Author Topic: Nanda Raj Jat Story - नंदा राज जात की कहानी  (Read 140284 times)

पंकज सिंह महर

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       नन्दा देवी राजजात की परम्परानुसार भगवती नन्दा मायके से अपने ससुराल शिवधाम जाना चाहती है तो कुंवरों की थोकदारी में एक चार सींग वाला मेढा़ जन्म लेता है। जिस घर में मेढ़े का जन्म होता है, उसकी सूचना कासुवा के कुंवर को भेजी जाती है, क्योंकि मेढ़े का जन्म ही नन्दा के आगमन का प्रतीक माना जाता है और उसकी देखभाल का दायित्व भी कुंवर का ही होता है। मेढ़े के पैदा होने के बाद कुंवर बसंत पंचमी के दिन नन्दा के भाइयों के गांव नौटी आकर श्रीयंत्र की पूजा कर मनौती के रुप में देवी को मायके से ससुराल भेजने का वचन देते हैं। पूजा के लिये आते समय रिंगाल की भोजपत्र से आच्छादित टोकरी (छतोली) लाने की भी परम्परा है, इसके बाद तल्ल चांदपुर गढ़ी के सिमली गांव में यात्रा संबंधी बैठक आयोजित कर कुंवर की अध्यक्षता में एक समिति बनाई जाती है। तत्पश्चात यात्रा का लग्नानुसार पंचांग बनाकर यात्रा प्रारम्भ की जाती है।

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Nanda Devi Temple:


Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Nanda Parvat:


पंकज सिंह महर

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नन्दा राजजात का शुभारम्भ उफराई देवी के मंदिर में परम्परागत पूजन के बाद होता है। भाद्रपद की नन्दा अष्टमी से सत्रह दिन पूर्व कुंवर मेढ़े और छतोली लेकर नौटी गांचव मेम पहुंचते हैं। नौटी गांव में पूरे धार्मिक विधि-विधान से नन्दा की स्वर्ण प्रतिमा का पूजन होता है, देवी के आभूषण तैयार किये जाते है और देवी नन्दा की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। रिंगाल की छतौली पर नन्दा को सजाया जाता है, अन्तिम दिन बाण गांव से आगे के लिये खाद्य पदार्थ तैयार किये जाते हैं। दूसरे दिन शुभ मुहुर्त में नन्दा को विदा करने के लिये बाईस दिन की जात की तैयारी शुरु कर दी जाती है। भाद्रपद की नन्दा अष्टमी के दिन पूजा-अर्चना के बाद नन्दा देवी राजजात का शुभारम्भ होता है। इस दिन नौटी में उमड़े भारी जन सैलाब के बीच देवी को आभूषण और वस्त्रों से अलंकृत कर शिवधाम के लिये विदा किया जाता है।
       सीमान्त चमोली जिले के नौटी गांव से नन्दा अष्टमी को शुरु होने वाली यह पवित्र धार्मिक यात्रा दुर्गम पहाड़ी रास्तों, गहरी घाटियों और ऊंचे हिम शिखरों को पार कर लगभग २८० कि०मी० की दूरी १९ पड़ावों में तय करके होमकुण्ड पहुंचती है। इसी होमकुण्ड से नन्दा की अंतिम विदाई होती है। पूरी यात्रा में साथ चल रहा नन्दा डोली का पथ प्रदर्शक, यात्रा प्रतीक चौसिंगया मेढ़ा यहां से अकेले ही अनन्त आलोक की ओर बढ़ जाता है। त्रिशूल पर्वत की ओर जाने वाला खाडू विशाल हिम खण्डों के बीच अदृश्य हो जाता है।..........

पंकज सिंह महर

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दुर्गम पर्वतीय मार्गों से गुजरने वाली रोमांचक यात्रा कांसुआ से नौटी, ईड़ाबधाणी, वहां से पुनः नौटी, कांसुआ, सेम, कोटी, भगोती, कुलसारी, चैपड़ो, नन्द केसरी, फल्दिगां, मुंदोली, वाण, गैरोली पाताल, पातर नचौणियां और शिला समुद्र होती हुई होम्कुण्ड चन्दनिया घाट पहुंचती है। यहा से सुतालघाट नन्दप्रयाग होते हुये वापस नौटी पहुंच कर संपन्न होती है।  इन पड़ावों का विस्तृत विवरण मैं पहले भे प्रस्तुत कर चुका हूं।

       लम्बे यात्रा मार्ग में पड़ने वाले हर पड़ाव पर विशेष विधि-विधान से पूजा होती है। मार्ग में पड़ने वाले गांवों के लोग राजजात की अगवानी कर नन्दा को श्रद्धानुसार चढ़ावा भी चढ़ाते हैं। अलग-अलग स्थानों से चली देवी की डोलियां भी राजजात में शामिल होती हैं। जिनमें कुरुड़ और नन्दा देवी, अल्मोड़ा की डोलियां प्रमुख हैं।
      इस धार्मिक यात्रा में जहां विभिन्न क्षेत्रों के पुरोहित रिंगाल की बनी छतोलियां लेकर चलते हैं, वहीं यात्रा का आकर्षण चार सींग वाला मेंढ़ा (भेड़) होता है। होमकुण्ड तक राजजात का नेतृत्व यही मेंढा करता है। मेढ़े की विदाई के साथ ही पुरोहितों द्वारा साथ ले जाई गई रिंगाल की छतौलियों का भी विसर्जन यहीं पर किया जाता है। जब कि नन्दा के ससुराल पक्ष की छतौलियों को पुरोहित वापस ले आते हैं।......

पंकज सिंह महर

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शिवधाम के लिये नन्दा को विदा करते समय उसे अपनी बहन व बेटी का रुप मानने वाले श्रद्धालु पुरानी परम्परओं का निर्वाह करते हुये दक्षिणा, श्रृंगार सामग्री व अंगवस्त्र आदि देकर विदा करते हैं। विभिन्न स्थानों पर नन्दा को विदा करते समय महिलायें रो पड़ती हैं, रस्मो-रिवाज के अनुसार देवी विदाई के समय विदाई गीतों से वातावरण और गम्भीर हो जाता है।
        नन्दा को मायके से ससुराल के लिये विदाए की रस्म पूरी होने के बाद अपने गन्तव्य की ओर बड़ती हुई राजजात में कई देवी-देवताओं और विभिन्न क्षेत्रों से आने वाली छतौलियों का मिलन होता है। दूसरे क्षेत्र से आने वाली छतौलियों का पहला मिलन महादेव घाट पर होता है। उसके बाद सेम में चमोला, गैरोली व चूलाकोट। कोटी में चूलाकोट, खंडूरा, रतुड़ा की छतौलियां और कुलसारी में कडाकोट पट्टी की नन्दा  देवियां डोले सहित लायी जातीं है। कांडवल गांव , छेपुड़ा, मनोड़ा की छतौलियां भी इस यात्रा में शामिल होती हैं।......

पंकज सिंह महर

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यात्रा के नन्द केसरी पहुंचने पर कुमाऊं क्षेत्र से नन्दादेवी की छतौली तथा कुरुड़ की नन्दा की मूर्ति, डोली राजजात में शामिल होती है। राजजात के इस नौंवे पड़ाव से यह देव यात्रा मानी जाती है। यात्रा के अंतिम पड़ाव वाण गांव पहुंचने पर दशम द्वार व अल्मोड़ा की नन्दा सहित कोट की नन्दा की कटार और बदरीनाथ की छतौलियोम का मिलन होता है। यहां से परम्परागत रुप से कुरुड़ की डोली ही आगे चलती है। फल्दियागांव, मुंदोली होते हुये यात्रा वाण पहुंचती है। यहां से आगे की यात्रा के कुछ नियम हैं, सबसे आगे चौसिंगा मेढ़ा यात्रा का नेतृत्व करता है,दूसरे स्थान पर लाटु का निषाण, तीसरे स्थान पर नौटी की छतोली तथा चौथे व पांचवे स्थान पर क्रमशः रिंगाल की छतौली और भोजपत्र की छतौली होती है। यहां से राजजात अपने अगले पड़ावों की ओर बढ़्ते हुये अन्त में होमकुण्ड पहुंचती है, यहीं से नन्दा की अंतिम विदाई होती है। य्हां से चौसिंगा मेंढ़ा स्वतः ही अनन्त यात्रा की ओर बढ़ता हुआ अदृश्य हो जाता है, जिसे श्रद्धालु अपनी नम आंखो से ओझल होते हुये देखते हैं।

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Wah Mahar ji dhanyavaad aur +1 karma aapko.

दिनेश मन्द्रवाल

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जय मां नन्दा,
    नन्दा राजजात का विस्तृत और सुन्दर विवरण पढ़कर ऎसी अनुभूति हुई, जैसे मैं स्वयं यह यात्रा कर रहा हूं। धन्यवास सभी को।

पंकज सिंह महर

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नंदाजात यात्रा में उमड़ा श्रद्धालुओं का हुजूम Aug 10, 11:42 pm

गैरसैंण (चमोली) हर वर्ष सावन माह में हर्षोल्लास के साथ मनायी जाने वाली नंदाजात में इस बार भी श्रद्धालुओं का हुजूम उमड़ा।

बड़ी संख्या में नंदाठोंक चोटी पहुंच ग्रामीणों ने पूजा-अर्चना में भाग लिया। माना जाता है कि यहां पुत्र की कामना करने वालों की इच्छा पूरी होती है। इस बार भी दंपति ने पुत्र प्राप्ति को नंदा माई से आशीर्वाद लिया। 20 किमी की इस पैदल यात्रा में भक्तों को कठिन रास्तों से गुजरना पड़ता है। दस मील की सीधी चढ़ाई के बाद चोटी पर सदियों पुराने गुफानुमा मंदिर में केदारनाथ शैली का लिंग स्थापित है। कहा जाता है कि तप में लीन भगवान शंकर को नंदामाई वर्ष में एक बार मौसमी फल-फूल चढ़ाने चंद क्षणों के लिए यहां आकर जंगलों में गायब हो जाती है। आज भी प्रथा है कि गैरसैंण स्थित नंदादेवी मंदिर से प्रारंभ होने वाली इस यात्रा में माता का पश्वा जंगल से स्वर्ण मूर्ति लेकर आता है और पूजा-अर्चना के बाद मूर्ति को जंगल में ही कहीं रख देता है। मंदिर के द्वार पर एक विशालकाय वृक्ष पर लोहे की जंजीरे गड़ीं हैं। माना जाता है कि शाम होते ही माता शेरों को इन पर बांधकर क्षेत्र के पशुओं की रक्षा करती है। लोहे की इन जंजीरों पर हजारों वर्ष बाद भी लेशमात्र जंग नहीं लगना आश्चर्यचकित करता है। मंदिर के मुख्य पुजारी जनार्दन प्रसाद गैडी के अनुसार पहले यहां हर वर्ष अष्टबलि का प्रावधान था लेकिन अब नारियल तोड़ सांकेतिक बलि दी जाती है।

 

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