Author Topic: Pilgrimages In Uttarakhand - उत्तराखंड के देवी देवता एव प्रसिद्ध तीर्थस्थल  (Read 64977 times)

पंकज सिंह महर

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उत्तरकाशी। मां शक्ति आराधना के पुण्य पर्व पर ग्रामीण हिस्सों से देव डोलियां स्नान के लिए शिवनगरी पहुंची। यहां पवित्र मणिकर्णिका पर स्नान के बाद यात्रा के रूप में देव डोलियों ने अपने मूल स्थानों को प्रस्थान किया।

शक्ति उपासना पर्व नवरात्र का दोपहर 11 बजकर 28 मिनट पर अभिजीत नक्षत्र में प्रादुर्भाव हुआ। घरों में वैदिक रीति से कलश व अखंड दीप की स्थापना से पहले गंगा तटों पर स्नान के लिए श्रद्धालुओं का मेला लगा। विश्वनाथ, शक्ति मंदिर, परशुराम, दक्षिण काली, महिषासुर मर्दिनी समेत अन्य मंदिरों में विधिवत पूजा अर्चना भी शुरू हुई। इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्रों से देव डोलिया स्नान के लिए शिवनगरी पहुंची। पवित्र मणिकर्णिका घाट पर देव डोलियों के बाद मंदिरों में दर्शनार्थियों की भीड़ लगी रही। उत्तरकाशी की परंपरा है कि हर पुण्य मौके पर देव डोलियां स्नान के लिए उत्तरकाशी पहुंचती हैं। स्नान के बाद मंदिरों की परिक्रमा पुण्य दायक बताई गई है। नवरात्र शुरू होते ही शिव नगरी अध्यात्म में डूबी नजर आ रही है। मंदिरों में पूजा भक्तों की लंबी कतारें दिन भर लगी रही। शक्ति मंदिर नवरात्र पूजा का विशेष स्थल है और यहां बड़ी संख्या में दर्शनों के लिए श्रद्धालु पहुंच रहे हैं।

bharat motwani

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हेम पन्त

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चीन, नेपाल और तिब्बत की सीमाओं से घिरे सामरिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण चंपावतजिले के प्रवेशद्वार टनकपुरसे 19किलोमीटर दूर स्थित यह शक्तिपीठ मां भगवती की 108सिद्धपीठोंमें से एक है। तीन ओर से वनाच्छादित पर्वत शिखरों एवं प्रकृति की मनोहारी छटा के बीच कल-कल करती सात धाराओं वाली शारदा नदी के तट पर बसा टनकपुरनगर मां पूर्णागिरिके दरबार में आने वाले यात्रियों का मुख्य पडाव है।

इस शक्तिपीठ में पूजा के लिए वर्ष-भर यात्री आते-जाते रहते हैं किंतु चैत्र मास की नवरात्रमें यहां मां के दर्शन का इसका विशेष महत्व बढ जाता है। मां पूर्णागिरिका शैल शिखर अनेक पौराणिक गाथाओं को अपने अतीत में समेटे हुए है। पहले यहां चैत्र मास के नवरात्रियोंके दौरान ही कुछ समय के लिए मेला लगता था किंतु मां के प्रति श्रद्धालुओं की बढती आस्था के कारण अब यहां वर्ष-भर भक्तों का सैलाब उमडता है।

मां पूर्णागिरिमें भावनाओं की अभिव्यक्ति और शक्ति के प्रति अटूट आस्था का प्रदर्शन होता है। पौराणिक गाथाओं एवं शिव पुराण रुद्र संहिता के अनुसार दक्ष प्रजापति की 60हजार कन्याएं थीं जो देवताओं को विवाह स्वरूप दी गई थीं उन्हीं में से एक सती का विवाह भगवान भोले शंकर से किया गया। भगवान शिव से संबंध होने पर दक्ष प्रजापति देवताओं में सम्मान से देखे जाने लगे।

एक बार देवताओं ने एक शुभ आयोजन किया जिसमें सभी देवताओं के साथ ही भगवान शिव को भी आमंत्रित किया गया। देवताओं ने शिवजी को प्रधान सिंहासन पर बैठाकर उनका पूजन किया। इसी दौरान दक्ष प्रजापति भी वहां पहुंचे।

लोक व्यवहार के अनुसार दक्ष प्रजापति को अहंकार था कि शिव उनके जमाता हैं और भगवान शिव को उन्हें प्रथम अभिवादन करना चाहिए। अन्य देवताओं ने दक्ष प्रजापति का शिव से संबंध होने के कारण उन्हें पहले शीश नवाया,किंतु भगवान शंकर ने आध्यात्मिक भाव के कारण विचार किया कि यदि मैं महादेव होने के कारण पहले दक्ष प्रजापति का अभिवादन करूं तो पहले नमन से दक्ष प्रजाति की राज्य लक्ष्मी का विनाश हो जायेगा।

अपने श्वसुर के इस हित को मन में रखकर शिवजी ने पहले उठकर उनका अभिवादन नहीं किया और अपने आसन पर ही बैठे रहे। दक्ष प्रजापति इससे रुष्ट हो गए और कहने लगे कि मैने इस प्रकार के दरिद्र एवं अमांगलिकवेशधारी को अपनी कन्या का विवाह कर महान भूल की जो शिष्टाचार तक नहीं जानता।

दक्ष प्रजापति ने इसे अपना घोर अपमान समझते हुए बदले में शिवजी के अपमान की योजना बना डाली। उन्होंने हरिद्वार में महायज्ञ का आयोजन किया और यह निश्चय किया कि शिवजी को इस अनुष्ठान में शामिल न किया जाए जबकि अन्य सभी देवताओं को इसमें आमंत्रित किया गया।

आकाश मंडल से विमान में जाते हुए अपनी बहिनों के पतियोंको अनुष्ठान में शामिल होता देखकर सती ने दु:खी होकर शिवजी से अनुष्ठान में शामिल होने का अनुरोध किया किंतु शिवजी ने सती के अनुरोध को ठुकरा दिया लेकिन सती के हट पर शिवजी ने अपने नंदीगणके साथ सती को अनुष्ठान में शामिल होने के लिए भेज दिया।

मां सती यज्ञ स्थल पर पहुंची। यज्ञ मंडप में शिव का कोई स्थान नहीं था। चारों ओर शिव को छोडकर अन्य देवताओं को आहुति करने का उल्लेख था। अपने पति के इस अनादर को सती सहन नहीं कर पाई। पिता से पति के स्थान के बारे में पूछने पर प्रजापति ने कहा खप्परधारीरुंड,मुंड तथा श्मशान भस्म धारण करने वाले अमांगलिकवेशधारी के लिए यहां स्थान देने का कोई औचित्य नहीं है।

अपने पति के अपमान को सती सहन नहीं कर सकीं और उन्होंने यज्ञ कुंड में ही अपनी आहुति दे दी तथा कहा कि अब मैं तुम्हारे संबंध से उत्पन्न इस देह को नहीं चाहती। सती के साथ गए रुद्रगणोंने जब सती को अग्नि में सती होते देखा तो रुद्र भगवान से द्वेष रखने वाले प्राणियों पर प्रहार किया तथा इसकी सूचना भगवान शंकर को दी।

भगवान शंकर क्रोधित हुए और उन्होंने अपनी जटा पर तीन बार हाथ फेरा। उससे शंकरीमहाशक्ति का एक वीरभद्रभयंकर स्वरूप का गण उत्पन्न हुआ और वह अपनी विशेष शंकरीसेना को लेकर यज्ञ स्थल कनखलकी ओर रवाना हुआ। उसने दक्ष प्रजापति के सिर को काटकर यज्ञाग्नि को समर्पित कर यज्ञ विध्वंस कर दिया।

भगवान शंकर भी तांडव करते हुए यज्ञ कुंड से सती के शरीर को लेकर आकाश मार्ग में विचरण करने लगे। विष्णु भगवान ने तांडव नृत्य को देखकर सती के शरीर के अंग पृथक कर दिए जो आकाश मार्ग से विभिन्न स्थानों में गिरे। कथा के अनुसार जहां जहां देवी के अंग गिरे वही स्थान शक्तिपीठ के रूप में प्रसिद्ध हो गए।

मां सती का नाभि अंग अन्नपूर्णा शिखर पर गिरा जो पूर्णागिरिके नाम से विख्यात् हुआ तथा देश की चारों दिशाओं में स्थित मल्लिकागिरि,कालिकागिरि,हमलागिरिव पूर्णागिरिमें इस पावन स्थल पूर्णागिरीको सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ। देवी भागवत और स्कंद पुराण तथा चूणामणिज्ञानाणवआदि ग्रंथों में शक्ति मां सरस्वती के 51,71तथा 108पीठों के दर्शन सहित इस प्राचीन सिद्धपीठका भी वर्णन है जहां एक चकोर इस सिद्धपीठकी तीन बार परिक्रमा कर राज सिंहासन पर बैठा।

हेम पन्त

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पुराणों के अनुसार महाभारत काल में प्राचीन ब्रह्माकुंडके निकट पांडवों द्वारा देवी भगवती की आराधना तथा बह्मादेवमंडी में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा द्वारा आयोजित विशाल यज्ञ में एकत्रित अपार सोने से यहां सोने का पर्वत बन गया।

ऐसी मान्यता है कि नवरात्रियोंमें देवी के दर्शन से व्यक्ति महान पुण्य का भागीदार बनता है। देवी सप्तसतीमें इस बात का उल्लेख है कि नवरात्रियोंमें वार्षिक महापूजा के अवसर पर जो व्यक्ति देवी के महत्व की शक्ति निष्ठापूर्वक सुनेगा वह व्यक्ति सभी बाधाओं से मुक्त होकर धन-धान्य से संपन्न होगा।

पौराणिक कथाओं के अनुसार यहां यह भी उल्लेखनीय है कि एक बार एक संतान विहीन सेठ को देवी ने स्वप्न में कहा कि मेरे दर्शन के बाद ही तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा। सेठ ने मां पूर्णागिरिके दर्शन किए और कहा कि यदि उसे पुत्र प्राप्त हुआ तो वह देवी के लिए सोने का मंदिर बनवाएगा। मनौती पूरी होने पर सेठ ने लालच कर सोने के स्थान पर तांबे के मंदिर में सोने का पालिश लगाकर जब उसे देवी को अर्पित करने के लिए मंदिर की ओर आने लगा तो टुन्यासनामक स्थान पर पहुंचकर वह उक्त तांबे का मंदिर आगे नहीं ले जा सका तथा इस मंदिर को इसी स्थान पर रखना पडा। आज भी यह तांबे का मंदिर झूठे मंदिर के नाम से जाना जाता है।

कहा जाता है कि एक बार एक साधु ने अनावश्यक रूप से मां पूर्णागिरिके उच्च शिखर पर पहुंचने की कोशिश की तो मां ने रुष्ट होकर उसे शारदा नदी के उस पार फेंक दिया किंतु दयालु मां ने इस संत को सिद्ध बाबा के नाम से विख्यात कर उसे आशीर्वाद दिया कि जो व्यक्ति मेरे दर्शन करेगा वह उसके बाद तुम्हारे दर्शन भी करने आएगा। जिससे उसकी मनौती पूर्ण होगी।


कुमाऊं के लोग आज भी सिद्धबाबाके नाम से मोटी रोटी [रोट] बनाकर सिद्धबाबाको अर्पित करते हैं। यहां यह भी मान्यता है कि मां के प्रति सच्ची श्रद्धा तथा आस्था लेकर आया उपासक अपनी मनोकामना पूर्ण करता है, इसलिए मंदिर परिसर में ही घास में गांठ बांधकर मनौतियां पूरी होने पर दूसरी बार देवी दर्शन लाभ का संकल्प लेकर गांठ खोलते हैं। यह परंपरा यहां वर्षो से चली आ रही है। यहां छोटे बच्चों का मुंडन कराना सबसे श्रेष्ठ माना जाता है।

हेम पन्त

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कहा जाता है कि इस धार्मिक स्थल पर मुंडन कराने पर बच्चा दीर्घायु और बुद्धिमान होता है। इसलिए इसकी विशेष महत्ता है। यहां प्रसिद्ध वन्याविद्तथा आखेट प्रेमी जिमकार्बेटने सन् 1927में विश्राम कर अपनी यात्रा में पूर्णागिरिके प्रकाशपुंजों को स्वयं देखकर इस देवी शक्ति के चमत्कार का देशी व विदेशी अखबारों में उल्लेख कर इस पवित्र स्थल को काफी ख्याति प्रदान की।

पूर्णागिरिमंदिर टनकपुरसे 19किमी दूर है जहां ठुलीगाड तक 12किलोमीटर का सफर बस से किया जाता है। इसी बीच लोक निर्माण विभाग द्वारा छह किलोमीटर लंबी सडक का निर्माण कराया गया है। मेलावधिमें इस मार्ग से वाहनों का आवागमन बंद रहता है जिससे यात्री जय माता दी के उद्घोष के बल पर सात किमी की दुर्गम चढाई पार कर मां के दरबार पहुंचते हैं।

माँ पूर्णागिरी सबका भला करें

श्रोत- http://in.jagran.yahoo.com/dharm/?page=article&articleid=3513&category=10

हलिया

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इस आध्यात्मिक ग्यान के लिये धन्यबाद, हेम जी आपका.

Risky Pathak

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पंकज सिंह महर

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जय मां पुर्णागिरी



धन्यवाद, हेम दा, इस आध्यात्मिक वृतान्त से फोरम को परिचित कराने के लिये।

हलिया

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देवभूमि, पुण्यभूमि बद्रीनाथ, केदारनाथ



उत्तर भारत के दो तीर्थस्थल बद्रीनाथ एवं केदारनाथ संपूर्ण भारतवासियों के प्रमुख आस्था-केंद्र हैं। धामों की संख्या चार है, बद्रीनाथ, द्वारका,रामेश्वरम्एवं जगन्नाथपुरी। ये धाम भारतवर्ष के क्रमश:उत्तरी, पश्चिमी, दक्षिणी एवं पूर्वी छोरों पर स्थित है। बद्रीनाथ धाम और केदारनाथ के कपाट शरद् ऋतु में बंद हो जाते हैं और ग्रीष्म ऋतु के प्रारंभ में खुलते हैं। शेष तीन धामों की यात्रा पूरे वर्ष चलती रहती है। उत्तर के दो तीर्थस्थलबद्रीनाथ और केदारनाथ किन्हीं दृष्टियों से एक-दूसरे से भिन्न हैं। पहली भिन्नता तो यह है कि बद्रीनाथ धाम है और केदारनाथ तीर्थस्थल है। दूसरी भिन्नता यह है कि बद्रीनाथ में विष्णु के विग्रह की पूजा होती है और केदारनाथ में शिव के विग्रह की पूजा। तीसरी भिन्नता यह है कि शीतकाल में बद्रीनाथ से भगवान विष्णु का विग्रह उठाकर ऊखीमठ में ले जाया जाता है। ऊखीमठमें भगवान की पूजा नहीं होती है। इसके विपरीत केदारनाथ में शिव का विग्रह यथावत् यथास्थान पर बना रहता है और कपाट बंद हो जाने पर विग्रह की पूजा नहीं होती है।

बद्रीनाथ क्षेत्र में बदरी(बैर) के जंगल थे, इसलिए इस क्षेत्र में स्थित विष्णु के विग्रह को बद्रीनाथ की संज्ञा प्राप्त हुई। किसी कालखंड में बद्रीनाथ के विग्रह को कुछ अनास्थाशील तत्वों ने नारदकुंड में फेंक दिया। आदिशंकराचार्यभारत-भ्रमण के क्रम में जब यहां आए, तो उन्होंने नारदकुंड में प्रवेश करके विष्णु के इस विग्रह का उद्धार किया और बद्रीनाथ के रूप में इसकी प्राण-प्रतिष्ठा की। बद्रीनाथ के दो और नाम हैं, बदरीनाथ एवं बद्रीविशाल।

केदारनाथ में शिव के विग्रह की पूजा होती है। सामान्यत:शिव की पूजा शिवलिंग के रूप में होती है, पर केदारनाथ में शिव के विग्रह का स्वरूप भैंसे की पीठ के ऊपरी भाग की भांति हैं। इस संबंध में एक पौराणिक कथा आती है। महाभारत के बाद परिवारजनों के हत्याजनित पाप से मुक्ति के लिए पांडव प्रायश्चित-क्रम में भगवान शिव के दर्शन करना चाहते थे। भगवान शिव पांडवों से रुष्ट थे। वे उन्हें पापमुक्तनहीं करना चाहते थे। पांडवों की खोजी दृष्टि बचने के लिए भगवान शंकर ने महिष का रूप धारण कर लिया और महिष दल में सम्मिलित हो गए। भगवान शंकर को खोजने का काम भीम कर रहे थे। किसी तरह भीम ने यह जान लिया कि अमुक महिष ही भगवान शंकर हैं। वह उनके पीछे दौडा। भीम से बचने के क्रम में भगवान शंकर पाताल लोक में प्रवेश करने लगें। कहा जाता है कि पाताल लोक में प्रवेश करते हुए भगवान शंकर के पृष्ठ भाग को पकड लिया और उन्हें दर्शन देने के लिए बाध्य कर दिया। अंतत:भगवान शंकर के दर्शन से सभी पांडव पापमुक्त हो गए। इस घटना के बाद लोक में महिष के पृष्ठभाग के रूप में भगवान शंकर की पूजा होने लगी। केदारनाथ में महिष का पृष्ठभाग ही शिव-विग्रह के रूप में स्थापित है। यह घटना जिस क्षेत्र में हुई उसे गुप्त काशी कहा जाता है।

बद्रीनाथ मंदिर के पास ब्रह्मकपाल नामक एक स्थान है। यहां पितरों के लिए पिंडदान किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि जिन पितरों का श्राद्ध यहां हो जाता है, वह देवस्थिति में आ जाते हैं। उन्हें गया अथवा अन्य स्थान पर पिंडदान की आवश्यकता नहीं होती।

बद्रीनाथ का वर्तमान मंदिर अधिक प्राचीन नहीं है। आज जो मंदिर विद्यमान है, उसके प्रधान शिल्पी श्रीनगर के लछमू मिस्त्री थे। इस मंदिर को रामनुज संप्रदाय के स्वामी वरदराज की प्रेरणा से गढवाल नरेश ने पंद्रहवींशताब्दी में बनवाया। मंदिर पर सोने का छत्र और कलश इंदौर की महारानी अहिल्याबाई ने चढवाया। मंदिर में वरिष्ठ और कनिष्ठ दो रावल (पुजारी) होते हैं। दोनों का चयन केरल के नम्बूदरीपाद ब्राह्मण परिवार से होता है।

बद्रिकाश्रम क्षेत्र में बद्रीनाथ धाम के अतिरिक्त और बहुत से ऐसे तीर्थस्थल हैं, जहां कम यात्री पहुंच पाते हैं। व्यासगुफा एक ऐसा ही स्थान है। यह स्थान बद्रीनाथ धाम से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर है। ढाई किलोमीटर तक यात्री लोग वाहन से जा सकते हैं। इसके बाद चढाई प्रारंभ हो जाती है और यात्रियों को पैदल चलना पडता है। व्यासगुफा वह स्थान है, जहां महर्षि वेदव्यास ने ब्रह्मसूत्र की रचना द्वापर के अंत और कलियुग के प्रारंभ (लगभग 5108वर्ष पूर्व) में की थी। मान्यता है कि आदिशंकराचार्य ने इसी गुफा में ब्रह्मसूत्र पर शरीरिकभाष्य नामक ग्रंथ की रचना की थी। व्यासगुफा के पास ही गणेशगुफा है। यह महर्षि व्यास के लेखक गणेश जी का वास स्थान था।

बद्रिकाश्रम क्षेत्र में अलकनंदा नदी है। अलकनंदा का उद्गम-स्थान अलकापुरी हिमनद है। इसे कुबेर की नगरी कहा जाता है। अलकापुरी हिमनद से निकलने के कारण इस नदी को अलकनंदा कहा जाता है। इसी क्षेत्र में सरस्वती नदी भी प्रभावित होती है। अलकनंदा और सरस्वती का संगम मांणा नामक ग्राम के पास होता है, जो भारत के उत्तरी छोर का अंतिम ग्राम है। मांणाग्राम की उत्तरी सीमा पर सरस्वती नदी के ऊपर एक शिलासेतु है। इसे भीमसेतु कहा जाता है। मान्यता है कि पांडव लोग सरस्वती नदी के जल में पैर रखकर उसे अपिवत्र नहीं करना चाहते थे। इसलिए भीम ने एक विशाल शिला इस नदी पर रखकर सेतु बना दिया। इसी सेतु से होकर पांडव लोग हिमालय क्षेत्र में हिममृत्यु का वरण करने के लिए गए थे। इसे संतोपथ अथवा सत्यपथ कहा जाता है। भीम-शिला के पास ही भीम का एक मंदिर है।



हलिया

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