Author Topic: Nanda Raj Jat Story - नंदा राज जात की कहानी  (Read 139471 times)

पंकज सिंह महर

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अपनी एक पुस्तक में श्री शिवराज सिंह रावत जी ने लिखा है कि नन्दा श्रीकृष्ण भगवान की बहन थीं, जो बाबा नन्द और यशोदा की पुत्री थीं और श्रीकॄष्ण को उनके पास पहुंचाकर वसुदेव उन्हें यहां ले आये थे और उनको मारने के लिये कंस ने उनको चट्टान में पटक दिया था। लेकिन वह योगमाया थीं, उन्होने अपने आप को अष्टभुजा के रुप में एक पर्वत के ऊपर अधिष्टापित कर लिया और यक्ष, गंधर्व, किन्नर और देवगण उनकी स्तुति करने लगे। उनको मारने के लिये मथुरा में कोई ठोस चट्टाने नहीं होने के कारण कंस उन्हें मारने उत्तराखण्ड में ही आया था और जिस पर्वत पर देवी ने अपने को स्थापित किया, वह नन्दादेवी पर्वत है।
     इस तथ्य से मैं कुछ हद तक सहमत हूं क्योंकि रुद्रप्रयाग मे हरियाली देवी मंदिर के बारे में भी किवदंती है कि कंस के पटकने पर देवी का हाथ यहां पर गिरा था।

 

हेम पन्त

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contd..

महादेव शिव की बातें सुन कर माँ नन्दा को भी यह लगने लगा कि उसके पिता ने सभी नाते-रिश्तेदारों को यज्ञ में निमंत्रित किया लेकिन शिवजी को जोगी समझ कर उन्हें नहीं बुलाया. इस अपमान के बारे में सोच कर अन्ततः नन्दा को भी अपने मायके वालों पर क्रोध आ गया.

तब वा दिन्दी मैंत्यों खुणि फटगार-
तुमारी सटेडी पुगड्यौ ब्वै सौं जरम्या न,
झंगरैणी पुंगड्यो झड्वा उपज्यान,
मडुवा की पुंगड्यों भंगलो बुतणू होवा,
तब वीं का सरापीन अन्न का कोठार माटी ह्वैने,
धन का कोठार वीन खाक बणैने!
भैस्यों का खर्क देवीन ढेवरा उपजैन,
गायो का गोठ्यार धरडी उपजैन
पुंगडी-पाटली राजी ह्वैन बाजी,
पाणी का नौलों देवीन रक्तार बणै दे.
तब मैत ह्वै गैन शकुना बुरा;
ब्वै बाबू पर भारी एगे विपता को फांसो,
तब सोचदा क्या करला बूद?
कै देवता को ह्वैलो दोष-दौऊ?
तब बुलौंदा वो हीत बिन्सर दुई भायों,
जावा मेरा हीत तू नारद जी का पास.
नारद जी का पास जैकी ल्है जा गणाई पुछाई.
मेरी सैरी सौं मा रांडी ह्वैगे बांडी;
सरापी त लगी हो कखी बैटी नन्दा नी आई;
वा बाळी बिवैगे छई ढुली ह्वैगे ड्वैली.
कख मू होली नन्दा मेरी गोठ-सी बाखरी,
गोठ-सी बाखरी, गोठ-सी बाखरी, नौण सी गौंद की.
सभी मैत आईन मेरि नन्दा नी आई.
जाणकू मी जांदो मा, बाटो मी नी देखी.
इन पूतौ चुलै मी निर्पूती ह्वै जौऊं.
त धर मेरी मां तू सोभन पातडी.
सोभन पातडी रूप की लेखणी.


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पंकज सिंह महर

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अपनी एक पुस्तक में श्री शिवराज सिंह रावत जी ने लिखा है कि नन्दा श्रीकृष्ण भगवान की बहन थीं, जो बाबा नन्द और यशोदा की पुत्री थीं और श्रीकॄष्ण को उनके पास पहुंचाकर वसुदेव उन्हें यहां ले आये थे और उनको मारने के लिये कंस ने उनको चट्टान में पटक दिया था। लेकिन वह योगमाया थीं, उन्होने अपने आप को अष्टभुजा के रुप में एक पर्वत के ऊपर अधिष्टापित कर लिया और यक्ष, गंधर्व, किन्नर और देवगण उनकी स्तुति करने लगे। उनको मारने के लिये मथुरा में कोई ठोस चट्टाने नहीं होने के कारण कंस उन्हें मारने उत्तराखण्ड में ही आया था और जिस पर्वत पर देवी ने अपने को स्थापित किया, वह नन्दादेवी पर्वत है।
     इस तथ्य से मैं कुछ हद तक सहमत हूं क्योंकि रुद्रप्रयाग मे हरियाली देवी मंदिर के बारे में भी किवदंती है कि कंस के पटकने पर देवी का हाथ यहां पर गिरा था। 


हेम दा, गोविन्द चातक जी की पुस्तक से इस बात को टैली करना कि कि यह कितना ठीक है।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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The place where kumoan and garwal Nanda Raj Jaat groups meet is called "Nandkot".

पंकज सिंह महर

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नन्दा का उद्भव

पौराणिक कथाओं में भगवती नन्दा के विभिन्न रुपों में अठ्ठारह अवतार माने जाते है। इन्होंने कभी दक्ष प्रजापति के यहां जन्म लिया तो कभी हेमन्त ॠषि की कन्या के रुप में हवन कुंड से उत्पत्ति हुई। पांचवे जन्म में इन्होंने चांदपुर गढ़ी के राजा भानुप्रताप के यहां जन्म लिया। पौराणिक ग्रन्थों में नन्दा को ही नन्दू महर (नन्द बाबा, वृंदावन) की कन्या बताया गया है। नन्दू महर की कन्या का जन्म उसी लग्न में हुआ था, जिस लग्न में कंस के कारागार में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। कारागार से वसुदेव श्रीकृष्ण को गोकुल में नन्दू महर के यहां छोड़कर उसकी नवजात कन्या को मथुरा कारागार में लाये थे। द्वापर युग में जन्मी नन्दू महर की कन्या योगमाया का ही दूसरा नाम ही नन्दा है। नन्दा की व्युत्पत्ति नद धातु से हुई है, जिसका तात्पर्य है, उल्लास, समृद्धि एवं सुख, जो दे, वही नन्दा है।
       नन्दा देवी का मूल निवास नन्दा पर्वत है, स्कन्द पुराण के बाइसवें अध्याय में लिखा है कि


पश्चिमाभिमुखः साक्षात हिमाद्रिः कथ्यते बुधैः।
तस्य दक्षिणाभागे बै नाम्ना नन्दागिरिः स्मृतः॥
तत्र नन्दा महादेवी पूज्यतेभिवशैरपि।
तां दृष्ट्वा मानवेः सम्यक ऎश्वर्य मिह लभ्यते॥
नास्ति नन्दा मां देवी भूतले वरदान शुभा॥


अर्थात- पश्चिम हिमालय के दक्षिणी ओर नन्दागिरि पर्वत है, जहां भगवती नन्दा देवी देवताओं द्वारा भी पूजी जाती है। उनके दर्शन मात्र से मनुष्य ऎश्वर्य प्राप्त करते हैं। पृथ्वी में नन्दा देवी के समान और कोई देवी वरदायिनी नहीं है।

पंकज सिंह महर

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पूरे उत्तराखण्ड में सवाधिक लोकपूजित देवी नन्दा, राजा हिमालय की पुत्री और भगवान शिव की अर्धांगिनी पार्वती रुप हैं। आनन्द देने वाली शक्ति के कारण इन्हें नन्दा कहा गया है, उत्तराखण्ड की इष्ट देवी को आद्य शक्ति, दुर्गा और पार्वती का स्वरुप भी माना जाता है। जनमानस में उनकी मान्यता तथा अपार श्रद्धाभाव स्वरुप हिमालय की आच्छादित पर्वत श्रॄंखलाओं में नन्दा देवी, नन्दा घूंघटी, नन्दा कोट और नन्दा त्रिशूल जैसे नाम भी हैं। गढ़वाल और कुमाऊं से विभिन्न स्थानों पर मन्दिरों का निर्माण कर देवी की प्रतिमायें स्थापित की गई हैं। जिनकी चैत्र और आश्विन माह के नवरात्रों में विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। नन्दा देवी की विभिन्न स्थानों पर पूजा की अलग-अलग पद्धतियां प्रचलित हैं, कुमाऊं में नन्दा देवी जागर लगाने से पहले ननौल गाया जाता है। "ननौल" नन्दा को निमंत्रण भेजे जाने वाले गीतों को कहा जाता है, नन्दा के साथ-साथ गायकों द्वारा लाटा जोशी और भूमि के भूमिया देवता, बारह बदियाकोट, बाईस छुरमल, पंचनाम देवताओं को भी आमंत्रित किया जाता है। ननौल के बाद जलोकार शुरु होता है, गाथा में गायक सृष्टि की उत्पत्ते का वर्णन भी करते हैं, गढ़वाल क्षेत्र में यह परम्परा मामूली भिन्नता के साथ प्रचलित है।

पंकज सिंह महर

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नन्दा राज जात की प्राचीनता

सैकड़ों वर्षों से प्रचलित नन्दा देवी राजजात में गढ़वाल और कुमाऊं क्षेत्रों से समान रुप में भागीदारी होती है। यह यात्रा कितनी पुरानी है इसका सही अनुमान लगाना कठिन है। इसकी प्राचीनता के संबंध में ठीक जानकारी न होने के बावजूद कुछ लोग लोक गीतों पर आधारित कन्नौज के राजा यशधवल की कथा से यह अनुमान लगाते हैं कि १४ वीं शताब्दी में नन्दा देवी की मनौती के रुप में इस जात का आयोजन किया गया था। प्राकृतिक आपदाओं और स्थानीय राजाओम के राजधानियों के बार-बार स्थानान्तरण तथा गोरखा आक्रमण के कारण कई बार यात्रा में व्यवधान उत्पन्न हुये। १८२० में पुनः राजजात का आयोजन किया गया, कहा जाता है कि जब-जब इस यात्रा में बाधायें आईं, तब सोपाती नामक विशेष आयोजन कर देवी का पूजन किया गया। नौटी की नन्दा देवी राजजात समिति के पास भी १८ वीं सदी के बाद की यात्राओं का ही रिकार्ड है, जिसके अनुसार १८४३, १८६३, १८८५, १९०५, १९२५, १९५१, १९६८ और १९८७ में यह यात्रायें हुई थी।
       नन्दा को मायके से ससुराल के लिये विदाई देने हेतु गढ़वाल में प्रत्येक वर्ष कुरुड़ से वैतरणी कुंड तक छोटी जात का आयोजन किया जाता है। प्रत्येक १२ साल में बड़ी जात, जिसे नन्दा राज जात कहा जाता है, का आयोजन किया जाता है। जिसमें लगभग ३०० देवी-देवता सम्मिलित होते हैं, प्राचीन काल में राजाओं द्वारा इस यात्रा का शुभारम्भ करने के कारण इसे राजजात कहा जाता है।
.......

पंकज सिंह महर

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.......वैसे राजजात की परम्परा कब अस्तित्व में आई, इसका कोई प्रमाण नहीं है, इस संबंध में इतिहासकारों में भी मत भिन्नतायें हैं। यहां के लोकगीतों, जागर और पीढ़ी दर पीढ़ी एक-दूसरे से मिली जानकारियां ही इस यात्रा की प्राचीनता को आधार प्रदान करती है। इस संबंध में यह भी उल्लेखनीय है कि जब धार मालवा की राजधानी कन्नौज में राजा कनकपाल शासन करते थे, तब उनके दरबार में हिमालय के भाई भारद्वाज वंशज एक आद्यगौड़ ब्राहमण कुल पुरोहित थे। उन्होंने राजा को बदरीनाथ यात्रा के लिये प्रेरित किया, बदरीनाथ यात्रा के लिये प्रस्थान कर जब राजा हरिद्वार पहुंचे तो बदरीनाथ के उपासक और चांदपुरगढ़ी के राजा भानुप्रताप ने उनकी अगवानी की। कहा जाता है कि राजा भानुप्रताप अपनी आध्यात्मिक शक्तियों के माध्यम से भगवान बद्रीनाथ जी से वार्ता करने में सक्षम थे। इसीलिये राजा को बोलान्दा बद्री (बद्रीनाथ से बोलने वाला) भी कहा जाता है,बद्रीनाथ जी ने राजा भानुप्रताप को आदेश दिया था कि हरिद्वार जाकर राजा कनकपाल की यात्रा पूरी होने पर गढ़ी लाकर अपनी कन्या का विवाह उनसे कर दें। राजा को यह भी बोध हुआ कि उनकी ईष्ट देवी नन्दा के भाइयों के वंश में पैदा हुये आद्यगौड़ ब्राह्मण राजा कनकपाल के कुल पुरोहित हैं। भगवान बदरीनाथ के आदेशानुसार राजा ने मालवा के नरेश कनकपाल के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया तथा ६८८ ई० में राजपाट सौंप कर स्वयं बदरीनाथपुरी चले गये।
      भानुप्रताप आदि बदरी मंदिर में अगवान बदरीनाथ, शैलेश्वर मठ में शिव और चांदपुर गढ़ी में नन्दा देवी के श्रीयंत्र की पूजा किया करते थे। राजा कनकपाल से छोटे भाई को चांदपुर गढ़ी का जो क्षेत्र दिया गया वह स्थान कांसुआ था तथा वे कांसुआ के कुंवर कहलाने लगे। राजा भानुप्रताप के समय में भी नन्दा देवी राजजात का आयोजन होता था। अपनी इष्ट नन्दा देवी की जात का प्रबंधक उन्होंने कांसुवा के कुंवर को बनाया, उसी समय से राजवंशी कुंवर राजजात का आयोजन करते हैं। शैलेश्वर मठ के पास नन्दा देवी के भाइयों आद्यगौंड़ ब्राह्मणों को बसाया गया और नन्दा देवी का श्रीयंत्र यहीं भूमिगत कर इसकी पूजा का विधान निश्चित किया गया। राजा ने निर्देश दिये कि नन्दा के भाइयों का वंश ही नन्दा का मायका होगा और वे ही राजजात के समय नन्दा को बुलायेंगे तथा कुंवर धार्मिक अनुष्ठान पूरा करवाने की व्यवस्था कर राजजात का आयोजन करेंगे। राजजात की व्यवस्था का भार मालगुजारों पर एवं अन्य व्यय समस्त प्रजा पर डाला गया।.......

पंकज सिंह महर

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.....कई विद्वानों का यह भी मानना है कि नवीं शताब्दी में पहली बार राजा कनकपाल द्वारा राजजात यात्रा का अनुष्ठान किया, तब राजपुरोहितों द्वारा प्रत्येक बारहवें वर्ष नन्दाष्टमी की राजजात का आयोजन किया जाना तय किया था। तभी से राजजात यात्रा का शुभारंभ भी माना जाता है। कहा जाता है कि राजा कनकपाल को स्वप्न में आकर नन्दा ने शिवधाम जाने की इच्छा प्रकट की थी, कुल देवी की उस इच्छापूर्ति के लिये राजा ने इस आयोजन की शुरुआत की थी। किवदंति यह भी है कि जब जगद्गुरु शंकराचार्य धार्मिक जन-जागरण के लिये उत्तराखण्ड आये थे, तब उन्होंने इस यात्रा का शुभारम्भ किया था।......

पंकज सिंह महर

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नौटी और वाण गांव में गाये जाने वाले लोकगीतों और जागरों में यह भी वर्णन है कि १४ वीं सदी में कन्नौज के राजा जसधवल ने भी जात का आयोजन किया था। कहा जाता है कि एक बार नन्दा आकाश मार्ग से कन्नौज के राजा जसधवल और उनकी गढ़वाली रानी वल्लभा के दरबार में पहुंची और कुशल क्षेम के बाद मां नन्दा ने रानी वल्लभा से राज्य मांग लिया, लेकिन रानी ने उन्हें राज्य देने से इंकार कर दिया। रुष्ट होकर नन्दा हिमालय लौट आई और रानी से कह आई कि तुम अब राज्य का सुख नहीं भोग पाओगी। कुछ दिनों बाद राज्य में अकाल पड़ गया और विपदा आ गई, राजा ने इस विपदा का कारण पुरोहितों से पूछा तो बताया गया कि रानी के मायके की देवी का दोष लगा है और इसके लिये राजजात की मनौती का विधान है।
       राजा अपनी गर्भवती पत्नी वल्लभा, पुत्र, पुत्री, सेना और नर्तकियों को लेकर यात्रा पर चल पड़ा। हरिद्वार से वाण तक वह सकुशल पहुंचा, लेकिन उसके बाद दर्प में यात्रा के नियमों की अवहेलना करने लगा। रिणकीधार (अब पातर नचौणीयां) से आगे महिलाओं, बच्चों और अशुद्ध वस्तुओं के ले जाने पर निषेध है, लेकिन राजा ने यहां पर नर्तकियों से नृत्य करवाया तो देवी श्राप के कारण वे नर्तकियां शिला में बदल गई, तब से इस स्थान को पातर नचौणियां कहा जाता है। राजा तब भी सचेत नहीं हुआ और भगुवासा से आगे गंगतोली गुफा में रानी ने एक कन्या को जन्म दिया, इससे देवी क्रोधित हो गई। रानी, राजा के अतिरिक्त सैन्यदल और सेवल ज्यूंगराली मे रुके थे,वहां प्रचण्ड ओलावृष्टि हुई, नन्दा के सेवक लाटू ने लौह और पाषाण वर्षा की, राजा का समस्त परिवार और सैन्यदल यहीं पर समाप्त हो गया। वल्लभा की प्रसूति के कारण गंगतोली गुफा का नाम वल्लभा स्वेड़ा पड़ गया। १६००० फीट की ऊंचाई पर आज भी सैकड़ो कंकाल पड़े हैं, जो इन्हीं यात्रियों के बताये जाते हैं। मां नन्दा ने चांदपुर गढ़ी के राजा को वैतरणी कुंड में इन मॄतकों का तर्पण करने का आदेश दिया था, तब से राजजात के समय भी रुपकुंड में मृतकों के तर्पण की परम्परा है।........

 

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