Author Topic: Rudraprayag: Gateway Of Mahadev - रुद्रप्रयाग: रुद्र (शिव) क्षेत्र का द्वार  (Read 20838 times)

प्रकाश शुक्ला

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स्थिति  मंदाकिनी नदी के तट पर 
ऊंचाई  3581 मीटर
मंदिर  ज्योतिर्लिग सदाशिव
स्थापित  8 वीं शती
 
भारत के उत्तर में नगाधिराज हिमालय की सुरम्य उपत्यका में स्थित केदारक्षेत्र प्राचीन काल से ही मानव मात्र के लिए पावन एवं मोक्षदायक रहा है। इस क्षेत्र की प्राचीनता एवं पौराणिक माहात्मय के सम्बन्ध में स्वयं भगवान शंकर ने स्कन्द पुराण में माता पार्वती के प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया है-
पुरातनो यथाहं वैतथा स्थान सिदम् किल।
यदा सृष्टि क्रियायां च मया वै ब्रहैंममूर्तिना।।
स्थित मत्रैव सततं, परब्रहैंमजिगीषया।
तदादिक मिदं स्थानं, देवानामपिदुर्लभम्।।
 
 
अर्थात हे प्रोणश्वरी! यह क्षेत्र उतना ही प्राचीन है जितना कि मैं हूँ। मैंने इसी स्थान पर सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा के रूप में परब्रह्रमत्व प्राप्त किया। तभी से यह स्थान मेरा चिरप्रिय आवास है। यह केदारखण्ड मेरा चिरनिवास होने के कारण भूस्वर्ग के समान है।
शिव महापुराण की कोटिरूद्र संहिता में द्वादश ज्योतिर्लिंगों की कथा विस्तार से कही गयी है। उत्तराखण्ड हिमालय में स्थित होने के कारण श्री केदारनाथजी उसमें सर्वोपरि है। केदारखण्ड, बदरीवन में भगवान नर-नारायण द्वारा पार्थिव पूजा विधि से भगवान शंकर का साक्षात्कार एवं वर प्राप्त किया जाना निम्न श्लोक से स्पष्ट है -
यदि प्रसन्नो देवेश यदि देयो वरस्त्वया।
स्थीयतां स्वेन रूपेश पूजार्थ शंकर स्वयं।। (शि0पु0)
 
 
अर्थात हे प्रभो! यदि आप प्रसन्न हैं और वर देना चाहते है तो अपने इसी स्वरूप् में जगत् कल्याण एवं हमारी पूजा प्राप्त करने हेतु यहां स्थित होवें, ताकि जगत् का महान उपकार एवं भक्तों के मनोरथ आफ दर्शनों से पूर्ण हो। यह प्रकार भगवान शंकर वहां स्थित हुए एवं-
देवाश्च पूजयन्तीहैं ऋषयश्च पुरातनाः।
मनोऽभिष्ट फलं तेते, सुप्रसन्नान्महेश्वरात्।। (शि0पु0)
 
 
अर्थात तब से निरन्तर देवता, ऋषि आदि प्रसन्न चित्त भगवान शिव की पूजा अभीष्ट फलों की प्राप्ति हेतु करते रहते है। भूस्वर्ग केदार क्षेत्र में पहुंचकर भगवान शिव के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हो जाय तो स्वप्न में भी दुःख सम्भव नही -
पूजितो येन भक्त्यावै दुःख स्वप्नेऽपि दुर्लभम् (शि0पु0)
 
 
कालान्तर द्वापर युग में महाभारत युद्ध के उपरान्त गोत्र हत्या के पाप से पाण्डव अत्यन्त दुःखी हुए और वेदव्यासजी की आज्ञा से केदारक्षेत्र में भगवान शंकर के दर्शनार्थ आये। शिव गोत्रघाती पाण्डवों को प्रत्यक्ष दर्शन नही देना चाहते थे। अतएव वे मायामय महिष का रूप धारण कर केदार अंचल में विचरण करने लगे, बुद्धि योग से पाण्डवों ने जाना कि यही शिव है। तो वे मायावी महिष रूप धारी भगवान शिव का पीछा करने लगे, महिष रूपी शिव भूमिगत होने लगे तो पाण्डवो ने दौडकर महिष की पूंछ पकड ली और अति आर्तवाणी से भगवान शिव की स्तुति करने लगे। पाण्डवो की स्तुति से प्रसन्न होकर उसी महिष के पृष्ठ भाग के रूप में भगवान शंकर वहां स्थित हुए एवं भूमि में विलीन भगवान का श्रीमुख नेपाल में पशुपतिनाथ के रूप में प्रकट हुआ -
तद्रूपेण स्थित स्तत्र भक्तवत्सल नाम भाक
नयपाले शिरोभाग गतस्तद्रूपतस्थितः(शि0पु0)
 
 
आकाशवाणी हुई कि हे पाण्डवों मेरे इसी स्वरूप की पूजा से तुम्हारे मनोरथ पूर्ण होंगे। तदन्तर पाण्डवों ने इसी स्वरूप की विधिवत पूजा की, तथा गोत्र हत्या के पाप से मुक्त हुए और भगवान केदारनाथजी के विशाल एवं भव्य मन्दिर का निर्माण किया। तबसे भगवान आशुतोष केदारनाथ में दिव्य ज्योर्तिलिंग के रूप में आसीन हो गये। वर्तमान में भी उनका केदारक्षेत्र में वास है -
तत्र नित्यं हैंर साक्षात् क्षेत्र केदार संक्षक
भारतीभिः प्रजाभिश्च तथैव परिपूज्यते (शि.पु.)
 
 
बदरीकाश्रम की यात्रा से पूर्व केदारनाथजी के पुण्य दर्शनो का माहात्म्य है। केदारखण्ड में स्पष्ट है कि -
अकृत्वा दर्शनं पुण्यं केदारस्याऽघनाशिनः
योगच्छेद् बदरी तस्य, यात्रा निष्फलतां ब्रजेत्)
 
 
पुराणो में कल्पान्तर भेद से यह भी अंकित है कि महिष रूपी भगवान शिव का मुखभाग रूद्रनाथ में, भूजाएं तुंगनाथ में, नाभि मद्महेश्वर में एवे जटाजूट कल्पेश्वर में प्रकट होते है। केदारनाथजी सहित भगवान शिव के कैलाश में यही पंच केदार है।
पूजा का समय-प्रातः एवं सायंकाल है। सुबह की पूजा निर्वाण दर्शन कहलाती है जबकि शिवपिंड को प्राकृतिक रूप से पूजा जाता है। घृत और जल मुख्य आहार है। सायंकालीन पूजा को श्रृंगार दर्शन कहते हैं जब शिव पिंड को फूलो, आभूषणो से सजाते है। यह पूजा मंत्रोच्चारण, घंटीवादन एवं भक्तो की उपस्थिति में ही संपत्र की जाती है। दैवीय आशीर्वाद की खोज की जाती है एवं सुप्रभाती पूजा में सुप्रभात, बालभोग, शिवपूजा, असतोतार, शिवमहिमा, शिवनामावली, शिव संहारम आदि शामिल है। केदारनाथ पर आधारित पद संस्कृत के विद्वानों द्वारा उच्चारित किये जाते है। जो कि आसपास के गांवों में (उखीमठ-गुप्तकाशी) रहने वाले ब्राह्मणो द्वारा संपत्र की जाती है।

केदारनाथ मदिंर के खुलने के समय महाशिवरात्री के दिन उखीमठ के साधुओ द्वारा निश्चित है, जो सामान्य तौर पर अप्रैल माह के अंतिम सप्ताह में या मई के प्रथम सप्ताह में होता है। केदारनाथ मंदिर श्री बदरीनाथ के एक दिन पहले ही खुल जाता है
 

प्रकाश शुक्ला

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श्री केदारनाथ मन्दिर परिक्रमा स्थित समस्त देव स्थल 
 
 
 
श्री जगमोहन 
 
 
जगमोहन में पार्वती का मंदिर स्थित है । पार्वती जी का पाषाण विग्रह है । इनकी नित्य नियम रूप में पूजा होती है ।
 
श्री ईशानेश्वर महादेव 
 
 
ईशान कोण में स्थित ईशानेश्वर जी का शिवलिंग स्थित है । भगवान केदारनाथ जी की भाँति यहाँ भी नित्य नियम से पूजा होती है ।
 
श्री गणेश   
 
 
श्री केदारनाथ जी के मुख्य भाग द्वार पर गणेश जी स्थित हैं । श्री केदारनाथ जी के दर्शन से पूर्व गणेशजी के दर्शन का महात्म्य है ।
 
श्री नन्दीश्वर 
 
 
भगवान केदारनाथ जी के सम्मुख प्रांगण में उनके वाहन नन्दीश्वर का भव्य विग्रह स्थित है । यह विग्रह अत्यन्त विशाल एवं दर्शनीय है ।
 
श्री हंस कुण्ड 
 
 
यह कुण्ड पिण्ड दान एवं तर्पण के लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । केदारनाथ आने वाले श्रद्धालुजन यहीं पर पित्तरों के पिण्डदान करते हैं ।
 
श्री रेतस कुण्ड 
 
 
इस कुण्ड में प्रमाण है कि हर-हर महादेव के घोष करने पर इसके जल में बुलबुले उठते हैं । जिनका दर्शन अति पुण्यप्रद कहा गया है ।
 
श्री भैरवनाथ 
 
 
भुकुण्ड भैरव जी केदारनाथ मंदिर से आधा कि0 मी0 पूर्व की और एक छोटी सी पहाडी पर स्थित है । भैरव जी भगवान शंकर के मुख्य गण हैं । इस केदारपीठ के प्रथम रावल श्री भुकुण्ड जी ने ईसा से 3001 वर्ष पूर्व भगवान भैरव की पाषाण मूर्ति प्रतिष्ठित की थी ।इनके दर्शन का पुण्य बहुत माना जाता है । यही इस क्षेत्र के क्षेत्रपाल देवता भी हैं । जीर्णोद्धार किया जाना है ।
 
श्री आदिगुरू शंकराचार्य जी का समाधि स्थल एवं दण्ड 
 
 
श्री केदारनाथ मंदिर के पृष्ठ भाग आदि गुरू शंकराचार्य जी की समाधि स्थल एवं विशाल संगमरमर का दण्ड स्थित है । कहा जाता है कि आदि गुरू शंकराचार्य जी ने अपने जीवन का अन्तिम समय यहीं बिताया था तथा 32 वर्ष की अवस्था में यहीं समाधिस्थ हो गये थे ।
 वापस..
 
 
श्री विश्वनाथ मन्दिर, गुप्तकाशी 
 
 
श्री विश्वनाथ जी का भव्य मंदिर गुप्तकाशी में स्थित है । जब पाण्डवों पर गोत्रहत्या का पाप लगा तो उनके मार्जन के लिये भगवान श्रीकृष्ण के आदेश पर समस्त पाण्डव शंकर भगवान के दर्शन हेतु काशी गये । भगवान शंकर ने काशी से चलकर इस स्थान पर गुप्तवास कर लिया । भगवान शंकर के गुप्तवास होने के कारण ही इसे गुप्तकाशी कहते हैं । यही पौराणिक मान्यता है । मंदिर का जीर्णोद्धार किया जाना है ।
 वापस..
 
 
श्री परिक्रमा स्थित देवस्थल, गुप्तकाशी 
 
 
 
 
श्री गणेश 
 
 
गुप्तकाशी मंदिर परिक्रमा में गणेश जी मुख्य द्वार पर विराजमान हैं। गणेश जी के दर्शन के उपरान्त ही विश्वनाथ मंदिर के दर्शन होते हैं।
 
श्री अर्द्धनारीश्वर 
 
 
गुप्तकाशी मंदिर के उत्तर में अर्द्धनारीश्वर जी के दर्शन होते हैं । यह विग्रह शंकर एवं पार्वती जी का संयुक्त विग्रह है । यहाँ दैनिक पूजा की जाती है ।
 
कुण्ड 
 
 
मन्दिर के सामने पूरब दिशा में गोमुख एवं गजमुख धारे एवं इनके निसृत जल से कुण्ड बना है । यात्री कुण्ड में स्नान कर दर्शन तथा नारियल गुप्तदान करते हैं ।
 वापस..
 
 
श्री ऊषा मन्दिर ऊखीमठ 
 
 
यहाँ पर बाणासुर की पुत्री ऊषा एवं भगवान कृष्ण के पौत्र अनिरूद्ध का विवाह वैदिक विधान से सम्पन्न हुआ था । यह विवाह वेदी आज भी विराजमान है, जो कि आज भी दर्शनीय है । ऊषा के नाम से ही यहाँ का नाम ऊषामठ तथा अपभ्रंश होकर ऊखीमठ नाम है । साथ ही औंकारेश्वर जी का भव्य मंदिर यहीं पर विराजमान है । राजा मान्धाता द्वारा यहाँ पर भगवान शंकर की तपस्या की गयी थी । इस मंदिर के सभाकक्ष में पँच केदार की मूर्तिंयां अवस्थित हैं इनके अतिरिक्त श्रीमान रावल जी की गद्दी, श्री नृसिंह, चण्डिका आदि की मूर्तियां भी मंदिर के परकोटे के अन्दर स्थित हैं । शीतकाल में श्री केदारनाथ जी की उत्सव डोली एवं उत्सव मूर्ति केदारनाथ से यहीं आती है । श्री केदारनाथ जी की शीतकालीन पूजायें तथा औंकारेश्वर जी की वार्षिक पूजायें यहाँ सम्पन्न की जाती हैं । मंदिर का जीर्णोद्धार किया जाना है । 
 वापस..
 
 
श्री बाराही मन्दिर ऊखीमठ 
 
 
यह मंदिर ऊषा अनिरूद्ध मंदिर में अवस्थित है । इसमें बाराही भगवती की मूर्ति तथा पाण्डवों के चिन्ह (निशान) हैं । मंदिर के बाहर भैरवनाथ जी की मूर्ति है । श्री केदारनाथ जी के कपाट खुलने पर डोली यात्रा प्रस्थान से पूर्व यहाँ शुभ दिन पर भैरवनाथ की विशेष पूजा सम्पन्न की जाती है । परकोटे में पूरब में एक शिला खण्ड पर महाकाली की मूर्ति अंकित है । मंदिर का जीर्णोद्धार किया जाना है ।
 वापस..
 
 
श्री मद्महेश्वर मन्दिर, मद्महेश्वर 
 
 
ये द्वितीय केदार के नाम से प्रसिद्ध हैं । ऊखीमठ से लगभग 30 किमी0 उत्तर में हिमालय की गोद में अति रमणीक स्थान में मद्महेश्वर जी का भव्य मन्दिर विराजमान है । पँच केदारों में यह भगवान की नाभि के भाग के रूप में विराजमान लिंग है ।इस स्थान पर भगवती उमा के साथ शंकर भगवान ने विहार किया था । इस स्थान पर पहुँचने के लिये ऊखीमठ से 10 किमी0 बिरोली नामक स्थान पर तथा कालीमठ से 10 किमी0 बस से तथा 20 किमी0 पैदल यात्रा कर राँसी गौंडार होते हुये पहुँचा जा सकता है । राँसी में राकेश्वरी (राँसी माई) का प्राचीन मंदिर है । यहाँ पर कपाट खुलने एवं बन्द होने पर मद्महेश्वर जी की उत्सव डोली रात्रि विश्राम करती है । मद्महेश्वर मंदिर परिसर में शिव परिवार, गणेश, नन्दी आदि मूर्तियां यहाँ स्थापित हैं । यहाँ पर पित्तरों को तर्पण पिण्ड दिये जाने का प्राविधान भी है । इनके कपाट माह मई से नवम्बर तक यात्राकाल में खुले रहते हैं । शीतकाल में कपाट बन्द कर उत्सव मूर्ति पँच केदार गद्दी स्थल ऊखीमठ में पहुँचाई जाती है तथा शीतकाल पूजा अर्चना की जाती है । यहाँ पर समिति का विश्राम गृह भी है । मंदिर का जीर्णोद्धार किया जाना है ।
 वापस..
 
 
श्री महाकाली मन्दिर कालीमठ 
 
 
 भगवती महाकाली का प्रसिद्ध शक्तिपीठ कालीमठ नामक स्थान पर यह मन्दिर विराजमान है । यहाँ पर भगवती द्वारा शुम्भ निशुम्भ का वध किया था । यहाँ पर प्रति वर्ष शारदीय एवं बसन्त नवरात्र में श्रद्धालुओं द्वारा भगवती की इस शक्तिपीठ पर विशेष पूजायें की जाती हैं । तदुपरान्त उन्हें मनोभिलाषित फलों की भगवती के प्रसाद से प्राप्ति होती है शरदकालीन नवरात्रा में अष्ठमी की रात्रि को अति विशेष पूजन एवं उत्सव का आयोजन होता है । उसी दिन महाकाली जी की मूर्ति के दर्शन के सौभाग्य प्राप्त होते हैं । शेष समय यहाँकुण्ड स्थित यंत्र स्वरूप में भगवती के दर्शन प्राप्त होते हैं । इस स्थान पर सडक मार्ग से पहुँचा जाता है । यहाँ पर मंदिर समिति के विश्राम गृह सुविधायुक्त उपलब्ध हैं । मंदिर का जीर्णोद्धार किया जाना है ।
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श्री महासरस्वती मन्दिर कालीमठ 
 
 
कालीमठ मंदिर के समीप ही महासरस्वती जी का मंदिर है । यहाँ पर भगवती सरस्वती जी की दिव्य मूर्ति विराजमान है ।
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श्री महालक्ष्मी मन्दिर कालीमठ 
 
 
सरस्वती एवं महाकाली मंदिर के ही पार्श्व में ही महालक्ष्मी जी का मंदिर विद्यमान है । मंदिर में महालक्ष्मी जी की दिव्य मूर्ति प्रतिष्ठित है । यहाँ पर महालक्ष्मी जी का पूजन करने से अचल लक्ष्मी की प्राप्ति होती है । यहाँ पर त्रेता युग से निरन्तर प्रज्वल्लित अखण्ड धूनी (अग्नि) है । इसकी भस्म प्रसाद के रूप में ग्रहण की जाती है । कालीमठ में ही भैरव नाथ जी की प्राचीन मूर्ति भी विराजमान है । मंदिर का जीर्णोद्धार किया जाना है ।
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श्री गौरामाई मन्दिर, गौरीकुण्ड 
 
 
भगवती गौरा (पार्वती) जी ने इस स्थान पर तपस्या में रहते हुए भगवान आशुतोष (शंकर) को प्रसन्न किया था । यहाँ पर भगवती गौरी जी की भव्य प्रतिमा मंदिर में विराजमान है । मंदिर के उत्तर भाग में गरम जल का कुण्ड है भगवती गौरा माई के स्नान कुण्ड के कारण ही इस स्थान का नाम गौरीकुण्ड पडा । केदारनाथ प्रस्थान करने से पूर्व यात्रीजन यहीं पर स्नान करते हैं । यहाँ पर मंदिर समिति के एवं अन्य भी कई विश्राम गृह हैं । यहीं से श्री केदारनाथ की 14 किमी0 की पैदल यात्रा शुरू होती है । मंदिर का जीर्णोद्धार किया जाना है । 
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श्री त्रियुगीनारायण मन्दिर, त्रियुगीनारायण 
 
 
यहाँ पर भगवान विष्णु का प्राचीन मंदिर है । भगवान यहाँ पर नारायण के रूप में विराजमान हैं । यहाँ पर धूनी (अग्निकुण्ड) त्रेता युग से निरन्तर प्रज्वलित है। इसी कारण इसका नाम त्रियुगीनारायण है । जब भगवान शंकर एवं पार्वती जी का विवाह हुआ तो उस समय भगवान नारायण ने ही ब्राह्मण के रूप में आकर शिव पार्वती के विवाह को सम्पन्न करवाया था। भगवान विष्णु की मूर्ति यहाँ नारायण के रूप में विद्यमान है । साथ ही सरस्वती एवं लक्ष्मी जी के विग्रह भी सिंहासन पर विराजमान हैं ।
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श्री परिक्रमा स्थित देवस्थल, त्रियुगीनारायण 
 
 
त्रियुगीनारायण में मंदिर परिसर में एक जल धारा निकलती है जिसे सरस्वती गंगा कहते हैं । उसी धारा को लेकर चार कुण्ड बना दिये गये हैं । जिनके नाम हैं- ब्रहम कुण्ड, रूद्र कुण्ड, विष्णु कुण्ड और सरस्वती कुण्ड । रूद्र कुण्ड में स्नान विष्णु कुण्ड में मार्जन ब्रहम कुण्ड में आचमन तथा सरस्वती कुण्ड तिल तर्पण का विधान है । इन कुण्डों में रूद्र कुण्ड बडा है । त्रियुगीनारायण तक मोटर मार्ग है तथा यहाँ पर काली कमली की धर्मशाला है । यहाँ पर वर्ष भर पूजा होती है ।
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श्री तुंगनाथ मन्दिर, तुंगनाथ 
 
 
यह मंदिर तृतीय केदार के नाम से विख्यात है । मंदिर प्राचीन है गर्भ गृह में शिवलिंग वक्षस्थल ग्रीवा के रूप में अवस्थित है । यह स्थान अति रमणीक है । लगभग 14000 फीट ऊँचाई पर शैल शिखर पर विराजमान है । अत्यन्त ऊँचाई के कारण इसका नाम तुंगनाथ पडा । यहाँ पर यात्राकाल मई से नवम्बर तक का है । शीतकाल में मक्कूमठ नामक स्थान पर भगवान तुंगनाथ जी की उत्सव मूर्ति डोली यात्रा के साथ लाई जाती है । गुप्तकाशी-गोपेश्वर मोटर मार्ग पर चोपता नामक स्थान से लगभग 4 किमी0 के पैदल मार्ग को चढकर यहाँ पहुँचा जाता है । मंदिर से लगभग 2 किमी0 की ऊचाँई पर चन्द्रशिला है, जहाँ से ऊँची चोटियाँ त्रिशूली,चौखम्बा, केदारनाथ, नीलकण्ठ, नन्दादेवी शैल शिखर के आकर्षक दर्शन होते हैं । यह स्थान अति रमणीक है । यह पर मंदिर समिति का विश्राम गृह है । 
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श्री तुंगनाथ मन्दिर, मक्कूमठ 
 
 
तुंगनाथ जी की शीतकालीन पूजा मक्कूमठ स्थित तुंगनाथ मंदिर में सम्पन्न होती है । यहाँ पर तुंगनाथ शिवालय है । मोटर मार्ग से यहाँ पर सुगमता से पहुँचा जाता है । ऊखीमठ से लगभग 45 किमी0 की दूरी पर यह स्थान है । यहाँ पर मंदिर समिति का भवन भी है ।
 वापस..
 
 
श्री काली शिला कालीमठ 
 
 
काली शिला स्थान कालीमठ से पूरब की ओर लगभग 4 किमी0 चढाई पर जंगल में पहाडी के शिखर पर एक विशाल शिला के रूप में है । प्राकृतिक रूप से अनगिनत त्रिभुजाकार यंत्रों से परिपूर्ण यह शिला, काल शिला के रूप से प्रसिद्ध है । शिला के मध्यभाग में एक लिंगाकार स्फटिक है जिसकी महाकाली के रूप में पूजा की जाती है ।शारदीय एवं बसन्त नवरात्र में इस स्थान पर नवरात्र पाठ पूजा का विशेष महत्व है । यहाँ पर भगवती काली ने महिषासुर दैत्य का वध किया था । तदुपरान्त भगवती शिला के रूप में अवस्थित हुई । यहां पर विश्राम हेतु मंदिर समिति का एक विश्रामगृह भी है । काल शिला में जीर्णोद्धार किया जाना है ।

Rajen

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Thanks प्रकाश शुक्ला jee,
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गुहा मंदिर - रुद्रनाथ

इस मन्दिर मैं शिव अपने भयानक आकार मैं हैं बड़े -बड़े मुछ और लंबे-लंबे बालों से भगवान् शिव के आकृति को बनाया गया है मंदाकिनी व अलकनंदा जल-विभाजक की सीधी खड़ी चट्टान के पाद स्थल पर अवस्थित रुद्रनाथ गुहा मंदिर है। जहाँ कि गुहा को एक भित्ति बनाकर बंद कर दिया गया है। आंतरिक भाग में मुखाकृतिक लिंग है, जिस पर गुहा से जल की बूँदें टपकती रहती हैं। यह शिव की भयावह आकृति है, जिसे वस्त्र द्वारा ढककर रख गया है, इसमें चाँदी की दो आँखें लगी हुई हैं। साथ ही लंबे केश व मूँछें बनाई गई हैं। सिर पर चाँदी का विशाल छत्र सुशोभित है।
रुद्रनाथ, गोपेश्वर से उत्तर पश्चिम दिशा में अवस्थित है। यहाँ पहुँचने के लिए दो मुख्य मार्ग हैं। एक गोपेश्वर से व दूसरा मंडल होकर जाता है। गोपेश्वर से 16 किमी खड़ी चढ़ाई के पैदल मार्ग पर चलकर रुद्रनाथ पहुँचा जाता है। दूसरा रुद्रप्रयाग से ऊखीमठ, चोपटा होकर मंडल पहुँचा जाता है, तत्पश्चात 21 किमी. की पदयात्रा कर रुद्रनाथ पहुँचा जाता है।



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रुद्रप्रयाग से मंदाकिनी के साथ-साथ गौरीकुंड का रास्ता है। कुल दूरी ६७ कि.मी. काफी कठिन चढ़ाई है। एक ओर आकाश छूते पहाड़ हैं, तो दूसरी ओर तंग घाटी। चढ़ाई प्रारंभ होने से पहले 'अगस्त्य मुनि' नामक कस्बा है। इस रास्ते में प्रसिद्ध असुर राजा वाणासुर की राजधानी शोणितपुर के चिन्ह भी मिलते हैं।

 फिर आता है गुप्तकाशी। 'काशी' यानी भगवान शंकर की नगरी। गुप्तकाशी मंदिर में 'अर्द्धनारीश्वर' के रूप में भगवान शंकर विराजमान हैं। गुप्तकाशी से २० कि.मी. आगे स्वर्णप्रयाग है, जहाँ स्वर्ण गंगा मंदाकिनी से मिलती है। आगे 'नारायण कोटि' नामक गाँव हैं। यहाँ देव मूर्तियाँ खंडित अवस्था में प्राप्त हुई हैं।



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