Author Topic: Nanda Raj Jat Story - नंदा राज जात की कहानी  (Read 139443 times)

Hisalu

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अल्मोड़ा। उत्तराखंड से भाजपा के राज्यसभा सांसद तरुण विजय ने कहा है कि राज्य में होने वाली नंदादेवी राजजात यात्रा भारतीय परंपरा की गौरवशाली धरोहर है। यात्रा के मूल स्वरूप को बरकरार रखते हुए यात्रा को प्रदूषण मुक्त, सुगम, सरल और सुरक्षित बनाने के प्रयास किए जाने जरूरी हैं। उन्होंने कहा कि प्रदेश सरकार को इसके लिए अधिकार संपन्न प्रकोष्ठ गठित करना चाहिए। जनदेव दर्शन यात्रा के तहत पहुंचे श्री विजय यहां पत्रकार वार्ता में बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि यात्रा के लिए केंद्र सरकार से एक हजार करोड़ के पैकेज की मांग की गई है।
सांसद श्री विजय ने कहा कि राज्य बनने के बाद यह पहली नंदा राजजात यात्रा है। इसे भव्य, प्रदूषण, दुर्घटना मुक्त तथा सुगम बनाना सभी का दायित्व है। उन्होंने कहा कि यात्रा के परंपरागत स्वरूप तथा धार्मिक आस्था पर चोट नहीं होनी चाहिए। यात्रा में महानगरों की अप संस्कृति को बढ़ावा देने वाले पर्यटकों के बजाए प्रकृति प्रेमी, श्रद्धावान तथा संस्कृति प्रेमियों को प्राथमिकता देने की जरूरत है। सांसद ने कहा कि यात्रा में बड़ी संख्या में शामिल होने वाले श्रद्धालुओं के लिए मार्ग में चिकित्सा, आवास, भोजन, संचार आदि की व्यवस्था करना चुनौती है। बेहतर संसाधन की स्थापना के लिए यात्रा समिति के माध्यम से केंद्र सरकार से एक हजार करोड़ रुपया राज्य सरकार को आवंटित करने की मांग की जाएगी।
उन्होंने कहा कि जन देव दर्शन यात्रा का मकशद राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति के बजाए सभी दलों के लोगों का साथ लेकर श्रद्धालुओं के लिए बेहतर व्यवस्था करना है। यात्रा मार्ग में नशीले पदार्थों के सेवन, पालीथिन पर प्रतिबंध और प्रकृति से छेड़छाड़ पर सख्ती से पाबंदी के लिए भी समिति के माध्यम से काम किया जाना चाहिए। एक माह तक चलने वाली यह यात्रा निर्विघन संपन्न हो इसके लिए राज्य के दस हजार स्वयं सेवकों की आवश्यकता होगी। इस मौके पर यात्रा संयोजक भूपत सिंह बिष्ट, रंदीप पोखरिया, वंदना बिष्ट विजय, श्रीकांत आर्य, पूर्व विधायक रघुनाथ सिंह चौहान आदि मौजूद थे।



source: Amar Ujala

विनोद सिंह गढ़िया

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राज परिवार के कुंवर को मिलेगी अगले माह औपचारिक जिम्मेदारी

समृद्ध परंपरा देगी नंदा राजजात का अगुवा


श्री नंदा राजजात की शुरुआत राजशाही के जमाने से हुई है। राजशाही खत्म हुई, लेकिन यात्रा से जुड़ी परंपराओं में उसका असर आज भी जीवित है। राजजात की समृद्ध परंपरा ही अगले महीने राजजात के अगुवा को औपचारिक तौर पर सामने ला देगी। राज परिवार से जुडे़ कांसुवा गांव के कुंवर ही आयोजन समिति के अध्यक्ष बनते हैं। डेढ़ साल पहले ये सीट खाली हो जाने के बाद से कार्यकारी व्यवस्था चल रही है। अब अगले महीने विभिन्न ‘सलाणे’ औपचारिक तौर पर अध्यक्ष के नाम पर मुहर लगा देंगे।
आयोजन समिति के अध्यक्ष और महामंत्री दो पद ऐसे हैं, जो सालों पुरानी परंपराओं के मुताबिक खास जाति के पास रखे गए हैं। अध्यक्ष कांसुवा गांव के कुंवर, तो महामंत्री नौटी गांव के नौटियाल। डेढ़ साल पहले अध्यक्ष बलवंत सिंह कुंवर दिवंगत हो गए हैं। केंद्रीय विश्वविद्यालय में कार्यरत उनके पुत्र डा. राकेश कुंवर वर्तमान में कार्यकारी अध्यक्ष हैं।
समिति के महामंत्री भुवन नौटियाल के अनुसार, जून में सलाणों की बैठक में उन्हें औपचारिक तौर पर ये जिम्मेदारी मिलना तय है। यात्रा के दौरान अध्यक्ष सबसे प्रमुख भूमिका में होता है।

श्री नंदा राजजात से जुडे़ तथ्य

माना जाता है नौंवी शताब्दी में चांदपुर गढ़ के राजा शालीपाल ने श्री नंदा राजजात को शुरू कराया। ये यात्रा अमूमन 12 साल में होती है, लेकिन ये तथ्य भी रहे हैं कि इसका ये समय घटा-बढ़ा है। इस बार की यात्रा भी 2013 में एक साल देरी से हो रही है। वैसे, राजजात समिति के पास 1843 से लेकर 2000 तक की यात्रा से संबंधित अभिलेख ही उपलब्ध हैं।

क्या है सलाणे

राजशाही के दौरान राजा विभिन्न क्षेत्रों में अपना प्रतिनिधि नियुक्त करते थे। उन्हें ही सलाणे कहा जाता है। ये लोग थोकदार प्रधान होते थे। टैक्स वसूली और राजा की आज्ञा को संबंधित क्षेत्र में पालन कराना इनके जिम्मे होता था। राजशाही का दौर खत्म होने के बाद भी क्षेत्र में उनकी वो ही पुरानी पहचान कायम है।

ये हैं प्रमुख सलाणे

कुरुड़ गांव के गौड़, देवराड़ा के हटवाल, मैटा के मेहर रावत, भेंटा के कुलेखी रावत, त्रिकोट के बुटोला रावत, आदरा के भंडारी, पास्तोली के कठैत, माल के खोल्या रावत, देवलकोट के श्रेष्ठ, फल्दिया के पहिहार बिष्ट, कुलसारी के कुलसारा, चैप्ड्यू के बुटोला रावत, गेरुड़ के बुटोला रावत, तेनगढ़ के परिहार।


Devbhoomi,Uttarakhand

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नंदा राजजात की तैयारियों में तेजी के लिए बनने वाली कमेटी की कमान किसके हाथ में रहेगी, इस पर अभी असमंजस बना हुआ है। चमोली भ्रमण के दौरान सीएम विजय बहुगुणा ने कमेटी का अध्यक्ष पद अपने पास रखने की घोषणा की थी। मगर फिलहाल तैयारियों की कमान
सीएस के हाथ में ही दिख रही है। नंदा राज समिति भी चाहती है कि घोषणा के मुताबिक, सीएम खुद इसकी कमान संभालें।


अगले साल होने वाली राजजात यात्रा की अभी तक छिटपुट तैयारियां ही शुरू हुई हैं। सीएम ने तैयारियों में तेजी लाने के लिए एक कमेटी बनाने की घोषणा की है। इस कमेटी की एक बैठक हो चुकी है, मगर इसकी अध्यक्षता सीएम की बजाए सीएस ने की थी। इससे अभी असमंजस बना है।


 नंदा राज समिति के महासचिव भुवन नौटियाल का कहना है कि हम चाहते हैं कि सीएम के हाथ में ही कमेटी की कमान रहे। कर्णप्रयाग के विधायक अनुसुया प्रसाद मैखुरी के अनुसार, इस मामले में सीएम पूरी तरह गंभीर हैं। कमेटी के औपचारिक तौर पर सामने आने पर सीएम के ही अध्यक्ष रहने की पक्की उम्मीद है।


Amarujala

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कोटी में हर तीसरे माह नंदा महोत्सव राजजात यात्रा के मुख्य पड़ाव कोटी में है श्रीनंदा देवी की सिद्धपीठ
कर्णप्रयाग। हिमालयी महाकुंभ श्रीनंदादेवी राजजात यात्रा का मुख्य पड़ाव कोटी गांव अपनी अलग पहचान रखता है। एक तरफ जहां घाट, नारायणबगड़, थराली और देवाल के पड़ावों से होते हुए वैदनी कुंड तक मां श्रीनंदा की प्रतिवर्ष भाद्रपद अष्टमी में लोकजात मनायी जाती है वहीं प्रखंड के कोटी गांव में प्रत्येक तीन माह में ग्रामीणों द्वारा मां श्रीनंदा महोत्सव मनाया जाता है।

ग्रामीण इसे राजजात के दौरान होने वाले विभिन्न धार्मिक अुनष्ठानों का प्रमुख हिस्सा मानते हैं।
ब्लाक मुख्यालय से 25 किमी की दूरी पर बसा गांव कोटी मां श्रीनंदा की सिद्धपीठ के रूप में अपनी विशेष पहचान रखता है। श्री नंदादेवी राजजात यात्रा के मुख्य पड़ावों में शुमार कोटी गांव मां नंदा की प्रत्येक तीन माह में अष्टमी को होने वाली विशेष पूजा के लिए जाना जाता है।

 मान्यता है कि क्षेत्र की सुख कामना के लिए मां श्रीनंदा को मंदिर से बाहर निकालकर नंदा महोत्सव मनाया जाता है। इस मौके पर मंदिर के निकट ही प्राचीन गौरीकुंड के पवित्र जल से देवी को स्नान कराया जाता है।  देवी की डोली और मूर्ति को गर्भगृह में स्थापित करने के पश्चात श्रद्धालुओं को प्रसाद वितरण किया जाता है।
कोटी से शंख और तीन घंटिया आती हैं कांसुवा


ग्राम प्रधान मान सिंह कहते है कि श्री नंदादेवी राजजात यात्रा के मुख्य पड़ावों में शामिल कोटी से यात्रा शुरू होने से पहले शंख और तीन घंटियां कांसुवा लाई जाती हैं। उसके बाद यात्रा की मुख्य छांतोली को महादेव घाट से कोटी के ब्राह्मण कोटियालों और ड्योेंडियों के हवाले कर दी जाती है।

प्राचीन कुंड में करते हैं लाटू औणर नंदा स्नान

बदरीनाथ में तप्तकुंड की तरह कोटी में मां नंदा के मंदिर के ठीक नीेचे भूमिगत जलधारा है। आस पास करीब तीन मीटर लंबा और दो मीटर चौड़ा प्राचीन कुंड है। इस कुंड में प्रत्येक तीसरे माह में मां श्रीनंदा और लाटू देवता नंदा महोत्सव के दौरान स्नान करते है।धन न मिलने पर चिंता

कर्णप्रयाग। अगले साल अगस्त-सितंबर में आयोजित होने वाली श्रीनंदा राजजात की तैयारियों को लेकर केंद्र और राज्य सरकार द्वारा अभी तक धनराशि उपलब्ध न कराए जाने से समिति की चिंताएं बढ़ने लगी हैं। इस संबंध में समिति ने राष्ट्रपति को ज्ञापन प्रेषित किया है। समिति ने जल्द ही राजजात प्राधिकरण का गठन किए जाने की भी मांग की है।

राजजात समिति ने राष्ट्रपति को भेजे ज्ञापन में केंद्र और राज्य सरकार से समय पर मांग के सापेक्ष धन उपलब्ध कराने की बात कहते हुए व्यवस्थाओं के सही संचालन के लिए शीघ्र राजजात प्राधिकरण गठन की मांग की है।

 समिति का कहना है कि वर्ष 2013 में होने वाली श्रीनंदा राजजात की तैयारियों को लेकर शासनस्तर पर पड़ाव अधिकारियों द्वारा बैठकों का आयोजन कर प्रस्ताव एकत्र कर जिला प्रशासन को भेज दिए गए हैं। अभी तक तैयारियों के लिए केंद्र और राज्य सरकार से धन उपलब्ध नहीं हो पाया है। राजजात के लिए मात्र एक वर्ष शेष रह गया है जबकि पड़ावों पर ढांचागत व्यवस्थाएं की जानी हैं।




 Amar Ujala
 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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मां श्रीनंदा राजजात के आयोजन में कांसुवा की विशेष भूमिका
कुंवर लेते हैं आयोजन का संकल्प

•अमर उजाला ब्यूरो

कर्णप्रयाग। मां श्रीनंदा राजजात में कांसुवा गांव की विशेष भूमिका है। यहां के कुंवर लोग ही श्रीनंदा राजजात आयोजन का संकल्प लेते हैं।
19 पड़ावों वाली 280 किमी लंबी श्रीनंदा राजजात का प्रत्येक पड़ाव अपनी विशेषताओं के लिए प्रसिद्ध है। मां श्रीनंदा राजजात के इन्हीं पड़ावों में कांसुवा का भी विशेष स्थान है। यात्रा का तीसरा पड़ाव होने के साथ ही यह स्थान गढ़वाल राजाओं की गाथाओं को भी अपने में समाए हुए है।
मान्यताओं के अनुसार 8वीं सदी में हिमालय क्षेत्र के गढ़वाल में परमार (पंवार) राजवंश का उदय हुआ।
परमार राजाओं में कनकपाल को संस्थापक राजा माना जाता है, जिसने राजधानी चांदपुर गढ़ी बनाई। चांदपुर गढ़ में लगे शिलालेख में इस वंश का प्रारंभ विक्रम संवत 945 (आठवीं सदी) माना गया है। लगभग 1514 में पंवार वंश में 37वीं पीढ़ी में पैदा हुए राजा अजय पाल ने गढ़वाल में समस्त 52 गढ़ों का एकीकरण कर गढ़वाल राज्य की स्थापना की। इसके बाद राजा ने चांदपुर गढ़ी से राजधानी को देवलगढ़ स्थापित करते हुए अपने कुंवर को चांदपुर गढ़ी की जिम्मेदारी और श्रीनंदा राजजात का प्रभार भी सौंपा।
कांसुवा में होता है राजछत्र का स्वागत
कांसुवा (कणसा अर्थात छोटा) श्रीनंदा राजजात शुरू होने से दो दिन पूर्व गैरसैंण प्रखंड के छिमटा गांव के राज रुड़िया राजछत्र (रिंगाल की छांतोली) को लेकर कांसुवा पहुंचते हैं। यहां पर कुंवर उनका भव्य स्वागत करते हैं। अगले दिन कुंवर राजछत्र और चौसींगा मेढ़ा को लेकर नौटी के लिए रवाना होते हैं। राजजात के दिन कुंवर के संकल्प के साथ ही राजछत्र पर मां श्रीनंदा की सोने की प्रतिमा स्थापित कर पूजा एवं अन्य अनुष्ठानों के उपरांत मां श्रीनंदा की राजजात अपने अगले पड़ाव के लिए प्रस्थान करती है।
अनदेखी पर रोष
थराली। श्रीनंदा राजजात की तैयारियों के तहत श्रीनंदा देवराड़ा मंदिर समिति का विस्तार करते हुए जय सिंह रावत को उपाध्यक्ष एवं एपी पंत को उप सचिव बनाया है। समिति ने तैयारियों को लेकर हो रही बैठकों में देवराड़ा समिति को नजरअंदाज किए जाने पर भी रोष जताया है। अध्यक्ष ने कहा कि समिति यात्रा तैयारियों में हरसंभव मदद करेंगी।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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भूमियाल देवताओं के निशान भी होते हैं शामिल
 

कर्णप्रयाग। मां श्रीनंदा राजजात में देवी की छंतोली एवं डोली के साथ ही क्षेत्र के कई भूमियाल देवताओं के निशान भी शामिल होते हैं। इन देवताओं को देवी के क्षेत्रपाल के रूप में भी पूजा जाता है।
वांण, बगोली एवं खुनणा गांव से लाटू देवता, घाट के सुतोल तातड़ा से द्यो सिंह, राठ क्षेत्र से विनसर, पिंडरघाटी से दाणू देवता सहित हित और घंडियाल देवता को मां नंदा के क्षेत्रपाल के रूप में पूजा जाता है। ये देवता अपने-अपने क्षेत्रों में अराध्य एवं कुल देवता के रूप में भी पूजनीय है। राजजात में ये देवता यात्रा में पथ प्रदर्शक की भूमिका भी निभाते हैं। सुतोल तातड़ा के द्यो सिंह को मां श्री नंदा देवी का परम भक्त माना जाता है। वहीं लाटू को धरम भाई। विनसर, हित एवं घंडियाल एवं भूमियाल देवता का भी अपना विशेष महत्व है।
ग्रामीणों द्वारा इन अराध्य देवताओं की विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। अधिकांश स्थानों पर वर्षभर में दो बार फसल कटाई के बाद देवताओं को नया अनाज का भोग चढ़ाया जाता है। वहीं बारह वर्ष या उससे अधिक समय में आयोजित होने वाली श्रीनंदा राजजात में देवी की छंतोली एवं डोली के साथ इन देवताओं के निशाण भी प्रतिभाग करते हैं। ये कठिन स्थानाें एवं पड़ावों पर यात्रा का भी नेतृत्व करते हैं।

लाटू, विनसर, हित, भूमियाल, द्यो सिंह, घंडियाल आदि देवता मां श्रीनंदा राजजात की अपने क्षेत्रों में अगुवाई करते हैं। ये देवता जहां क्षेत्रों में क्षेत्रपाल या भूमियाल के रूप में पूजे जाते हैं। वहीं इन्हें देवी के वीर या गण के रूप में विशेष दर्जा प्राप्त है। - देवीदत्त कुनियाल पुजारी लाटू देवता मंदिर वांण (देवाल)

Soure - Amar ujala

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 नंदा देवी राजजात- उत्तराखंड की एक परम्परागत विरासत माँ श्री नंदा की लोकजात 10 सितम्बर से..
 
 चमोली। प्रतिवर्ष आयोजित होने वाली मां श्री नंदादेवी राज राजेश्वरी की लोकजात का कार्यक्रम नंदाक परगणा बधाण घोषित कर दिया गया है। सिद्धपीठ कुरुड़ से 10 सितंबर से शुरू होने वाली मां श्रीनंदा की लोकजात 29 सितंबर को देवराड़ा मंदिर पहुंचने पर संपन्न होगी।
 श्री नंदादेवी राज राजेश्वरी कुरुड़ मंदिर समिति अध्यक्ष मंशाराम गौड़ ने बताया कि श्रीनंदा की लोकजात 10 सितंबर को कुरुड़ सिद्धपीठ से शुरू होगी। 8 सितम्बर से 10 सितम्बर तक तीन दिवसीय भव्य मेला होगा। कुरुड़ मंदिर से मां नंदा की डोली को लोकजात के लिए भक्ति एवं भावुकता के साथ विदाई दी जाएगी। लोकजात विभिन्न गांवों का भ्रमण करते हुए 20 सितंबर को वांण गांव पहुंचेगी, जहां मां नंदा के धर्म भाई लाटू देवता की पूजा की जाएगी। 21 सितंबर को रणकधार से गैरोली पातल और 22 सितंबर को नंदासप्तमी के दिन लोकजात अपने अंतिम पड़ाव विश्वविख्यात वैदनी कुंड पहुंचेगी। यहां धार्मिक अनुष्ठान से लोकजात मनाई जाएगी। इसी दिन देवी की डोली की वापसी होगी जो रात्रि विश्राम को वांण गांव पहुंचेगी। वापसी में कई गांवों का भ्रमण करते हुए मां श्रीनंदा की डोली 29 सितंबर को अपने ननिहाल देवराड़ा गांव पहुंचेगी। यहां देवी की डोली छह माह तक प्रवास करती है।
 
 
 लोक इतिहास के अनुसार नन्दा गढ़वाल के राजाओं के साथ-साथ कुँमाऊ के कत्युरी राजवंश की ईष्टदेवी थी। ईष्टदेवी होने के कारण नन्दादेवी को राजराजेश्वरी कहकर सम्बोधित किया जाता है। नन्दादेवी को पार्वती की बहन के रुप में देखा जाता है। पूरे उत्तराखंड  में समान रुप से पूजे जाने के कारण नन्दादेवी के समस्त प्रदेश में धार्मिक एकता के सूत्र के रुप में देखा गया
 है।
 
 सामान्य लोगों की मान्यता के अनुसार नन्दादेवी दक्ष प्रजापति की सात कन्याओं में से एक थीं। नन्दादेवी का विवाह शिव के साथ होना माना जाता है। शिव के साथ ऊँचे बर्फीले पर्वतों पर नन्दादेवी रहती हैं। पति के साथ होने के सुख के बदले भीषण से भीषण कष्ट वह हंसकर सह लेती है। कहीं-कहीं नन्दादेवी को पार्वती का रुप ही माना गया है। नन्दा के अनेक नामों में प्रमुख है, शिवा, सुनन्दा, शुभानन्दा, नन्दिनी।
 
 उत्तराखंड  में देवताओं की स्तुति में रात-दिन जगकर गाए जाने वाले गीत को जागर कहते हैं। नन्दादेवी के सम्बन्ध में कई जागरों के अनुसार विभिन्न कथाएँ पायी जाती है। एक जागर में नन्दा को नन्द महाराज की बेटी बताया जाता है। नन्द महाराज की यह बेटी कृष्ण जन्म के पूर्व ही कंस के हाथों से निकलकर आकाश में उड़कर नगाधिराज हिमालय की पत्नी मैना की गोद में पहुँच गई।
 
 एक अन्य जागर में नन्दादेवी को चान्दपुर गढ़ के राजा भानुप्रताप की पुत्री बताया जाता है। एक और जागर में ऐसा वर्णन आता है कि नन्दादेवी का जन्म ॠषि हिमवंत और उनकी पत्नी मैना के घर पर हुआ था। यह सब अलग-अलग धारणायें होते हुए भी नन्दादेवी पर्वतीय राज्य उत्तराँचल के लोक मानस की एक दृढ़ आस्था का प्रतीक है तथा इसे परम्परा के अनुसार निभाकर हर बारहवें वर्ष में राजजात का भव्य आयोजन किया जाता है।
 
 राजजात या नन्दाजात का अर्थ है राज राजेश्वरी नन्दादेवी की यात्रा। गढ़वाल क्षेत्र में देवी देवताओं की जात बड़े धूमधाम से मनाई जाती है। जात का अर्थ होता है देवयात्रा। लोक विश्वास यह है कि नन्दा देवी हिन्दी माह के भादव के कृष्णपक्ष में अपने मैत (मायके) पधारतीं हैं। कुछ दिन के पश्चात उन्हें अष्टमी को मैत से विदा किया जाता है। राजजात या नन्दाजात देवी नन्दा की अपने मैत से एक सजीं संवरी दुल्हन के रुप में ससुराल जाने की यात्रा है। ससुराल को स्थानीय भाषा में सौरास कहते हैं। इस अवसर पर नन्दादेवी को सजाकर डोली में बिठाकर एवं वस्र, आभूषण, खाद्यान्न, कलेवा, दूज, दहेज आदि उपहार देकर पारम्परिक गढ़वाल की विदाई की तरह विदा किया जाता है।
 
 वैसे तो हर साल नन्दाजात का आयोजन की प्रथा है परन्तु बारहवें वर्ष पर भव्य और मनोरंजक राजजात किया जाता है। नन्दाजात प्रतिवर्ष शुक्ल अष्टमी के दिन मनाई जाती है। नन्दा अष्टमी के दिन नन्दा को डोली में बिठाकर विदा किया जाता है। नैनीताल, वैजनाथ और अल्मोड़ा में विशेष धूमधाम से यह उत्सव मनाया जाता है। नैनीताल का प्रसिद्ध नन्दा-सुनन्दा मेला प्रतिवर्ष आयोजन किया जाता है जिसमें नन्दा-सुनन्दा बहनों की विशिष्ट और अनूठी केले के पेड़ से बनी मूर्तियों को- जो कि समस्त भारत में केवल कुमाऊँ में ही बनाई जाती है- डोले में बिठाकर घुमाया जाता है। अनतत: मूर्ति को नैनी झील में विसर्जित कर दिया जाता है।
 
 कुमाऊँ में नन्दा की एक विशेषता यह भी है कि गरुड़ के कोट भ्रामरी मन्दिर में नन्दादेवी का अवतार एक पुरुष के शरीर में होता है जबकि उत्तराखंड  के अन्य क्षेत्रों में देवी अवतार स्री शरीर में व देवता का अवतार पुरुष शरीर में होता है।
 
 प्रसिद्ध इतिहासकार एटकिंसन महोदय भी हिमालयन गजेटियर में हर बारहवें वर्ष राजजात मनाये जाने का वर्णन करते हैं। इस यात्रा में लगभग २५० किलोमीटर की दूरी, नौटी से होमकुण्ड तक, पैदल करनी पड़ती है। इस दौरान घने जंगलों पथरीले मार्गों, दुर्गम चोटियों और बर्फीले पहाड़ों को पार करना पड़ता है। यात्रा की कठिनता और दुरुहता का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि बाणगांव से आगे रिणकीधार से यात्रियों को नंगे पांव चलकर ज्यूगरालीदार दैसी लगभग १८००० फीट की ऊँचाई पार करनी पड़ती है। रिणकीधार से आगे यात्रा में काफी प्रतिबन्ध भी है जैसे स्रियाँ, बच्चे, अभक्ष्य ग्रहण करने वाली जातियाँ, चमड़े की बनी वस्तुएं, गाजे-बाजे, इत्यादि निसिद्ध है। सम्भवत: यह विश्व की सबसे लम्बी, दुर्गम ओर कठिन धर्मयात्रा है। इसे केवल समर्पित एवं निष्ठावान व्यक्ति ही कर सकते हैं। हजारों श्रद्धालु आज भी इस यात्रा को पूरा करते हैं।
 
 आजकल स्थानीय लोगों ने इस यात्रा के सफल संचालन प्रजातान्त्रिक ढ़ंग से श्री नन्दादेवी राजजात समिति का गहन किया है। इसी समिति के तत्त्वाधान में प्रति वर्ष नन्दादेवी राजजात का आयोजन किया जाता है। परम्परा के अनुसार वसन्त पंचमी के दिन यात्रा के आयोजन की घोषणा की जाती है। इसके पश्चात इसकी तैयारियों का सिलसिला आरम्भ होता है। इसमें नौटी के नौटियाल एवं कासुवा के कुवरो के अलावा अन्य सम्बन्धित पक्षों जैसे बधाण के १४ सयाने, चान्दपुर के १२ थोकी ब्राह्मण तथा अन्य पुजारियों के साथ-साथ जिला प्रशासन तथा केन्द्र एवं राज्य सरकार के विभिन्न विभागों द्वारा मिलकर कार्यक्रम की रुपरेखा तैयार कर यात्रा का निर्धारण किया जाता है।
 
 प्रशासनिक तैयारियाँ जैसे यात्रा मार्ग का मरम्मत अथवा सुधार, चिकित्सा, भोजन, दूरसंचार आदि की व्यवस्था सामान्य तौर पर होने वाले आयोजकों के समान ही होती है। इसकी व्यापकता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसमें सम्बन्धित प्रशासनिक एवं सरकारी विभाग, गैर सरकारी संगठन, स्वयंसेवक एवं जनप्रतिनिधियों के साथ-साथ आम जनता भी जुड़ी होती है। इससे जुड़ी धार्मिक व प्रशासनिक तैयारियों एवं हर बारहवें वर्ष पर इसके आयोजन को देखते हुए इसे उत्तराखंड  का कुम्भ की संज्ञा दिया जाना गलत नहीं होगा।
 
 भाद्र के शुक्लपक्ष के प्रथम दिन से ही नन्दा के जागर लगने आरम्भ हो जाते हैं। ये जागर नन्दा के मन्दिरों या घर के किसी कमरे (कक्ष) में लगते हैं। जागर गाने वाले को जागरी कहा जाता है। जागरी नन्दादेवी के विषय में विभिन्न गीत गाते रहता है। गीतों में लगभग सभी नौ रसों का अद्भुत प्रयोग देखा जा सकता है। ये जागरे सप्तमी तक लगातार बिना रुकावट के चलती रहती है। इन जागरों को 'मित्तलीपाती' भी कहते हैं। इन जागरों में विशेष रुप से करुणा, आदर और वात्सल्य रसों का अनुपम सामंजस्य रहता है। अष्टमी के दिन 'नन्दाष्टमी' का मेला लगता है। नवमी के दिन नन्दापाती का पूजन किया जाता है जिसे छोटी नन्दाजात भी कहा जाता है। इस दिन नन्दा के प्रतीक के रुप में चीड़ का वृक्ष आंगन में गाढ़ा जाता है और उसे सुन्दर वस्रों से सजाया जाता है। उस पर प्रसाद स्वरुप ककड़ी, मक्का, चबेना इत्यादि बांधा जाता है। फिर जागर के साथ-साथ ढ़ोल दमाऊ पर नृत्य भी होता है जिसे नन्दा का पति माना गया है। संध्या के समय प्रसाद बाँटा जाता है। प्रसाद को एक तरह से छीन झपट कर लूटा जाता है। दरअसल दो दल बन जाते हैं जो नन्दादेवी के मायके वालों और शिव के गणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। शिव गण परम्परा एवं चरित्रानुसार प्रसाद लूटकर खाते हैं। नन्दापाती के बाद नन्दा विदाई का समय आता है।
 
 चौसिंगा खाडू का जन्म लेना राजजात की एक खास बात है। चौसिंगा खाडू की पीठ पर नौटियाल और कुँवर लोग नन्दा के उपहार में होमकुण्ड तक ले जाते हैं। वहाँ सो यह अकेला ही आगे बढ़ जाता है। खाडू के जन्म साथ ही विचित्र चमत्कारिक घटनाये शुरु हो जाती है। जिस गौशाला में यह जन्म लेता है उसी दिन से वहाँ शेर आना प्रारम्भ कर देता है और जब तक खाड़ का मालिक उसे राजजात को अर्पित करने की मनौती नहीं रखता तब तक शेर लगातार आता ही रहता है। यात्रा को दौरान भीड़-भाड़ होने पर भी यह बेधड़क यात्रा का मार्गदर्शन करता है। आस पास के अन्य जानवरों (भेड़ बकरियों) का इस पर कोई असर नहीं पड़ता है। रात को भी यह नन्दा की मूर्ति वाले रिगाल की छताली के पास ही सोता है। लोक मान्यता है कि यह कैलाश तक जाता है। इतना ही, नहीं लोक मान्यता से यह भी है कि खाडू हरिद्वार तक गंगा स्नान के लिये पहुँच जाता हैं। कुछ यात्रियों ने मुझसे यह भी बताया कि होमकुण्ड से ऊपर चढ़ने के पश्चात खाडू का सिर धड़ से अलग होकर नीचे आ जाता है जिसे भक्त लोग प्रसाद समझकर ले जाते हैं।
 
 रिगाल की छतोली भी राजजात की एक विशेषता है। देवी के आदेशानुसार हर बारहवें वर्ष राजजात के संचालक कोसवा के कुँवर रिगाल की छतोली देवी के लिये लाते हैं। यह प्रथा राज घरानों में प्राचीन काल से प्रचलित है कि इस यात्रा के दौरान सिर के ऊपर छत्र (एक प्रकार की छतरी) का उपयोग किया जाता है। समृद्धता और अवसर के अनुसार इसमें धातुओं का प्रयोग किया जाता है। गढ़वाल में देवी देवताओं को भी सोने या चाँदी के छत्र चढ़ाने का रिवाज है। नन्दा द्वारा अपने लिये रिगाल या बांस की छतरी कुंवरी से मांगी गई। इसी प्रकार की छतोलियाँ कई अन्य स्थानों से भी यात्रा मार्ग में राजजात में शामिल हो जाती हैं जो कि होमकुण्ड तक साथ जाती हैं। नौटी में राजजात का शुभारम्भ ही रियाल की छतोली और चौसिंगा खाडू की पूजा से होता है।
 
 राजजात की विधिवत घोषणा होती ही कांसुवा के राजवंशी कुंवर चौसिंगा खाडू और रियाल की छतोली लेकर नौटी आते हैं। छतोली पर नन्दादेवी का प्रतीक सोने की मूर्ति रखी जाती है। नौटी में एक विशेष बात यह है कि यहाँ पर नन्दा देवी का कोई मन्दिर या मूर्ति नही है। देवी का श्रीयंत्र को नवीं शताब्दी में राजा शालिपाल ने नौटी में भूमिगत करा दिया था। छतोली और खाडू का स्थानीय परम्परा के अनुसार विधि-विधान से पूजन होता है और राजजात शुरु हो जाता है। हजारों लोग नौटी से राजजात के साथ चल पड़ते हैं। चौसिंगा खाडू राजजात का नेतृत्व करता है और अन्य लोग उसके पीछे-पीछे चलते हैं। नंदा देवी के गीत, जयकार और देवी देवताओं की स्तुति यात्रीगण करते चलते हैं। कासुंवा पहँचने पर राजजात की छतोली कोटी चान्दपुर के ड्यूडी पुजारियों को आगे की यात्रा के लिये
 सौंप की जाती है। इस बीच यात्रा मार्ग पर चान्दपुर के बारह थोकी ब्राह्मणों की छतोलियाँ भी सम्मिलित हो जाती हैं। चांदपुर गढ़ी में ही गढ़वाल के राजपरिवार द्वारा नन्दा देवी की पूजा अर्चना की जाती है। इस बीच भक्तों में से 'पोमारी' अर्थात् भार उठाने वाले देवताओं की सामग्री ढ़ोते हुए साथ चलते हैं। कुलसारी का इस धार्मिक यात्रा के कार्यक्रम निर्धारण में महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि कुलसारी के काली मन्दिर में भूमिगत काली यंत्र को केवल राजजात की अमावस्या की आधी रात को निकालकर पूजा की जाती है और फिर अगली राजजात तक के लिये भूमिगत कर दिया जाता है। नन्दकेसरी में भी यात्रा का पड़ाव होता है। यहाँ पर कुरुड़ की नन्दा देवी की मूर्ति डोली पर राजजात में शामिल होती है। इसके बाद कुरुड़ के पुजारी राजजात की छतोली सम्भालते हैं। विभिन्न पड़ावों से होती हुई यात्रा वाण गाँव पहुँचती है।
 
 वाण यात्रा का अन्तिम गाँव है। इस गाँव में ही लाटू देवता का आकर्षक मन्दिर है जिसे नन्दा देवी का धर्म भाई माना जाता है। लाटू को बकरे की बलि दी जाती है तथा लाटू की पूजा-अर्चना भी नन्दा देवी से पहले ही की जाती है। लाटी की वर्ष में एक बार पूजा होती है लेकिन हर बारहवें वर्ष राजजात के समय लाटू की विशेष पूजा होती है। लाटू के मन्दिर के द्वार भी केवल राजजात के दिन ही खुलते हैं और नौटीयाल ब्राह्मणों द्वारा पूजा के बाद अगली राजजात तक बन्द कर दिये जाते हैं। उनके अलावा किसी को भी मन्दिर के दरवाजे खोलने का अधिकार नहीं होता। अन्य लोगों द्वारा बाहर से ही पूजा की जाती है और उन्हें बाहर से ही पूजा का फल मिल जाता है।
 
 वाणगाँव तक आते-आते लगभग १९४ देवी देवताओं के निशान या चिन्ह राजजात में शामिल हो जाते हैं। रिगाल के अलावा भोजपत्रों की छतोलियां भी राजजात में शामिल होती है। वाण में ही लावा, दशोली और अल्मोड़ा की नन्दादेवी तथा कोट भ्रामरी की नन्ददेवी की कटार राजजात में शामिल होती है। वाण से आगे की यात्रा दुर्गम होती हैं और साथ ही प्रतिबंधित एवं निषेधात्मक भी हो जाती है। वाण से कुछ आगे रिणकीधार से चमड़े की वस्तुएँ जैसे जूते, बेल्ट आदि तथा गाजे-बाजे, स्रियाँ-बच्चे, अभक्ष्य पदार्थ खाने वाली जातियाँ इत्यादि राजजात में निषिद्ध हो जाते हैं। वाण से चलकर राजजात गैरोली पाताल, वैतरणी, बेदिनीकुण्ड, पातर नचौनियाँ, इत्यादि जगहों से होती हुई रुपकुण्ड पहुँचती है। इस बीच यात्रा मार्ग में बेदिनी बुग्याल के मनोहारी दृश्य यात्रियों की थकान मिटाते हैं। पातर नचौनियाँ के बारे में कथा प्रसिद्ध है कि राजा यशोधवल अपनी यात्रा में अन्य नियमों के उलंघन के साथ-साथ बाजे और नर्तकियां भी लाता था। रात्रि विश्राम में उसने नृत्य का आयोजन किया। यात्रा के नियम भंग होते देख देवी ने चेतावनी स्वरुप सभी नर्तकियों को पत्थर बना दिया। इसी से उस दृश्य का नाम पावर (नर्तकी) नचौनियाँ (नचाने वाला) पड़ गया। आज भी शिलालेखों के गोल घेरे वहाँ देखे जा सकते हैं। इस घटना से भी राजा यशोधवल नहीं चेता तो आगे चलकर देवी के प्रकोप का परिणाम राजा को रुपकुण्ड में भुगतना पड़ा। रुपकुण्ड में जो कि लगभग १६००० फीट की ऊँचाई पर है, राजजात में आये हुये नौटियाल ब्राह्मणों द्वारा कुंवरो के हाथों उनके पितरों का तपंण कराया जाता है। रुपकुण्ड का भी राजजात में विशेष महत्व है।
 
 रुपकुण्ड सचमुच में एक अजीबोगरीब कुण्ड है। यहाँ पर मनुष्यों के शरीर, वस्र, जुते, शंख, घंटियाँ, रुद्राक्ष, डमरु, बर्तन, छतेलियाँ इत्यादि अवशेष मिलते हैं। इनके बारे में तरह-तरह की मान्यताएं प्रचलित है
 
 
 
 "सोजन्य : डॉ. कैलाश कुमार मिश्र & Google"

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Shailesh Pant “उत्तराखंड की सांस्कृतिक एकता का प्रतीक:- नन्दा देवी राज जात”
 
 
 
 
 
 उत्तराखंड की सांस्कृतिक एकता का प्रतीक माँ नन्दा देवी राज जात यात्रा बारह वर्ष के उपरांत शुभ मुर्हुत के अनुसार गढ़वाल के राजवंशी राजा, कांसुवा के राजकुंवरों, राजगुरु नौटियाल, बाराह थोकी ब्राह्मणों, चौदह सयानों और श्रद्धालुओं के मार्गदर्शन व सहयोग से सम्पन्न किया जाता है। गढ़वाल के राजवंशी राजा कांसुवा के राजकुंवर परंपरागत पूजा (उचियाना) के रूप मे नन्दा धाम नौटी के माँ नन्दा देवी मंदिर में पूजा-अर्चना करते है तत्पश्चायत राज जात यात्रा की मनौती के लिए रिंगाल की पवित्र राज छ्तोली को माँ भगवती नन्दा देवी के धर्म भाई और इस यात्रा के अगुवा लाटू देवता के सानिन्धय मे शिवालय शैलेश्वर में समर्पित की जाती है। यह संकेत माँ भगवती नन्दा देवी द्वारा भगवान शिव को इस मनौती की पवित्र राज छ्तोली के साथ यह संदेश भेजा जाता है कि मेरे मायके वाले बहुत जल्दी ही मुझे लेकर आपके पास अथार्थ कैलाश आने वाले है तथा माँ नन्दा देवी के मायके से बारह वर्ष के बाद ही ससुराल (कैलाश) में भगवान शिव से मिलन हो सके। यह माँ नन्दा देवी राज जात यात्रा पवित्र मनी जाती है यहाँ तक कि कांसुवा गाँव के राजवंशी राजकुंवर मनौती के लिए पवित्र रिंगाल की राज छ्तोली व पूजा सामग्री को लेकर नौटी पहुँचते है, यात्रा का शुभारंभ नौटी मे भव्य रूप से किया जाता है। यात्रा के कई मार्ग है, माँ नन्दा देवी राज जात की मुख्य तीन धाराएँ है- नौटी से राज छ्तोली, अल्मोड़ा व नैनीताल से माँ नन्दा की डोली और कुरुड से माँ राज-राजेश्वरी भगवती की डोली। नौटी, अल्मोड़ा और कुरुड़ की यात्रा मार्ग सर्व प्रचलित मार्ग है। नंदकेसरी में गढ़वाल और कुमाऊँ के विभिन्न क्षेत्रों से आयी हुई माँ नन्दा की डोलियो और छ्तोलियों का मिलन होता है। इस यात्रा मे यात्री २८० किलोमीटर की यात्रा २२ दिनों में पैदल तय करते है। माँ नन्दा देवी राज जात यात्रा के कठिन मार्ग नंदकेसरी, फल्दिया गाँव, ल्वाणी, मुंदोली, वाण, गैरोलीपातल, शिलासमुद्र व होमकुंड आदि है। उत्तराखंड की सांस्कृतिक एकता का प्रतीक माँ नन्दा देवी राज जात यात्रा के स्वरूप को बचाने के लिए समय रहते कारगर कदम उठाये जाने की जरूरत है। राज जात यात्रा एशिया की सबसे लंबी पैदल यात्रा है। कई निर्जन पड़ावों से यात्रा अपनी मनौती को पूर्ण कर वापस अपने ननिहाल (देवराड़ा) पहुँचती है। शीत ऋतु में माँ नन्दा देवी का डोला प्रवास के लिए कुरुड़ को रवाना हो जाता है। माँ नन्दा देवी राज जात का सामुदायिक स्मृति के आधार पर इसकी शुरुआत ९ वीं सदी से मानी जाती है, चमोली जिले के वाण से लेकर नौटी तक के जागरों मे इसका उल्लेख मिलता है। मान्यता है की राजा शीशपाल ने राज जात यात्रा की शुरुआत की है। माँ नन्दा देवी राज जात जब अपने निर्जन पड़ावों मेँ पहुँचती है तो वहाँ पर माँ नन्दा देवी के जागरों से श्रद्धालुओं, देवी भक्तों व पर्यटकों द्वारा माँ की विशेष पूजा-अर्चना की जाती है तथा राता भर देवी जागरण होता है। श्रद्धालुओं, देवी भक्तों व सेलानियों द्वारा प्राचीन मंदिर, झरने, कुण्ड (वेदनी कुण्ड, रूपकुण्ड व होमकुण्ड), वेदनी बुगयाल की मखमली घास व ब्रह्म कमल जैसे अनेक फूलों एवं रमणीय स्थलों का आनन्द उठाते है। इसके अलावा बर्फ से ढकी पर्वत श्रंखलाओं की सोंदर्यता को देख पर्यटक अपने आपको स्वर्ग मेँ महसूस करते है।
 
 आभार -  महिपाल बिष्ट  जी

 

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