Author Topic: Nanda Raj Jat Story - नंदा राज जात की कहानी  (Read 139406 times)

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Dhanyavaad Savita ji aapke paas bhi agar koi jaankaari ho to kripya yahan post karen.

bahut achha varnan kiya hai yatra ka, aap sabhi badhai ke paatra hain,  ;)

Mukesh Joshi

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चौसिंगा खाडू का जन्म लेना राजजात की एक खास बात है। चौसिंगा खाडू की पीठ पर नौटियाल और कुँवर लोग नन्दा के उपहार में होमकुण्ड तक ले जाते हैं। वहाँ सो यह अकेला ही आगे बढ़ जाता है। खाडू के जन्म साथ ही विचित्र चमत्कारिक घटनाये शुरु हो जाती है। जिस गौशाला में यह जन्म लेता है उसी दिन से वहाँ शेर आना प्रारम्भ कर देता है और जब तक खाड़ का मालिक उसे राजजात को अर्पित करने की मनौती नहीं रखता तब तक शेर लगातार आता ही रहता है। यात्रा को दौरान भीड़-भाड़ होने पर भी यह बेधड़क यात्रा का मार्गदर्शन करता है। आस पास के अन्य जानवरों (भेड़ बकरियों) का इस पर कोई असर नहीं पड़ता है। रात को भी यह नन्दा की मूर्ति वाले रिगाल की छताली के पास ही सोता है। लोक मान्यता है कि यह कैलाश तक जाता है। इतना ही, नहीं लोक मान्यता से यह भी है कि खाडू हरिद्वार तक गंगा स्नान के लिये पहुँच जाता हैं। कुछ यात्रियों ने मुझसे यह भी बताया कि होमकुण्ड से ऊपर चढ़ने के पश्चात खाडू का सिर धड़ से अलग होकर नीचे आ जाता है जिसे भक्त लोग प्रसाद समझकर ले जाते हैं।

रिगाल की छतोली भी राजजात की एक विशेषता है। देवी के आदेशानुसार हर बारहवें वर्ष राजजात के संचालक कोसवा के कुँवर रिगाल की छतोली देवी के लिये लाते हैं। यह प्रथा राज घरानों में प्राचीन काल से प्रचलित है कि इस यात्रा के दौरान सिर के ऊपर छत्र (एक प्रकार की छतरी) का उपयोग किया जाता है। समृद्धता और अवसर के अनुसार इसमें धातुओं का प्रयोग किया जाता है। गढ़वाल में देवी देवताओं को भी सोने या चाँदी के छत्र चढ़ाने का रिवाज है। नन्दा द्वारा अपने लिये रिगाल या बांस की छतरी कुंवरी से मांगी गई। इसी प्रकार की छतोलियाँ कई अन्य स्थानों से भी यात्रा मार्ग में राजजात में शामिल हो जाती हैं जो कि होमकुण्ड तक साथ जाती हैं। नौटी में राजजात का शुभारम्भ ही रियाल की छतोली और चौसिंगा खाडू की पूजा से होता है।


राजजात की विधिवत घोषणा होती ही कांसुवा के राजवंशी कुंवर चौसिंगा खाडू और रियाल की छतोली लेकर नौटी आते हैं। छतोली पर नन्दादेवी का प्रतीक सोने की मूर्ति रखी जाती है। नौटी में एक विशेष बात यह है कि यहाँ पर नन्दा देवी का कोई मन्दिर या मूर्ति नही है। देवी का श्रीयंत्र को नवीं शताब्दी में राजा शालिपाल ने नौटी में भूमिगत करा दिया था। छतोली और खाडू का स्थानीय परम्परा के अनुसार विधि-विधान से पूजन होता है और राजजात शुरु हो जाता है। हजारों लोग नौटी से राजजात के साथ चल पड़ते हैं। चौसिंगा खाडू राजजात का नेतृत्व करता है और अन्य लोग उसके पीछे-पीछे चलते हैं। नंदा देवी के गीत, जयकार और देवी देवताओं की स्तुति यात्रीगण करते चलते हैं। कासुंवा पहँचने पर राजजात की छतोली कोटी चान्दपुर के ड्यूडी पुजारियों को आगे की यात्रा के लिये
सौंप की जाती है। इस बीच यात्रा मार्ग पर चान्दपुर के बारह थोकी ब्राह्मणों की छतोलियाँ भी सम्मिलित हो जाती हैं। चांदपुर गढ़ी में ही गढ़वाल के राजपरिवार द्वारा नन्दा देवी की पूजा अर्चना की जाती है। इस बीच भक्तों में से 'पोमारी' अर्थात् भार उठाने वाले देवताओं की सामग्री ढ़ोते हुए साथ चलते हैं। कुलसारी का इस धार्मिक यात्रा के कार्यक्रम निर्धारण में महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि कुलसारी के काली मन्दिर में भूमिगत काली यंत्र को केवल राजजात की अमावस्या की आधी रात को निकालकर पूजा की जाती है और फिर अगली राजजात तक के लिये भूमिगत कर दिया जाता है। नन्दकेसरी में भी यात्रा का पड़ाव होता है। यहाँ पर कुरुड़ की नन्दा देवी की मूर्ति डोली पर राजजात में शामिल होती है। इसके बाद कुरुड़ के पुजारी राजजात की छतोली सम्भालते हैं। विभिन्न पड़ावों से होती हुई यात्रा वाण गाँव पहुँचती है।


Source: http://kandpalsubhash.blogspot.com/2007/11/blog-post_15.html

हेम पन्त

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Contd...

गौरा/नंदा की मायके जाने के आग्रह को शिवजी विभिन्न तर्क देकर ठुकराना चाहते हैं, पर गौरा केवल 2 दिन जाकर वापस आने को कहतीं हैं. शिवजी को लगता है कि उन्हें न्यौता न देकर एक तरह से उनका अपमान किया गया है.

मैत घर जाणक स्वामी क्या न्यूतो जागण?
जाणक जाली गौरा, तू दुध्यारू बालीक कै मू छोडली ?
अतुलो भंडार तेरो कै मू तू सौंपली ?
गायों का गोठ्यार गौरा तू कै मू छोडली ?
तुम डेरा छयाई स्वामी मीं कू केकि खैरी,
तुम देखी भाली लिया मिन द्वी दिन कू जाण.
द्वी दिन कू जैली गौरा
द्वी दिन कू जैली गौरा त खुशी मन जा
पर मी कू तईं तू क्या लैली समूण ?
जाण कू जा तू गौरा पर ऊन करण तेरो अभ्यामान,
मीं होलू ऊंक तई भंगूल्या जोगी
तेरो बाबू होलो जग्यकारी राजा अफूं तैं समझणूं.
बोली होलू मी बुलौण से होली ऊंगी हुणताई,
मेरा बाना तब तू बी नी बुलाई!
तब बोल्दी नंदा गौरी त मीं भी नी जांद!
जख सत्कार नी क्या जाण वै द्वार?


To be contd...

खीमसिंह रावत

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महर ज्यूँ पैलाग / नंदा देवी राजजात क बारे में पढ़ बहुत ही अच्छा लगा/ आपकी इन जानकारियों के लिए भौत-भौत धन्यवाद /
एक पत्रिका विरासत श्री नगर गढ़वाल से प्रकाशित है जिसमे डा- एस नौटियाल जी ने इस पर बहुत लिखा है पूरी पत्रिका इसी विशेषांक पर है /

khim

पंकज सिंह महर

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नन्दादेवी की जागरों में नौल्या और धरम्या का काफी वर्णन आता है, ये कौने है?  नौल्या और धरम्या दो वीर हैं, जो मां नन्दा को मायके बुलाने के लिये गये बताये जाते हैं- मां नन्दा अपने सिंहासन पर विराजमान है और नौल्या और धरम्या नाम के दो बीर वहां पहुंचे तो मां के द्वारपालों ने मां को सूचित किया कि मैतुड़ा के लोग आपको बुलाने आये हैं। मां नन्दा ने हर्ष विह्वल होकर अपेन वीरों को आदेश दिया कि सोने का जम्माण जमाओ, मुझे मैतुड़ा जाना है-

सऽजा मेरा पूतो तुम सोना कु जम्माण
रौल्यां-पौल्यां वीरों तुम तैयार ह्वै जावा।
मैतूड़ा कू देश मी हेरी औंदू देखी,
सोना कू जम्माण यो चांदी कू छतर।
ल्यावा मेरा पूतो तुम मखमली आंगी,
ल्यावा मेरा पूतो तुम सोनतिया घूंटी,
ल्यावा मेरा पूतो तुम रेशमीयां साड़ी
मैतुड़ा का देश मी हेरी औंदू देखी॥

पंकज सिंह महर

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मां नन्दा को जब मायके का उदास लगा तो जागरों में वर्णन है कि-

मेरा रे मैत्यूं की क्वे सन्त नी खबर,
मेरा रे मैत्यूं की क्वे रन्त नी रैबार,
मैतूड़ा की याद मी घूरी घूरी आंदी,
डांड्यू की कुहेड़ी स्या गंगाड़ू मुकीगे।
पयारु बेलुरी स्या पैतासार ह्वैग्ये,
मैतुड़ा की याद मी घूरी-घूरी आंदी।
वार देख्यी पार स्या हिंवाली-हिंवाली,
वार देख्यी पार सों कौंलू का बग्वान।
मैतुड़ा की याद मी घूरी-घूरी आंदी,
कैलासूं का कागा सीं गंगाड़ू पौंच्छीग्या,
मेरो रे रैबार सीं मैतूडा़ पौंछोला.
मैतुड़ा की याद मी घूरी-घूरी आंदी।।
भाई होला मेरा सीं मैंतुड़ा बुलाला,
मैती होला मेरा सीं मैंतुडा़ बुलाला,
मैतुड़ा की याद मी घूरी-घूरी आंदी।

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Bahut khoob Pankaj ji. +1 karma aapko.

पंकज सिंह महर

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नन्दा देवी राज जात यात्रा में लाटू देवता ही यात्रा की अगुवाई करते हैं और ये मां नन्दा के छोटे भाई कहे जाते हैं। लाटू देवता को नन्दा देवी का अगवान्या वीर भी कहा जाता है, नन्दा को जहां भी जाना हो, लाटू ही उनकी आगवानी और अगुवाई करते हैं।
      जब शिव ने कनखल में दक्ष प्रजापति के यग्य का विध्वंस करना तो अपनी जटा जूट से उन्होंने कई गण, यथा- वीरभद्र, बलभद्र, लाटू, दांतु आदि को उत्पन्न किया था। बाद में यही वीरभद्र हमारी लोक संस्कृति में वजीर देवता हो गये और लाटू देवता हो गये। इनको जागरों में क्रमशः नन्दा देवी का बड़ा और छोटा भाई कहा जाता है।.......

पंकज सिंह महर

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.....इनको लाटू देवता इसलिये भी कहा जाता है, क्योंकि इन्हें एक लाट (खम्भे) के ऊपर टांक कर नचाया जाता है, इन्हें लाटू जाख भी कहा जाता है। लाटू देवता के संबंध में कथा है कि पूर्व काल में सूर्यवर्चा नाम का एक यक्षपति राजा था, जिसने ब्रह्मा जी के वरदान से द्वापर युग में घटोत्कच की पत्नी भैमी के गर्भ से जन्म लिया था, इनका नाम बरबरीक था। यह एक कुशल योद्धा थे और महाभारत के युद्ध में मां से यह वचन लेकर आये थे कि जो भी पक्ष हार रहा होगा, वे उनकी ओर से ही लड़ेंगे (क्योंकि उनकी माता ने बताया कि तुम्हारे पिता लोग ५ भाई है, जब कि कौरव १०० हैं। तो तुम्हारे पिता वर्ग के लोग निश्चित ही हार रहे होंगे, तो तुम पहचान जाना कि जो हार रहे होंगे, वे तुम्हारे पितृ पक्ष के होंगे। लेकिन तब तक कौरव हार रहे थे) तो श्रीकृष्ण जी ने उनका सिर काट दिया और सिर को अजर-अमर रहने का वरदान दिया और महाभारत का युद्ध देखने की इजाजत भी दी और यह भी वरदान दिया कि भविष्य में तुम्हारे सिर की पूजा होगी और लोग तुम्को लम्बी लाट पर टांक कर नचायेंगे। यही यक्षपति राजा लाटू, धुडि़या, सलूड़िया, लाटू जाख हीत, हिंगलास आदि नामों से जाने लगे। इसे हमारे यहां क्षेत्रपाल या भूम्याल कहते हैं, राजस्थान आदि में इन्हें खांटू श्याम बाबा के नाम से जाना जाता है।
     

पंकज सिंह महर

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गढ़वाल में गाये जाने वाले लाटू का रांसा (लोकगीत) के अनुसार लाटू की उत्पत्ति कहीं-कहीं पर शीलापती की कुक्षि और पिता खेरुखम्भ की जांघ से माना जाता है। तब उस पर नारायण की कृपा हुई तो वह ब्राह्मण लाटू पृथ्वी पर पैदा हुआअ। कुमाऊं के जागरों में भी उसे कन्नौज के राजा से आमंत्रित कर बुलाया जाता है। कुमाऊं में उसे कहीं-कहीं "लाटू जोशी" और गढ़्वाल में लाटू जाख कहा जाता है।
     नन्दा जागर में लिखा है कि लाटू जोशी वाण घर से अल्मोड़ा मंदिर में आता है और वहां से त्रिशूली पहुंचकर नन्दा को राजा का निमंत्रण दे आता है।

 

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