भगवान विष्णु
माना जाता है कि ब्रह्मांड की रचना करने से पहले ब्रह्मांड ने 10,000 वर्षो तक भगवान विष्णु की आराधना कर उनसे सुदर्शन चक्र प्राप्त किया। इसीलिये देवप्रयाग को ब्रह्मतीर्थ एवं सुदर्शन क्षेत्र भी कहा जाता है। संगम के निकट ब्रह्मकुंड को वह स्थान माना जाता है जहां ब्रह्मा ने तप किया था। देव शर्मा नामक एक ब्राह्मण के 11,000 वर्षों तक तपस्या करने के बाद भगवान विष्णु यहां प्रकट हुए। उन्होंने देव शर्मा से कहा कि वे त्रेता युग में देवप्रयाग लौटेंगे तथा भगवान राम बनकर उन्होंने इसे पूरा किया। माना जाता है कि श्रीराम ने ही देव शर्मा के नाम पर इसे देवप्रयाग का नाम दिया। रावण के वध के पाप से त्राण पाने के लिये भगवान राम देवप्रयाग आये। देवप्रयाग को भगवान शिव का पसंदीदा स्थान माना जाता है क्योंकि गंगा यहीं उद्भवित होती है। देवप्रयाग के चार कोनों के बीच वे उपस्थित हैं। पूर्व में धानेश्वर मंदिर, दक्षिण में तांडेश्वर मंदिर, पश्चिम में तांतेश्वर मंदिर तथा उत्तर में बालेश्वर मंदिर तथा केंद्र में आदि विश्वेश्वर मंदिर है। कहा जाता है कि जो कोई भी इन पांचों मंदिरों में जाता है, वह पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो जाता है। ऐसा भी कहा जाता है कि एक शिवलिंग गंगा के जल के नीचे भी है, पर इसे कुछ प्रबुद्ध लोग ही देख सकते हैं।
भगवान विष्णु के पांच अवतारों का भी देवप्रयाग से संबंध है। जिस स्थान पर वे वाराह के रूप में प्रकट हुए उसे वाराह शिला कहते है और माना जाता है कि मात्र इसके स्पर्श से ही मुक्ति प्राप्त होती है। वह स्थान जहां राजा बलि ने इन्द्र की पूजा की थी एवं जहां वामन रूप में भगवान विष्णु प्रकट हुए थे, उसे वामन गुफा कहते हैं। नरसिंहाचल, देवप्रयाग के बहुत निकट है तथा नरसिंह के रूप में भगवान विष्णु इस पर्वत के शिखर पर रहते हैं। इस पर्वत का आधार स्थल परशुराम की तपोस्थली थी, जिन्होंने अपने पितृहन्ता राजा सहस्रबाहु को मारने से पहले यहां तप किया था। इसे वह स्थान भी माना जाता है जहां भगवान राम ने प्रायश्चित एवं तप किया था। इसके निकट एक अन्य जगह है शिव तीर्थ, वह स्थान जहां भगवान राम की बहन शांता ने श्रृंगी मुनि से विवाह करने के लिये तपस्या की थी। भगवान शिव के वरदान स्वरूप शांता एक जलाशय में परिवर्तित हो गई तथा आज भी श्रृंगी मुनि के आश्रम के पास दशरथांचल की चोटी से प्रवाहित होती है। श्रृंगी मुनि के यज्ञ के फलस्वरूप ही भगवान राम के पिता दशरथ को पुत्र प्राप्त हुए थे। भगवान राम के गुरू भी इस स्थान पर रहे थे जिसे पवित्र वशिष्ठ गुफा कहते हैं। कहा जाता है कि पुत्र प्राप्ति की इच्छा रखने वाले युगलों को एक महीने तक यहां आराधना करना चाहिये।। गंगा नदी के उत्तर एक पर्वत को राजा दशरथ की तपोस्थली माना जाता है।
देवप्रयाग जिस पहाड़ी पर अवस्थित है उसे गृद्धाचल कहते हैं। यह स्थान गिद्ध वंश के जटायु की तपोभूमि थी। पहाड़ी के आधार स्थल वह स्थान है जहां भगवाम राम ने एक सुंदर स्त्री किन्नर को मुक्त किया था, जो ब्रह्मा द्वारा शापित एक मकड़ी रूप में थी। इसी स्थान के निकट वह जगह भी है जहां उड़ीसा के राजा इन्द्रध्युम ने भगवान विष्णु की आराधना की थी। बाद में जगन्नाथ पुरी में मंदिर की स्थापना का श्रेय उसे ही जाता है।
माना जाता है कि मोक्ष के लिये देवप्रयाग के संगम में स्नान करना सर्वाधिक लाभदायक होता है। देवप्रयाग को पूर्वजों के पिंडदान के लिये भी अग्रणी माना जाता है।
नरसिंह मंदिर:
कुछ कहते हैं कि इसकी स्थापना पांडवों ने की थी, जब वे स्वर्गरोहिणी की अंतिम यात्रा पर थे। दूसरे मत के अनुसार इसकी स्थापना आदि गुरू शंकराचार्य ने की क्योंकि वे नरसिंह को अपना ईष्ट मानते थे।
नरसिंह मूर्त्ति के लिए आम विश्वास है कि प्रत्येक दिन इसकी एक कलाई पतली होती जाती है और जिस दिन पूरी गायब होगी, वह दिन बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण होगा। नर एवं नारायण पर्वत जो बद्रीनाथ के प्रहरी हैं, कभी एक-दूसरे से टकराकर बद्रीनाथ मंदिर का मार्ग हमेशा के लिये अवरूद्ध कर देंगे।
इसके बाद इनकी पूजा भविष्य बद्री में सुभाय गांव में होगी जो तपोवन से 5 किलोमीटर दूर होगा और तपोवन जोशीमठ से 18 किलोमीटर दूर है। यहां एक विष्णु मंदिर है। कहा जाता है कि अगस्त मुनि ने यहां तप किया था और तब से ही भगवान बद्री यहां रहते हैं। वास्तव में प्रतिमा की कलाई को देख पाना संभव नहीं होता, क्योंकि नरसिंह की मूर्ति सुंदर परिधानों से सजी होती है जो भक्तों द्वारा चढ़ाये जाते हैं, परंतु पुजारी के अनुसार यह एक बाल की चौड़ाई के समान पतली है।
श्री विष्णु मंदिर:
यह मंदिर धौली गंगा एवं अलकनंदा के संगम पर है, अलकनंदा नदी पर अंतिम पंच प्रयागों में है।
कहा जाता है कि इस मंदिर की स्थापना आदि शंकराचार्य ने तब की थी जब उन्हें एक स्वप्न आया कि भगवान विष्णु की एक अन्य प्रतिमा अलकनंदा नदी में तैर रही थी।
बद्रीनाथ धाम:
बद्रीनाथ का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। स्कंद पुराण के अनुसार जब भगवान शिव से बद्रीनाथ के उद्गम के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि यह शाश्वत है जिसकी कोई शुरूआत नहीं। इस क्षेत्र के स्वामी स्वयं नारायण हैं। जब ईश्वर चिरंतर है तो उसके नाम, छवि, जीवन तथा आवास सभी चिरंतर ही हैं। समयानुसार केवल पूजा का रूप एवं नाम ही बदलता है। स्कंद पुराण में भी वर्णन है कि सतयुग में इस स्थल को मुक्तिप्रद कहा गया, त्रेता युग में इसे भोग सिद्धिदा कहा गया, द्वापर युग में इसे विशाल नाम दिया गया तथा कलयुग में इसे बद्रिकाश्रम कहा गया। महाभारत महाकाव्य की रचना पास ही के माना गांव में व्यास एवं गणेश गुफाओं में की गयी।
माना जाता है कि एक दिन भगवान विष्णु शेष शय्या पर लेटे हुए थे तथा उनकी पत्नी भगवती लक्ष्मी उनके पैर दबा रही थीं, उसी समय ज्ञानी मुनि नारद उधर से गुजरे तथा उस शुभ दृश्य को देखकर विष्णु को सांसारिक आराम के लिए फटकारा। भयभीत होकर विष्णु ने लक्ष्मी को नाग कन्याओं के पास भेज दिया तथा स्वयं एक घाटी में हिमालयी निर्जनता में गायब हो गये जहां जंगली बेरियां (बद्री) थी, जिसे वे खाकर रहते। एक योग ध्यान मुद्रा में वे कई वर्षों तक तप करते रहे। लक्ष्मी वापस आयीं और उन्हें नहीं पाकर उनकी खोज में निकल पड़ीं। अंत में वह बद्रीवन पहुंचीं तथा विष्णु से प्रार्थना की कि वे योगध्यानी मुद्रा का त्याग कर मूल ऋंगारिक स्वरूप में आ जाये। इसके लिए विष्णु सहमत हो गये लेकिन इस शर्त्त पर कि बद्रीवन की घाटी तप की घाटी बनी रहे, न कि सांसारिक आनंद का और यह कि योगध्यानी मुद्रा तथा ऋंगारिक स्वरूप दोनों में उनकी पूजा की जाय। प्रथम मुद्रा में लक्ष्मी उनकी बांयीं तरफ बैठी थीं एवं दूसरे स्वरूप में लक्ष्मी उनकी दायीं ओर बैठी थीं फलस्वरूप उन दोनों की पूजा एक दैवी जोड़े के रूप में होती है तथा व्यक्तिगत प्रतिमाओं की तरह भी जिनके बीच कोई वैवाहिक संबंध नहीं होता क्योंकि परंपरानुसार पत्नी, पति के बायीं ओर बैठती है। यही कारण है कि रावल या प्रधान पुजारी को केवल केरल का नंबूद्रि ब्राह्मण, लेकिन एक ब्रह्मचारी भी होना चाहिए। योगध्यानी की तीन शर्तों का कठोर पालन किया गया है। गर्मी में तीर्थयात्रियों द्वारा विष्णु के ऋंगारिक रूप की पूजा की जाती है तथा जाड़े में उनके योग ध्यानी मुद्रा की पूजा देवी-देवताओं तथा संतों द्वारा की जाती है।
इसी किंवदन्ती का दूसरा विचार यह है कि भगवान विष्णु ने अपने घर बैकुंठ का त्याग कर दिया। सांसारिक भोगों की भर्त्सना की तथा नर और नारायण के रूप में तप करने बद्रीनाथ आ गये। उनके साथ नारद भी आये। उन्होंने आशा की कि मानव उनके उदाहरण से प्रेरणा ग्रहण करेगा। ऐसा ही हुआ, देवों, संतों, मुनियों तथा साधारण लोगों ने यहां पहुंचने का जोखिम मात्र भगवान विष्णु का दर्शन पाने के लिए उठाया। इस प्रकार भगवान को द्वापर युग आने तक अपने सही रूप में देखा गया, जब नर और नारायण के रूप में उनका अवतार कृष्ण और अर्जुन के रूप में हुआ (महाभारत) ।
कलयुग में भगवान विष्णु बद्रीवन से गायब हो गये क्योंकि उन्हें भान हुआ कि मानव बहुत भौतिकवादी हो गया है तथा उसका ह्दय कठोर हो गया है। देवगण एवं मुनि भगवान का दर्शन नहीं पाकर परेशान हुए तथा ब्रह्मदेव के पास गये जो भगवान विष्णु के बारे में कुछ नहीं जानते थे कि वे कहां हैं। उसके बाद वे भगवान शिव के पास गये और फिर उनके साथ बैकुंठ गये। यहां उन्हें यह आकाशवाणी सुनाई पड़ी कि भगवान विष्णु की मूर्त्ति बद्रीनाथ के नारदकुंड में पायी जा सकती है तथा इसे स्थापित किया जाना चाहिये ताकि लोग इसकी पूजा कर सकें। देववाणी के अनुसार 6,500 वर्ष पहले मंदिर का निर्माण स्वयं ब्रह्मदेव द्वारा किया गया तथा विष्णु की मूर्त्ति, ब्रह्मांड के सृजक विश्वकर्मा द्वारा बनायी गयी।
जब विधर्मियों द्वारा मंदिर पर हमला हुआ तथा देवों को भान हुआ कि वे भगवान की प्रतिमा को अशुद्ध होने से नहीं बचा सकते, तब उन्होंने फिर से इस प्रतिमा को नारदकुंड में डाल दिया। फिर भगवान शिव से पूछा गया कि भगवान विष्णु कहां गायब हो गये तो उन्होंने बताया कि वे स्वयं आदि शंकराचार्य के रूप में अवतरित होकर मंदिर की पुनर्स्थापना करेंगे, इसलिए यह शंकराचार्य जो केरल के एक गांव में पैदा हुए और 12 वर्ष की उम्र में अपनी दिव्य दृष्टि से बद्रीनाथ की यात्रा की। उन्होंने भगवान विष्णु की मूर्त्ति को फिर से लाकर मंदिर में स्थापित कर दिया। कुछ लोगों का विश्वास है कि मूर्त्ति बुद्ध की है तथा हिंदू दर्शन के अनुसार बुद्ध, विष्णु का नवां अवतार है और इस तरह यह बद्रीनाथ का दूसरा रूप समझा जा सकता है।
भगवान शिव
कमलेश्वर/सिद्धेश्वर मंदिर:
कहा जाता है कि जब देवता असुरों से युद्ध में परास्त होने लगे तो भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र प्राप्त करने के लिये भगवान शिव की आराधना की। उन्होंने उन्हें 1,000 कमल फूल अर्पित किये (जिससे मंदिर का नाम जुड़ा है) तथा प्रत्येक अर्पित फूल के साथ भगवान शिव के 1,000 नामों का ध्यान किया। उनकी जांच के लिये भगवान शिव ने एक फूल को छिपा दिया। भगवान विष्णु ने जब जाना कि एक फूल कम हो गया तो उसके बदले उन्होंने अपनी एक आंख (आंख को भी कमल कहा जाता है)चढ़ाने का निश्चय किया। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें सुदर्शन चक्र प्रदान कर दिया, जिससे उन्होंने असुरों का विनाश किया।
चूंकि भगवान विष्णु ने कार्तिक महीने में शुक्ल पक्ष के चौदहवें दिन सुदर्शन चक्र प्राप्त किया था, इसलिये बैकुंठ चतुर्दशी का उत्सव यहां बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। यही वह दिन है जब संतानहीन माता-पिता एक जलते दीये को अपनी हथेली पर रखकर खड़े रहकर रात-भर पूजा करते हैं। माना जाता है कि उनकी इच्छा पूरी होती है। इसे खड रात्रि कहा जाता है और कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं इस मंदिर पर अपनी पत्नी जामवंती के आग्रह पर इस प्रकार की पूजा की थी।
कहा जाता है कि इस मंदिर का ढ़ांचा देवों द्वारा आदि शंकराचार्य की प्रार्थना पर तैयार किया गया, जो उन 1,000 मंदिरों में से एक है, जिसका निर्माण रातों-रात गढ़वाल में हुआ था।
कहा जाता है कि नदी में उफान आया पर मंदिर के शिवलिंग के स्पर्श से पानी का स्तर कम हो गया। मंदिर के महंथ आशुतोष पुरी के अनुसार मंदिर का प्रशासन सदियों से पुरी वंश के महंथों के हाथ रहा है। यहां गुरू-शिष्य परंपरा का पालन होता है तथा प्रत्येक महंथ अपने उत्तराधिकारी के रूप में अपने सबसे निपुण शिष्य को चुनता है।
किलकिलेश्वर महादेव:
मंदिर के महंथ सुखदेव पुरी के अनुसार, मंदिर से संबंधित एक अन्य बात यह है कि अपने वनवास के पांचवें वर्ष अर्जुन ने इसी स्थान पर भगवान शिव की आराधना की थी। वह भगवान शिव का निजी अस्त्र पाशुपात प्राप्त करना चाहता था, जो इतना शक्तिशाली था कि किसी भी अन्य अस्त्र को निष्प्रभावी कर सकता था। अर्जुन ने लंबे समय तक तप किया। उसके तप से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उसके सामने एक धृष्ट शिकारी के रूप में प्रकट होकर उसे ललकारा। दोनो में घमासान द्वंद हुआ। अर्जुन परास्त होकर शिकारी को पहचान लिया और शिव के पैरों पर गिर गया। इसके बाद भगवान शिव ने उसे पाशुपात का ज्ञान दिया। जंगल में इर्द-गिर्द छिपे किरातों के बीच किलकिलाहट हुई और किलकिल शब्द पर ही मंदिर का नाम पड़ा।
अष्टावक्र महादेव:
माना जाता है कि अष्टावक्र मुनि ने यहां भगवान शिव की आराधना की थी। प्रसन्न होकर भगवान शिव, मुनि के सामने प्रकट हुए तथा वरदान के अनुसार वहां रहने का निश्चय किया। लोगों का ऐसा भी विश्वास है कि शिवलिंग की लंबाई बढ़ रही है। मंदिर में गणेश एवं नंदी की प्रतिमाएं भी हैं।
रूद्रेश्वर महादेव मंदिर:
कहा जाता है कि आज जहां रूद्रेश्वर मंदिर है, वहां नारद मुनि ने संगीत का ज्ञान प्राप्त करने के लिये भगवान शिव की पूजा की थी। उन्होंने 100 देव वर्षो तक तप किया। उनकी प्रार्थना सफल हुई तथा भगवान शिव अपनी पत्नी एवं गणों के साथ प्रकट हुए। उन्होंने सामवेद के रूप में नारद को संगीत का संपूर्ण ज्ञान दिया। माना जाता है कि संगीत की अन्य विधाओं के साथ उस समय 36 राग-रागिनियों का जन्म हुआ। जब नारद मुनि ने प्रसाद मांगा तो भगवान शिव ने उन्हें महती वीणा प्रदान किया जो तीनों लोकों में भ्रमण करते नारद की पहचान है। नारद मुनि ने भगवान शिव से एक वचन भी प्राप्त किया कि वे सपरिवार रूद्रेश्वर में रहें। भगवान शिव ने इसका पालन किया और जब से ही वे यहां वास करते हैं।
कोटेश्वर महादेव:
कहा जाता है कि कोटेश्वर में एक कोटि दानवों ने भगवान शिव का तप किया और अपने बुरे एवं संकटपूर्ण जीवन से मुक्ति पाने की याचना की। भगवान शिव ने प्रकट होकर उनकी इच्छा पूरी कर दी। दानवों ने तब याचना की कि उनका नाम अनंत काल तक रहे। बदले में भगवान शिव ने कहा कि उनकी याद में यह स्थान कोटेश्वर कहा जायेगा और वे स्वयं वहां वास करेंगे।
देवी भगवती
चंद्रबदनी देवी:
स्कंद पुराण के अनुसार राजा दक्ष की पुत्री सती का विवाह भगवान शिव से हुआ था। त्रेता युग में असुरों की पराजय के बाद दक्ष को सभी देवताओं का प्रजापति चुना गया इसलिये कंखाल में उसने एक यज्ञ आयोजित किया। चूंकि भगवान शिव ने उसके प्रजापति बनाये जाने का विरोध किया था इसलिये उसने भगवान शिव को आमंत्रित नहीं किया तथा भगवान शिव के घर कैलाश पर्वत की चोटी से सती ने सभी देवताओं को जाते देखा और उन्हें पता चला कि उन्हें आमंत्रित नहीं किया गया है। जब सती को अपने पति के प्रति इस अपमान की बात मालुम हुई तो वे यज्ञ स्थल पर गयी और हवन कुंड में अपना बलिदान कर दिया। जब तक भगवान शिव वहां पहुंचे वह सती हो चुकी थी।
क्रोधित होकर भगवान शिव ने तांडव नृत्य किया तथा अपने गणों को मुक्त कर उन्हें दक्ष का सिर काट डालने एवं सभी देवों को डराने एवं मारपीट करने का आदेश दिया। देवों के समुदाय ने भगवान शिव से क्षमा याचना की तथा उनसे निवेदन किया कि वे दक्ष को यज्ञ पूरा करने की अनुमति दें। फिर भी चूंकि दक्ष मृत्यु को प्राप्त हो चुका था इसलिये एक बकरा का सिर काटकर दक्ष के शरीर पर लगा दिया गया ताकि वह अपना यज्ञ संपन्न कर लें।
भगवान शिव ने सती के शव को हवन कुंड से बाहर निकालकर अपने कंधों पर रख लिया। वर्षों तक वे इसी प्रकार चिंतन एवं क्रोध में घूमते रहे। इस विकट परिस्थिति पर विचार करने के लिये देवताओं की एक सभा हुई क्योंकि वे जानते थे कि क्रोध में भगवान शिव विश्व को ध्वंश करने की क्षमता रखते हैं। अंत में यह तय हुआ कि भगवान विष्णु अपने सुदर्शन चक्र का प्रयोग करें। भगवान शिव को बिना बताये ही भगवान विष्णु ने सती के शरीर को 52 टुकड़ों में सुदर्शन चक्र से काट दिया। जहां कहीं भी भूमि पर सती के शरीर का कोई भाग भी गिरा वह सिद्धपीठ या शक्तिपीठ बन गया। उदाहरण के लिये नैना देवी वहां है जहां उनकी आंखें गिरी, ज्वालपा देवी में उनकी जीभ, सुरकुंडा देवी में उनकी गर्दन तथा चंद्रबदनी में उनके शरीर का निम्न भाग गिरा।
धारी देवी:
यहां के पुजारी पाण्डेय के अनुसार, द्वापर युग से ही काली की प्रतिमा यहां स्थित है। ऊपर के काली मठ एवं कालिस्य मठों में देवी काली की प्रतिमा क्रोध की मुद्रा में है पर धारी देवी मंदिर में वह कल्याणी स्वरूप शांत मुद्रा में है। उन्हें भगवान शिव द्वारा शांत किया गया जिन्होंने देवी-देवताओं से उनके हथियार का इस्तेमाल करने को कहा। यहां उनके धार की पूजा होती है जबकि उनके शरीर की पूजा काली मठ में होती है। पुजारी का मानना है कि धारी देवी, धार शब्द से ही निकला है।
पुजारी मंदिर के बारे में अन्य कथा का पुरजोर खंडन करता है। पुजारी मानता है कि भगवती काली जो हजारों को शक्ति प्रदान करती है, वह लोगों से अपने बचाव के लिये सहायता नहीं मांग सकती थी। पर वह मानता है कि वर्ष 1980 की बाढ़ में प्राचीन मूर्ति खो गयी तथा पांच-छ: वर्षों बाद तैराकों द्वारा नदी से मूर्ति को खोज निकाला गया। इस अल्पावधि में एक अन्य प्रतिमा स्थापित हुई, तथा अब मूल प्रतिमा को पुनर्स्थापित किया गया है।
कालीमठ:
यह कहा जाता है कि भगवान इंद्र तथा अन्य देवताओं ने असुर रक्तबीज को वध करवाने के लिए देवी भगवती को मनाया था। और भगवती उन्हें सफलता का वरदान देने के लिए उनके समक्ष कालि के रूप में प्रकट हुई थीं।
एक दूसरी मान्यता कालीमठ को कवि कालिदास के साथ जोड़ती है। यह माना जाता है कि उन्होंने देवी कालि की आराधना की थी और ज्ञान का वरदान प्राप्त किया था। अनेक साहित्यविदों ने एक गांव कबिल्था की पहचान तक की है और दावा किया है कि यह उनका मूल गांव एवं जन्म स्थान है।
हरियाली देवी:
हरियाली देवी एक सिद्ध पीठ है जो उत्तराखंड के 58 मंदिरों में से एक है। एक किंबदन्ती के अनुसार श्रीकृष्ण की माता देवकी की सातवीं पुत्री महामाया को जोरों से पृथ्वी पर कंस ने पटक दिया था। महामाया के शरीर के कई भाग भूमि पर छितरा गए। हाथ वहीं गिरा था जहां आज हरियाली देवी का मंदिर है।
चंडिका मंदिर:
चंडिका देवी जिन्हें यह मंदिर समर्पित है, वह पास के नंदप्रयाग सहित सात गांवों की ग्राम देवी हैं। गर्भगृह में स्थापित चांदी की प्रतिमा प्रभावशाली है और स्वाभाविक तौर पर महान भक्ति का श्रोत है।
कहा जाता है कि नवरात्र समारोह के दौरान वर्तमान पुजारी के एक पूर्वज को स्वप्न आया कि अलकनंदा देवी की एक मूर्ति नदी में तैर रही है। इस बीच वहां मवेशियों को चराने गये कुछ चरवाहों ने उसे देखा और उसे निकालकर वही पर छिपा दिया। वे शाम तक घर नहीं लौटे तो गांव वासियों ने उनकी खोज की और उन्हें गुफा में छिपायी मूर्ति की बगल में अचेतावस्था में पाया। पुजारी मूर्ति को घर ले गया और फिर उसके बाद एक दूसरा स्वप्न श्रीयंत्र की खोज करने का आया जो मूर्ति को एक खेत में वह शक्ति प्रदान किया। उसने ऐसा ही किया। उसे और आगे यह आदेश मिला कि किस प्रकार मूर्ति के लिये उपयुक्त ढ़ांचे का निर्माण शहतूत की पेड़ की लकड़ी से किया जाय।
कर्ण:
किंबदंती अनुसार आज जहां मंदिर है वह स्थान कभी जल के अंदर था और कर्णशिला नामक चट्टान की नोक की जल के ऊपर उदित थी। कुरूक्षेत्र की
युद्ध समाप्ति के बाद भगवान कृष्ण ने कर्ण का दाह संस्कार अपनी हथेली पर किया था जिसे उन्होंने संतुलन के लिये कर्णशिला की नोंक पर रखा था।
एक अन्य कहावतानुसार कर्ण अपने पिता सूर्य की यहां आराधना किया करता था। यह भी कहा जाता है कि देवी गंगा और भगवान शिव व्यक्तिगत रूप
से कर्ण के सम्मुख प्रकट हुए थे।
यहां अब भी पूजा होती है तथा विष्णु मंदिर की देखभाल चक्रदत्त थपलियाल करते हैं जो पास ही थापली गांव के रहने वाले हैं तथा पांच-छ: पीढ़ियों से इस मंदिर के पुजारी रहे हैं।
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