Author Topic: Spiritual Places of Uttarakhand - विभिन्न स्थानों से जुड़ी धार्मिक मान्यतायें  (Read 12351 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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प्राचीन परशुराम मंदिर - UTTARKASHI

यहां भगवान विष्णु एवं उनके 24वें अवतार परशुराम की पूजा होती है। यहां परशुराम की प्रतिमा इस मंदिर में 8वीं सदी से ही है।

RELIGIOUS IMPORTANCE

कहा जाता है कि परशुराम ने अपने पिता की आज्ञा से अपनी माता का सिर काट दिया। जमदग्नि मुनि ने इस आज्ञाकारिता से प्रसन्न होकर उन्हें एक वरदान दिया। परशुराम ने वरदान स्वरूप अपनी माता के पुनर्जीवन की मांग की जो मिल गया। फिर भी, वे मातृ हत्या के अपराधी हुए तथा उनके पिता ने उन्हें उत्तरकाशी जाकर प्रायश्चित करने को कहा। इस प्रकार उत्तरकाशी उनकी तपोस्थली है।
 



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प्राचीन भैरों मंदिर UTTARKARSHI

इस मंदिर में भैरों की प्रतिमा स्वयंभू है अर्थात अपने आप उदित। केदार खंड में कहा गया है कि भगवान शिव से पहले भैरों की पूजा होती है क्योंकि वे भगवान शिव के रक्षक हैं। इसलिये यह मूर्ति विश्वनाथ मंदिर का संरक्षक है ठीक उसी प्रकार जैसे वाराणसी में विश्वनाथ मंदिर के निकट ही भैरव मंदिर है।
 

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गौरीकुंड जहाँ पर कटा था गणेश भगवान् का सिर

गौरीकुंड ( रुद्रप्रयाग ) मे गौरीकुंड नाम का जगह है ! जहाँ पर कहा जाता है की गौरी माता सनान करती थी , इसी जगह पर एक बार जब गौरा माता स्नान कर रही थे और दरवाजे पर गणेश भगवान् को उन्होंने दरवाजे पर पहरी के रूप मे खड़ा किया था ! परन्तु जब भोले नाथ वहां पर आए उन्हें यह पता नही था और उन्होंने विवाद मे गणेश जी का सिर काट दिया !

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केदार नाथ से जुड़ी धार्मिक मान्यता


केदारनाथ मंदिर का अस्तित्व पहले भी था क्योंकि स्वयं भगवान शिव ने भी यहां तप किया था। केदारनाथ के बारे में अधिक हाल की किंबदन्ती पांडवों से संबंधित है जो महाकाव्य महाभारत के नायक थे तथा भगवान शिव जो रूद्रप्रयाग तथा चमोली जिलों के इर्द-गिर्द संपूर्ण केदारनाथ क्षेत्र के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित करता है।

यह समय महाभारत का उत्तरकाल है। पांडव विजयी हुए हैं, पर वे सगे संबंधियों से युद्ध कर उदास हैं इसलिए अपने भाईयों को मारने के पाप से मुक्ति पाने के लिए वे ऋषि वेदव्यास के पास जाते है। व्यास उन्हें भगवान शिव के पास भेजते हैं क्योंकि केवल वे ही क्षमा दान दे सकते हैं और केदारेश्वर के बिना मुक्ति या छुटकारा पाना संभव नहीं है। इसलिए पांडव शिव की खोज करते है। भावु शिव उन्हें क्षमा करने को तैयार नहीं हैं पर चूंकि वे ना भी नहीं कह सकते इसलिए भागे फिर रहे है और उनके सामने आना नहीं चाहते।

परंतु पांडवों को उन्हें ढूंढना ही था और इस प्रकार वे उनके पीछे-पीछे चलते रहे। शिव आगे-आगे और पांडव उनके पीछे-पीछे यत्र, तत्र, सर्वत्र चलते रहे। जब भगवान शिव काशी पहुंचे तो पांडवों ने उन्हें देख लिया और फिर शिव विलीन होकर गुप्तकाशी में प्रकट हुए। इस प्रकार गढ़वाल हिमालय में इस जगह का नाम ऐसा पड़ा तथा कुछ समय तक भगवान शिव इस निर्जनता में वेश बदलकर खुशी-खुशी रहे। परंतु कुछ समय बाद ही पांडवों को उनका सुराग मिल गया और फिर महाभाग-दौड़ शुरू हुआ।

अंत में भगवान शिव केदार घाटी पहुंच गये। जो एक चालाक विकल्प नहीं हो सकता था क्योंकि इसके और आगे कोई रास्ता नहीं था और केवल बर्फीली चोटियां क्षेत्र उनके लिए बाधा नहीं हो सकते थे। संभवतः उन्होंने तय कर लिया था कि पांडवों की काफी परीक्षा हो चुकी है।

केदारघाटी में प्रवेश एवं बाहर आने का एक ही रास्ता है, पांडवों को भान हुआ कि वे भगवान शिव के पहुंच के करीब हैं। पर शिव ने अभी भी सोचा या ऐसा बहाना किया कि वे खेल जारी रखना चाहते हैं। चूंकि उच्च पर्वतों पर कई चारागाह थे इसलिए शिव बैल का रूप धारण मवेशियों के साथ मिल गये ताकि उन्हें पहचाना नहीं जाय और इस प्रकार पांडवों के लिए यह इतना निकट पर कितने दूर साबित हो।

इतनी दूर आने के बाद पांडव इसे छोड़ देने को तैयार नहीं थे। निश्चित ही नहीं। शीघ्र ही उन्होंने भगवान शिव को फंसाने की कार्य योजना बनायी। भीम अपनी काया को विशाल बनाकर प्रवेश द्वार पर खड़े हो गये जिससे घाटी का रास्ता अवरूद्ध हो गया। पांडवों के अन्य भाईयों ने मवेशियों को हांकना शुरू किया। विचार यह था कि मवेशी तो भीम के फैले पैर के बीच से निकल जांयेंगे पर भगवान होने के नाते शिव ऐसा नहीं करेंगे और उन्हें जानकर वे पकड़ लेगें। भगवान शिव ने इस योजना को भांप लिया तथा अंतिम प्रयास के रूप में उन्होंने अपना सिर पृथ्वी में घुसा दिया। विशाल भीम को इसका भान हुआ तथा वे शीघ्र उस जगह पहुंचे। तब तक बैल कमर तक पृथ्वी में समा चुका था और केवल दोनों पीछे के पैर और पूछ ही जमीन के ऊपर थी। भीम ने पूछ पकड़ ली और उसे जाने नहीं दिया। उस क्षण शिव मान गये। वे अपने मूल रूप मे आकर पांडवों के समक्ष प्रकट हुए तथा उन्हें अपने सगे-संबंधियों की गोत्र हत्या से मुक्ति दे दी। जमीन के ऊपर बैल के पिछले भाग की पूजा करने उनके साथ वे भी शामिल हो गये और इस प्रकार वे केदारनाथ के प्रथम पूजक बने और उन्होंने ही केदारनाथ का मूल मंदिर बनवाया जिसके बाद मानव-भक्तों ने इसे बनवाया।

पृथ्वी के अंदर का धसा भाग विभिन्न जगहों पर फिर प्रकट हुआ जो नेपाल में पशुपतिनाथ तथा गढ़वाल के कपलेश्वर या कल्पनाथ में बाल, रूद्रनाथ में चेहरा (मुंह) तुंगनाथ में छाती तथा वाहे एवं मध-माहेश्वर में मध्य भाग या नाभि-क्षेत्र है और इसलिए इन जगहों पर शिव के लिंग की पूजा नहीं होती है उनके अन्य अंगों की पूजा होती है।

गढ़वाल में इन पांच स्थलों को पंच केदार कहा जाता है। माना जाता है कि जो भी तीर्थयात्री इन पांच मंदिरों में पूजा कर लेता है उसके जीवन भर के पाप धुल जाते हैं।

मम क्षेत्राणी पंचेवा भक्तिप्रीतिकारिणी वै

केदारम मध्यम तुंग थाता रूद्रालयम प्रियम

कल्पकम चा महादेवी सर्वपाप प्रनाशममं

कथितं ते महाभागे केदारेश्वर मंडलम

मेरे मात्र पांच स्थल हैं जो शिष्यों में प्रेम लाते हैं वे केदारनाथ, मध्यम (मधमाहेश्वर) तुंग (तुंगनाथ) रूद्रालय (रूद्रनाथ) तथा कल्पकार (कल्पेश्वर) हैं। हे महादेवी, ये सभी पाप धो डालते हैं।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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केदार नाथ के निकट भैरव मन्दिर

केदारनाथ मंदिर यहां की भूमि का संरक्षण एवं रखवाली करता है, पर जाड़ों में जब मंदिर बंद हो जाता है तब भैरवनाथ ही इस स्थान की बुराइयों से रक्षा करते हैं। हैलीपैड के ठीक ऊपर केदारनाथ मंदिर से आधा किलोमीटर दूर भैरव को समर्पित यह मंदिर है, जहां पूजा केदारनाथ मंदिर के खुलने पर और बंद होने से पहले होती है। बनिया समुदाय एवं चरवाहों के लिये यह विशिष्ट पूजा स्थल है।




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रूद्रप्रयाग

हिंदु दर्शन के अनुसार रूद्रप्रयाग पांच धार्मिक क्षेत्रों में से एक माना जाता है। रूद्र क्षेत्र रूद्रप्रयाग से शुरू होता है तथा केदारनाथ एवं बद्रीनाथ इसमें शामिल हैं। रूद्र भगवान शिव का क्षेत्र है। रूद्रप्रयाग को एक पवित्र एवं धार्मिक स्थान इसलिये भी माना जाता है कि बद्रीनाथ पर्वत से उदित अलकनंदा तथा केदारनाथ से निकलने वाली मंदाकिनी का मिलन यहीं पर होता है।
कहा जाता है कि आज जहां रूद्रेश्वर मंदिर स्थित है वहीं एक बार नारद मुनि ने भगवान शिव से संगीत का ज्ञानार्जन के लिये प्रार्थना किया। उन्होंने 100 देव वर्षों तक तप किया। उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान शिव अपनी पत्नी पार्वती एवं गणों के साथ नारद मुनि के सामने प्रकट हुए। उन्होंने नारदजी को संगीत का पूर्ण ज्ञान दिया जो सामवेद के रूप में था। माना जाता है कि उस समय संगीत की अन्य अनिवार्यताओं के साथ 36 राग-रागिनियों का जन्म हुआ। जब नारद मुनि ने भगवान शिव से प्रसाद मांगी तो उन्होंने उन्हें (नारद को) महती वीणा दी जो तीनों लोकों में भ्रमण के समय उनके संग की पहचान हुई। नारद मुनि भगवान शिव से एक और वर प्राप्त करने में सफल हुए कि भगवान शिव सपरिवार रूद्रेश्वर में वास करें। भगवान शिव ने इसे मान लिया और तब से ही वे यहां है।

रूद्रप्रयाग से संबद्ध एक और रहस्य (किंबदन्ती) है। यहां से चार किलोमीटर दूर कोटेश्वर में एक कोटि राक्षसों ने भगवान शिव की आराधना की कि वे उनके बुरे एवं संकटपूर्ण जीवन से मुक्ति प्रदान करें। भगवान शिव ने प्रकट होकर उनकी इच्छा पूरी कर दी। दानवों ने यह भी इच्छा प्रकट किया कि अनंतकाल तक उनका नाम याद किया जाय। भगवान शिव ने कहा कि उस जगह का नाम कोटेश्वर होगा और वे स्वयं वहां वास करेंगे।[/b]

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रूद्रेश्वर महादेव मंदिर - जहाँ  नारद मुनि ने संगीत का ज्ञान प्राप्त करने के लिये भगवान शिव की पूजा की थी

रूद्रेश्वर मंदिर संगम के निकट स्थित है तथा कभी यह बद्रीनाथ तथा केदारनाथ के प्राचीन पथ पर था। इन दो मंदिरों तक जाने से पहले साधुओं और विद्वानों द्वारा इसका इस्तेमाल विश्राम के लिये होता था। वह यही मंदिर था जहां 19वीं सदी के प्रारंभ में जानेमाने एवं सम्माननीय स्वामी सच्चिदानंद जी महारज भी ठहरे थे। कहा जाता है कि जब वे प्रथम बार रूद्रप्रयाग आये थे तो अंधे थे पर भगवान शिव से प्रार्थना करने पर वे पूरी तरह ठीक हो गये। अपने प्रवचनों एवं धार्मिक भाषणों से प्राप्त चंदों से उन्होंने रूद्रप्रयाग में अस्पताल, एक स्कूल तथा एक आश्रम बनवाया जो आज भी मौजूद हैं, यद्यपि अब इन्हें सरकार चलाती है।
 

कहा जाता है कि आज जहां रूद्रेश्वर मंदिर है, वहां नारद मुनि ने संगीत का ज्ञान प्राप्त करने के लिये भगवान शिव की पूजा की थी। उन्होंने 100 देव वर्षो तक तप किया। उनकी प्रार्थना सफल हुई तथा भगवान शिव अपनी पत्नी एवं गणों के साथ प्रकट हुए। उन्होंने सामवेद के रूप में नारद को संगीत का संपूर्ण ज्ञान दिया। माना जाता है कि संगीत की अन्य विधाओं के साथ उस समय 36 राग-रागिनियों का जन्म हुआ। जब नारद मुनि ने प्रसाद मांगा तो भगवान शिव ने उन्हें महती वीणा प्रदान किया जो तीनों लोकों में भ्रमण करते नारद की पहचान है। नारद मुनि ने भगवान शिव से एक वचन भी प्राप्त किया कि वे सपरिवार रूद्रेश्वर में रहें। भगवान शिव ने इसका पालन किया और जब से ही वे यहां वास करते हैं।

मंदिर के अंदर एक प्राचीन शिवलिंग एवं पार्वती की एक छोटी प्रतिमा है। इस मंदिर के महंत गुरू-शिष्य परंपरा का पालन करते हैं।
 

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हरियाली देवी मंदिर

नगरसुके मुडे पथ पर रूद्रप्रयाग से 16 किलोमीटर दूर।

हरियाली देवी एक सिद्ध पीठ है जो उत्तराखंड के 58 मंदिरों में से एक है। एक किंबदन्ती के अनुसार श्रीकृष्ण की माता देवकी की सातवीं पुत्री महामाया को जोरों से पृथ्वी पर कंस ने पटक दिया था। महामाया के शरीर के कई भाग भूमि पर छितरा गए। हाथ वहीं गिरा था जहां आज हरियाली देवी का मंदिर है। यहां हरियाली देवी को पीले वस्त्रों एवं जेवरों से सज्जित एक सिंह पर सवार के रूप में दिखाया गया है। जन्माष्टमी तथा दीवाली के दौरान इस मंदिर पर हजारों-हजार भक्त आते है तथा उनमें से कई सात किलोमीटर दूर हरियाली कंठ तक देवी की डोली के साथ चलते है। 3,000 मीटर ऊंचाई पर अवस्थित हरियाली कंठ मंदिर में हरियाली देवी, क्षेत्रपाल तथा हीत देवी की प्रतिमाएं हैं। यह हरे-भरे जंगलों के बीच स्थित है जहां से बर्फ से ढ़के पर्वतों का अद्भुत दर्शन होता है।


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जोशीमठ

जैसा कि अधिकांश प्राचीन एवं श्रद्धेयस्थलों के लिये होता है, उसी प्रकार जोशीमठ का भूतकाल किंवदन्तियों एवं रहस्यों से प्रभावित है जो इसकी पूर्व प्रधानता को दर्शाता है। माना जाता है कि प्रारंभ में जोशीमठ का क्षेत्र समुद्र में था तथा जब यहां पहाड़ उदित हुए तो वह नरसिंहरूपी भगवान विष्णु की तपोभूमि बनी।
किंबदन्ती में दानव हिरण्यकश्यपु तथा उसके पुत्र प्रह्लाद की कथा है। हिरण्यकश्यपु को वरदान प्राप्त था कि किसी स्त्री या पुरूष, दिन या रात, घर के अंदर या बाहर या तथा किसी शस्त्र के प्रहार द्वारा उसे मारा नहीं जा सकेगा। इसने उसे अहंकारी बना दिया और वह अपने को भगवान मानने लगा। उसने अपने राज्य में विष्णु की पूजा को वर्जित कर दिया। प्रह्लाद, भगवान विष्णु का उपासक था और यातना एवं सजा के बावजूद वह विष्णु की पूजा करता रहा। क्रोधित होकर हिरण्यकश्यपु ने अपनी बहन होलिका से कहा कि वह अपनी गोद में प्रह्लाद को लेकर प्रज्ज्वलित अग्नि में चली जाय क्योंकि होलिका को वरदान था कि वह अग्नि में नहीं जलेगी। प्रह्लाद को कुछ भी नही हुआ और होलिका जलकर राख हो गयी। अंतिम प्रयास में हिरण्यकश्यपु ने एक लोहे के खंभे को गर्म कर लाल कर दिया तथा प्रह्लाद को उसे गले लगाने को कहा। एक बार फिर भगवान विष्णु प्रह्लाद को उबारने आ गये। खंभे से भगवान विष्णु नरसिंह के रूप में प्रकट हुए तथा हिरण्यकश्यपु को चौखट पर, गोधुलि बेला में आधा मनुष्य, आधा जानवर (नरसिंह) के रूप में अपने पंजों से मार डाला।

कहा जाता है कि इस अवसर पर नरसिंह का क्रोध इतना प्रबल था कि हिरण्यकश्यपु को मार डालने के बाद भी कई दिनों तक वे क्रोधित रहे। अंत में, भगवती लक्ष्मी ने प्रह्लाद से सहायता मांगी और वह तब तक भगवान विष्णु का जप करता रहा जब तक कि वे शांत न हो गये। आज उन्हें जोशीमठ के सर्वोत्तम मंदिर में शांत स्वरूप में देखा जा सकता है।

नरसिंह मंदिर से संबद्ध एक अन्य रहस्य का वर्णन स्कंद पुराण के केदारखंड में है। इसके अनुसार शालीग्राम की कलाई दिन पर दिन पतली होती जा रही है। जब यह शरीर से अलग होकर गिर जायेगी तब नर एवं नारायण पर्वतों के टकराने से बद्रीनाथ के सारे रास्ते हमेशा के लिये बंद हो जायेंगे। तब भगवान विष्णु की पूजा भविष्य बद्री में होगी जो तपोवन से एक किलोमीटर दूर जोशीमठ के निकट है।

इस किंवदंती से उदित एक कथा यह है कि इस क्षेत्र के प्रारंभिक राजा वासुदेव का एक वंशज एक दिन शिकार के लिये जंगल गया तथा उसकी अनुपस्थिति में भगवान विष्णु नरसिंह मानव रूप में वहां आये तथा रानी से भोजन की याचना की। रानी ने उन्हें खाने को काफी कुछ दिया तथा खाने के बाद वे वहां राजा के बिस्तर पर सो गये। राजा जब शिकार से वापस आया तो उसने अपने बिस्तर पर एक अजनबी को सोया देखा। उसने अपनी तलवार उठायी और उसकी बांह पर आघात किया, परंतु वहां से रक्त के बदले दूध बह निकला। तब भगवान विष्णु प्रकट हुए तथा राजा से बताया कि वह उन्हें आघात पहुंचाने का प्रायश्चित करने जोशीमठ छोड़ दे तथा अपना घर कत्यूर में बसा लें। उन्होंने कहा कि जो आघात उन्हें उसने दिया है वह मंदिर में उनकी मूर्ति पर रहेगा और जिस दिन वह गिर जायेगा, उस दिन राजा के वंश का अंत हो जायेगा।

जोशीमठ ही वह जगह है जहां ज्ञान प्राप्त करने से पहले आदि शंकराचार्य ने शहतूत के पेड़ के नीचे तप किया था। यह कल्पवृक्ष जोशीमठ के पुराने शहर में स्थित है और वर्षभर सैकड़ों उपासक यहां आते रहते हैं। बद्रीनाथ के विपरीत जोशीमठ प्रथम धाम या मठ है जिसे शंकराचार्य ने स्थापित किया, जब वे सनातन धर्म के सुधार के लिये निकले। इसके बाद उन्होंने भारत के तीन कोनों में द्वारका (पश्चिम) श्री गोरी (दक्षिण) और पुरी (पूर्व) में मठ स्थापित किये।

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कल्पवृक्ष एवं आदि शंकराचार्य गुफा (जोशीमठ)

कहा जाता है कि 8वीं सदीं में सनातन धर्म का पुनरूद्धार करने आदि शंकराचार्य जब उत्तराखंड आये थे तो उन्होंने इसी शहतूत पेड़ के नीचे जोशीमठ में पूजा की थी। यहां उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई। कहा जाता है कि उन्होंने राज-राजेश्वरी को अपना ईष्ट देवी माना था और इसी पेड़ के नीचे देवी उनके सम्मुख एक ज्योति या प्रकाश के रूप में प्रकट हुई तथा उन्हें बद्रीनाथ में भगवान विष्णु की मूर्ति को पुनर्स्थापित करने की शक्ति तथा सामर्थ्य प्रदान किया। जोशीमठ, ज्योतिर्मठ का बिगड़ा स्वरूप है, जो इस घटना से संबद्ध है।
अब यह पेड़ 300 वर्ष पुराना है तथा इसके तने 36 मीटर में फैले हैं। यह भी कहा जाता है कि यह पेड़ वर्षभर हरा-भरा रहता है एवं इससे पत्ते कभी नहीं झड़ते।



 

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