना कह कर हिडिम्बा वहाँ से चली गई। घटोत्कच श्रद्धा से पाण्डवों तथा माता कुन्ती के चरणों में प्रणाम कर के बोला, "अब मुझे मेरे योग्य सेवा बतायें।? उसकी बात सुन कर कुन्ती बोली, "तू मेरे वंश का सबसे बड़ा पौत्र है। समय आने पर तुम्हारी सेवा अवश्य ली जायेगी।" इस पर घटोत्कच ने कहा, "आप लोग जब भी मुझे स्मरण करेंगे, मैं आप लोगों की सेवा में उपस्थित हो जाउँगा।" इतना कह कर घटोत्कच उत्तराखंड की ओर चला गया।

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गंगोत्री यानी गंगा का मायका 
गंगा सिर्फ एक नदी का नाम नहीं है बल्कि यह भारतीय संस्कृति की विविधता और समन्वय की परिचायक भी है। गंगा के पानी से अभिसिंचित भारतभूमि सदियों से दुनियाभर के देशों के लिए तीर्थ के तौर पर जानी जाती रही है। हजारों मील दूर से लोग सिर्फ इसलिए भारत आते हैं कि पतितपावनी मां गंगा के निर्मल जल से अपने अंतरूकरण की कलुषता को दूर कर सकें। देवभूमि उत्तराखंड के लिए यह गौरव की बात है कि गंगोत्री धाम को गंगा के मायके के तौर पर जाना जाता है। यहां गंगोत्री धाम का ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व है। लोकपरंपराओं में भी मंदिर और इससे जुड़ी मान्यताओं का रंग गहरा बसा हुआ है। आइए जानते हैं गंगोत्री धाम को। समुद्र तट से 3,140 मीटर की ऊंचाई पर राष्ट्रीय राजमार्ग ऋषिकेश-गंगोत्री पर स्थित धाम उत्तरकाशी से 97 किमी. की दूर पर स्थित है। सड़क मार्ग बनने से यहां की यात्रा आज भले ही आसान हो गई हो, लेकिन पहले पैदल मार्ग बहुत जोखिम भरा था। सन् 1808 में गोख्र्याली में कैप्टन रिपर का दल उत्तरकाशी से गंगोत्री तक 8 दिन में पहुंचा था। वर्तमान मंदिर बीसवीं सदी के आरंभ में जयपुर नरेश माधोसिंह ने बनवाया था। यह जयपुरी शैली में एकादश रुद्र मंदिर है। बीस फीट ऊंचा मंदिर सफेद रंग के चित्तीदार ग्रेनाइट को तराशकर उत्तराखंड की पगोडा शैली में बनाया गया है। इसके गवाक्ष व बरामदे के स्तम्भ राजस्थानी व पहाड़ी शैली के मिश्रण से बने हैं। गर्भगृह में गंगा-यमुना की स्वर्ण व चांदी के आभूषण युक्त मूर्तियां हैं। शंकराचार्य, महालक्ष्मी, अन्नपूर्णा, सरस्वती, जान्हवी, शंकर और गणेश की मूर्तियां और समीप ही भैरव व शिव की मूर्तियां हैं। इसके धार्मिक महत्व को लेकर कहा जाता है कि कपिल मुनि के शाप से भस्म हुए राजा सगर के 60 हजार पुत्रों की मुक्ति के लिए भागीरथ की तपस्या के बाद गंगा गंगोत्री में ही धरती पर अवतरित हुई। महाभारत में गरुड़ ने गालव ऋषि को बताया कि श्यहीं आकाश से गिरती गंगा को शिव ने अपनी जटा पर धारण कियाश्। शास्त्रों में गंगोत्री को मोक्षदायिनी बताया गया है। गंगोत्री में स्नान से मनुष्य जन्म-मृत्यु के फेर से पृथक हो जाता है। धार्मिक मान्यता के आधार पर ही लाखों श्रद्धालु हर वर्ष गंगोत्री पहुंचकर अपने को धन्य समझते हैं। गंगोत्री के प्रमुख स्थानों में मंदिर की सीढियां उतरते ही नदी के दायें तट पर भगीरथ शिला स्थित है। शास्त्रों में उल्लेख है कि यहां भागीरथ ने तप किया था। श्रद्धालु इस शिला पर अपने पितरों का तर्पण देते हैं। मंदिर से कुछ दूरी पर ताम्र आभा लिए चट्टान को काटती हुई गंगा झरना बनाते हुए गिरती है। इससे यहां करीब 20 फुट गहरी झील बन गई है। झील में शिवलिंग आकृति का पत्थर आस्था का केंद्र है। कहते हैं यहां गंगा शिव को पहला जलाभिषेक करती है। गौरीकुंड से एक किमी. की दूरी पर स्थित पटांगण चैरस शिलाओं से पटा हुआ मैदान है। यहां पांडवों ने 12 वर्ष तक तपस्या कर शिव को प्रसन्न किया, महाभारत में परिजनों व ब्राह्मण हत्या के पाप से मुक्ति के लिए तर्पण किए और फिर स्वर्ग की ओर बढ़ गए। यहीं पर रुद्रगैरा चोटी से निकलने वाली रुद्र गंगा गंगा में मिलती है। गंगोत्री में अतिक्रमण के साथ ही प्रदूषण भी दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है। कभी देवदार, कैल, पदमास, राइमुरंड के वृक्षों से घिरी गंगोत्री अब इंसानी हस्तक्षेप से वृक्ष हीन हो गई है। जंगल की जगह आश्रम, धर्मशालाएं और व्यावसायिक प्रतिष्ठान उग आए हैं। इन सभी के सीवर सीधे गंगा में खुले हैं। यात्रा काल में हजारों की संख्या में पहुंचने वाले वाहन यहां के वातावरण में खतरनाक गैसों का जहर घोल रहे हैं, इसका दुष्प्रभाव हिमशिखरों पर पड़ रहा है। डीएम डा. बीवीआरसी पुरुषोत्तम का कहना है कि अतिक्रमण चिह्नित कर हटाने की प्रक्रिया चल रही है।

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पांडवों ने किया था पौराणिक केदारनाथ मंदिर का निर्माण 


उत्तराखण्ड के पावन चार धामों में से एक प्रसिद्ध तीर्थ केदारनाथ के पौराणिक मंदिर का निर्माण पांडवों ने किया था। आठवीं शताब्दी में आदि जगद्गुरू शंकराचार्य ने केदारनाथ का वर्तमान मंदिर बनवाया। पांडवों द्वारा निर्मित तथा शंकराचार्य जी द्वारा निर्मित मंदिर आमने-सामने हैं। श्री केदारनाथ भगवान शिव के बाहर ज्योतिर्लिंगों में से एक है। पौराणिक मतानुसार केदारनाथ में शिवलिंग, तुुंगनाथ में बाहु, रुद्रनाथ में मुखऽ, मदमहेश्वर में नाभि तथा कल्पेश्वर में जटा के रूप्प में भगवान शिव की पूजा अर्चना की जाती है। पौराणिक ग्रंथों में कहा गया है कि केदारनाथ अर्थात केदारांचल में प्राण त्याग करने वाले मनुष्य को शिवलोक की प्राप्ति होती है। गरूड़ पुराण के अनुसार केदार तीर्थ में स्नान करने से सभी पापों का शमन हो जाता है। वामन पुराण के अनुसार केदार क्षेत्रा में निवास करने से तथा रुद्र का पूजन करने से मुनष्य स्वर्ग को प्राप्त करता है। पद्म पुराण के अनुसार केदारनाथ के दर्शन करने से मनुष्य मोक्ष को प्राप्त होता है।
ब्रह्म वैवृत पुराण के अनुसार सतयुग में सप्तद्वीप का केदार नाम का राजा था। अपनी वृद्धावस्था समीप देऽकर उसने अपना सम्पूर्ण राज्य अपने पुत्रा को सौंपा तथा हिमालय की वादियों में जाकर जप, तप करने लगा। जहां इस राजा ने तपस्या की वह स्थान कालान्तर में केदारखण्ड नाम से प्रसिद्ध हुआ। शिव पुराण में कहा गया है कि केदारनाथ में केदारेश्वर लिंग के दर्शन करने से महापापी भी पापों से छूट जाता है। स्कन्द पुराण के अनुसार महाभारत युद्ध की विभीषिका से उकताकर जब युधिष्ठिर आदि पांडवों ने गेात्र हत्या तथा गुरु हत्या के पाप से छूटने के उपाय जानने हेतु वेद व्यास जी से पूछा तो व्यास जी ने कहा कि शास्त्रों में पापों के प्रायश्चित नहीं है। बिना केदार के जाए यह पाप नहीं छूट सकते हैं। तुम लोग केदारनाथ जाओ, वहां निवास करने से सब प्रकार के पाप नष् हो जाते हैं। केदारनाथ में मृत्यु होने से मनुष्य शिव रूप हो जाता है यही महापथ है। तब पांडवों ने अपने हिमालय के लिए प्रस्थान किया। कहते हैं कि जब पांडव केदारनाथ जाने लगे तो भगवान शिव वहां से भैंसे का रूप धारण करके भाग गये। जब भीम को पता चला कि भगवान शिव ने भैंसे का रूप ध्र लिया है तो भीम रास्ता घेरकर खड़े हो गये। शिव की माया से सैकड़ों भैंस केदारनाथ से नीचे उतरने लगीं उनमें भगवान शिव भी भैंस रूप में थे। भीम ने अपने विशाल शरीर से मार्ग को घेर लिया तथा एक पांव मार्ग के इस ओर व दूसरा दूसरी ओर करके खड़े हो गये। अन्य भैंसे तो भीम के पांवों के नीचे से गुजरने लगीं लेकिन जब भैंस रूपी भगवान शिव का नम्बर आता तो वे मार्ग से उलटा चल देते। भीम समझ गये कि यही भगवान शिव हैं जैसे ही पांडवों ने उन्हें पकड़ना चाहा भगवान शिव ने भैंस रूपी शरीर से धरती पर वार करना शुरू कर दिया। कहते हैं वहां से सिर रूप में भगवान शिव नेपाल में निकले तथा धड़ यहीं रह गया। नेपाल में प्पशुपतिनाथ का विश्व प्रसिद्ध शिव मंदिर इसी स्थान पर है। बाद में भगवान शिव ने तब पांडवों को दर्शन दिये।
समुद्र तल से 3581 मीटर की ऊंचाई पर बसे केदार पुरी के उत्तरी छोर पर श्रीकेदारनाथ हैं। श्रीकेदारनाथ के मुख्य मंदिर का निर्माण पांडवों ने किया था। यह यहां का प्राचीन मंदिर है। मंदिर के ऊपर बीस द्वार की चट्टी है। सबसे ऊपर सुनहरा कलश है। मंदिर के ठीक सामने श्री केदारनाथ जी की स्वयंभू मूर्ति है। उसी में भैंसे के पिछले धड़ की आकृति है। यात्री श्री केदारनाथ जी का स्पर्श करते हैं। श्री केदारनाथ जी का मंदिर आगे से पत्थर का बना हुआ है। यहां पर द्रोपदी सहित पांचों पाण्डवों की मूर्तियां हैं। इसके मध्य में पीतल का एक छोटा सा नन्दी और बाहर दक्षिण की ओर बड़ा नन्दी तथा छोटे बड़े कई घंटे लगे हुए हैं। मंदिर के द्वार के दोनों ओर दो द्वारपाल तथा अनेकों देवी देवताओं की मूर्तियां हैं। श्री केदारनाथ जी की श्रृंगार की पंचमुखी मूर्तियां हैं। इन्हें हमेशा वस्त्र तथा आभूषणों से विभूषित रखा जाता है। केदारनाथ का मंदिर काफी भव्य है। मंदिर के बाहरी प्रासाद में देवी पार्वती, पांडव, लक्ष्मी आदि की मूर्तियां विराजमान हैं। मंदिर के नजदीक हंसकुण्ड है जहां पर पितरों की मुक्ति के लिए श्रृद्धालु श्राद्ध व तर्पण आदि पितृ पूजा करते हैं। मंदिर के दरवाजे पर नन्दी जो कि बाबा भोलेनाथ का वाहन है उसकी उपस्थिति इस मंदिर को अनुपम छटा प्रदान करती है। मंदिर के पीछे अमृत कुण्ड है उससे कुछ ही दूरी पर रेतस कुण्ड स्थित है कहा जाता है कि इस कुण्ड का जल पीने से प्राणी शिव तुल्य हो जाता है। इसके उत्तर में स्फटिक लिंग है जिसके पूर्व में सात पद व तीर्थ में बर्फ के बीच में तप्त जल है। इसी स्थान पर भीमसेन ने मुक्ताओं से श्री शंकर जी की पूजा की थी। इससे आगे महापथ है वहां जाने पर मनुष्य जीवन के बार-बार आवागमन से मुक्ति पा लेता है और मोक्ष को प्राप्त होता है। पुरी के दक्षिणी भाग में छोटी सी पहाड़ी पर मुकुण्ड भैरव हैं यहां विशाल हिमालय की आभा देखते ही बनती है। यहीं पास में ही बर्फानी जल की निर्मल झील है यहीं से मन्दाकिनी नदी का उद्गम होता है। श्री केदारनाथ मंदिर के पीछे दो-तीन हाथ लम्बा अमृत कुण्ड है जिसमें दो शिवलिंग स्थित हैं। पूरब उत्तर की ओर हंस कुण्ड तथा रेतस कुण्ड हैं। रेतस कुण्ड के बारे मंे कहा जाता है कि यहां पर जंघा टेककर तीन आचमन बांये हाथ से तीन आचमन दाहिने हाथ से लिये जाते हैं। यहीं पर ईशानेश्वर महादेव हैं तथा इसके पश्चिम में एक सुबलक कुण्ड है। श्री केदारनाथ मंदिर के सामने छोटे-छोटे कुण्ड तथा शिवलिंग हैं।
अधिकांश तीर्थ यात्री पहले श्री केदारनाथ के दर्शन करने के बाद ही बद्रीनाथ जाते हैं। कहा जाता है कि श्री बद्रीनाथ व श्री केदारनाथ की यात्रा तभी सफल मानी जाती है जब पहले केदारनाथ की यात्रा की जाये। क्योंकि श्री केदारनाथ बाबा हमारे पापों से मुक्ति प्रदान करते हैं और बद्रीनाथ आकर प्राणी मोक्ष की कामना करते हैं।

 

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