Author Topic: Pilgrimages In Uttarakhand - उत्तराखंड के देवी देवता एव प्रसिद्ध तीर्थस्थल  (Read 64716 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Shri Kalu Sidh Peeth   
 
 
Address:  Kaluwala Village, Doiwala

District-Dehradun, Uttarakhand-248140


Directions:  It is located 5.5 kilometres from Bhaniyawala in village Kalu wala.
Aarti/Prayer Timings:  6:00  am and 7:30  pm
 
 
 This place is believed to be one of the 84 Sidhpeeths of Hindu religion in India. According to the legend, it is here that Shri Kalu Sidh Baba meditated.
 


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Man Iccha Devi Temple

Name:  Man Iccha Devi Temple   
 
 
 
Mobile: +91-9897313275
 
Address:  Rishikesh road, Village Dhandi, Doiwala

District-Dehradun, Uttarakhand-248140

Contact person:  Shri Surender Das, Priest

Directions:  It is located in Dhanoi village on Rishikesh road, 14 kilometres from Doiwala chowk. 

Closed on:  Open on all days.

Deity Worshipped:  Lord Shiva and Goddess Durga

Traditional/Historical Significance:  This temple was developed by Shri Surender Das, with the help of locals and from the contribution of devotees from faraway places.

 




Remarks:  Akhand Satchandi yagya is organised from 5th December to 14th December every year which continues nonstop for 10 days. 

 


 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Surkhanda Devi - Mussoorie..

Surkhanda Devi Temple is the most important temple in the area and highly regarded by the people with spiritual bent of mind. Situated at 10,000 feet, 35 kilometres down the Mussoorie - Tehri road, it is located on a peak.
 
As per the legend, this temple is built on a site where the head of Shiva’s consort fell after it was chopped of to stop Shiva from his deadly dance that brought the whole of the universe on the brink of disaster.
 
 
Today, the Surkhanda Devi Temple has gained significant importance amongst the locals and is frequented by devotees all the year round

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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नंदप्रयाग

नंदप्रयाग के लोग, प्राचीन भोटिया तथा देश के विभिन्न भागों से आये लोगों के वंशज हैं। ऐतिहासिक तौर पर, यह तीर्थयात्रा के मार्ग का एक महत्त्वपूर्ण ठहराव स्थल तथा बाजार था। इसलिये यहां की संस्कृति मिली-जुली तथा सार्वदेशिक है - एक ऐसी संस्कृति जिसने अनुसूया प्रसाद बहुगुणा जैसे आंदोलनकारियों को जन्म दिया। इस शहर की पौराणिकता कण्व ऋषि से जुड़ी है, जिसका वर्णन अभिलेखों में है। छोटी पहाड़ियों तथा चीड़ वनों से घिरा यह शहर आरामदायक वातावरण प्रदान करता है। स्थानीय आकर्षणों में संगम तथा कुछ मंदिर शामिल हैं। आस-पास घूमने योग्य स्थानों में विख्यात कुआरी पास तथा रहस्मय रूप कुंड।


अलकनंदा एवं नंदाकिनी के संगम पर बसा पंच प्रयागों में से एक नंदप्रयाग का मूल नाम कंदासु था जो वास्तव में अब भी राजस्व रिकार्ड में यही है। यह शहर बद्रीनाथ धाम के पुराने तीर्थयात्रा मार्ग पर स्थित है तथा यह पैदल तीर्थ यात्रियों के ठहरने एवं विश्राम करने के लिये एक महत्त्वपूर्ण चट्टी था। यह एक व्यस्त बाजार भी था तथा वाणिज्य के अच्छे अवसर होने के कारण देश के अन्य भागों से आकर लोग यहां बस गये। जाड़े के दौरान भोटियां लोग यहां आकर ऊनी कपड़े एवं वस्तुएं, नमक तथा बोरेक्स बेचा करते तथा गर्मियों के लिये गुड़ जैसे आवश्यक सामान खरीद ले जाते। कुमाऊंनी लोग यहां व्यापार में परिवहन की सुविधा जुटाने (खच्चरों एवं घोड़ों की आपूर्ति) में शामिल हो गये जो बद्रीनाथ तक सामान पहुंचाने तथा तीर्थयात्रियों की आवश्यकता पूर्ति में जुटकर राजस्थान, महाराष्ट्र तथा गुजरात के लोगों ने अच्छा व्यवसाय किया।

वर्ष 1803 में बिरेही बाढ़ ने इन कार्यकलापों पर अस्थायी रोक लगा दी क्योंकि शहर बाढ़ में बह गया। तब शहर के लोगों ने शहर के पुराने स्थान के ऊपर बसना पसंद किया तथा 105 वर्ष पुराना शहर आज के प्रमुख बाजार तथा सड़क के ऊपर ही है। इसी वर्ष गोरखों ने गढ़वाल पर आक्रमण भी किया। गढ़वाल के शेष भागों की तरह ही नंदप्रयाग भी सर्वप्रथम कत्यूरी वंश के शासनाधीन रहा जिसका मुख्यालय जोशीमठ में था। कत्यूरी वंश स्वयं कुमाऊं चला गया जहां घटनावश वे चंद वंश के हाथों पराजित हुए।

कनक पाल द्वारा 9वीं शताब्दी में स्थापित वंश पाल या पंवार वंश कहा गया। कनक पाल चांदपुर गढ़ी के गढ़पती, भानू प्रताप, की पुत्री से विवाह रचाया और खुद यहां का राजा बन गया। उसके 37वें वंशज, अजय पाल ने बाकी गढ़पतियों पर विजय पायी और अपनी राजधानी पहले देवलगढ़ (वर्ष 1506 से पहले) और फिर श्रीनगर (वर्ष 1506-1519) ले गया। यह वंश वर्ष 1803 तक यहां शासन करता रहा। वर्ष 1814 में गोरखों का संपर्क अंग्रेजों से हुआ क्योंकि उनकी सीमाएं एक-दूसरे से मिलती थी। सीमा की कठिनाईयों ने अंग्रेजों को गढ़वाल पर आक्रमण करने को मजबूर कर दिया।

वर्ष 1815 में गोरखों को गढ़वाल से खदेड़ दिया गया तथा इसे ब्रिटिश जिला के रूप में मिला लिया गया और पूर्वी एवं पश्चिमी गढ़वाल के दो भागों में बांटा गया। पूर्वी गढ़वाल को अंग्रेजों ने अपने पास रखकर इसे ब्रिटिश गढ़वाल बनाया। पश्चिमी गढ़वाल को सुदर्शन शाह, पंवार वंशज, को दे दिया गया। वर्ष 1947 में भारत की आजादी तक नंदप्रयाग ब्रिटिश गढ़वाल का ही एक भाग था।

अंग्रेजी शासन के दौरान नंदप्रयाग उन विध्वंशों पर विजय पाना शुरू किया जिसे उन्हें भोगना पड़ा था तथा शहर अपनी उन्नति को पुन: प्राप्त करने लगा था। फिर भी, शहर साम्राज्यवाद की बेड़ियों से अनुभूत होकर भारतीय स्वाधीनता संग्राम में जी जान से जुट गया। उन दिनों भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिकांश कार्यक्रमों की शुरूआत नंदप्रयाग से हुई जो खासकर नंदप्रयाग के सुपुत्र तेजस्वी अनुसूया प्रसाद बहुगुणा के कारण ही था। उन्होंने लाहौर सम्मेलन में गढ़वाल का प्रतिनिधित्व किया तथा वे जवाहर लाल नेहरू तथा उनके दृष्टिकोण के बहुत निकट थे। अनुसूया प्रसाद बहुगुणा एक सामाजिक कार्यकर्त्ता भी थे तथा घृणित कुली-बेगार प्रथा की समाप्ति के सूत्रधार थे। उनके भतीजे राम प्रसाद बहुगुणा जो स्वयं एक बुद्धिजीवी थे, ने स्वाधीनता संग्राम में योगदान किया और जब वे 8वीं कक्षा के छात्र थे तभी उन्हें कारागार भेज दिया गया। उन्होंने समाज नाम से एक हस्तलिखित पत्रिका आरंभ की जो लोगों द्वारा पढ़कर एक से दूसरे को पहुंचाया जाता था। वर्ष 1953 में उन्होंने दूसरा समाचार पत्र देवभूमि निकाला। बिनोवा भावे एवं जयप्रकाश नारायण अन्य स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने नंदप्रयाग के लोगों को प्रेरित किया। वास्तव में, ऐसा कहा जाता था कि अंग्रेज अधिकारियों पर बहुगुणा समुदाय का इतना खौफ था कि शहर के बाहर ही घोड़े से उतर कर पैदल जाते न कि घोड़े पर।

वर्ष 1960 में जब नया चमोली जिला बना नंदप्रयाग उत्तर-प्रदेश का एक भाग बन गया और फिर उत्तराखंड बनने पर उसका भाग हो गया।


नंदप्रयाग में एक धर्म-निरपेक्ष एवं भेद-भाव रहित संस्कृति है। विभिन्न क्षेत्रों एवं धर्मों के लोग यहां एक साथ शांतिपूर्वक रहते आये हैं और आज भी रहते हैं। हिंदु और मुसलमानों, और भोटिया लोगों के बीच ऐसा बंधन है जो उन्हें एक-दूसरे के त्योहारों में शामिल कराता है तथा एक मिश्रित संस्कृति को जन्म देता है जो नंदप्रयाग के लिये अद्भुत है। भारत के शेष भागों में मान्यता प्राप्त करने से बहुत पहले से ही संप्रदायों में यहां अंतर्जातीय तथा अंतरक्षेत्रीय विवाह होते रहे हैं। वास्तव में एक गौड़ ब्राह्मण तथा एक मुसलमान महिला से उत्पन्न नंदप्रयाग के मुसलमान नागरिक ने भी संहारण आरती को लिखा जिसका अभी भी बद्रीनाथ मंदिर में पाठ होता है।

गीत एवं नृत्य
सामुदायिक जीवन में गीत एवं नृत्य का महत्त्वपूर्ण अंश रहता है जो कृषि, प्रकृति एवं धर्म के चक्रों से गहरे जुड़े हैं। शहरों से हटकर अब जाग्गर का आयोजन गांवों में होने लगा है। ऐसे अवसरों पर गीत एवं नृत्य द्वारा देवी-देवताओं का आवाहन किया जाता है जिसका समापन तब होता है जब भीड़ के किसी सदस्य के ऊपर देवी-देवता आ जाते हैं। महाभारत की कुछ घटनाओं पर आधारित पांडव नृत्य भी एक आयोजित कला है।

गीत जीतू बगडवाल या स्थानीय नायक-नायिकाओं की कथा पर आधारित या नंदा देवी की प्रशंसा में गाये गीत होते हैं। गीत एवं नृत्य के साथ ढ़ोल एवं दामौं भी बजते हैं जो दास नामक एक खास जाति द्वारा बजाया जाता है।

नंदप्रयाग में होली का त्योहार बड़ी उत्सुकता से मनाया जाता है। पुराने दिनों यह 10 से 15 दिनों तक मनाया जाता था, पर अब केवल चार से पांच दिनों तक होता है। ब्रजभाषा में रचित धार्मिक तथा मोहक गीत होली गीत का भाग होते हैं। उस समय सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित होते है और नंदप्रयाग का प्रत्येक नागरिक इसका आनंद उठाता है।

बोली की भाषाएं
गढ़वाली, हिंदी, कुमाऊंनी, भोटिया बोली तथा थोड़ी बहुत अंग्रेजी।

वास्तुकला
परंपरागत रूप से छतों का निर्माण पत्थरों एवं गिलावों से तथा छत का निर्माण स्लेट के टुकड़ों से हुआ। स्थानीय चीड़ या देवदार की प्रचुर उपलब्धता के कारण इन लकड़ियों का इस्तेमाल धरणों, दरवाजों एवं खिड़कियों के आकारों में तथा साथ ही बाल्कनी में हुआ जो दो-मंजिले भवन में होते। नीचे की मंजिल का इस्तेमाल परंपरागत रूप से मवेशियों के रहने या उनके चारा को रखने के लिये होता था। संपन्न घरों के परिवारों की खोली में कुछ गहन नक्काशी होती थी जो प्रवेश द्वार था और इसके ऊपर काठ की एक गणेश की प्रतिमा होती थी (खोली का गणेश) तथा ऐसा ही बाल्कनी को उठाये ब्रेकेटों पर भी होता था। प्रमुख सड़क के ऊपर प्राचीन नंदप्रयाग में इसके कुछ वास्तविक एवं आश्चर्यजनक उदाहरण पाये जाते हैं। आज भी बहुगुणा जैसे संपन्न परिवार के घरों, दरवाजों, खिड़कियों एवं बाल्कनियों तथा घरों की सीढ़ियों पर सुंदर नक्काशी दिखाई देती है।

इसके विपरित, आज के आधुनिक घर आत्मा-विहीन दिखते हैं क्योंकि सीमेंट एवं कंक्रीट के निर्माण में स्थान की उपयोगिता पर अधिक बल है जबकि भवन के सौंदर्य भाव पर कम ध्यान है।



http://210.212.78.56/50cities/nandprayag/hindi/profile_history.asp

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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ऐसा कहा जाता है कि स्कंदपुराण में नंगप्रयाग को कण्व आश्रम कहा गया है जहां दुष्यंत एवं शकुंतला की कहानी गढ़ी गयी। स्पष्ट रूप से इसका नाम इसलिये बदल गया क्योंकि यहां नंद बाबा ने वर्षों तक तप किया था।

नंदप्रयाग से संबद्ध एक दूसरा रहस्य चंडिका मंदिर से जुड़ा है। कहा जाता है कि देवी की प्रतिमा अलकनंदा नदी में तैर रही थी तथा वर्तमान पुजारी के एक पूर्वज को यह स्वप्न में दिखा। इस बीच कुछ चरवाहों ने मूर्ति को नदी के किनारे एक गुफा में छिपा दिया। वे शाम तक जब घर वापस नहीं आये तो लोगों ने उनकी खोज की तथा उन्हें मूर्ति के बगल में मूर्छितावस्था में पाया। एक दूसरे स्वप्न में पुजारी को श्रीयंत्र को प्रतिमा के साथ रखने का आदेश मिला। रथिन मित्रा के टेम्पल्स ऑफ गढ़वाल एंड अदर लैंडमार्क्स, गढ़वाल मंडल विकास निगम 2004 के अनुसार, कहावतानुसार भगवान कृष्ण के पिता राजा नंद अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में यहां अपना महायज्ञ पूरा करने आये तथा उन्हीं के नाम पर नंदप्रयाग का नाम पड़ा।

शकुंतला

शकुंतला विश्वामित्र एवं मेनका की संतान थी। कण्व ऋषि ने जंगल मे उसे पक्षियों द्वारा घिरा तथा रक्षित पाया। इसे संस्कृत में शकुंतम कहा जाता है और इसीलिए उसका नाम शकुंतला पड़ा। उन्होंने ही इसका पालन-पोषण किया।

एक बार अपनी सेना के साथ शिकार पर निकले हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत कण्वाक्षम में आये जहां उन्होंने शकुंतला को देखा। उन्हें प्यार हो गया और दुष्यंत ने कण्वाक्षम में ही शकुंतला से विवाह कर लिया। कुछ दिनों तक रहने के बाद राजधानी में गड़बड़ी के कारण दुष्यंत लौट गये एवं शकुंतला को एक राजसाही अंगूठी दी अपने प्यार के चिह्न स्वरूप तथा वादा किया कि वे उसके पास शीघ्र आयेगें।

गर्भवती शकुंतला प्रायः अपने पति की याद में खोई सी रहती और जब आश्रम में दुर्वासा मुनि आये तो बह उनका स्वागत करने में असफल रही जैसा कि सम्मानीय बड़ो का किया जाता है। क्रोधित होकर ऋषि ने उसे शाप दे दिया कि जो उसे प्यार करता है वह उसे नही पहचानेगा। समय बीतता रहा पर दुष्यंत नहीं आये तो चकित शकुंतला अपने पिता तथा सहेलियों के साथ राजधानी की ओर चल पड़ी। रास्ते में उन्हें नाव पर एक नदी पार करना था जहां शकुंतला ने नदी के गहरे नीले जल से मोहित होकर अपनी ऊंगली को जल में डाल दिया। इस क्रम में उसकी अंगूठी फिसल कर गिर गयी और इसका उसे मान भी नही हुआ।

दुष्यंत के राजदरबार पहुंचने पर जब इसके पति ने उसे नहीं पहचाना तो उसे चोट लगी और वह चकित भी हुई क्योंकि दुष्यंत सब कुछ भूल चुके थे। अपमानितसी शकुंतला जंगल वापस आ गयी तथा अपने बेटे के साथ बह स्वंय वन के जंगली भाग में चली गयी। यहीं उसने अपना समय बिताया जहां भरत बड़ा हो रहा था।

इस बीच पकड़ी गयी एक मछली के पेट से एक राजशी अंगूठी पाकर मछुआरे को बड़ा आश्चर्य हुआ। राजशी चिह्न को पहचानकर वह अंगूठी राजमहल ले गया और अपनी अंगूठी देखकर दुष्यंत को अपनी सुंदर पत्नी की याद वापस हो आयी। तत्काल वे उसे पाने चल पड़े, उसके पिता के आश्रम जाने पर पता लगा कि वह वहां नहीं थी। वे अपनी पत्नी की खोज में जंगल के अंदर घुसे तथा वहां एक अद्भूत दृश्य देखा कि एक बच्चा सिंह के मुंह को खोलकर उसके दांतों को गिन रहा था। उसकी दृढ़ता एवं शक्ति से स्वमित होकर राजा ने लड़के को शावासी दी तथा उससे उसका नाम पूछा। वे आश्चर्यचकित हुए जब उसने अपना नाम भरत बताया, जो राजा दुष्यंत का पुत्र था। लड़का उन्हें शकुंतला तक ले गया और इस प्रकार परिवार का पुन मिलन हुआ।

 

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चंडिका देवी

चंडिका देवी जिन्हें यह मंदिर समर्पित है, वह पास के नंदप्रयाग सहित सात गांवों की ग्राम देवी हैं। गर्भगृह में स्थापित चांदी की प्रतिमा प्रभावशाली है और स्वाभाविक तौर पर महान भक्ति का श्रोत है। परिसर के अन्य मंदिर भगवान शिव, भैरव, हनुमान, गणेश तथा भूमियाल को समर्पित हैं।

यहां के पुजारी सती समुदाय के होते हैं, जिन्हें यहां पूजा करने का परंपरागत अधिकार प्राप्त है एवं पीढ़ियों से वे यह करते आये हैं। कहा जाता है कि नवरात्र समारोह के दौरान वर्तमान पुजारी के एक पूर्वज को स्वप्न आया कि अलकनंदा देवी की एक मूर्ति नदी में तैर रही है। इस बीच वहां मवेशियों को चराने गये कुछ चरवाहों ने उसे देखा और उसे निकालकर एक गुफा में छिपा दिया। वे शाम तक घर नहीं लौटे तो गांव वासियों ने उनकी खोज की और उन्हें गुफा में छिपायी मूर्ति की बगल में अचेतावस्था में पाया। पुजारी मूर्ति को घर ले गया और फिर उसके बाद एक दूसरा स्वप्न श्रीयंत्र की खोज करने का आया जो एक खेत में छिपा था। उसने ऐसा ही किया। उसे और आगे यह आदेश मिला कि किस प्रकार मूर्ति के लिये उपयुक्त ढ़ांचे का निर्माण शहतूत की पेड़ की लकड़ी से किया जाय। यह स्थल लगभग 300 वर्ष पुराना है एवं मंदिर की देखभाल एक स्थानीय मंदिर समिति द्वारा होती है। यहां बड़े हर्षोल्लास से नवरात्र मनाया जाता है। परंपरागत रूप से देवी को पसुआ की बांहों में उठा सकता है, पर अब एक डोली में ले जाया जाता है।




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गोपालजी मंदिर
भगवान कृष्ण की अष्टधातु की सुंदर प्रतिमा की स्थापना वर्ष 1892 में की गयी तथा मंदिर का निर्माण वर्ष 1918 में किया गया। मंदिर के अंतिम महंत की मृत्यु के बाद इसे बद्रीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति द्वारा अधिगृहीत कर लिया गया है जो मंदिर के पुनरूद्धार की प्रक्रिया के अंतर्गत है। कहा जाता है कि राजा नंद ने अपने जीवन के अंतिम काल में यहां आकर भगवान विष्णु की पूजा की थी।
 

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रूप कुंड

नंदप्रयाग से एक ट्रेकिंग मार्ग घाट (20 किलोमीटर दूर) से जाता है।

रूप कुंड चमोली जिले में 5,029 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। इस रहस्यमय झील में वर्ष 1942 में 500-600 साल पुराने आदमी और घोड़ों के पिंजर मिले थे।

वर्ष 2004 में इन पिंजरों पर डीएनए टेस्ट हुए जिनसे पता चला कि मरे हुए लोगों के दो समूह थे– एक छोटे कद के लोगों का जो सम्भवत: कुली होगें और दूसरे लंबे लोगों का। यह भी पता चला है कि यह पिंजर 9वीं शताब्दी के हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार इन लोगों के सिर के ऊपर क्रिकेट गेंद जितने बड़े ओले गिरे जिस वजह से उनकी मृत्यु हुई। ऐसा लगता है कि यह शव भूसंकलन के कारण झील में आ गिरे। परंतु यह पता लगाना कठिन है कि यह लोग रूप कुंड क्यों पहुंते थे क्योंकि यह झील न तो किसी व्यापार मार्ग पर स्थित है और न ही किसी तीर्थ मार्ग पर।


 
 

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मुक्तेश्वर्

मुक्तेश्वर् उत्तराखंड के नैनीताल जिले में स्थित है। यह् कुमाऊँ की पहाडियों में २२८६ मीटर (७५०० फीट) की ऊँचाई पर स्तिथ है। यहाँ से नंदा देवी ,त्रिशूल आदि हिमालय पर्वतों की चोटियाँ दिखती हैं। यहाँ शिवजी का मन्दिर है जो की २३१५ मीटर की ऊँचाई पर स्तिथ है। इसमें जाने के लिये सीढियाँ हैं। मन्दिर के पास चट्टानों में चौली की जाली है।

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स्थानीय देवता
 
सत्यनाथ :

यह संभव है कि सत्यनारायण से इनका संबंध हो।  यह सिद्ध सत्यनाथ या सिद्ध भी कहलाते हैं।  इनकी पूजा गढ़वाल में ज्यादा होती है।  कुमाऊँ में मानिला में ही एक मंदिर इस देवता का है।

भोलानाथ :

'भ्वालनाथ' कहे जाते हैं।  इनकी स्री बमी कहलाती है।  इनको कुछ लोग महादेव का अंग तथा बमी को शक्ति का अंश मानते हैं।  परन्तु इनके उत्पत्ति की कहानी इस प्रकार है - राजा उदयचंद की दो रानियाँ थी, जिनमें से प्रत्येक के एक पुत्र था।  जब दोनों बड़े हुए तो बड़ा राजकुमार बुरी संगति में पड़ने से राज्य से निकाला गया।  छोटा राजकुमार ज्ञानचंद के नाम से गद्दी पर बैठा।  थोड़े दिनों में बड़ा राजकुमार साधु के भेष में अल्मोड़ा आकर नैल पोखर में ठहरा।  वह पहचाना गया।  राजा ज्ञानचंद ने यह समझकर की कहीं गद्दी छिनने को न आया हो, एक बड़िया माली द्वारा उसको तथा उसकी गर्भवती स्री को मार डाला।  राजकुमार की स्री ब्राह्मणी थी।  उससे उन्होंने नियोग कर लिया था।  मृत्यु के बाद वह राजकुमार भोलानाथ केे नाम से भूत हो गया।  ये तीनों भूत अल्मोड़ा को लोगों को सताने लगे, ज्यादातर बड़िया लोगों को।  तब अल्मोड़ा में आठ भैरव मंदिरों का निर्माण हुआ -

१. काल भैरव

२. बटुक भैरव

३. भाल भैरव

४. शै भैरव

५. गढ़ी भैरव

६. आनंद भैरव

७. गौर भैरव

८. खुटकूनियाँ

दूसरी कहानी यह है कि कोई फकीर किसी प्रकार दरवाजा बंद होने पर भी रनवास में चला गया, जहाँ राजा व रानी बैठे थे।  राजा ने क्रोध में आकर उस फकीर को मार डाला।  राजा को भूत चिपट गया।  वह सो न सका, चारपाई से नीचे गिराया गया।  चारपाई ऊपर हो गई।  तब राजा ने पंडितों की राय से ये मंदिर बनवाये।

गंगानाथ :

यह शुद्रों का प्रिय देवता है।  डोटी के राजा वैभवचंद का पुत्र पिता से लड़कर साधु हो गया।  घूमता-घामता वह पट्टी सालम के अदोली गाँव में एक ब्राह्मण जोशी की स्री के प्रेम-पाश में फँस गया।  जोशी अल्मोड़ा में नौकर था।  जब उसे मालूम हुआ, तो उसने झपरुवा लोहार की सहायता से अपनी गर्भवती स्री तथा उसके राजकुमार साधु प्रेमी को मरवा डाला।  भोलानाथ की तरह ये तीन प्राणी भी भूत हो गये।  अत: उन्होंने इनका मंदिर बनवाया।

कहते हैं, गंगानाथ बच्चों व खूबसूरत औरतों को चिपटता है।  जब कोई भूत-प्रेत से सताया जावे या अन्यायी के फंदे में फँस जावे, तो वह गंगानाथ की शरण में जाता है।  गंगानाथ अवश्य रक्षा करते हैं।  अन्यायी को दंड देते हैं।  गंगानाथ को पाठा (छोटा बकरा), पूरी, मिठाई, माला, वस्र या थैली, जोगियों की बालियाँ आदि चीजें चढ़ाई जाती हैं।  उसकी स्री भाना को अंग (आंगड़ी), चदर और नथ और बच्चे को कोट तथा कड़े व हसुँली।

मसान खबीस :

ये शमशान के भूत हैं, जो प्राय: दो नदियों के संगम में होते हैं।  काकड़ीघाट तथा कंडारखुआ पट्टी में कोशी के निकट इनके मंदिर भी हैं।  जिस किसी को भूत लगने का कारण ज्ञात न हो, तो वह मसान या खबीस का सताया हुआ कहा जाता है।  मसान काला व कुरुप समझा जाता है।  वह चिता-भ से उत्पन्न होता है।  लोगों के पीछे दौड़ता है।  कोई उसके त्रास से मर जाते हैं, कोई बीमार हो जाते हैं, कोई पागल।  जब किसी को मसान लगा तो 'जागर' लगाते हैं।  कई लोग नाचते हैं।  भूत-पीड़ित मनुष्य पर उर्द व चाँवल जोर से फेंकते हैं।  बिच्छु घास भी लगाते हैं।  गरम राख से अंगारे फेंकते हैं।  भूत-पीड़ित मनुष्य कभी-कभी इन उग्र उपायों से मर जाता है।  खबिस भी मिसान ही सा तेज मिजाज वाला होता है।  वह अँधेरी गुफाओं, जंगलों में पाया जाता है।  कभी वह भैंस की बोली बोलता है कभी भेड़-बकरियों या जंगली सुअर की तरह चिल्लाता है।  कभी वह साधु भेष धारण कर यात्रियों के साथ चल देता है।  पर उसकी गुनगुनाहट अलग मालूम होती है।  यह ज्यादातर रात को चिपटता है।

ग्वाल :

इसको गोरिल, गौरिया, ग्वेल, ग्वाल्ल या गोल भी कहते हैं।  यह कुमाऊँ का सबसे प्रसिद्ध व मान्य ग्राम-देवता है।  वैसे इसके मंदिर ठौर-ठौर में है, पर ज्यादा प्रसिद्ध ये हैं।  बौरारौ पट्टी में चौड़, गुरुड़, भनारी गाँव में, उच्चाकोट के बसोट गाँव में, मल्ली डोटी में तड़खेत में, पट्टी नया के मानिल में, काली-कुमाऊँ के गोल चौड़ में, पट्टी महर के कुमौड़ गाँव में, कत्यूर में गागर गोल में, थान गाँव में, हैड़ियागाँव, छखाता में, चौथान रानीबाग में, चित्तई अल्मोड़ा के पास।

ग्वाल देवता गी उत्पत्ति इस प्रकार से बतायी जाती है - चम्पावद कत्यूरी राजा झालराव काला नदी के किनारे शिकार खेलने को गये।  शिकार में कुछ न पाया।  राजा थककर और हताश होकर दूबाचौड़ गाँव में आये।  जहाँ दो भैंस एक खेत में लड़ रहे थे।  राजा ने उनको छुड़ाना चाहा पर असफल रहे।  राजा प्यासा था।  एक नौकर को पानी के लिए भेजा, पर पानी न मिला, दूसरा नौकर पानी की तलाश में गया।  उसने पानी की आवाज सुनी, तो अपने को एक साधु के आश्रम के बगीचे में पाया।  वहाँ आश्रम में जाकर देखा कि एक सुन्दर स्री तपस्या में मग्न है।  नौकर ने जोर से पुकारा, और स्री की समाधि भंग कर दी।  औरत ने पूछा कि वह कौन है?  स्री ने धीरे-धीरे आँखे खोली और नौकर से कहा कि वह अपनी परछाई  उसके ऊपर न डाले, जिससे उसकी तपस्या भंग हो जाय।  नौकर ने स्री को अपना परिचय दिया, और अपने आने का कारण बताया।  तथा झरने से पानी भरने लगा। तो घड़े का छींट स्री के ऊपर पड़ा तब उस तपस्विनी ने उठकर कहा कि जो राजा लड़ते भैसों को छुड़ा न सका, उसके नौकर जो न करे, सो कम।  नौकर को इस कथन पर आश्चर्य हुआ।  उसने स्री से पूछा कि वह कौन है?  तपस्विनी ने कहा - "उसका नाम काली है, और व राजा की लड़की है।  वह तपस्या कर रही है।  नौकर ने आकर उसकी तपस्या भंग कर दी।' राजा उस पर मोहित हो गये, और उससे विवाह करना चाहा।  राजा उसके चाचा के पास गये। देखा - वह एक कोढ़ी था।  पर राजा काली पर मोहित थे।  उन्होंने उस कोढ़ी को अपने सेवा-सुश्रुषा से संतुष्ट कर लिया, और वह विवाह को राजी हो गया।  अपने चाचा की आज्ञास से उस स्री ने राजा से विवाह कर लिया।  काली रानी गर्भवती हुई। राजा ने रानी से कहा था कि जब प्रसव पीड़ा हो तो वह घंटी बजावे।  राजा आ जाएगा।  रानियों ने छल से घंटी बजाई।  राजा आये, पर पुत्र पैदा न हुआ।  राजा फिर दौरे में चले गए।  रानी के एक सुन्दर पुत्र पैदा हुआ।  अन्य रानियों ने ईर्ष्या के कारण पुत्र को छिपा लिया।  काली रानी की आँखों में पट्टी बाँधकर उसके आगे एक कद्दुू रख दिया।  रानियों ने लड़के को नमक से भरे एक पिंजरे में बन्द कर दिया। पर आश्चर्य है कि नमक चीनी हो गया।  और बच्चे ने उसे खाया।  इधर रानियों ने बच्चे को जिन्दा देखकर पिंजरे को नदी में फेंक दिया।  वहाँ वह मछुवे के जाल में फंसा।  मछुवे के सन्तान न थी।  ईश्वर की देन समझकर वह सुन्दर राजकुमार को अपने घर ले गया।  लड़का बड़ा हुआ और एक काठ के घोड़े पर चढ़कर उस घाट में पानी पिलाने को ले गया, जहाँ वे दुष्ट रानियाँ पानी भरने को जाती थीं।  उनके बर्तन तोड़कर कहने लगा कि वह अपने काठ के घोड़े को पानी पिलाना चाहता है।  वे हँसी, और कहने लगी की क्या काठ का घोड़ा भी पानी पीता है?  उसने कहा कि जब स्री को कद्दुू पैदा हो सकता है तो काठ का घोड़ा भी पानी पीता है।  यह कहानी राजा के कानों में पहुँची।  राजा ने लड़के को बुलाया।  लड़के ने रानियों के अत्याचार की कहानी सुनाई।  राजा ने सुनकर रानियों को तेल की कढ़ाई में पकाये जाने का हुक्म दिया।  बाद में वह राजकुमार राजा बना।  वह अपने जीवन-काल में ही पिछली बातों को जानने के कारण पूजा जाता था।  मृत्यु के बाद तमाम कुमाऊँ में माना जाने लगा।  वह लोहे का पिंजरा गौरी-गंगा में फेंका गया था।

क्षेत्रपाल या भूमियाँ :

यह खेतों का तथा ग्राम सरहदों का छोटा देवता है।  यह दयालु देवता है।  यह किसी को सताता नहीं।  हर गाँव में एक मंदिर होता है।  जब अनाज बोया जाता है या नवान्न उत्पन्न होता है, तो उससे इसकी पूजा होती है, ताकि यह बोते समय ओले (डाल बायल) या जंगली जन्तुओं से उनका बचाव करे, और भंडार में जब अन्न रखा जाये, तो कीड़े और चूहों से उसकी रक्षा करें।  यह न्यायी देवता है।  यह अच्छे को पुरस्कार तथा धूर्त को दंड देता है।  गाँव की भलाई चाहता है।  विवाह, जन्म या उत्सव में इसकी पूजा होती है।  रोट व भेंट चढाई जाती है।  यह सीधा इतना है कि फल-फूल से भी संतुष्ट हो जाता है। जागीश्वर में क्षेत्रपाल का मंदिर है।  वहाँ वह झाँकर-क्षेत्र का रक्षक माना जाता है और झाँकर सैम कहलाता है।  (सैम शब्द स्वयंभू शब्द का अपभ्रंश है, जो नेपाल में बुद्ध का नाम है - अठकिन्सन) कभी यहाँ बकरे भी मारे जाते हैं।  बौरारौ में भी एक मंदिर है।  सैम व क्षेत्रपाल के कर्तव्यों में कुछ भेद है।  पर यह भी भूत-कक्षा मंे।  कभी-कभी वह लोगों को चिपट जाता है जिसका निशान यह है कि सिर के बालों की जटा बन जाती है।  काली कुमाऊँ में सैमचंद भूत हरु का अनुगामी माना जाता है।

ऐड़ी या ऐरी :

कुमाऊँ के जमींदारों में एक जाति ऐड़ी या ऐरी है।  इस जाति का एक मनिष्य बड़ा पहलवान व बली हुआ।  उसको शिकार खेलने का बहुत शौक था।  वह जब मरा, तो भूत हो गया।  बालकों व स्रियों को चिपटने लगा।  जब उनके बदन में नाचने लगा, तो कहने लगा कि 'वह ऐड़ी या ऐरी है।  उसको हलुवा, पूरी, बकरा वगैरह चढ़ाकर उसकी पूजा करो, तो वह बालको व औरतों को छोड़ देगा"  अब तमाम लोगों में वह इस प्रकार पूजा जाने लगा।  जगह-जगह में उसके मंदिर भी बन गये।  काली कुमाऊँ में इसके मंदिर बहुत हैं। लोग कहते हैं कि ऐड़ी डांडी में चढ़कर बड़े-बड़े मंदिरों में शिकार खेलता है।  ऐड़ी की डांडी ले जाने वाले 'साऊ भाऊ' कहलाते हैं।  जो उसके कुत्ते का भौंकना सुनेगा, वह अवश्य कुछ कष्ट पायेगा।  ये कुत्ते ऐड़ी के साथ में रहते हैं।  उनके गलों में घंटी लगी रहती है।  जानवरों को घेरने के लिए और भूत भी साथ चलते हैं, जिनको परी कहते हैं।  ये 'आँचरी कींचरी' भी कहलाती हैं।  हथियार ऐड़ी का तीर व कमान है।  कभी-कभी जंगल में बिना जख्म का कोई जानवर मरा हुआ पाया जाता है, तो उसे ऐड़ी का मारा हुआ बताते हैं।  यह भी कहते हैं कि कभी-कभी ऐड़ी का चलाया हुआ तीर आले (मकान से धुवाँ निकलने के छेद) में से मकान के भीतर घुस जाता है।  जब किसी मनुष्य को वह लगता है, तो कहते हैं कि लुंज-पुंज हो जाता है।  उसकी कमर टूट जाती है।  बदन सूख जाता है।  हाथ-पैर कांपने लगते हैं।  यह बाबत पहाड़ी किस्सा है। 'डालामुणि से जाणो, जाला मुणि नी सेणो"।  पेड़ के नीचे सो जाना, पर आले के नीचे न सोना चाहिए।

ऐड़ी की सवारी कभी-कभी लोग देखते भी है।  झिजाड़ गाँव का एक किसान किसी काम को गाँव से बाहर गया था।  चाँदनी रात थी।  एकाएक कुत्तों के गले में बँदी घंटी व जानवरों को घेरने की आवाज आई।  किसान ने पहचाना की वह ऐड़ी है।  उसने उसकी डांडी पकड़ ली।  छोड़ने को बहुत कहा, पर उस वीर किसान ने न छोड़ा।  तब वरदान मांगने को कहा।  उसने कहा कि यह वरदान माँगता हूँ कि देवता की सवारी उनके गाँव में नहीं आये।  ऐड़ी ने स्वीकार किया।  कहते हैं कि यदि किसी पर ऐड़ी की न पड़ गई, तो वह मर जाता है, पर ऐसा कम होता है, जो अस्र-शस्रों से सुसज्जित रहते हैं।  ऐड़ी का थूक जिस पर पड़ गया, तो विष बन जाता है।  इसकी दवा 'झाड़-फूँक' है।  ऐड़ी को सामने-सामने देखने से मनुष्य तुरंत मर जाता है, या उसकी आँखों की ज्योति भ हो जाती है, या उसे कुत्ते फाड़ डालते हैं, या परियाँ (आँचरी, कींचरी) उसके कलेजे को साफ कर देती है।  अगर ऐड़ी को देखकर कोई बच जावे, तो वह धनी हो जाता है।  ऐड़ी का मंदिर जंगल में होता है। वहाँ एक त्रिशूल गाड़ा रहता है, जिसके इधर-उधर दो पत्थर रहते हैं, जिन्हें माऊ कहते हैं, और आँचरी, कींचरी भी कहते हैं।  दो दफे नहाते व एक दफे भोजन करते हैं।  किसी को छूने नहीं देते।  इसको दूध, मिठाई, पूरी, नारियल वा बकरा चढ़ाया जाता है।  लाल वस्र खून में रंगाकर वहाँ पर झंडे को तौर पर गाड़ा जाता है।  पत्थरों की पूजा होती है, तब सभी लोग पूरी-प्रसाद खाते हैं।  कहीं-कहीं कुँवार (आश्विन) की नवरात्रियों में भी पूजन होता है।

कलविष्ट :

लगभग २०० वर्ष की बात है कि कोटयूड़ी का पुत्र कलू कोटयूड़ी नाम का एक राजपूत पाटिया ग्राम के पास कोटयूड़ा कोट में रहता था।  उसकी माता का नाम दुर्पाता (द्रोपदा) था।  उसके नाना का नाम रामाहरड़ था।  वह बड़ा वीर व रंगीला नौजवान था।  वह किसान था, पर राजपूत होने पर भी ग्वाले का काम करता था।  वह बिनसर के जंगल में गायें चराता था नदी में नहाने (खाल बैठने) को ब्रह्मघाट (कोशी) में जाता था।

उसके पास ये सामान बताया जाता है -'मुरली, बाँसुरी, मोचंग, परवाई, रमटा, घुंघरवालो, दातुले, रतना, कामली, झपुवा, कुत्तो लखमा, बिराली, खनुवा, लाखो रुमोली, घुमेली, गाई, झगुवा, रांगो (भैंसा), नागुली, भागुली भैंसी, सुनहरी दातुलो, बाखुड़ी भैंस।'

कलविष्ट मुरली खूब बजाता था।  बिनसर में सिद्ध गोपाली के यहाँ दूध पहुँचाता था, और साथ ही श्री कृष्ण पांडेजी की नौलखिया पांडेजी से लड़ाई थी।  वे देश से 'भराड़ी' नामक एक प्रकार के भूत को इस गरज लाये कि वह श्री कृष्ण पांडेजी के खानदान को नष्ट कर दे।  पर कलवृष्ट एक वीर पुरुष था।  वह भूतों को भगाता था।  'भराड़ी' को भी उसने एक नदी (त्यूनरीगाड़) में एक पत्थर के नीचे दबा दिया, और हर तरह से श्री कृष्ण की मदद करता था।  बाद में प्रार्थना करने पर 'भराड़ी' को छोड़ दिया।  नौलखिया पांडे इस प्रकार अपने कार्य में सफलीभूत न होने पर रुष्ट हुआ, और उसने एक चाल चली, जिससे श्री कृष्ण पांडे और कलविष्ट के बीच लड़ाई हो जाए।  उसने यह झूठी खबर उड़ाई कि कलविष्ट श्री कृष्ण पांडेसे गुप्त रुप से मिला है।  श्री कृष्ण दिल में जानता था कि उसकी स्री निर्दोष है, तथापि लोकापवाद को दूर करने के गरज से उसने कलविष्ट को मारने की ठहराई।  श्री कृष्ण राजा का पुरोहित था।  उसने राजा से कलविष्ट की शिकायत की, और उसे मारने को कहा।  राजा ने सभी जगह पत्र भेजे तथा पाँच पान के बीड़े भेजे कि देखें कौन कलविष्ट को मारने का बीड़ा उठाता है।

जयसिंह टम्टा ने बीड़ा उठाया।  राजा ने कलविष्ट को सादर दरबार में बुलाया।  उस दिन श्राद्ध था, उससे दही - दूध लेकर आने को कहा।  कलविष्ट बड़े-बड़े बर्तनों (ठेकों व डोकों) में इतना दही-दूध लेकर गया कि राजा चकित हो गया।  राजा ने कलविष्ट को देखा उसके माथे में त्रिशूल और पैर में पद्म का फूल था।  वह बड़ा वीर और सच्चरित्र पुरुष ज्ञात हुआ। राजा ने कहा, वह उसे न मारेगा।  उसने बड़ी-बड़ी करामते दिखाई। राजा ने एक दिन उसके तथा जयसिंह टम्टा के बीच कुश्त ठहराई।  नाक काटने की शर्त पर कुश्ती ठहरी। राजा, रानी तथा दरबारियों का सामने कुश्ती हुई। कलविष्ट ने जयसिंह टम्टा को चित्त कर दिया, और नाक काट डाली।  दरबार में धाक बैठ गई।  कलविष्ट से बहुत से लोग जलने लगे।  उन्होंने उसे मारने की ठहराई।

दयाराम पछाइ (पालीपछाऊँ के रहने वाले) ने कहा कि कलविष्ट अपने भैसों को लेकर चौरासी माल (तराई भावर) में जावे तो अच्छा हो, वहाँ भैसों के धरने के लिए अच्छा स्थान है।  पर दिल में यह कपट था कि वह (तराई भावर) में खत्म हो जाएगा, या वहाँ मुगलों द्वारा मारा जाएगा।

कलविष्ट नथुवाखान, रामगाड़, भीमताल होकर भावर में गया।  वहाँ १६०० मंगोली सेना उसे मिली।  उनके नेता सूरम व भागू पठान थे।  साथ ही श्री गजुबा ढ़ींगा तथा भागा कूर्मी भी उक्त पठानों से मिल गये।  सब ने उसे मारने की धमकी दी।  उन्होंने उसकी ताकत आजमाने को उससे एक बड़ी बल्ली (भराणे) उठाने को कहा।  उसने उठा दिया।  उन्होंने प्रपंच रचा।  मेला किया।  गुप्त रुप से हथियार एकत्र किये।  उसके बिल्ली-कुत्तों ने गुप्तचर का काम किया।  उसको सूचना दे दी।  मेले में कलविष्ट ने कहा कि वह पहाड़ी नाच दिखाएगा, उसने उस बड़ी बिल्ली को उठाकर चारों ओर घुमाया, और अपने दुश्मनों को ठंडा कर दिया।  तब वह चौरासी माल को गया।  कलविष्ट ने वहाँ के सब शेरों को जो ८४ की संख्या में थे मार डाला।  बड़े शार्दूल (गाजा केसर) को खनुवा लाखे ने मार डाला।

चौरसी से चलकर कलविष्ट पालीपछाऊँ दयाराम के यहाँ गया।  उसने कहा कि चौरासी तो अच्छी है, पर शेर बहुत हैं।  दयाराम ने पूछ-ताछ की, तो सब शेर मरे हुए पाए गये।  कलविष्य ने दयाराम को दगा करने के लिए श्राप दिया कि उसने छल करके उसे चौरासी माल भिजवाया था, पर वह बच गया।  अब यदि कपट से मारा जाएगा, तो वह भूत बनकर पालीपछाऊँ के लोगों को चिपटेगा।  इस समय कलविष्ट की पूजा पालीपछाऊँ में ज्यादा होती है।

फिर कलविष्ट कपड़खान में आया।  यहाँ काठघर में रहना शुरु किया।  वहाँ रात को 'दोष' एक प्रकार के भूत ने तंग किया।  भैंसो को दुहने न दिया।  रात भर कलविष्ट की 'दोष' से लड़ाई हुई।  'दोष' प्रात: काल हार गया।  कलविष्ट ने उससे वचन लिया कि वह किसी को तंग न करे, बल्कि भूले-भटके को रास्ता दिखाए।

जब अनेक प्रपंच करने पर भी वीर कलू कोटयूड़ी न मरा, तो श्री कृष्ण ने लखड़योड़ी नामक उसके साढ़ को बहकाया कि वह किसी तरह छल (चाला) करके उसे मारे।  लखड़योड़ी ने एक भैंस के पैर में कील ठोंक दी।  तब कलू कोटयूड़ी से मिलने गया।  कलू कोटयूड़ी ने आने का कारण पूछा, तो उसने कहा कि वह भैंस माँगने आया है।  इसने कहा कि जितने चाहिए लखड़योड़ी ले जावे।  पर लखड़योड़ी ने कहा कि भैंस के पै में क्या हो रहा है?  देखा, तो मेख ठुकी हुई थी।  कलू कोटयूड़ी ने दाँस से मेख निकालनी चाही, तो लखड़योड़ी ने खुकरी से कलू कोटयूड़ी के दोनों पैर काट दिए गये।  कोटयूड़ी ने भी लखड़योड़ी को मार डाला और श्राप दिया कि उसने दगाबाजी से मारा है, उसके खानदान में कोई नहीं रहेगा।

चौमू :

यह चौपायों की रक्षा तथा विनाश करने वाला छोटा ग्राम - देवता है।  इसका आदि स्थान स्यूनी तता द्वारसौं के बीच है। १५वीं शताब्दी के मध्य में एक ठा. रणबीर राना नाव देश्वर का लिंग लेकर चंपावत से अपने घर को आ रहे थे, जो कि रानीखेत के पास था।  किंरग राणा साहब की पगड़ी में बँधा था।  धारीघाट के पास उन्होंने पानी के निकट पगड़ी उतारी। हाथ-मुँह धोकर पगड़ी उठाने लगे, न उठी।  सभी लोग मिलकर कठिनाई से लिंग व पगड़ी को उठाकर एक बाँझ के पेड़ के खंडहर में रखा, ताकि उसा मंदिर बनाया जाए; पर लिंग उस जगह से असंतुष्ट होकर पहाड़ के ऊपर दूसरे पेड़ पर चला गया।  पहला पेड़ स्यूनी गाँव में था।  दुसरा स्यूनी-द्वारसौ की सरहद पर था।  अत: दोनों गाँव के लोगों ने मिलकर वह मंदिर बनाया और इसकी भेंट के हकदार भी दोनों गाँव हैं।  अल्मोड़ा के राजा रत्नचंद ने यह बात सुनी और वे लिंग के दर्शन को जाने को थे कि अच्छा मुहूर्त न मिला। तब सपने में चौमू ने राजा से कहा - मैं राजा हूँ, तू नहीं है। तू मेरी क्या पूजा करेगा!

चौमू के मंदिर में सैकड़ों घंटे चढ़ाये जाते हैं।  असोज व चैत्र की नवरात्रियों में सैकड़ों दीपक जलाये जाते हैं, और बड़ी पूजा होती है।  लिंग में दूध डाला जाता है।  बकरियाँ मारी जाती हैं।  उनके सिर (मुनी) स्यूनी व द्वारसौके लोग आपस मे बाँट लेते हैं।  चौमू के दरबार में कसमें ली जाती हैं।  अब कलिकाल में पुराना चमत्कार तो नहीं रहा, तथापि जिनकी गायें या डांगर खो जाते हैं, वे चौमू की पूजा देने पर उन्हें पा जाते हैं।  जिनकी गाय व भैंसे गाबिन हैं, वे चौमू की अराधन कर जीते बच्चे गाय-भैंस के हासिल करते हैं।  जो बुरा दूध चौमू को चढ़ाते हैं, उनके डंगर मर जाते हैं।  जो नहीं चढ़ाते या लिंग पूजा नहीं करते, उनके दूध का दही नहीं जमता (चुपड़ा नहीं होता) बछेड़ा होने पर १० दिन तक गाय का दूध चौमू पर चढ़ाना मना है।  शाम को बी गाय का दूध चढ़ाना वर्जित है।  जिन्होंने ऐसा दूध चढ़ाया है, उनकी गायें मर गयी हैं, उनके गायों के खूंटों की पूजा चौमू की तरह करनी चाहिए, अन्यथा डंगरों की हानि होगी।  स्यूनी द्वारसौं से गाय खरीदने वालों को चौमू की पूजा अनिवार्य है।  जो गाय चौमू को चढ़ाई हो, उसका दूध शाम को नहीं पिया जाता, पर और देवताओं को चढ़ाई हुई गायों का दूध पिया जा सकता है।

बधाणा :

चौमू की तरह यह भी गायों का देवता है।  वह किसी को चिपटता नहीं और न पूजने पर सताता है।   गाय के बच्चा होने के ११वें दिन उसका पूजन होता है।  पहले जल से उसकी मूर्ति साफ की जात है, फिर दूध चढ़ाया जाता है तब भात, पूरी, प्रसाद व दूध नैवेद्ध लगाया जाता है।  तभी गाय का दूध पिया जाता है।  यहाँ बलिदान नहीं होता।

हरु :

एक अच्छी प्रकृति का देवता है, और कुमाऊँ के ग्रामों में बहुत पूजा जाता है।  कहा जाता है कि वह चंपावत कुमाऊँ का राजा हरिशचन्द्र था।  वह राजा राजपाट छोड़ हरिद्वार में जाकर तपस्वी हो गया।  कहते हैं कि हरिद्वार में हर की पौड़ी उसी ने बनाई।  हरिद्वार से कहा जाता है कि उसने चारों धामों (बद्रीनाथ, जगन्नाथ, रामनाथ, द्वारिकानाथ) की परिक्रमा की।  चारों धामों से लौटकर चंपावत में राजा ने अपना जीवन धर्म-कर्म में ही बिताया, और अपना एक भ्रातृमंडल कायम किया।  उसके भाई लाटू तथा उनके नौकर स्यूरा, त्यूरा, रुढ़ा कठायत, खोलिया, मेलिया, मंगिलाया और उजलिया सब उनके शिष्य हो गये।  सैम व बारु भी चेले बने।  राजा उनका गुरु हो गया।
 

 

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