Author Topic: Nanda Raj Jat Story - नंदा राज जात की कहानी  (Read 140741 times)

पंकज सिंह महर

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जागरण कार्यालय, डीडीहाट/ मुनस्यारी: तहसील मुनस्यारी के तल्ला जोहार क्षेत्र में प्रतिवर्ष नन्दा मंदिर में होने वाली पूजा में चढ़ने वाले ब्रह्मकमल लाने के लिये ग्रामीणों की यात्रा बुग्यालों के निकट पहुंच चुकी है। बुग्यालों से डण्डों के सहारे लाये जाने वाले ब्रह्मकमलों के नन्दा देवी मंदिर में चढ़ने के बाद ही पूजा सम्पन्न होगी। विदित हो कि जिले की तहसील मुनस्यारी के तल्ला जोहार स्थित नंदा देवी मंदिरों में पूजा के लिये नन्दा जात की तर्ज पर यात्रा निकलती है। क्षेत्र के दर्जनों गांवों के लोग पंचमी को होने वाली पूजा के लिये यहां से लगभग 38 किमी दूर हीरामणि ग्लेशियर के निकट के लगभग पन्द्रह हजार फिट की ऊंचाई पर स्थित बुग्यालों से ब्रह्मकमल लाते हैं। परम्परा के अनुसार प्रतिवर्ष अलग-अलग गांवों के लोग 76 किमी की पैदल दूरी तय कर ब्रह्म कमल लेकर आते हैं। परम्परानुसार पूरे मार्ग में ब्रह्म कमलों को कहीं भी जमीन पर नहीं रखा जाता है। नन्दा मंदिर में पहुंचने से पूर्व सम्पूर्ण क्षेत्रवासी ब्रह्मकमल लाने वाले यात्रियों का ढोल नगाड़ों के साथ स्वागत करते हैं। मंदिर से दो तीन किमी पहले से ही ब्रह्मकमल लाने वालों को ढोल नगाड़ों के साथ मंदिर तक लाया जाता है। मंदिर की परिक्रमा के बाद पवित्र ब्रह्मकमल मां नन्दा को चढ़ाने के बाद उसकी पंखुडि़यों को शिरोधार्य किया जाता है। इस मौके पर लाये गये ब्रह्मकमलों की पंखुडि़यों को लोग अपनी सुख और समृद्धि के लिये अपने घरों में बने मंदिरों पर रखते हैं। अतीत से ही चली आ रही इस प्रथा को लेकर पूरे तल्ला जोहार क्षेत्र में गजब का उत्साह व्याप्त है। क्षेत्र की प्रसिद्ध देवी नन्दा देवी की पूजा की सारी तैयारियां पूरी हो चुकी हैं।
 

हेम पन्त

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नवीन बिष्ट/ डा.निर्मल जोशी, अल्मोड़ा। लोक आस्था, विश्वास व परम्परा को समेटे अल्मोड़ा के नंदादेवी मेले का ऐतिहासिक महत्व कमतर नहीं है। इसके ऐतिहासिक महत्व का पता इस बात से चलता है कि सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरवर्ती काल में तत्कालीन राजा बाज बहादुर चंद की जुनियागढ़ विजय के बाद नंदा की मूर्ति मल्ला महल में प्रतिष्ठित की गई थी।

इतिहासकारों का मानना है कि युद्ध में विजय हासिल करने के उपलक्ष्य में राजपरिवार ने देवी नंदा की पूजा आरम्भ की। दूसरी ओर मां नंदा सुनंदा के प्रति आस्था, विश्वास का उदाहरण हर वर्ष नंदादेवी मेले में जुटने वाले सूदूर ग्रामीण क्षेत्रों से आने वाले श्रद्धालु ग्रामीणों की भीड़ से पता चलता है। मां नंदा-सुनंदा की पूजा पद्धति तंत्र विधान पर आधारित है। जो आज भी विधिवत जारी है। मौजूदा समय में मां नंदा सुनंदा की पूजा करने चंद राजाओं के वंशज केसी सिंह बाबा प्रतिवर्ष अल्मोड़ा आते है।

उल्लेखनीय है कि चंद राज परिवार मां नंदा की पूजा अपनी कुल परम्परा के अनुसार करते है। राज वंश की अल्मोड़ा शाखा के राजा आनंद सिंह शक्ति व तंत्र के उपासक रहे। उन्होंने अपने जीवन काल में इसी पद्धति से मां नंदा सुनंदा की पूजा की, जो आज भी बरकरार है। पूजा अनुष्ठान का शुभारंभ भाद्र शुक्ल पक्ष की पंचमी से होता है। परम्परा के अनुसार षष्ठी को सायंकाल मूर्ति निर्माण के लिए लाए जाने वाले कदली वृक्षों को पूजा अर्चना के साथ आमंत्रित किया जाता है। आमंत्रण की भी एक विशेष पद्धति अपनायी जाती है। सप्तमी की प्रात: आमंत्रित कदली वृक्षों को काट कर मूर्ति निर्माण के लिए लाया जाता है।

मूर्तियों का निर्माण स्थानीय कलाकारों द्वारा परम्परा तौर से किया जाता है। प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा राज पुरोहित द्वारा की जाती है। अल्मोड़ा में नंदादेवी की मुख्य पूजा सप्तमी व अष्टमी को होती है। दशमी के दिन मां नंदा सुनंदा की शोभा यात्रा निकाली जाती है।

पंकज सिंह महर

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मुनस्यारी(पिथौरागढ़): क्षेत्र का प्रसिद्ध नन्दा देवी मेला रविवार को धूमधाम से सम्पन्न हुआ। मेले में नन्दा देवी का डोला निकाला गया। दूरदराज के गांवों से पहुंचे लोगों ने विधि विधान से पूजा अर्चना कर मां नन्दा का आशीर्वाद लिया। मौसम साफ रहने से इस वर्ष मेले में भारी भीड़ जुटी।

सीमांत तहसील मुनस्यारी में नन्दा देवी को विशेष रूप से पूजा जाता है। हर वर्ष भादौ माह में तहसील क्षेत्र के डाडाधार गांव में नन्दा देवी का मेला लगता है। जिसमें तहसील क्षेत्र के साथ ही जनपद के अन्य क्षेत्रों से भी लोग शिरकत करते है। मेले के लिए उच्च हिमालयी क्षेत्रों में स्थित बुग्यालों से भक्तगण ब्रह्म कमल लाते है, जिसे विधि विधान से मां नन्दा के चरणों में अर्पित किया जाता है।
रविवार को डाडाधार गांव में नन्दा देवी मेले का आयोजन हुआ। मेले को लेकर क्षेत्र के लोगों में खासा उत्साह था। सुबह से डाडाधार के अलावा सुरिंग, रिंगू, चिलकोट, बला, गिनी, होकरा सहित दर्जनों गांवों के लोग नन्दा देवी मंदिर परिसर में पहुंचने शुरू हो गये थे। दोपहर होते होते हजारों की विशाल भीड़ मेला स्थल में एकत्र हो गयी। इसी दौरान उच्च हिमालयी क्षेत्रों से पवित्र पुष्प ब्रह्म कमल लेकर मंदिर पहुंचे श्रद्धालुओं को मंदिर में ले जाया गया, जहां पुष्प मां नन्दा देवी के चरणों में चढ़ाये गये। इसके बाद जयकारों के बीच मां नन्दा देवी का डोला उठा। भक्तगण नन्दा देवी के डोले को लेकर मंदिर में पहुंचे। जहां विधि विधान से पूजा अर्चना की गयी। मेला परिसर में दूरदराज से आये व्यवसायियों ने अपनी दुकानें लगायी थी, जिनसे मेलार्थियों ने जमकर खरीददारी की।

डीडीहाट: तहसील मुख्यालय में नन्दोदवी महोत्सव धूमधाम से मनाया गया। नगर में श्रद्धालुओं ने मां नन्दा देवी की झांकी निकाली। जो नगर भर से होते हुए नन्दा देवी मंदिर पहुंची, जहां विधि विधान से पूजा अर्चना की गयी और लोगों ने मां नन्दा का आशीर्वाद लिया। इस अवसर पर मंदिर परिसर में भजन-कीर्तन हुए और झोड़ा चांचरी का आयोजन किया गया। जिसमें बड़ी संख्या में लोगों ने भाग लिया।

पंकज सिंह महर

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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पंकज सिंह महर

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नंदा देवी और रूप कुंड

नंदा ही एक ऐसी देवी हैं, जिसकी पूजा गढ़वाल और कुमाऊँ के लोग एक साथ मिलकर करते हैं। देवी नंदा की कहानी उत्तराखंड में रूप कुंड नामक जगह के साथ जुड़ी हुई है। उसी घटना की याद में, उत्तराखंड में नंदाष्टमी के दिन नंदा को उसके नंदागिरि स्थित श्वसुरगृह के लिए विदा किया जाता है।

उत्तराखंड में जिस प्रकार बेटी को कपड़े, जेवर, खाद्यान्न, कलेवा, दूण और दैजा (दहेज) देकर विदा किया जाता है, उसी तरह देवी नंदा की विदाई की जाती है। आइए पढ़ें रूप कुंड से जुड़ी देवी नंदा की कहानी।
 
भगवती नंदा की गाथा में ससुराल जाते समय पितृगृह छोड़ने का आख्यान बड़ा ही कारुणिक व मार्मिक है। यह कुछ यूं हैः

अपने ससुराल जाते समय देवी (पार्वती) ने मन में सोचा कि मेरे लिए ऋषासौ (ऋषिकेश अथवा हिमालय के ऋषि क्षेत्र वाले भाग) में जन्म लेना श्रेयस्कर होगा।

हिमालय के इस ऋषासौ में हिमवंत नाम के ऋषितुल्य राजा राज्य करते थे। उनके घर देवी ने जन्म लेने की ठानी। हिमवंत ऋषि जब प्रातःकाल स्नान करने गए तो उन्हें पनघट पर एक सुंदर कन्या दिखाई दी। उन्होंने सोचा कि यह कन्या मेरे घर रहती तो कितना अच्छा था?

जब वे घर पहुँचे तो उन्होंने कन्या के विषय में अपनी पत्नी को बताया। उनकी पत्नी का नाम मयना था। वह उस समय अस्सी वर्ष की वृद्धा थी। जब वह नौ धारा वाले पनघट पर गयी तो उसे, वह कन्या नहीं दिखाई दी। मयना ने पानी पिया। उसी पानी के साथ देवी उनके उदर में प्रविष्ट हो गयीं।

 ठीक समय पर जब कन्या का जन्म हुआ तो चारों और खुशियाँ मनायी गयी। जब कन्या ग्यारह दिन की हुई तो उसका नामकरण नंदा के नाम से किया गया। वह उसी दिन से कहने लगी कि मैं अपने स्वामी (शिव) के यहाँ जाना चाहती हूँ। सबको आश्चर्य हुआ।

समय आने पर देवी का विवाह शिव के साथ हो गया। विवाह के बाद जब नंदा अपने श्वसुर के घर जा रही थी, तो कर्णप्रयाग (कर्ण कुंड) में नहाने के बाद वह शैलेश्वर सिद्धपीठ की ओर चलीं। भगवती नंदा को वनाणी गाँव बहुत अच्छा लगा। वहाँ के जमनसिंह जदोड़ा ने देवी का पूजन किया।

तब देवी ने वचन दिया कि हर बारह वर्ष बाद मेरी राजजात (देव यात्रा) जाएगी। देवी नैणी गाँव पहुँची। वहाँ के नैनवालों को भी उसने कहा कि बारह वर्ष में मेरी राजजात जाएगी तो तुम छँतोली लेकर आना।

आगे चलकर नंदा देवी नौटी के पल्वाली नामक खेत पर पहुँची तो उसके हर्ष का ठिकाना न रहा। उसने कहा, “यह तो मेरे ऋषासौ की तरह का ही क्षेत्र है। अतः मैं आज यहीं विश्राम करुँगी। मेरा मायका नौटी हो गया। नौटी के विजयदेव ने देवी का सम्मान अपनी बेटी की तरह किया तथा गाँव वालों ने अपनी बेटी की तरह उन्हें विदा किया।”

देवी, नौटी से शैलेश्वर पहुँची। उन्होंने नौटी से प्राप्त किए हुए कलेवा और खीर आदि का शिवजी को भोग लगाया। शिव ने पूछा कि तुम कहाँ गयी थीं? तो देवी ने कहा, ‘मैं अपने मायके ऋषसौ (नौटी) गयी थी, वहीं से यह भोग लाई हूँ। शैलेश्वर से देवी आगे काँसुवा गयीं। वहां देवी को राजवंशियों ने पहचान लिया और कहा कि हमारी बेटी कहाँ से आई है! उन्होंने भी बड़े सम्मान के साथ देवी को विदा किया।

इसी तरह देवी ने काँसुवा से प्रस्थान किया और बेनीताल, कोटी, क्यूर, कोलसारी, तिलफाड़ा, वाण, गैरोली और पाताल आदि स्थानों पर विश्राम करती हुई आगे बढ़ीं। जहाँ-जहाँ देवी ने विश्राम किया, वहाँ-वहाँ लोगों से छँतोली लाने को कहा।

गैरोली, पाताल से आगे वैतरणी है। सब लोग वहीं तक नंदा को पहुँचाने गए। वहाँ से शिव के गण सारा सामान ले गए और वहीं से भारवाहकों को विदा किया गया। वहाँ पर रूपकुंड है। जब शिवजी विवाह के बाद नंदा देवी के साथ त्रिशूली जा रहे थे, तो ज्यूँरागली के ढाल पर नंदा देवी को प्यास लगी।

देवी ने शिवजी से पानी की याचना की। शिवजी ने चारों और दृष्टि डाली किंतु कहीं पानी नज़र नहीं आया। पास में ही नमीयुक्त भूमि को देखकर शिवजी ने वहाँ पर त्रिशूल मारा। त्रिशूल मारते ही वहाँ पर कुंड का निर्माण हो गया।

भगवती नंदा देवी विवाह के समय शृंगार-युक्त थी। कुंड में झुककर अंजुलियों से पानी पीते समय अपना चेहरा देखकर देवी ने प्रसन्न होकर उस कुंड का नाम रूपकुंड रख दिया।


साभार: उत्तराखंड की लोककथाएं, डायमंड प्रकाशन  Josh18.in.com

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जे माँ नंदा देवी भाग 01

http://www.youtube.com/watch?v=JcP3nOw-nGg

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जे माँ नंदा देवी भाग 02

http://www.youtube.com/watch?v=4nYn4L8u9lA


कर्णप्रयाग (चमोली)। नंदाधाम नौटी में सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ तीन दिवसीय हरियाली मेले का समापन हो गया।समापन समारोह में शिक्षाविद् डा.
डीपी कोठियाल ने कहा कि इस प्रकार के मेले सांस्कृतिक समागम के साथ-साथ पर्यावरण को संरक्षित करने व विभिन्न समुदायों को एकजुट करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं। मेले के अंतिम दिवस सोमवार को मैती संस्था के सचिव लक्ष्मण सिंह रावत को क्षेत्र के समाजसेवी स्व.देवराम नौटियाल के नाम से शुरू किये गये प्रथम देवराम नौटियाल जनसेवा सम्मान 2009 से नवाजा गया।
 रूपकुंड रहस्य नाटिका के कलाकारों को स्व.कुशलानंद नौटियाल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। लोकजागृति संस्था के कलाकारों ने मां भगवती नंदा के जागर एवं अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों से समा बांधा। इस अवसर पर मार्चपास्ट प्रतियोगिता में हिन्द मार्डन पब्लिक स्कूल,
 व्यायाम में प्रावि नेणी,लोकगीत व लोकनृत्य में प्रावि तोली, निबंध प्रतियोगिता में बरखा व ऋतिक को प्रथम स्थान तथा खेल स्पर्धाओं के 50 मीटर व 100 मीटर दौड़ में सूरज रावत व काजल प्रथम जूनियर वर्ग की 100 व 200 मीटर में गणेश को प्रथम स्थान हासिल करने पर पुरस्कृत किया गया। मेले में महिला मंगल दल छांताली द्वारा प्रस्तुत झुमेला व चौफला नृत्य पर दर्शक खूब झूमे।

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जे माँ नंदा देवी भाग 03
http://www.youtube.com/watch?v=2y251uMh17c
गढ़वाल में हर देवी-देवताओं के पीछे एक कहानी छिपी है। ऐसे ही कहानी किस्सों में एक किस्सा नंदा देवी का भी है। गढ़वाल में एक गांव है, जो देवीखेत कस्बे के नज़दीक पड़ता है। इस गांव में नेगी जाति के लोग रहते हैं। कहते हैं, सदियों पहले इनके पूर्वज राजस्थान से आकर इस गांव में बस गए थे।
यहां भी पूरा गढ़वाल 52 गढों में बंटा था। इनके पूर्वज बड़े शूरवीर थे और यह गांव उन्हें उनकी शूरवीरता के लिए इनाम में मिला था।नंदा नाम की बालिका इसी गांव की एक सुंदर, सुशील होनहार लड़की थी। एक मुहावरा है, 'होनहार बिरवान के होत चिकने पात'।
 यह लड़की गांव की अन्य लड़कियों से बिल्कुल अलग थी। बच्चों से प्यार करना, बड़े- बूढ़ों का आदर करना, असमर्थ अपाहिजों की मदद करना, अपने मुस्कराते चेहरे और मधुर व्यवहार से वह पूरे गांव के छोटे-बड़े सबका दिल जीत चुकी थी। सब लोग उसके उज्ज्वल भविष्य की कामना करते थे।
गांववालों को विश्वास था कि एक दिन इस लड़की को लेने के लिए एक बहुत अच्छा लड़का आएगा और डोली में बिठाकर ले जाएगा। उस जमाने में आवागनम के साधन नहीं थे। लोग दूर-दूर तक पैदल ही सफर करते थे। शादी-विवाह भी दूर-दूर के गांवों में होते थे।
इस लड़की के लिए भी एक रिश्ता दूर के गांव से आया था। लड़का ठीक गांव के लोगों के सपनों के राजकुमार जैसा ही था।चौड़ा माथा, गोल खूबसूरत सा चेहरा, मजबूत कंधे, चमकदार आंखें, सुशील और नर्म स्वभाव। कहने का मतलब दोनों की जोड़ी बेमिशाल थी। शादी होते ही डोली सजाई गई। भरे दिल से उसे डोली में बिठाया गया। गाजे बाजों के साथ बारात ने प्रस्थान किया।
 बराती गाजे बाजे सहित सब मिलाकर 120 आदमी थे। बारात चल पड़ी और नदी, जंगल, घाटियां पार करते हुए अब एक ऊंचे पर्वत की कठिन चढ़ाई पार करनी बाकी थी, इसके बाद ढलान आ जाता।खैर, डोली को बड़ी सावधानी से ले जाते हुए पहाड़ की चोटी पर बारात पहुंची। बराती काफी थक चुके थे,
 इसलिए डोली वालों ने डोली नीचे रखी और सारे बाराती विश्राम करने लगे। अभी इन लोगों की थकान भी नहीं उतरी थी, कि अचानक ज़ोर की आंधी चली और फिर बर्फ पड़नी शुरू हो गई। इतने ज़ोर से बर्फ पड़नी शुरू हुई कि बारातियों को संभलने का अवसर ही नहीं मिला और सारे बराती उस बर्फ में दब कर मर गए।
 कोई नहीं बचा।कहते हैं वहां जितने लोग बर्फ में दबे थे, उतने ही पेड़ उग आए हैं। लड़की की आत्मा वापस अपने मां के घर लौट आई।
उसी की याद में पूरे गांव वालों ने नंदा देवी के नाम से गांव में एक मंदिर बनवाया है। पूरे गांव वाले बड़ी श्रद्दा से नंदा देवी की पूजा करते हैं और 20-25 सालों में एक बड़ी पूजा करवाते हैं, जिसमें नंदा नेगी के तमाम नाते-रिश्तेदारों तथा गांव की तमाम लड़कियों को बुलाया जाता है।

 

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