Author Topic: Sri Nagar: A Religious Place - श्री क्षेत्र: श्रीनगर  (Read 29417 times)

पंकज सिंह महर

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श्रीनगर का जिक्र हो और उत्तराखण्ड के पहले कवि और चित्रकार मौलाराम जी का जिक्र हो ऎसा हो ही नहीं सकता।

गढ़वाल के चार राजाओं ललित शाह जयकृत शाह, प्रद्युम्न शाह एवं सुदर्शन शाह के शासन काल में मौलाराम एक जाना माना कलाकार एवं कवि था। उसके कार्य सामान्य लोगों के पक्षधर होते थे राजाओं के नहीं इसीलिए उसे कई बार राजाओं द्वारा सजा भी दी गयी। गढ़वाल वंश पुस्तक का रचियता भी वही था। वकील मुकुंदीलाल के प्रयास से ही मौलाराम की कृति उजागर हुई एवं आज वे अमरीका के वास्टन संग्रहालय में प्रदर्शित है।

पंकज सिंह महर

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चित्रकारी के लिए गढ़वाल स्कूल

वर्तमान 17वीं सदी के मध्य में मुगल राजकुमार सुलेमान शिकोह ने गढ़वाल में शरण ली। वह अपने साथ मुगल शैली की छोटी चित्रकारी में निपुण दरबारी चित्रकारों, पिता एवं पुत्र को ले आया। ये दोनों उसके जाने के बाद भी यहीं रह गये।

ये चित्रकार श्रीनगर में बस गये तथा गढ़वाल में मुगल शैली की चित्रकारी को परिचित कराया। समय बीतने के साथ इन कुशल चित्रकारों के वंश निपुण चित्रकार हुए तथा उन्होंने अपनी शैली को विकसित किया। इसे ही बाद में गढ़वाली शैली माना गया।

एक सदी बाद एक प्रसिद्ध चित्रकार मौलाराम ने स्वयं गढ़वाली चित्रकला में बड़ी निपुणता ही हासिल नहीं किया बल्कि वह अपने समय का एक महान कवि भी हुआ। इन चित्रकारियों में अन्य पहाड़ी शैलियों का निश्चित ही प्रभाव है पर गढ़वाल शैली को कायम रखा गया है। गढ़वाली विचार की चित्रकारी की विशेषता सुंदर स्त्रियों के पूर्ण विकसित वक्ष, पतली कमर की रेखा, कोमल अंडाकार चेहरा, आकर्षक भौहें तथा पतली नाक है।

राजा प्रद्युम्न शाह (वर्ष 1797-1804) का विवाह कांगड़ा की गुलेर राजकुमारी के साथ होने से कई गुलेरी कलाकार गढ़वाल में रहने आ गये। उनकी शैली ने भी गढ़वाली चित्रकारी को बड़ा प्रभावित किया। आदर्श सौन्दर्य की तथ्यता इसका धार्मिक एवं रोमांचकारी विलय, इसकी कविता एवं भाव का सम्मिश्रण के कारण गढ़वाल चित्रकारी प्रेम के प्रति भारतीय भावना का प्रतीक है।

इस शैली के निपुण चित्रकारों में श्याम दास एवं हर दास शामिल हैं संभवतः राजकुमार सुलेमान के साथ हीरालाल, मंगतराम, मौलाराम, ज्वालाराम, तेजराम एवं ब्रिजनाथ यहां आये। बाद में इस विचार के चित्रकारों ने एक भिन्न शैली अपनायी। ज्वालाराम ने कंपनी स्कूल में इसका प्रयोग किया जबकि तुलसीराम ने 19वीं सदी में यूरोपीय शैली में प्रकृति का चित्रण किया।

गढ़वाली विचार की चित्रकारी में रामायण के उत्कृष्ट उदाहरण (वर्ष 1780), बलराम की जन्मतिथि समारोह (वर्ष 1780) रागिनियों की श्रृंखलाएं, शिव एवं पार्वती, उत्कट नायिका अभिसारिका नायिका राधा के पैर रंगते कृष्ण, आईने में झांकती राधा, वर्ष विहार कालिया दमन तथा गीत गोविंद के उदाहरण शामिल हैं।

गढ़वाल के श्रीनगर के विश्वविद्यालय संग्रहालय में इन चित्रों के संग्रह प्रदर्शित हैं जहां अन्य कई पुरातात्विक खुदाई की कई मूर्त्तियां भी हैं।

 

पंकज सिंह महर

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कमलेश्वर महादेव मन्दिर

भगवान विष्णु द्वारा यहां शिव पूजा के लिये एक कमल पुष्प कम पड़ने पर अपना कमल रुपी नेत्र ही शिव को अर्पित कर दिया था। इसलिये यह कमलेश्वर मन्दिर कहलाया। मान्यता है कि यहां शिव और विष्णु साथ-साथ रहते थे, केदारखण्ड के अनुसार यहां पर राजा दशरथ के पुत्र राम ने शिव की आराधना की थी, जनश्रुति यह भी है कि विष्णु ने अस्त्र-शष्त्र की प्राप्ति हेतु शिव की आराधना की थी और शिव ने प्रसन्न होकर उन्हें सुदर्शन चक्र प्रदान किया था।

पंकज सिंह महर

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कमलेश्वर/सिद्धेश्वर मंदिर

यह श्रीनगर का सर्वाधिक पूजित मंदिर  है। कहा जाता है कि जब देवता असुरों से युद्ध में परास्त होने लगे तो भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र प्राप्त करने के लिये भगवान शिव की आराधना की। उन्होंने उन्हें 1,000 कमल फूल अर्पित किये (जिससे मंदिर का नाम जुड़ा है) तथा प्रत्येक अर्पित फूल के साथ भगवान शिव के 1,000 नामों का ध्यान किया। उनकी जांच के लिये भगवान शिव ने एक फूल को छिपा दिया। भगवान विष्णु ने जब जाना कि एक फूल कम हो गया तो उसके बदले उन्होंने अपनी एक आंख (आंख को भी कमल कहा जाता है)चढ़ाने का निश्चय किया। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें सुदर्शन चक्र प्रदान कर दिया, जिससे उन्होंने असुरों का विनाश किया।

चूंकि भगवान विष्णु ने कार्तिक महीने में शुक्ल पक्ष के चौदहवें दिन सुदर्शन चक्र प्राप्त किया था, इसलिये बैकुंठ चतुर्दशी का उत्सव यहां बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। यही वह दिन है जब संतानहीन माता-पिता एक जलते दीये को अपनी हथेली पर रखकर खड़े रहकर रात-भर पूजा करते हैं। माना जाता है कि उनकी इच्छा पूरी होती है। इसे खड रात्रि कहा जाता है और कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं इस मंदिर पर अपनी पत्नी जामवंती के आग्रह पर इस प्रकार की पूजा की थी।
         
कहा जाता है कि इस मंदिर का ढ़ांचा देवों द्वारा आदि शंकराचार्य की प्रार्थना पर तैयार किया गया, जो उन 1,000 मंदिरों में से एक है, जिसका निर्माण रातों-रात गढ़वाल में हुआ था। मूलरूप में यह एक खुला मंदिर था जहां 12 नक्काशीपूर्ण सुंदर स्तंभ थे। संपूर्ण निर्माण काले पत्थरों से हुआ है, जिसे संरक्षण के लिये रंगा गया है। वर्ष 1960 के दशक में बिड़ला परिवार ने इस मंदिर को पुनर्जीवित किया तथा इसके इर्द-गिर्द दीवारें बना दी।

यहां का शिवलिंग स्वयंभू है तथा मंदिर से भी प्राचीन है। कहा जाता है कि गोरखों ने इस शिवलिंग को खोदकर निकालना चाहा पर 122 फीट जमीन खोदने के बाद भी वे लिंग का अंत नहीं पा सके। तब उन्होंने क्षमा याचना की, गढ़ढे को भर दिया तथा मंदिर को यह कहकर प्रमाणित किया कि मंदिर में कोई तोड़-फोड़ नहीं हो सकता। अन्य प्राचीन प्रतिमाओं में एक खास, सुंदर एवं असामान्य गणेश की प्रतिमा है। वे पद्माशन में बैठे है, एक कमंडल हाथ में है तथा गले से लिपटा एक सांप है। ऐसी चीजें जो उनके पिता भगवान शिव से संबद्ध होती हैं।
 
मंदिर को पंवार राजाओं का संरक्षण प्राप्त था तथा उन्होंने 64 गांवों का अनुदान दिया, जिसकी आय से ही मंदिर का खर्च चलाया जाता था। बलभद्र शाह के समय (वर्ष 1575-1591) का रिकार्ड, प्रदीप शाह के समय (वर्ष 1755) का तांबे का प्लेट एवं प्रद्युम्न शाह (वर्ष 1787) तथा गोरखों का समय प्रमाणित करते हैं कि मंदिर का उद्भव एवं पवित्रता प्राचीन है। आयुक्त ट्रैल ने कोलकाता भेजे गये अपने रिपोर्ट में गढ़वाल के जिन पांच महत्त्वपूर्ण मंदिरों का वर्णन किया था उनमें से एक यह मंदिर भी था।

मंदिर के बगल में बने भवन भी उतने ही पुराने हैं तथा छोटे-छोटे कमरे की भूल-भुलैया जैसे हैं और प्रत्येक कमरे से दूसरे कमरे में जाया जा सकता है जिसे घूपरा कहते है। कहा जाता है कि जब गोरखों का आक्रमण हुआ तो प्रद्युम्न शाह यहीं किसी कमरे में तब तक छिपा रहा, जहां से कि सुरक्षित अवस्था में उसे बाहर निकाल लिया गया। मंदिर के पीछे, का वर्गाकार स्थल का इस्तेमाल परंपरागत रूप से श्रीनगर के प्रसिद्ध रामलीला के लिये होता रहा है।

वर्ष 1894 में गोहना झील में आए उफान से विनाशकारी बाढ़ में शहर का अधिकांश भाग बह गया लेकिन मंदिर को क्षति नहीं पहुंची।

कहा जाता है कि नदी का जलस्तर बढ़ता गया लेकिन ज्यों ही मंदिर के शिवलिंग से स्पर्श हुआ, जल स्तर कम हो गया। अगस्त 1970 में जब झील की दीवाल ढह गयी तो पुन: विशाल भू-स्खलन हुआ लेकिन मंदिर अछूता रहा।

मंदिर के महंथ आशुतोष पुरी के अनुसार मंदिर का प्रशासन सदियों से पुरी वंश के महंथों के हाथ रहा है। यहां गुरू-शिष्य परंपरा का पालन होता है तथा प्रत्येक महंथ अपने उत्तराधिकारी के रूप में अपने सबसे निपुण शिष्य को चुनता है।

 

पंकज सिंह महर

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शंकर मठ

यह पूराने श्रीनगर का एक प्राचीन मंदिर है जो वर्ष 1894 की बाढ़ को झेलने के बाद भी विद्यमान है जबकि इसका निचला भाग टनों मलवे से भर गया। इस मंदिर के निर्माणकर्त्ता पर मतभेद है, पर केदार खंड में देवल ऋषि तथा राजा नहुष का वर्णन है जिन्होंने यहां तप किया था।

   इस स्थान को ठाकुर द्वारा भी कहते हैं। वर्ष 1670 में फतेहपति शाह द्वारा जारी एक ताम्र-पात्र के अनुसार तत्कालीन धर्माधिकारी शंकर धोमाल ने यहां यह जमीन खरीदा तथा राजमाता की अनुमति से यहां एक मंदिर की स्थापना की। मंदिर में एक बड़ा मंडप है और चूंकि इसमें कोई खंभा नहीं है, अत: यह तत्कालीन पत्थर वास्तुकला की खोज का उदाहरण है।

मंदिर का निर्माण पत्थरों के टुकड़ों को काटकर उत्तराखंड की विशिष्ट वास्तुकला शैली में हुआ है। मंदिर की मूर्त्तियां एवं प्रतिमाएं भी सुंदर एवं मनोरम मूर्त्तिकला के नमूने हैं, जो गर्भगृह में लक्ष्मी नारायण, शालिग्राम निर्मित भगवान विष्णु है। दरवाजे पर बंगला, तामिल तथा तेलगु भाषा में शिलालेख हैं, यद्यपि अब ये स्पष्ट नहीं रहे हैं।

 

पंकज सिंह महर

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केशोराय मठ

अलकनंदा के किनारे अवस्थित श्रीनगर में यह सबसे बड़ा मंदिर हैं। शंकरमठ की तरह ही यह पत्थरों के टुकड़ों से बना है जिसका विशाल आकार आश्चर्य चकित कर देता है। वर्ष 1682 में केशोराय द्वारा निर्मित यह मंदिर वर्ष 1864 की बाढ़ में डूबकर भी खड़ा रहा। कहा जाता है कि बद्रीनाथ की तीर्थयात्रा का निश्चय करते समय केशोराय बूढ़ा हो गया था। जब वह इस खास स्थल पर विश्राम कर रहा था तो नारायण ने सपने में उसे वह जगह खोदने को कहा जहां वह लेटा था। उसने जब इसे खोदा तो उसे नारायण की एक मूर्त्ति मिली और उसने इसके इर्द-गिर्द मंदिर की स्थापना कर दी।

इसके ध्वंशावशेष से प्रतीत होता हैं कि मंदिर कितना सुंदर रहा होगा जिसे ढहकर नष्ट होने दिया गया। इसकी छत पर पीपल के पेड़ उग आये हैं। प्रवेश द्वार नष्ट हो चुका है तथा जिस जगह प्रतिमा थी, वह जगह खाली है।

 

पंकज सिंह महर

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जैन मंदिर


वर्ष 1894 की बाढ़ के बाद काफी खर्च कर भालगांव के जैनियों ने मूल पारसनाथ जैन मंदिर  का पुनर्निर्माण किया। मंदिर का निर्माण वर्ष 1925 में प्रताप सिंह एवं मनोहर लाल की पहल पर हुआ तथा श्रीनगर के दांतू मिस्त्री ने प्रभावकारी नक्काशी की। छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देते हुए विशाल प्रवेश द्वार, केंद्रीय कक्ष एवं डंदीयाल या बरामदे का पुनर्निर्माण किया गया। गर्भ गृह में एक राजस्थानी शैली में निर्मित सिंहासन है तथा चौपाये सिंहासन पर मूर्ति विराजमान है। वर्ष 1970 में प्रसिद्ध जैन मुनि श्री विद्यानंदजी यहां आकर कुछ दिनों तक ठहरे थे।

पंकज सिंह महर

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गोरखनाथ मंदिर एवं गुफा

यह एक नाग जाति का मंदिर है जो छोटा पर सुंन्दर मूर्त्तिकला का नमूना है। इसमें पद्मासन मुद्रा में गुरू गोरखनाथ की प्रतिमा है। मंदिर को एकल चट्टान से काटकर बनाया गया है तथा इसे ‘सिद्धेश्वर महादेव मंदिर’ के नाम से भी जाना जाता है।

माना जाता है कि यहां से 2 किलोमीटर दक्षिण गोरखनाथ गुफा में गुरू ने तप किया था। एक छोटे छिद्रनुमा दरवाजे से रेंगते हुए आप उस चट्टान के अंदर प्रवेश करते हैं जो गुफा है। प्रधान गुफा में एक लिंग के साथ अष्टधातुओं से निर्मित एक गुरू गोरखनाथ की चरण पादुका है। सुंदर मूर्ति गुफा में नक्काशी एवं उपलब्ध तांबे के पात्र सभी इस पूजास्थल के प्राचीन होने का दावा करते हैं। मध्य एवं दक्षिणी गढ़वाल में यह सबसे महत्त्वपूर्ण गुफाओं में से एक है।

गुरू गोरखनाथ ने इसी जगह तपस्या की थी तथा इसी गुफा में उन्होंने समाधि ली थी। एटकिंस के अनुसार यह गुंबज वर्ष 1667 में निर्मित हुआ पर पुजारी के पास संरक्षित तांबे की तश्तरी पर खुदाई के अनुसार इसका निर्माण वर्ष 1677 में हुआ और समाधि का पुनरूद्धार किया गया। गुफा की बाहरी दीवारों पर शिलालेख पढ़े जा सकते हैं।

       कहा जाता है कि स्कंद पुराण के केदारखंड में वर्णित त्रियुग नारायण के गोरख आश्रम का जाड़े का आवास यहीं था। यहां संरक्षित एक तद्पात्र के अनुसार यहां कल्पद्रुम्न यंत्र उपलब्ध है, जिसका पाठ करने से मुक्ति प्राप्त होती है।

प्रधान गुफा तीन मीटर लंबा तथा दो मीटर चौड़ा है। आंगन में चार खंभों वाला एक चबूतरा है जिस पर वर्ष 1812 की लिपि खुदी है। यहां फतेहपति शाह द्वारा बालकनाथ योगी को दिया एक तांबे का पात्र भी संरक्षित है। निकट ही एक झरना है जिसे भीन कहते हैं, जो नाम गोरखनाथ से संबद्ध है।

 

पंकज सिंह महर

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हिमालयी पुरातात्विक तथा मानवीय विद्या संग्रहालय
हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय, श्रीनगर के इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग ने वर्ष 1980 में अपने संग्रहालय की स्थापना एक सृजनात्मक केंद्र के रूप में की जो हिमालयी विरासत परंपरागत लोक हस्तकला एवं कला के साथ-साथ भूत से वर्तमान तक की जीवन शैली की विभिन्न अनुरूपों को प्रोत्साहित एवं संरक्षित करेगा। हिमालयी पुरातात्विक एवं मानव विद्या संग्रहालय, आनुसंधानित तथा खुदाई में पाये गये पुरातात्विक शिल्प तथ्य, टेराकोटा (मिट्टी के) उपकरण, बर्तन, मूर्त्तियों तथा मध्य हिमालय क्षेत्रों के पुरावशेषों आदि को प्रदर्शित करता है। यहां हस्तलिपियों, भाषाओं, चित्रों पत्रिकाओं, समाचारपत्रों, स्थानीय रिकार्डों आदि को भी रखे जाते है। संग्रहालय में एक परिपूर्ण ग्राफिक एवं फोटो प्रभाग भी है जहां मंदिरों, मूर्त्तिकलाओं केंद्रीय हिमालयी क्षेत्र के आनुसंधानिक एवं खुदे, स्थलों के फोटो, नक्से तथा स्लाईड बड़ी मात्रा में संगृहित हैं।

 


 

हिमालय की पुरातात्विक एवं इथनोग्राफी संग्रहालय
संग्रहालय में निम्नलिखित प्रभाग हैं:

इतिहास-पूर्व, मध्य-ऐतिहासिक तथा ऐतिहासिक उपकरण

दफन-बर्तन एवं मूर्तियां

पत्थर एवं धातु की मूर्तियां

लघुचित्र, पांडुलिपि तथा तांबे के पात्र

भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में गढ़वाली योगदान

हस्तकला एवं अन्य शिल्प

विविध शिल्प
 

पंकज सिंह महर

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किलकिलेश्वर महादेव

अलकनंदा के विपरित किनारे पर श्रीनगर से छ: किलोमीटर दूर।
मंदिर के महंथ सुखदेव पुरी के अनुसार, मंदिर से संबंधित एक अन्य बात यह है कि अपने वनवास के पांचवें वर्ष अर्जुन ने इसी स्थान पर भगवान शिव की आराधना की थी। वह भगवान शिव का निजी अस्त्र पाशुपात प्राप्त करना चाहता था, जो इतना शक्तिशाली था कि किसी भी अन्य अस्त्र को निष्प्रभावी कर सकता था। अर्जुन ने लंबे समय तक तप किया। उसके तप से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उसके सामने एक धृष्ट शिकारी के रूप में प्रकट होकर उसे ललकारा।

दोनो में घमासान द्वंद हुआ। अर्जुन परास्त होकर शिकारी को पहचान लिया और भगवान शिव के पैरों पर गिर गया। इसके बाद भगवान शिव ने उसे पाशुपात का ज्ञान दिया। जंगल में इर्द-गिर्द छिपे किरातों के बीच किलकिलाहट हुई और किलकिल शब्द पर ही मंदिर का नाम पड़ा।

इस मंदिर का शिवलिंग पुराना है जबकि मंदिर नवनिर्मित है।

 

 

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